28 दिसंबर 2011

मई महीने की वह रात एबटाबाद को लौटा लौटा दो.

इस बरस का पुल, नदी, चप्पल और विज्ञान-तीसरा भाग
चन्द्रिका
उसे पड़ोसी मुल्क में जब पकड़ा गया और मारा गया तो एक पूरा का पूरा मुल्क तोहमत को सिर पर बांधे घूमता रहा कई दिनों तक पर उसका क्या जो रोज-बरोज दुनिया के सभी अपराधों को रुमाल बना उसमे अपना हांथ पोछता है. यह कहना जुर्रत जैसा होगा कि दुनिया के सबसे बड़े आतंकी ने कट्टर धार्मिक आतंकी को समुद्र की किसी अतल गहराई में फेंक दिया और उसकी लाश अपनी जर्जर लम्बी हड्डियों के साथ अब भी तैर रही है किसी खाड़ी से टकराती हुई. हमे ढूंढ़ कर उन पसलियों से बात करनी चाहिए. उसकी मौत का अभी तक लोगों को यकीन नहीं हुआ कि एक आदमी जो आदमी से ज्यादा नाम था और नाम से ज्यादा एक फैलाए गए आतंकी झूठ का खौफ वह पानी की लहरों में इतनी जल्द कैसे द्फ्न हो गया. उसकी सजायाफ्ता के लिए कई मुट्ठियां तनी और सारे मानवाधिकार रक्त रंजित होकर दुनिया के लोकतंत्र में दुबके रहे. चाय की गुमटियों पर लोग अब भी बात करते हैं कि एक दिन वह अचानक निकलकर आयेगा और किसी टीवी चैनल पर कहेगा कि ये लो मैं जिंदा हूं और बाराक ओबामा को इराक और अफगान के खून और पानी से सना एक साल दे आओ और मई महीने की वह रात एबटाबाद को लौटा लौटा दो. इस बरस भी नहीं रुकी वह जंग जो छेड़ी गयी थी आतंक के खिलाफ और अब तो फर्क ही मिट गया है कि आखिर किसे क्या कहें. जंग छेड़ने वाले हमेसा न्यायप्रिय नहीं होते. भरोसे जैसे शब्द जब अपनी अर्थवत्ता खो चुके हैं पिछली ही सदी में तो वह क्या है जो अभी भी दिलासा दिये जा रहा है किसी गैर को. आतंक का कोई चेहरा ऐसा नहीं होता जिसे अपनी हथेलियों पर रख कर तुम कह सको कि लो ये रहा आतंक और अब इसे खत्म कर दो. वह अफगान की पहाड़ियों से ज्यादा न्युयार्क की गलियों में मिल सकता है, वाल स्ट्रीट के किसी भी नम्बर की सड़क से निकलकर वह वह तय कर सकता है जमीन के किसी भी टुकड़े को जमीदोज करना और उसे ढूंढ़ने के लिए किसी यंत्र की जरूरत नहीं पड़ेगी. कई सालों तक लोगों के ज़ेहन में जो खौफ था क्या उसे अफगान की पहाड़ियां ढंक सकती थी? दुनिया का सबसे बड़ा आतंकी लादेन ही नहीं हो सकता हमे उनके चेहरे पर गौर करना चाहिए जो आतंकियों की फेहरिस्त तैयार कर रहे हैं, पिछले कई सालों से और हर रोज जंग की तैयारियों में जुटे हैं. जबकि यह फेहरिस्त बढ़ती जा रही है उनकी सरहदों की तरह.
अपने समय की सारी बहसों को किताबें नहीं लोगों की स्मृतियां समेटती हैं और सारी स्मृतियों की मुकम्मल किबात का छपना हर बार बाकी रह जाता है. शहर अपने मुड़ेड़ों से झांकते हैं और कंक्रीट की दीवारों सड़कों के साथ घर कर जाते हैं हमारी आंखों में. हर रोज एक शहर भूल जाता है उनके पैरों के निशान. जो किसी मासूका की तरह दाखिल हुए उसकी धड़कन में और मुड़ गए चुपचाप उधर जिधर चौराहे की भीड़ खत्म होती है उनकी तरफ हमे अपनी गर्दने मोड़नी चाहिए. उसकी रोशनी में कुछ परछाईयां थी जो चलती रही फुटपाथों के सहारे और एक आदमी भूख को अपनी देह से लपेट कर देर रात गए लेटा रहा चुपचाप. कोई नहीं जानता शहर की तकलीफों में किस जगह पर लिखा जाएगा उसका नाम, लिखा भी जाएगा या सदियों से वह अलिखित ही रहेगा. स्ट्रीट लाइटों की रोशनी में जो चमक रहा था चेहरा उसके भीतर की उदासी लिखी हुई है उसकी पीठ पर. एक औरत जो मुस्करा रही है कांच की दीवारों के सामने खड़ी होकर अपने चेहरे की झुर्रियां छुपाए, उसी में दबी पड़ी है उसके घर की कलह. इन बाजारों में कोई कुछ भी खरीदे पर वह सब कुछ हमारे समय की खुशी है कि हम खुशियां खरीद सकते हैं और बेंच सकते हैं अपना सारा बाहरी दुख. वह अकेला बूढ़ा पेड़ शहर के इतिहास को लिख रहा है अपने पत्तियों और साखाओं में, जिसमे पिछले कई सालों की दरारे पड़ गयी हैं. दरारें जब भी पड़ती हैं, जहां भी पड़ती हैं एक युद्ध की विभीषिका लिखती हैं. बाजार में हर पुराना पेड़ शायद किसी युद्ध की विभिसिका लिखने खड़ा है. दस्तावेजों और टिन के लगे बोर्डों से यदि मिटा लिए जाएं शहर के नाम तो कितना कम बच पाएगा कोई शहर अपने वजूद के साथ. हर शहर में कुछ ऐसा बचा लेता है एक बूढ़ा समय कि शहर को छूकर कह सके कोई भी कि आ गया वह शहर जहां तीसरे नम्बर की गली में आखिरी छोर की मजार पर पड़ी चादर पुरानी पड़ चुकी है और उसे बदलने की जुर्रत किसी में नहीं बची भले ही गोधरा को गुजरे कई साल बीत चुके हों. गुजरात के बारे में जो आप सोच रहे हैं, वह गोधरा जैसा नहीं है. वह एक गुजरी हुई रात है जिसे गुजरात अपने नाम के साथ हमेशा जज्ब किए रहेगा. न्यायालय के फैसलों से बरी हुआ कोई भी मुल्जिम उन रातों की आंख से रिहा नहीं हो सकता. उपवासों की श्रृंखला से कोई भी हत्या पवित्र नहीं हो सकती. देश में जब गुनाहगारी पेशा बन जाए तो न्यायालयों को अपनी पेशा छोड़ देना चाहिए, इसे घड़ी की सूइयों से अलग चल रहा समय कह सकता है. कौमों से अलग एक इंसानी दुनिया अपनी नजरों से हर रोज एक गुनहगार को सजायाफ्ता करती रहती है. हमारे देश में तमाम गुनाहों की सजाएं लोगों की आंखें देती हैं.

2 टिप्‍पणियां:

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