28 दिसंबर 2011

एक दिन लौट आएगी वह रेलगाड़ी.

इस बरस का पुल, नदी, चप्पल और विज्ञान- सातवा भाग
चन्द्रिका


इस बार बाबा का बुढ़ापा पिछले बुढ़ापे से ज्यादा था और ज्यादा थी उनकी तनहाइयां. देश में यह जनगणना और जनसंख्या के बढ़त का साल रहा पर बुजुर्गों को एक अदद आदमी की तलाश और तलब आज सबसे ज्यादा है और लोग बहुत-बहुत कम हैं. इस बरस जब 7 अरब गिनी गयी दुनिया की आबादी तो कई इलाके अपनी वीरानी से हैरान थे और एक बूढ़ा इसी इलाके का बासिंदा बना. बूढ़े हर बार चुन लेते हैं वीरानियां घरों, शहरों और देशों की. इन बुजुर्गों के अनुभव को भारत सरकार का कोई आंकड़ा खारिज नहीं कर सकता कि रोज बरोज घट रहे हैं लोग, वह जो बढ़ रहा है वह कुछ और ही है जिसको शब्द दिया जाना इस साल भी बाकी रह गया. बूढ़े लोग हमे पिछले सालों में ले जाते हैं और जीवित मनुष्यों के सबसे सुखद स्वप्न को धर देते हैं हमारे कंधे पर. किसी पेड़ की खोह की तरह धंसी हुई आंखों में हाल के बरसों में कोई खुशी नहीं आयी, वे दुखी हैं कि सब कुछ पाने के बाद भी उन्हें जो पाना था, जिसे वे मौत के पहले इंसान होने की गरिमा जैसा दोहराते वह नहीं मिला.

इस बरस रेल दुर्घटनाओं में जो मारे गए वे सब एक दिन लौट आएंगे, एक दिन लौट आएगी वह रेलगाड़ी जिसमे गुम हो गया एक लड़की का प्रेमी. वे सब लौटेंगे किसी रेलगाड़ी से बेनाम टिकटों के साथ. वे एक असफल यात्री थे जो नियती की नहीं दुर्घटनाओं की भेंट चढ़ गए. सरकार ने उनके मौत की कीमतें अदा कर दी, जो कोई भी ईश्वर नहीं कर सकता क्योंकि वह बगैर पैसे का है और जी रहा है वर्षों से इंसानी भोगों के सहारे. क्या हमे फख्र करना चाहिए कि हमारी सरकार हम सबकी हत्या या मौत की कीमतें अदा कर सकती है, यदि वह चाहे तो. हमे खुश होना चाहिए कि हम इस साल एक बड़ी संख्या में बचे रह गये और अपनी खुशियों से उतनी हंसी घटा देनी चाहिए जितनी हत्याएं इस बरस हो चुकी. खाप पंचायतों की तयशुदा हत्याएं अगले बरस दुहराने की तैयारियां सी हैं.



तमाम खाप पंचायतों के बाद भी वे हर रोज मिलते हैं किसी पगडंडी पर, थोड़ा रात ढले और तब वे किसी खाप पंचायत की बात नहीं करते. देर तक चुपचाप बैठे रहते हैं और भींचकर चूम लेते हैं एक दूसरे को और शायद सारी कायनात की उम्र के लिए बस इतना सा ही जीवन काफी है. जीवन को समय की क्षुद्रताओं में नहीं छड़ भर की उद्दात्त भावनाओं में नाप लेना चाहिए. जीवन को एक पतली गली में गुजार देना चाहिए जहां गुजरते वक्त दो लोगों के कंधे सट जाते हों और आदाब कहे बिना भी वे निकल जाते हों मुस्कराते हुए. संवेदनाओं के साथ सबसे बड़े संघर्ष की कहानी आज भी यहीं जिंदा है, ये मुहल्ले हर शहर के आखिरी कोनों पर मिल जाएंगे बगैर किसी सजावट के. जमीन बदल रही है अपना रंग और धूप की आकाश में खिल रहा है इंद्र धनुष सा कुछ हर रोज, हर दिन और हर बरस. सबको अपने अपने रंग अपनी अपनी आंखों में उतार लेना चाहिए यहीं से.



यह कश्मीर नहीं सोपियाओं का देश है जिनके लिए इस बरस कोई नहीं चीखा और वे खामोशी से खामोशी में द्फ्न हो गयी. उत्तर पूर्व सिर्फ हमारे देश के नक्शे में और देशभक्ति के नाम पर जज्बाती करतबों में ही बचा रहा. हमने नहीं लिया उनका कोई हाल कि अब बरसों से भूखी एक महिला को कुछ भी खाने की जरूरत क्यों नहीं रही. इस नवम्बर की तारीख भी बीत गयी जैसे बीत गया सन 47 के पहले का कोई दिन. सरकारी फाइलों में हत्या के साथ बची मनोरमा नाम की लड़की अभी दिल्ली के किस गली में कौन से मकान में घूम रही है. किसी मौत के बाद यातनाएं देने वाले के ज़ेहन में क्यों नहीं बची र्ह जाती. जिन्हें गैरवाजिब लड़ाई कहा जाता रहा उसमे लोग अपनी जिंदगियां इतने सस्ते में क्यों कुर्बान करते रहे. इस साल हम अपने देश के इतने बड़े लोकतंत्र से सिर्फ लोक बचा लेते, उसे रख देते चुरा कर कहीं उनसे जो चुन रहे हैं खालिस लोक को तो कामयाब इतिहास के पन्नों में यह दर्ज हो जाता. पर हम तंत्र को बचाने में लोक के बचाने का यंत्र खराब कर दिए. अगले बरस हम बचाएंगे कुछ और चुकाएंगे पिछले बरस का कर्ज. मणिपुर में एक पत्रकार जिसे सलाखों के पीछे भेजा गया सुनने में आया कि वह देर रात तक अंधेरे में हंसता रहा सिर्फ इस बात पर कि वह एक लोकतांत्रिक देश में है और उसे न्यायाधीश के सामने उसी सच बोलने की शपथ खानी पड़ रही है जिसे बोलकर वह इन शलाखों में पहुंचा है. तो क्या उसे झूठ जैसा कोई सच बोल देना चाहिए था. उसने जाना कि इस सदी में सच की जुबान बहुत छोटी हो चुकी है और उसकी आवाजें एकदम बेस्वाद. सच बोलना किसी एहतियात बरतने जैसा है.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें