चन्द्रिका
छत्तीसगढ़ में दांतेवाड़ा जिले के तीन आदिवासी गांव तारमेटला, तीपापुरम, मोरपल्ली को सलवा-जुडुम और और सैन्य बलों के द्वारा जलाकर तबाह कर दिया गया. गांव वालों के पास अब रोने के लिए आंसू हैं और देखने के लिए घरों की जली हुई राख. वहाँ उन्हें सुनने वाला कोई नहीं है. छत्तीसगढ़ विधान सभा को इस मसले के कारण विपक्ष ने पिछले कुछ दिनों से ठप्प कर रखा है. सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश से लेकर जिन भी पत्रकारों व मानवधिकार कार्यकर्ताओं ने यहाँ जाने का प्रयास किया उनके ऊपर हमले किए गये और उन्हें जाने से रोक दिया गया. लगातार सैन्य बलों द्वारा झूठी खबरे प्रचारित की गयी और की जा रही हैं. इस पूरे क्षेत्र के नाकेबंदी की वजह बताई जा रही है कि अंदर के इलाकों में माओवादियों के साथ मुठभेढ़ चल रही है लिहाजा किसी को अंदर नहीं भेजा जा सकता. जबकि ११ मार्च के बाद इस क्षेत्र में कोई मुठभेढ़ नहीं हुई है. इस मुठभेड़ में १ माओवादी और ३ सलवा-जुडुम कार्यकर्ता मारे गये थे और ९ कोया कमांडो घायल हुए थे. इस घटना को सैन्य बलों ने अपनी सफलता के तौर पर दिखाया और ३२ माओवादियों को मारने का दावा पेश किया. एक ऐसी स्थिति निर्मित की गई जो किसी क्षेत्र में चल रहे युद्ध के स्वरूप को दर्शाती हो. यह भ्रामक प्रचार इसलिए किया गया ताकि सलवा-जुडुम अपने इस आगजनी को अंजाम दे सके और किसी को खबर तक न हो.
यह चिंतलनार का वह क्षेत्र है जहाँ पिछले साल ७६ जवान और ८ माओवादी मुठभेड़ में मारे गये थे. तारमेटला गाँव यहाँ से तकरीबन ८ किमी. दूरी पर है जिसमे २०७ घरों को कोया कमांडो के द्वारा १६ मार्च की सुबह जला दिया गया. ३०० की संख्या में कोया कमांडो और सैन्य बलों ने तब इन घरों पर हमला किया जब आदिवासी अपने घरों को बुहार रहे थे, कोई महुवा बीनने की तैयारी में था और कोई उनीदी आंखों के साथ उंघ रहा था. पहले हवा में गोलियां दागी गई फिर फूस से बने उनके छप्परों में आग लगाई गई, उनके पैसे और गहने लूटे गये और किसी ने मना किया तो उसको पीटा गया. इस पीटे जाने में ६ साल की बच्ची तक शामिल है. हर बार की तरह आदिवासी गांवों से निकलकर जंगलों की तरफ भाग गये. अब तकरीबन ९०० की जनसंख्या वाले इस गाँव में कुछ लोग इधर-उधर भटकते दिखाई पड़ते हैं. इस गांव की एक ३० वर्षीय महिला माड़वी जोगी हमे अपनी पीड़ाएं गोंडी में बता रही थी पर दुख की कोई भाषा नहीं होती. उन्होंने बताया कि उनके ८००० रूपए लूट लिए गये और जब उन्होंने इसका प्रतिकार किया तो उनके साथ बगल के झाड़ी में ले जाकर बलात्कार किया गया. हर आदमी के दुख की अपनी एक अलग कहानी थी और वे हमे सबकुछ बता देना चाह रहे थे क्योंकि उनकी सुनने वाला अभी तक सरकार की तरफ से कोई वहाँ नहीं पहुंचा था. माड़वी आयता और माड़वी अंदा नाम के दो आदिवासियों को सलवा-जुडुम के लोग अपने साथ ले गये जिनका अभी तक कोई पता नहीं चला है. गांव में न तो किसी की कोई रपट दर्ज हुई है न ही कोई चिकित्सकीय सुविधा उपलब्ध हो पाई है. गांव के आदिवासी पेड़ों के नीचे अपनी जिंदगी बसर कर रहे हैं जबकि कई आदिवासी अंदर जंगलों में चले गये हैं.
मोरपल्ली के ३३ घरों और तीपापुरम के ५६ घरों को १३ और १४ मार्च को ही जला दिया गया था और मोरपल्ली में दो महिलाओं के साथ बलात्कार भी किया गया. पुल्लमपाड़ गांव के एक ३५ वर्षीय युवक को लाकर सलवा-जुडुम के लोगों द्वारा गांव वालों के सामने काट डाला गया. ताड़मेटला में यह पहली घटना नहीं है बल्कि २००९ में भी इस गांव के कुछ घरों को सलवा-जुडुम द्वारा जलाया जा चुका है. दरअसल इस घटना के पूर्व मोरपल्ली में ११ मार्च की रात सलवा-जुडुम द्वारा लूटपाट की गयी और जब वे लौट रहे थे तो गांव वालों की इस लूटपाट की एवज में माओवादियों ने उन पर हमला कर दिया जिसमे सलवा-जुडुम का एक अगुआ मारा गया. माओवादियों की इस कार्यवाही के एवज में आदिवासी गांवों को निशाना बनाया.
माओवादियों के उन्मूलन के लिए केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा इस तरह के कई अभियान पहले भी चलाए जा चुके हैं जो विफल रहे हैं. ९० के दशक में शुरु हुए जनजागरण अभियान में राज्य सरकार ने पुलिस बल को प्रशिक्षित कर इन इलाकों में भेजा था. वे माओवादियों की तरह दलम बनाकर चलते और आदिवासियों के बीच में माओवादियों की नकल करते हुए जमीन पर बैठते, उनकी समस्याएं सुनते और सुलझाने का प्रयास करते. इसके बावजूद वे सफल नहीं हो सके और आदिवासियों द्वारा उन्हें पहचाने जाने के बाद इन क्षेत्रों से बाहर जाना पड़ा. इसके बाद अन्य कई पुलिस दमन के सिलसिले भी चलाए गये पर इस दमन की वजह से पीड़ित आदिवासियों को अपने साथ लेने में माओवादी और भी सफल हुए.
शांति अभियान के नाम से २००५ में शुरु किए गये सलवा-जुडुम द्वारा अब तक ६०० आदिवासियों के गांव तबाह हो चुके हैं. ये आदिवासी या तो सरकारी शिविरों में रह रहे हैं या फिर जंगलों के अंदर भटक रहे हैं. लिहाजा उच्चतम न्यायालय ने कुछ माह पूर्व सलवा-जुडुम को बन्द करने का आदेश भी दे दिया पर वह अब तक जारी है. सुप्रीम कोर्ट ने यह भी आदेश दिया था कि सैन्य बलों के कैम्प के रूप में इश्तेमाल किए जाने वाले स्कूलों को तत्काल खाली किया जाए पर अभी तक उन्हें खाली नही किया गया है. उत्पीड़न और दमन की इन घटनाओं ने आदिवासियों के सामने महज एक ही विकल्प छोड़ा है कि वे माओवादियों के सहयोगी बन जाएं. इन सारी दमनात्मक कार्यवाहियों के बावजूद माओवादियों की ताकत के बढ़ने का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है. राज्य अपने लोकतांत्रिक ढांचे के उन सभी संस्थानों को इन क्षेत्रों के लिए अवैध कर चुका है जो कि इसकी निगरानी रख सकें. मानवाधिकार संगठनों से लेकर मीडिया तक पर पाबंदी सी लगा दी गयी है. उच्चतम न्यायालय जैसे सर्वोच्च संस्थानों के आदेशों का उलंघन किया जा रहा है. ऐसे में माओवादियों से लड़ने व उनके उन्मूलन के नाम पर निश्चिततौर पर सरकार एक ऐसी स्थिति में खड़ी है जहाँ वह सभी तरह के अलोकतांत्रिक उपकरणों का प्रयोग किया जा रहा है.
माओ के घोषित समर्थक चन्दिका से एसे ही लेख की उम्मीद है। नक्सलसमर्थक की क्या विश्वस्वनीयता? नक्सली आतंकवादी हैं और उनसे जंगल को मुक्त कराना जरूरी।
जवाब देंहटाएंkuchh log hamesha critise karne ke liye hi paida hote hain.. unhe har ek baton me khamiyan dikhti hai.. apne aap ko intellectual kahne wale log bhi pata nahi kyun aise sangthoan ko support karte hain..
जवाब देंहटाएंAalekh kee sachchai dil dahalane wali hai, sirf patthar ,hridayheen log isaki aalochana karenge.
जवाब देंहटाएंवह जन मारे नही मरेगा !
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