16 अप्रैल 2011

मणिपुर एक तिरछी गड़ी वर्णमाला है राष्ट्र के कलेजे में

समय बीमार आदमी की नब्ज की तरह चल रहा है, कि देश में रोज कुछ बदल रहा है सिवाय इसके कि देश की सेहत ही खराब हो गयी है. कि उसे रोटी और आज़ादी चाहिए थी और बदले में वर्दी, बूट और कानून पकड़ा दिये गये. उसे जिंदगी चाहिए थी और उनका साथ भी जो विश्‍वविद्यालयों के बाहर मारे गये, मौत के पहले उसे मनोरमा को अपने देश में निश्‍चिंत सोते हुए देखना था उसी आंगन में जहाँ से वे उसे उठा ले गये और फिर वह कभी नहीं लौटी, और उसकी पूरी उम्र जीते हुए भी उसे देखना था अधूरी ख्वाहिशों और १० साला लम्बी भूख के बगैर पर कुछ न हुआ, जो होना था.......मृत्युंजय की यह कविता शायद थोड़ी सी चुभ जाए, इस देश के लोकतंत्र के कलेजे में, उतनी कि आफ्सपा जैसी मवाद निकल जाए- माडरेटर.


संसद चलती रही दस साल

दस साल चलती रही विधानसभा
कंपनियों ने नए किस्म के पिज्जे तैयार किये
पेप्सी और कोक ने मरोड़ दी गर्दन
आये नए सुवाद भरे चमकीले
केंटुकी चिकन और बेहूदा बर्गर
स्वाद सब बंद हुए पाउच में.

दस साल का वक्त आजकल बहुत वक्त होता है
किसी ग्लोबल गाँव में !

प्यारी इरोम
तुमने कुछ खाया नहीं
तुम्हारी जीभ को जंग लग गया होगा
सिर्फ नारे लगा-लगा थक चुकी होगी जुबान
सो गयी होंगीं आंत
शांत मत रहो ऐसे
मेरी प्यारी
ज़रा हंसो, मुस्कुराओ तो सही

मणिपुर एक तिरछी गड़ी वर्णमाला है राष्ट्र के कलेजे में
तिर्यक आखेटकों के भेजे में
फंसी हुई हूक
नेजे की तरह चुभती.
मैं अपनी पलकें
तुम्हारी सपनीली आँखों के रास्ते में बिछा कर
थोड़ा रोना चाहता था
तुम्हें मंज़ूर है ये ?

तुम्हारे घर में कौन-कौन है?
भाई? बहन? अम्मी? अब्बू?
चाय के झुरमुटों बीच सीधी रेखाओं में निहाँ कोरस?
तुम्हारे पड़ोस में कौन रहता है?
कितने हत्यारे हैं तुम्हारे मोहल्ले में
जिन्हें आजकल 'ज़वान' कहते हैं लोग.
उनकी गश्त का वक्त क्या है?
कितने बजे नहीं रहते वे?
हम कब मिल सकते हैं?

सौ सालों बाद तुम हो कि वही हो
सौ जनम बाद, शायद सौ शताब्दियों बाद
तुम हो बिना नली लगाए
अपनी उस नाक के साथ
जिसका सुघरापन मुझे बेहद पसंद है.

इरोम
तुम्हारे घर के चारो तरफ लाशें बिखरी पड़ी हैं आईनों की तरह
तुम्हारी सखी मनोरमा सात पुरुषों के नीचे से चीख रही है इरोम
इरोम
दिल्ली बहरे कातिलों और पागल हत्यारों और दोगले कवियों और नीच बाबाओं और गोरे बलात्कारियों से भरी हुई है
तुम किससे जिरह कर रही हो!

हज़ार फुट की गहराई वाले वाले अपने घर से निकल
लाख फुट निचाई वाले इस रौरव नरक में
तुम आई क्यों?
तुम पागल
बेवकूफ तुम

दस साल में कोई दस दिन ऐसे नहीं थे
कि दुनिया का कुछ बिगड़ पाता, बन पाता
आमरण अनशन की दो पंचवर्षीय योजनायें
बाबा साहेब को हाज़िर-नाज़िर जानकर
पंडित नेहरू को श्रद्धांजलि स्वरुप

शैतानी कानूनों की इजाज़त बख्शते इस
संविधान का क्या करूं मैं?
अब इन संवलाए खेतों में कोई धान नहीं है जिसे इसके वरक पर सुनहरे अक्षरों की जगह चिपका सकूं मैं
इरोम, कहाँ गयीं तुम?

सात जन आये
सात के सैंतालीस से लैस
शासन में बैठे सत्तर फीसदी
सैंतालीस के नुमाइंदे
सो जाओ संभ्रांत बुज़ुर्ग संतों-कवियों
सत्य की कब्र में
ज़ब्र का हाथ थाम
सात जन आये
लांग बूट, फेल्ट कैप
लोहे का छल्लेदार नोकदार ट्रैप था पंजों में
होठों से नीचे सीधे चीरते चले गए
सात नौज़वान स्त्रियों की लाश है मणिपुर
चीथी गयी रौंदी गयी
भूखी
सूखी हड्डियों वाली
सीधे बालों और नन्हें मज़बूत हाथों वाली लाश
जिनके दफ़न के लिए एक गज ज़मीन पूरे हिन्दुस्तान में नहीं बची है.

दस थीं महिलाएं
और एक तुम थीं, ग्यारह
दिगंबर. बेख़ौफ़. करुणा से सीझी हुई.
जिस्म की सारी हरकतें सिमट आयीं
पगलाई गहरी उन आँखों में.
नंगे थे हुक्मरान फौजी क्रूर,
लम्पट पुंसत्व का गलीज ठाठ-बाट
घाट-घाट ह्त्या
मस्तक को छेदता भीषण अपमान

हत्यारे
सखि मनोरमा के घर पहुंचे थे
क्या था वध-उत्सव
सब कोई मारे गए
ज़िंदा धमनियों में नश्तर उतारे गए
संगीनों कतरी गयी
चाय की नन्ही सी छोटी
मासूम शाख
भाई जो भाग रहा, पीठ पर लगी गोली
भहराकर गिर गया

दस साल सलवा जुडूम
किरकेट की बूम-बूम
खून-खून दस साल
दस साल झील डल
लोहू से भल्ल- भल्ल
दस साल सोपिया
दस साल मनोरमा
दस साल लंबा हत्या-अभियान
सत्ता के दशानन का यह रण संधान
दस साल, अनशन के दस साल

दिल्ली के जंगल में कहाँ गयी मेरी प्रिय
सात बहनों में सबसे छोटी इरोम!
जिद्दी, बातूनी और हडबड़ सी पुतली
तुम्हारे पहाड़ तुम्हारे लिए चीख रहे हैं मस्तक झुकाकर
बांस के लम्बे दरख्त सर पटक रहे है एक-दूसरे के कन्धों पर

मैं तुमसे प्यार करता हूँ इरोम
जितना कर सकता हूँ मैं
तुम्हारे दोनों होठों को चूम लेना चाहता हूँ मैं
जब तुम अपनी अनंत भूख हड़ताल से उठो तो
पपडियाये होठों के नीचे दफ़्न मुस्कराहट
का सुकून

...मी...

सम्पर्क:-mrityubodh@gmail.com

3 टिप्‍पणियां:

  1. वीरेन्द्र यादव19 अप्रैल 2011 को 2:58 pm बजे

    बधाई.अत्यंत विचारोत्तेजक कविता है.मुक्तिबोध और धूमिल की कई कविताओं की याद ताजा हो आई.ध्यानाकर्षण के लिए आभार.

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  2. बधाई! मुझको तो झकझोर गई यह कविता. इस कविता को खूब प्रचारित प्रसारित करने की आवश्यकता है,ताकि चार दिन के अन्ना के अनशन से पगलाए लोग जान सकें की कोई 'इरोम' है जो अन्ना से कई हज़ार गुना महान है.

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  3. जैसे कोई नश्तर पार हो गया सीने से ऐसे गुजरी है ये कविता...

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