28 दिसंबर 2011

एक सड़क किससे मिलना चाहती है अपने आखिरी छोर पर

इस बरस का पुल, नदी, चप्पल और विज्ञान- पांचवा भाग
चन्द्रिका

गरीबी एक मौसम की तरह घिरी रही और ठंड में ठिठुरता रहा पूरा बदन. सबसे नाजुक समय इंसान की जिंदगी में इतनी सदियों बाद आये कि उसे याद ही नही रहा सिहरन में दांत का किटकिटाना और बारिस में भीगकर सूखा हो जाना. खुली आलमारियों में पड़ी रही किताबें और रिसता रहा एक पीढ़ी भर का घाव उनके पन्नों से और उसे देखकर कोई भी नहीं चीखा. हम जानते रहे उनके भूख का कारण, हम शांत करते रहे उनका क्रोध अपनी संवेदना और तलवार से या बंदूकों से निकले धुंए की महक घुसती रही नथुनों में और वह बगैर किसी तड़प के जीता रहा ताउम्र अपनी जिंदगी. भूख को पानी में मिलाकर कितनी कितनी बार पिया कितने कितने लोगों ने और वह रेंगती रही धमनियों के बीच. चुप्पियां खाता रहा हमारा क्रोध और विस्मृत होती रही पुरानी यातनाएं जाने किस आश में. सत्ताओं के जो फरमान आये वे इतने बेस्वाद और बासी हो चुके थे कि जीभ ने कुछ भी खाने से इनकार कर दिया. लोग बिस्तरों पर पड़े रहे और वह मौसम के इंतजार में उसके साथ वह खड़ी रही दरावाजे के बाहर दीनता के स्वर में अलाप करते हुए. रोटियां जिन्हें साभ्यतिकता के साथ मामूली चीज हो जाना था हर किसी के लिए वे हमारे समय का दुख बन कर हमे चिढ़ाती रही. गरमी के दिनों में एक रेगिस्तान से दूसरे रेगिस्तान तक सबसे ज्यादा पसरी रही धूप और चिलचिलाती रही भूख हमारे अंदर ही छांव में बैठकर.

सड़क जो गुजर रही है और फैल रही है नसों की तरह पगडंडियों में वह जाने कहां उतर जाएगी समय की गहराई में. सड़कें जाने किसके लिए चली जा रही हैं अपनी रीढ़ की हड्डियां फैलाए और शायद आखिर में उनकी मुलाकात होती होगी उससे जिनसे वे मिलना चाहती हैं या नहीं मिलना चाहती. शायद वे कभी मिल पाती होंगी उससे जो उनके इंतजार में बैठा है चारपाई के सिरहाने. आखिर एक सड़क किससे मिलना चाहती है अपने आखिरी छोर पर, किसी शाम क्या कोई बतियाता होगा सरपतों के झुरमुटों के बीच सड़क से. सड़कों की बातें आदमी लोगों की बातों जैसी सरल नहीं होती उनमे एक फुटपाथ का खुरदुरापन होता है. सड़कें वायदा नहीं करती किसी के साथ चलने का और हर आदमी जब अकेला चल रहा होता है सड़क भी चल रही होती है उसके चेहरे के भावों को देखते हुए.

पहाड़ों ने छिपा रखा है धरती के इतिहास का खालीपन, सबसे ज्यादा समतल पर खड़े हैं पहाड़ एक गोल पृथ्वी में कहीं कोई समतल नही और एक घास दबी हुई है उसके तलवों तले. पहाड़ की ऊंचाई से कोई पुकारता है सुबह की लालिमा में और एक ढलान से निहारता है दृष्यों का समूह. खोजो तो डायनासोरों के पद चिन्ह अब भी मिल जाएंगे पहाड़ों की खोह में भले ही अब वे बौने हो गए होंगे और दुर्दिन रातें याद करेंगी अपने सबसे काले चेहरे वाले समय को. इस सदी में कठोर होना पहाड़ों से ज्यादा किसी आदमी या प्रेम प्रसंगों में आए कथन से सीख सकता है कोई कि पहाड़ अब उतने कठोर नहीं रहे. सबसे कोमल नदियां इन्हीं की ऊचाइयों से निकली. वहां संवेदनाएं रिसती हैं किसी तरल पदार्थ की तरह. इस बरस आसमान से बात करते हुए रोया था एक पहाड़ और नदियों की सिथिलता में हलचल सी मच गयी थी. यहां हर ऊचाई पर एक सुराख है जिसमे कोई रोशनी नहीं होती बस काली आंखों से झांकता है एक खोह कि दुनिया कितनी मिटती जा रही है और यह जो बचा है उसे आखिरी बार छूने के लिए एक दिन झुकेगा पहाड़ और चूमेगा पृथ्वी को.

ये स्कूल से जो बच्चे निकल रहे हैं अंक गणित के अक्षरों की तरह उन्होंने बहुत कम सीखा है समय का गुणा-भाग. एक बुजुर्ग अनुभवी गणित के सारे सूत्रों को अपनी यादास्त के सहारे लिखता है रोज और मिटाता है जिन्दगी के सहज तजुर्बों से. एक दिन सब उतनी गणित सीख जाएंगे जितना जरूरी है और गिनती उल्टी गिनी जानी शुरु हो जाएगी. आदमी की आंख को पढ़ने के लिए जिस साहस की जरूरत है वह हम हार चुके हैं. मिड-डे मील के घोटालों की तरह इस देश के बच्चों की भूख भी छुप जाएगी किसी फाइल में. हर बीतते बरस के साथ बीतती जाती है एक बच्चे की उम्र और बढ़ता जाता है आदमी की स्मृतियों का इतिहास. बच्चों के बारे में समय से शिकायत करता है भय कि आने वाली पीढ़ीयों के लिए गुजरा हुआ साल एक आख्यान की तरह होता है जिसमे कोई बोलता जाता है और कोई नहीं सुनता. जब एक ही समय में दुनिया के लाखों बच्चे उठते हैं और चल देते हैं इतिहास के आखिरी पन्ने की ओर तब कोई नहीं जानता कि जो सबसे ज्यादा भूखा था उसके ही उदर से निकल आई थी सभ्यता के बदलाव की लड़ाई.

रात घिरी हुई है, कि घिर रहा है अंधेरा सदियों से और देशों के मुंह का रंग काला पड़ चुका है. आसमान के रंग में दुनिया के तमाम देशों के मुंह की छायाऐं हैं. हर बरस कोई निकलता है उजाले की तलाश में और घायल होकर लौट आता है सिर्फ एक संस्मरण उसके अपनों के बीच. अंधेरे में टहलता है कोई निर्भीक अपनी प्रतिमाओं को अपनी ही पीठ पर टांगे. चंद लोग खोजते हैं एक अदद रोशनी के सहारे वह हांथ जिसकी मुट्ठियों में बंद है मुक्ति की सरहदें और सरहदों के पार से कुछ लोग पुकारते हैं रोज, उन अदना जिंदागियों को जिनमे चलने की ताकत कम और साहस ज्यादा बचा है. यह जो रह-रह कर उठती हैं चीखें अलग-अलग इलाकों से वे कभी नहीं मिल पा रही एक साथ कि इससे पहले ही वह सुन लेता है जिसे नहीं सुनना था और इंतजार में गुजर जाता है एक और साल. हर घर के दीवारों की खिड़कियों से झांकता है एक चेहरा और अंधेरा पोत देता है अपनी कालिमा की एक चुटकी राख उस चेहरे पर. धुने जो संगीत की तरह सुनाई पड़ती थी उनमे बस केवल शोर बचा रह गया है और उस शोर के सहारे कुछ लोग खिंचे जा रहे है आज भी किसी दीवार को तोड़ उसके पार जाने को. देश का सिनेमा लाता है कुछ तस्वीरें और हर नागरिक ठठाकर हंस देता है किसी बलात्कृत महिला को अधनंगा देख.

1 टिप्पणी:

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