14 अप्रैल 2011

समकालीन विस्थापन-विरोधी संघर्ष और स्त्री प्रतिरोध: एक विवरण


-शोमा सेन (अनुवाद: दिलीप खान )

(माओवादी आंदोलन के साथ निर्मित हो रही
समतामूलक व्यवस्था स्त्री अधिकार के प्रति कहीं अधिक संजीदा है. दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में प्रो. शोमा सेन द्वारा प्रस्तुत इस पर्चे से गुजरते हुए आप इसे महसूस कर पाएंगे. स्त्री गर्जना पत्रिका में प्रकाशित लेख को यहां अविकल रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है.)


विकास के वर्तमान मॉडल से महिलाओं के अपवर्जन को पितृसत्ता से पोषित होने वाली व्यवस्था में अंतर्निहित समझा जाना चाहिए. श्रम के लिए संचित बल के तौर पर महिलाओं के देखे जाने के कारण उन्हें आर्थिक गतिविधियों से काट कर रखा जाता है तथा सामाजिक पुनरुत्पादन में उनकी भूमिकाओं को नज़रअंदाज किया जाता है. पुरूषवादी, पूंजीवादी व्यवस्था अधिकांश महिलाओं को घरेलू और बच्चों के देखभाल के कामों तक सीमित रखती है और इसका इस्तेमाल वे मज़दूरी कम करने में करती है. आर्थिक गतिविधियों में महिलाओं की सीमित भागीदारी भी उनके पारंपरिक जेंडर भूमिकाओं (नर्सिंग, शिक्षण, या ऐसे श्रम केंद्रित काम जिसमें धैर्य और सूक्ष्म कौशल की ज़रूरत हो) का ही विस्तार है, जिसमें मज़दूरी लैंगिक भेदभाव पर आधारित है. महिलाओं में अधिकांशतया असंगठित क्षेत्र का हिस्सा होने, श्रम क़ानून की सुविधाओं से वंचित रहने और जीवन के कई आयामों के प्रति असुरक्षाबोध होने की वजह से काम-काजी जगहों पर उनके यौन शोषण के रास्ते खुल जाते हैं. भूमंडलीकरण की संरचना में निर्यात-उन्मुख उद्योगों, सेज़ और सेवा क्षेत्रों में इस तरह के शोषण में भारी वृद्धि हुई है.

तथाकथित आज़ादी के 63 वर्षों के बाद भी राजनीतिक निकायों में महिलाओं की उपस्थिति नगण्य है और पितृसत्तात्मक राजनीतिक व्यवस्था में इसी भागीदारी को बनाने वाले आरक्षण का भारी विरोध हुआ है. हालांकि निचले स्तर पर आरक्षण ने सीमित संख्या में प्रवेश को संभव बनाया है लेकिन इनकी सफलता की कहानियां नियम के बजाए अपवाद ही है. सामंतवादी पितृसत्तात्मक वैचारिकी की बुनियाद पर फलने वाले सामाजिक संस्थाएं उत्पादन में महिलाओं की भागीदारी को हतोत्साहित कर रहे हैं और उनके प्रजनन की भूमिका की प्रशंसा कर रहे हैं; पारिवारिक और सामाजिक स्तर पर महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाली हिंसा ने सामाजिक पाबंदी का काम किया है और महिलाओं को घरेलू चहारदीवारी में एक निर्भर जीवन जीने के लिए सीमित किया है. इसलिए, फ़ैसला लेने की प्रक्रिया में शामिल होने के लिए व्यवस्था में दिखने वाले “सशक्तिकरण” के सांकेतिक चरणों के बजाए महिलाओं का आर्थिक और राजनीतिक गतिविधियों तक पहुंच अपने-आप में पहला कदम है.

इसलिए विकास के इस साम्राज्यवाद समर्थित मॉडल के ख़िलाफ़ महिलाओं के प्रतिरोध को उनके द्वारा इस व्यवस्था में, जिसने न केवल उनके समुदाय को नज़रअंदाज़ किया बल्कि उनकी जेंडर तक को इसमें समाहित कर दिया, अपनी जगह और आवाज़ तलाशने की कोशिश के रूप में देखा जाना चाहिए. हालांकि नारीवाद के कुछ नज़रिए इसमें यक़ीन रखते हैं कि विस्थापन-विरोधी आंदोलन और माओवादी आंदोलन की महिलाएं पितृसत्तात्मक खोल में काम करतीं है, इसके उलट इस लेख में यह दिखाया जाएगा कि ऐसे आंदोलनों में उनकी भागीदारी पितृसत्ता की बेड़ियों को तोड़ने की और उनकी निजी से सार्वजनिक स्थल तक पहुंचने की प्रक्रिया है. जहां पचास फ़ीसदी आबादी, मोटे तौर पर, आर्थिक और राजनीतिक गतिविधियों से वंचित हो, वह किसी भी अर्थ में वास्तविक लोकतंत्र नहीं हो सकता. इन संघर्षों में महिलाओं की भागीदारी लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया है. यदि इन संघर्षों के जेंडर वाले धुरी को मांजा जाता है तो यह तिर्यक रेखा अधिक समानता और स्त्री-स्वतंत्रता की ओर ले जाएगी.

भारत में मौजूदा विकास मॉडल ने आम जनता को भयानक कठिनाईयां दी है और कुछ सीमित लोगों के लिए लाभ मुहैया करवाया है. यह हमें भीषण कृषि संकट की ओर ले आया है जिससे ग्रामीण क्षेत्र की महिलाओं और बच्चों के जीवन को गहरा आघात पहुंचा है. लाखों की संख्या में किसान आत्महत्या करते हैं और वे अपने पीछे अपनी पत्नियों और परिवार के सदस्यों को छोड़ जाते हैं जिनके पास गुजर-बसर करने के लिए कोई संसाधन उपलब्ध नहीं होता. इस कृषि संकट ने बड़ी संख्या में महिलाओं और लड़कियों को स्थानांतरित किया है और उनको अकुशल, अल्प-वैतनिक काम और यौन शोषण की तरफ़ ढकेला है. खनिज प्रधान इलाके में तमाम खनन और औद्योगिक/विकास परियोजनाओं ने महिलाओं को उनके साझे संपत्ति संसाधनों, उनके परिवारों और उनकी भविष्य की पीढ़ियों को उनकी ज़मीन से वंचित किया है. ज़मीन अधिग्रहण की प्रक्रिया ने उन्हें अपनी ज़िंदगी और जीवनयापन के तरीकों के बारे में स्वयं फ़ैसला लेने से वंचित किया है.
भीषण पर्यावरणीय क्षरण ने उनके जीवन को भयानक तौर पर प्रभावित किया है. पुनर्वास ने उन्हें अपनी परिचित और स्वस्थ वातावरण से दुरूह और अपरिचित माहौल वाले जगह पर ला छोड़ा है जिससे उन्हें सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है. सामुदायिक जीवन, परिवार और रोज़ी-रोटी के साधनों का विघटन इन महिलाओं को यौन शोषण की राह पकड़ाता है, क्योंकि पारंपरिक मुख्यधारा के समाज में आदिवासी महिलाओं को “यौन रूप से खुला होने” के तौर पर देखा जाता है. अपने जीवन अनुभव से महिलाएं यह समझ गईं है कि विकास उनके लिए नहीं बल्कि अन्य लोगों के लिए है, चाहे वह नर्मदा के पानी को गुजरात के शहरों को भेजे जाने का मामला हो या बैलाडिला के लोहा को जापान, जर्जर जीवन और जीवनयापन के बर्बाद हो चुके साधन ही उनके भाग्य में हैं.

उत्तर-पूर्व और जम्मू-कश्मीर जैसे राज्यों में महिलाओं को यह महसूस हो गया है कि भारत में विकास के तौर-तरीके असंतुलित हैं और कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जिनका खनिज, ऊर्जा संसाधन, पर्यटन आदि के लिए दोहन किया जाएगा ताकि केंद्र सरकार और साम्राज्यवाद समर्थित औद्योगिक गुट को लाभ मिल सके; कि भारत सरकार उनको स्वायत्तता के किए गए वायदों को भूल गई है और इसलिए वे अलग होने के लिए लड़ रहे हैं. इस तरीके के लोकतंत्र में जैसा कि हमेशा होता है, असहमतियों को न केवल राज्य द्वारा भीषण दमन से दबा दिया जाता है बल्कि नृजातीय और अल्पसंख्यक समुदायों को पाठ पढ़ाने के लिए बलात्कार को राजनैतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है. इन क्षेत्रों की सैंकड़ों महिलाएं सेना और अर्ध-सैनिक बलों द्वारा यौन हिंसा की शिकार हुईं हैं. पिछले 52 सालों से आफ़्सपा को सख़्ती से लागू करके इन गुनाहों पर परदा डाला जा रहा है.

हालिया वर्षों में, खनिज प्रधान क्षेत्रों, मसलन छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिसा और पश्चिम बंगाल तथा महाराष्ट्र के भी कुछ हिस्सों में, जहां स्थानीय लोग साम्राज्यवाद समर्थित विकास मॉडल के विरुद्ध संघर्ष कर रहे हैं, एक विस्तृत प्रतिरोधी आंदोलन विकसित हुआ है. इन आंदोलनों में महिलाएं सक्रिय रूप से हिस्सा ले रही हैं. राजकीय हिंसा और यौन आक्रमण के धक्के सहने के बावज़ूद, वे भयाक्रांत नहीं हैं. पश्चिम बंगाल में, सिंगूर और नंदीग्राम संघर्ष के दौरान, महिलाएं स्वतःस्फ़ूर्त तरीके से लड़ने के लिए निकल पड़ी. तेभागा आंदोलन के समय, जैसा कि बंगाल में रवायत थी, महिलाओं ने घरेलू औजार और मिर्ची पाउडर जैसे मसालों का पारंपरिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया और शंख आदि का अपने बचाव के लिए बेहतर संकेतक के रूप में उन्होंने बेहद सरलता से इस्तेमाल किया. इन संघर्षों में महिलाएं प्रतिरोध की मूर्त प्रतीक बन गईं, कविता जैसे सांस्कृतिक रूप में भी. लालगढ़, पश्चिम बंगाल में जब पीसीएपीए (पुलिस संत्रास विरोधी कमेटी) का गठन हुआ तो इसमें यह सुनिश्चित किया गया कि प्रत्येक क्षेत्र में 50% कमेटी की सदस्य महिलाएं होंगीं. उस इलाके में हत्या, बलात्कार, गिरफ़्तारी, अपहरण और पुरूषों तथा महिलाओं को भीषण यातना देने के बावज़ूद, अभी भी वहां जब विरोध जुलूस निकलता है तो कभी-कभी महिलाओं की संख्यां 50000 को पार कर जाती है. यूएपीए (ग़ैर-क़ानूनी गतिविधि निरोधक अधिनियम) जैसे क्रूर क़ानूनों के जरिए साधारण, अशिक्षित ग्रामीण महिलाओं, जिन्होंने कभी माओवाद शब्द भी नहीं सुना है, या फ़िर शहरी पेशेवर महिलाओं, जो इस आंदोलन का हिस्सा नहीं हैं, लेकिन विकास के इस शोषणकारी तरीके के विरोध में हैं, को गिरफ़्तार किया जाता है और उनकी जमानत रोक दी जाती है. चाहे वे गांधीवादी हों, एनजीओ कार्यकर्ता हों या सामान्य उदार बुद्धिजीवी हों किसी को भी इस इलाके में जाकर लोगों से मिलने-जुलने की अनुमति नहीं हैं.

छत्तीसगढ़ और झारखंड जैसे क्षेत्रों में, जहां इसी तरह का विस्थापन-विरोधी आंदोलन और आदिवासियों और उनसे सहानुभूति रखने वाले लोंगों के शिकार करने के लिए ऑपरेशन ग्रीनहंट, चल रहा है, महिलाएं वहां लंबे समय से संगठित हो रहीं हैं. जैसा कि मीडिया रिपोर्ट और नक्सल साहित्य से जाहिर होता है, क्रांतिकारी आदिवासी महिला संगठन (केएएमएस) आज के समय में भारत के सबसे बड़े महिला संगठनों में से एक है. हालांकि दिलचस्प यह है कि प्रतिबंधित होने की वजह से यह “अदृश्य” है. माओवादी साहित्य और दंतेवाड़ा का दौरा कर चुके शोधकर्ताओं, पत्रकारों की रिपोर्ट ये दावा करती हैं कि वहां की अधिकांश महिलाओं में आंदोलन की वजह से बड़ा बदलाव आया है. ज़मीन बंटवारे की प्रक्रिया में महिलाओं के नाम भी ज़मीन आवंटित की जाती है. मिट्टी रोककर बांध बनाने, कृषि में मदद करने से महिलाओ को पानी की घरेलू समस्याओं से भी निजात मिल गया है. नई कृषि प्रणाली और फ़ल तथा सब्जियों के उत्पादन की शुरूआत होने से महिलाओं को अधिक पोषण मिल रहा है. फिर से एक दिलचस्प लेकिन ज्ञात तथ्य है कि वित्तीय राजधानी मुंबई से कुछ ही किलोमीटर दूर ठाणे ज़िले में और विदर्भ के मेलघाट में सैंकड़ों महिलाओं और बच्चों की कुपोषण से मौत हुईं हैं, लेकिन उसी महाराष्ट्र के नक्सल प्रभावित गढ़चिरौली में कुपोषण के कारण मृत्यु नहीं हो रही है. माओवादी क्षेत्रों में महिलाओं की बेहतर स्वास्थ्य और शिक्षा तक पहुंच ही एकमात्र रास्ता है जिसके जरिए महिलाएं आज वहां शिक्षित हो रहीं हैं. तेंदू (केंदू) पत्ता संग्रहण की मूल्य वृद्धि ने उनके जीवन में अधिक आर्थिक समानता लाया है. चावल मिल की स्थापना ने महिलाओं को थ्रेसिंग की श्रमश्राध्य प्रक्रिया से राहत पाने में मदद की है. क्रांतिकारी आदिवासी महिला संगठन ने न केवल बाहरी पितृसत्ता (ग़ैर-आदिवासियों द्वारा यौन शोषण आदि) को बल्कि आंतरिक पितृसत्ता को भी निशाना बनाया है. माहवारी के दौरान महिलाओं को अलग करने तथा बच्चे जनने के बाद किए जाने वाले अवैज्ञानिक क्रियाकलापों को सुधारा गया है.

बिहार और झारखंड में, नारी मुक्ति संघ (एनएमएस) एक मज़बूत और लोकप्रिय महिला संगठन है जो महिलाओं की आवाज़ को तवज्जो देता है और आर्थिक, राजनीतिक तथा सामाजिक गतिविधियों और निर्णय लेने की प्रक्रिया में सहभागिता को प्रोत्साहित करता है. चाहे वह दहेज आधारित सामंतवादी पितृसत्तात्मक शादी को जनतांत्रिक विवाह में बदलना हो, चाहे यौन हिंसा के अपराधी को जन-अदालत के जरिए सजा देना हो या फ़िर पारिवारिक विवाद को सौहार्द्रपूर्ण तरीके से निबटाना हो, नारी मुक्ति संघ की महिलाएं गांव-गांव घूमती है और न सिर्फ़ पीड़ित महिलाओं के जीवन में हस्तक्षेप करती हैं बल्कि महिलाओं और बच्चों को अपने साथ जोड़ती भी हैं. हज़ारों महिलाओं और लड़कियों ने क्रांतिकारी आदिवासी महिला संगठन और नारी मुक्ति संघ जैसे संगठनों द्वारा चलने वाली “क्रांति का पाठशाला” के जरिए लिखना-पढ़ना सीखा है और शिक्षित हुई है. स्त्रियों की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक गतिविधियों की प्रक्रिया को अधिक लोकतांत्रिक बनाने के लिए इन संगठनों ने जिन स्वास्थ्य केंद्रों में डॉक्टर नहीं हैं, जिन विद्यालयों में शिक्षक अनुपस्थित है, वहां धरना देने, खाद्यान्नों की समान बंटवारे, अधिक मज़दूरी और पारिश्रमिक मूल्यों, एक ही काम के लिए स्त्री और पुरूषों को समान मज़दूरी के लिए लड़ने का काम किया है और इस तरह विकास और लोकतंत्र को उनके लिए अधिक अर्थपूर्ण बनाया है. महिलाओं के जीवन पर भूमंडलीकरण के प्रभाव को समझते हुए कि कैसे सौंदर्य और फ़ैशन उद्योगों ने स्त्रियों का वस्तुकरण किया है, मध्य भारत के अंधेरे में इन संगठनों ने विश्व सुंदरी प्रतियोगिताओं के ख़िलाफ़ जुलूस निकाले हैं या फ़िर जॉर्ज बुश के भारत भ्रमण का विरोध किया है. इन संगठनों की प्रमुख एक्टिविस्ट आदिवासी पृष्ठभूमि की हैं जिनमें हमारे शहरों की डिग्रीधारी महिलाओं के मुक़ाबले कहीं अधिक राजनीतिक चेतना है.

निष्कर्षतः इस पर प्रमुखता से ध्यान दिया जाना चाहिए कि विस्थापन-विरोधी संघर्षों को बल और हिंसा के बदौलत दबाने की कोशिश, जैसा कि ऑपरेशन ग्रीन हंट में किया जा रहा है, लाखों आदिवासी और ग्रामीण जनता का न सिर्फ़ सर्वनाश कर देगी बल्कि यह इन क्षेत्रों में सामाजिक आंदोलनों के जरिए शुरू हुए लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया का भी गला घोंट देगी. मौजूदा व्यवस्था में, आर्थिक गतिविधियों में भागीदारी से वंचित और सिर्फ़ प्रजनन की भूमिका तक सीमित महिलाओं ने विचारधारा और सामाजिक आंदोलनों में भागीदार होने में एक नए क्षितिज को तलाश लिया है. चाहे गांधीवादी, समाजवादी, दलित, राष्ट्रीयता के आंदोलन हो या माओवादी आंदोलन, ये सभी महिलाओं को सामाजिक समता और स्वतंत्रता की ओर ले जाते हैं और इन आंदोलनों के दमन का मतलब महिलाओं को फिर से पितृसत्ता के दलदल और वर्ग-शोषण की ओर, जाति और सांप्रदायिक भेद-भाव की ओर ढ़केलना है. अगर भारत में महिलाओं के लिए विकास और लोकतंत्र को वाकई अर्थपूर्ण बनाना है तो सिर्फ़ उनके सशक्तिकरण की सांकेतिक रूप-रेखा बनाने के बजाए इन प्रक्रियाओं में महिलाओं को जोड़ने के रास्ते विकसित किए जाने चाहिए.




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