अन्ना अचानक लोहिया हो गये, अन्ना अचानक गाँधी हो गये, पूरे देश की आंधी हो गये और जाने क्या-क्या हो गये. यह सब होने की जरूरत थी शायद. पूरे देश के मध्यम वर्ग जो रोज-बरोज मंहगी होती चीजों से झूझ रहा है. उसे एक ऐसा वर्ग दिख रहा है जो काले धन और घोटालों के बदौलत मौज कर रहा है. दरअसल उसे इस वर्गीय श्रेष्ठता या रौब जो छोटे से उच्च वर्ग में मौज मस्ती के साथ विराज है, से कोफ्त है और वह इस सबके निचोड़ के रूप में महज भ्रष्टाचार को ही देख पा रहा है. उसे लग रहा है कि इस जनलोकपाल बिल के आ जाने से भ्रष्टाचार मिट सा जाएगा. वह शायद इसलिए भी सामने आ रहा है कि इस आंदोलन को एक गैरराजनीतिक रूप में पेश करने का प्रयास किया जा रहा है. इस लिहाज से यह एक महत्वपूर्ण बात देखी जा सकती है कि आज भारतीय जन मानस राजनीति से कितना परहेज सा करने लगा है. वह अब अपने जुमलों में ही महज राजनीति को गाली नहीं देता बल्कि गैरराजनीति के समर्थन में उतर रहा है. अफसोस की बात यह भी है कि इस आंदोलन के कई अगुवा और खुद अन्ना हजारे भी इसे गैर राजनीतिक ही मानते है. अलबत्ता यह जरूर है कि यहाँ कुछ भी गैरराजनीतिक नहीं हो रहा. यह एक ऐसा मंच बन गया है जिसे भ्रष्टों द्वारा भ्रष्टाचारियों के विरुद्ध अभियान कहा जा सकता है. खुद अपने विरुद्ध खड़े हो जाना और अपने को बचा लेना. कुछ व्यक्तिगत इमानदारों को छोड़ दिया जाए तो आलम यही है. एन.जी.ओ., ए.बी.वी.पी. और कार्पोरेट का समर्थन इस बात को ही पुख्ता करता है. “मनमोहन सिंह अगर वोट चाहिए तो जन लोकपाल बिल लाइए” यहाँ कांग्रेस के अगले चुनाव की तैयारी भी है, नये और कुटिल तरीके से. बेशक लोकपाल बिल आ जायेगा, शायद थोड़ी देर में या बहुत जल्द.
लोगों का अराजनीतिक होना महज इस व्यवस्था की राजनीति से ही अराजनीतिक होना है. ऐसी संसदीय राजनीति, जिसकी बुराईयां करने से भी लोग ऊब चुके हैं. ऐसे में विकल्पों के चुनाव के तौर पर यह वड़ी संभावना बनती है कि वे कुछ नया तलाशें. इस रूप में जिस अराजनीति के तहत वे देश में नैतिक जिम्मेदारी को अपनाते हुए विकल्प की तलाश कर रहे हैं वह गैर संसदीय राजनीति है न कि गैर राजनीतिक. सरकार को इस वैकल्पिक चुनाव का भय है और वह केवल अन्ना नहीं हो सकते. यदि लोग अन्ना के साथ आते हैं तो बेशक यह किसी भी रूप में तंत्र और देश की सरकार के साथ ही आना होगा. जबकि भ्रष्टाचार का मसला कुछ कानूनों से नहीं इस तंत्र से जुड़ा हुआ है. अन्ना इस तंत्र के अंदर की एक लड़ाई लड़ रहे हैं. जिसकी जीत अंततः एक झांसे के तहत कुछ दिन के लिए तंत्र में एक नई आस्था ही पैदा करेगी. इसके अलावा सत्ता को सबसे बड़ा खतरा उनसे है जो इस तंत्र में यकीन ही नहीं करते और देश के सबसे बड़े खतरे के रूप में राज्य उन्हें देख रही है. जिन्हें शायद भ्रष्टाचार के तहत ढांचे के पूरे पुर्जे खोलने व लोगों के सामने रखने में मदद मिले. एक बड़ा युवा वर्ग जो देश के प्रति नैतिक भक्ति रखता है और विश्वविद्यालयों में पढ़ता है वह जंतर मंतर को तहरीर चौक बनाने की बात इसलिए कर रहा है कि हाल के दिनों में अरब जगत के आंदोलनों और वहाँ की जन भागीदारी ने जो बदलाव दिखाए हैं यही उसमें एक मानसिकता को निर्मित कर रहा है.
देश के अंदर पिछले वर्षों में घटे शायद वे बहुत कम भ्रष्टाचार और घोटाले रहे होगें जो अभी हाल में सामने आये, एक के बाद एक लगातार. प्रधानमंत्री के उस मीडिया सम्बोधन के बाद अचानक घोटालो का आना बंद भी हो गया. यह बात थोड़ा शक पैदा करती है. जो घोटाले पूर्व में उजागर हुए थे उनमे मीडिया ने महत्वपूर्ण भागीदारी निभाई थी, दोनों तरफ से. पहले करने-कराने में फिर सामने लाने में. यहाँ कानूनी प्रक्रिया को लेकर देश के सानने एक महत्वपूर्ण सवाल है कि बिल लाने या संवैधानिक होने से यदि समस्यायें निपट जाती तो शायद देश को अब तक समाजवादी हो जाना था, गैरबराबरी मिट जानी थी, लोगों को धर्मनिरपेक्ष हो जाना था पर ऐसा नहीं हो सका. आने वाले वर्षों मे कुछ लोग ऐसा होने की उम्मीद रख सकते हैं. जबकि इस संविधान के साथ संसदीय लोकतंत्र और संविधान निर्माण की वह सदी बीत गयी, जब नरेन्द्र मोदी अपने असली रूप में निखरे, अंबानी और देश के कई कार्पोरेट इस सदी में ही दुनिया के अमीरों की सूची में आये, किसानों ने ज्यादा आत्महत्या करना इसी सदी में शुरु किया, यह सब समानता आधारित संविधान बनने के ५० वर्षों के बाद हुआ. लिहाजा कानून की किताब उलटबांसी हो गयी. बस्तर के आदिवासी और आडवानी के साथ इस देश के न्यायालय तक का सुलूक अलग-अलग रहा. शायद यह बिल पास हो जाए तो मध्यम वर्ग की नौकरी करने वाला और महंगाई की मार से पेट न भर पाने के कारण भ्रष्टाचार करने वाला अब सजा के लिये भी तैयार रहे. उसकी जिंदगी जीने की शर्त के रूप में भ्रष्टाचार जुड़ा है उसका स्वरूप छोटा और बड़ा हो सकता है. ऊपरी स्तर पर गलतियां पकड़ा जाना मुश्किल है. यदि ऐसा हो भी गया तो उसे सामने लान शायद और मुश्किल. इस भ्रष्टता का मामला तंत्र से बनता है. पूजी केन्द्रीयता तमाम अपराधियों को मिली सजाओं के बाद भी घोटालों को नहीं रोक सकती, उच्च स्तर से निम्न स्तर तक. क्योंकि उच्च स्तर वाले को अपनी उच्चता बनाये रखने के लिए यह जरूरी है और निम्न स्तर वाले को अपनी जिंदगी व जीवन शैली के लिए. भ्रष्टाचार देश में नहीं बल्कि उसके तंत्र में होता है जो उसे चला रहा होता है. लोकपाल बिल इसी तंत्र में आयेगा. काजल की कोठरी में एक सफेद कपड़े की तरह. सम्पर्क- chandrika.media@gmail.com, mo- 09890987458
सही कहा आपने. हम खुश फहम न रहें, लेकिन प्रतिरोध का रियाज़ तो है यह. स्मृति मे इतना रहे कि हमें लड़ना भी है. ..... इस लिए यह ज़रूरी है. सब कुछ यूँ बदल जा सकता होता तो क्या बात थी !
जवाब देंहटाएंवर्ड वेरिफिकेशन हटा दीजिए. समयाभाव के कारण प्राय: यहाँ कमेंट डालना कठिन रहता है.
चन्द्रिका जैसा आपने कहा हाल ही में "अरब जगत के आंदोलनों और वहाँ की जन भागीदारी ने जो बदलाव दिखाए हैं यही उसमें एक मानसिकता को निर्मित कर रहा है." वैसे लोकपाल बिल पास होने के 1 -2 महीने में ही 50 -50 की जो समिति बनेगी इसकी भी मानसिकता मालूम हो जायगी.................
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