18 अप्रैल 2011

ये जो जल रहा है दण्डकारन्य के जंगलों में

चन्द्रिका, दण्डकारण्य के गाँवों से लौटकर (तहलका के अप्रैल अंक में प्रकाशित रिपोर्ट)

उन दिनों मिस्र के लोगों के चेहरों पर गुलाबी खुशियां थी और लीबिया से बारूद की महक दुनिया के हर देश तक पहुंच रही थी. हमारा पूरा देश बैट और बल्लों के खेल में अपना स्वाभिमान जगा रहा था. देश भक्ति के मायने थे कि हर जीत के बाद जश्न मनाओ और उस हुजूम में शामिल हो जाओ. देश के अधिकांश बुद्धिजीवी लोकतंत्र की दुहाई देते हुए भारत में तहरीर चौक बनने की किसी भी संभावना से इनकार कर रहे थे और कर रहे हैं. जब उनके घरों में आग लगाई गई और उन्हें तबाह कर दिया गया. जब उन महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया जो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र कहे जाने वाले देश में आग की लपटों के बीच अपने घरों के जलाये जाने का बस कारण पूछ रही थी. उस ६ साल की बच्ची को पीटा गया जो इतने सारे घरों को पहली बार एक साथ जलता हुआ देख कर रोने की जुर्रत कर रही थी. शायद यह रुदन की भाषा में घरों को जलाए जाने का प्रतिकार रहा होगा या फिर कोई सवाल. शायद बच्चों को यह तजुर्बा नहीं होता कि उन्हें कहाँ नहीं रोना चाहिए, उन्हें सैन्य बलों के साथ सुलूक का तजुर्बा भी नहीं होता. एक बच्चे की आखों में २०७ घरों को जलाए जाने की दहशत शायद ही समा पाए. छत्तीसगढ़ के दान्तेवाड़ा जिले की दहशतगर्दी में बच्चों को रोने के लिये सैन्य बलों और सलवा-जुडुम की इजाजत चाहिए. समय के साथ वे सबकुछ सीख रहे हैं. लड़ना और पीड़ाओं से उबरना, जलना और राख की ढेर पर फिर से निर्मित हो जाना. आदिवासियों के ये गाँव पिछले कुछ सालों से सैन्य बलों के लिए बरसात के कुकुरमुत्ते हो गये हैं जो राख की ढेर पर उग आते हैं और सलवा-जुडुम के बूटों तले कुचल दिए जाते हैं. २००५ से एक अंतहीन सा सिलसिला जिसमे तकरीबन ६०० गाँव अब तक उजड़ चुके हैं. इनकी जिंदगियां इतनी मामूली हो चुकी हैं कि इक्का-दुक्का हत्यायें और मौतें रोज-बरोज के जिंदगी का हिस्सा सी बन गयी हैं. इन पर कोई नहीं रोता, इनके लिए आंसू चुक से गये हैं..

दान्तेवाड़ा जिले में कोया कमांडो (सलवा-जुडुम के कार्यकर्ताओं) द्वारा जलाये गये ३ गाँव जंगलों से उठकर अखबारों के पन्नों के मोटे शब्द बन गये, ये गाँव छत्तीसगढ़ की विधानसभा में विपक्ष का मुद्दा बन गये और विधान सभा कई दिनों तक ठप्प पड़ गयी. मोरपल्ली, तीपापुरम और ताड़मेटला कोया कमांडो और सैन्य बलों के संयुक्त आगजनी के अभियान में ११ मार्च १४ मार्च और १६ मार्च को तबाह कर दिए गए. इस दौरान और इसके बाद भी इन इलाकों की नाकेबंदी कर दी गयी. सामाजिक कार्यकर्ताओं, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और पत्रकारों तक के जाने पर रोक लगा दी गयी. लगातार माओवादियों के साथ मुठभेढ़ की भ्रामक खबर फैलाई जाती रही ताकि इस तबाही को अंजाम दिया जा सके और आग बुझने व राख उड़ने के साथ वह सब कुछ दफ्न हो जाए जो उत्पात के तौर पर यहाँ किया गया.

.






कुछ मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के साथ हम किसी तरह इन गाँवों तक पहुंचने में सफल हुए. तब स्वामी अग्निवेश के रोके जाने और उन पर हमले किए जाने की खबरे लगातार आ रही थी, हमारे मोबाइल के मैसेज बाक्स में. बाद में उन्हें दलील दी गयी कि जंगल में भारी मुठभेड़ चल रही है लिहाजा किसी के भी जाने पर मनाही है. जंगल के रास्तों से पूरे एक दिन चलते हुए दूसरी सुबह हम उस गाँव तक पहुंच पाए थे जहाँ सबसे ज्यादा घरों को जलाया गया था, यह था तारमेटला. इस पूरे एक दिन और एक रात हमारे पास कोई खबर नहीं पहुंची. अलबत्ता जंगलों के बीच एक गाँव में जहाँ हम रुके वहाँ रेडियो के जरिये हमे पता चला कि स्वामी अग्निवेश और कई पत्रकारों के ऊपर अंडे फेंके गए और उन्हें लौटने पर मजबूर कर दिया गया. जंगल के इन इलाकों में रेडियो के अलावा संचार का कोई स्रोत नहीं था. एकतरफा संचार, जो आपको खबरें दे सकता है आपकी खबर नहीं ले सकता, जो अपने रोमांटिक गीतों के बीच उनके रुदन के स्वरों को दबा देता है. दिल्ली से लेकर दुनिया भर की तमाम खबरों से ये आदिवासी इसी रेडियो के जरिये भिज्ञ थे और दिल्ली से लेकर दुनिया भर के तमाम लोग अपनी तमाम तकनीकों के साथ इनकी खबरों से अनभिज्ञ. इन इलाकों में सब कुछ एकतरफा ही था, सुरक्षा भी जो सरकार ने भारी सैन्य बलों की तैनाती के साथ दे रखी थी. अब हम उन असुरक्षित गाँवों से होकर गुजर रहे थे जिसे प्रधानमंत्री देश के सबसे बड़े खतरे के रूप में इंगित करते हैं. ये माओवादियों की जनताना सरकार के गाँव थे. जिसे गाँव के लोग इस रूप में सुरक्षित मान रहे थे कि दुश्मन यानि कि सैन्य बल यहाँ कभी नहीं आ सकते. माओवादी यहाँ १९८० में पहली बार आये थे, शायद १९४७ से १९८० का लम्बा समय यहाँ के आदिवासियों ने भारतीय राज्य के आश और इंतज़ार में गुज़ारे थे.


जंगल की अंधेरी रातों के बीच गाँव होने का मतलब था, किसी सोलर लाइट की रोशनी, किसी बकरी की मिमियाहट, किसी मुर्गे के पंखों की फड़फड़ाहट. हम अपने रास्ते के दौरान कई गाँवों में रुके जो गोंडी आदिवासियों के मुरिया, कोया, राऊत समुदाय के गाँव होते थे. गाँव के किसी कोने पर खड़े होकर यह अंदाजा लगाना मुश्किल होता कि गाँव में कितने घर हैं. वे खूबसूरत ऊची तिकोनी झोपडियों के बने होते और उनकी दीवालें लकड़ियों से बनाई हुई होती. घर काफी दूर-दूर तक बिखरे हुए होते और हर गाँव के अंत में प्रायः किसी माओवादी नेता या माओवादी सदस्य की शहादत के स्तूपम बने होते. लाल रंगों के स्तूपम, जिनमे शहीद होने वाले व्यक्तियों के नाम और उनके लिये सलाम के नारे होते. एक गाँव से गुजरते हुए हमने देखा कि माओवादी पार्टी के पोलित ब्यूरो चेराकुरी राजकुमार आज़ाद का एक बड़ा स्तूपम बनाया गया था जिसे गाँव वालों ने मिलकर अभी हाल में ही तैयार किया था और उसके आसपास निर्माण प्रक्रिया के दौरान प्रयोग की गयी लकड़ियां अभी भी बिखरी हुई थी. उन्हें एक आदर्श नेता के रूप में सम्बोधित करते हुए लाल सलाम के नारे लिखे गये थे. आदिवासियों के इन गाँवों में यह एक परम्परा सी बन गयी है जिसमे गाँव के लोग शहादत के स्तूपम बनाते हैं और उसे संरक्षित भी करते है.

इन रास्तों से गुजरते हुए हमने कई कहानियां सुनी, वे कहानियाँ जो वर्षों पहले बीत चुकी हैं, कुछ अफसोसों के साथ. वो कहानियां जिनमे गांव लुटने के बाद फिर संवर चुके हैं, कहानियां जिनमे हत्याओं की दहशत और पीड़ा लोगों के चेहरे से उतर चुकी है और वे कहानिया भी जो कुछ बुजुर्गों की आंखों में अब भी बची हुई हैं, किसी पुरानी शिकार यात्रा की याद की तरह. कुंजाम बुधरी के पास बीते पैसठ सालों के किस्से हैं पर हमारे पास वक्त ही नहीं. देवा अपने २५ साल के नौजवान बेटे की हत्या को आधा ही बता पाते हैं....बाकी में खामोशी है. सोड़ी दीपक को अपनी उम्र का पता नहीं वे खुद को आपके सामने पेश करते हैं और कहते हैं आप खुद ही देख लो. गाँव के बच्चे आपको अचकचाई नजरों से देख रहे होते हैं और आपके तौर तरीकों पर हस रहे होते हैं.

उस सुबह हम ताड़मेटला गाँव में थे जहाँ बस घरों के दीवालों की मौजूदगी थी और आगजनी के कारण उन पर कालिख लिपट गयी थी. यह गोंडी आदिवासियों के मुरिया समुदाय का गाँव है. सोड़ी भीमा अपने जले हुए घर की लकड़ियां इकट्ठा कर रहे थे. हमे देखकर वे थोड़ी देर ठिठक गये, चुप रहे और फिर से अपने काम में जुट गये. हमने उनसे बात करने का प्रयास किया और वे अपने जले हुए घर की तरफ इशार करते हुए गोंडी मे देर तक कुछ बोलते रहे. उन्होंने हमे इशारा करते हुए घर के अंदर बुलाया, अंदर का मतलब उन जली हुई लकड़ियों और राख के ढेरों से था जिनके चारो तरफ दीवालों के महज निशान ही बचे हुए थे. जहाँ कुछ जले हुए बर्तन थे जो आधे पिघल से गये थे. एक टूटी हुई सायकिल उतनी ही बची थी जितना उसमे जलने के बाद बच जाना चाहिए. सोड़ी भीमा की आवाज कभी तेज तो कभी धीमी हो जाती जैसे उनकी आंखों की त्योरियों में कुछ उबल सा रहा हो. कोई आदमी पाकृतिक आपदाओं से मानसिक तौर पर शायद जल्दी उबर जाता हो पर मानवीय उपद्रव, सरकार की संरक्षण में किया गया उपद्रव, शायद उसमे बदले की भावना ही पैदा करता है. वे गुस्से में लगातार बोलते रहे. पास में खड़े एक व्यक्ति ने हमे हिन्दी में बताने का प्रयास किया भीमा कह रहे थे कि उनका पूरा साल भर का अनाज यहाँ रखा था जो जल गया. वे बता रहे थे कि १६ तारीख की सुबह जब लोग अपने घरों को बुहार रहे थे, जब लोग महुआ बीनने की तैयारी में थे और कुछ तो अभी सोकर उठे भी नहीं थे, ३०० की संख्या में सी.आर.पी.एफ. और कोया कमांडो आये. पहले उन्होंने हवा में फायरिंग की लोग डर के मारे अपने घरों से भागे और वे एक-एक कर गाँव के घरों को जलाते रहे. उन्होंने मेरा भी घर जला दिया आखिर हमारे गाँव वालों ने कोया कमांडो का क्या बिगाड़ा था.


माड़वी जोगी की आंखों में आंसू थे और कुछ भी बोलते हुए उनके होठ कंप रहे थे जैसे वो कोई इल्जाम कुबूल कर रही हो. शायद घरों को जलाने का कारण पूछना ही उनका इल्जाम था. उनके चेहरे पर घाव के निशान कुछ दिन पुराने और बासी से हो गये थे और पूरा चेहरा दर्द से फूल गया था. उनसे बात करते हुए ऐसा लगा जैसे हम फिर से उनके घावों को कुरेद रहे हो और हम ना को जानने के लिये शायद ऐसा कर भी रहे थे. यह उनके घर जलाने और पैसे लूटे जाने के मनाही का अंजाम था. जब घरों को जलाया जाने लगा तो वे जंगल में भागने के बजाय आगजनी का प्रतिकार करने लगी. पहले उन्हें बंदूक के बाटम से पीटा गया, उन्हें धक्के देकर जमीन पर गिरा दिया गया और फिर.....फिर वे चुप हो गई. वह बताने में माड़वी जोगी अक्षम हो गयी जो उनके साथ हुआ था. बाकी की कहानी किसी और को ही बतानी पड़ी कि कैसे उन्हें बगल के झाड़ी में ऊपर की तरफ ले जाया गया और बलात्कार किया गया. कुछ घटनाओं के एहसास एक शब्द में अपनी अहमियत नहीं दे पाते. बीतते दिनों के साथ वे चेहरे पर भी कमजोर से पड़ जाते हैं. एक शब्द को कहते हुए साहस चुक सा जाता है, यह भाषा की नाइंसाफी होती है जो तमाम पीड़ाओं की बयानगी को एक साथ तो रख देती है पर उन तकलीफों को कहीं कमजोर सा बनाती हुई. कई घंटों तक वे वहाँ बेसुध पड़ी रही. पूरे गाँव का हर सख्श अपने ही घर की तबाही से बदहवास और हैरान था बाद में लक्के जो माड़वी जोगी की बहन थी उसने उसे कपड़ा पहनाया और वहाँ से लेकर आयी. अभी तक माड़वी जोगी को न तो कोई चिकित्सकीय सुविधा उपलब्ध हो पायी है और न ही किसी तरह की रिपोर्ट दर्ज की गयी.

इस गाँव से माड़वी आयता और माड़वी अंदा दो लोगों को सैन्य बल साथ लेकर गये तब से अब तक उनका कोई पता नहीं चला है. ९०० की आबादी वाले इस गाँव में कुल १५० के आसपास ही लोग हमे दिख रहे थे बाकी जंगलों में इधर-उधर चले गये हैं. शायद वे अब तक लौट आये हों या शायद न लौटने का इरादा बना लिया हो. ताड़मेटला गाँव में सरकारी राहत के तौर पर कुछ चावल भेज दिया गया है. इस चावल के सहारे इन आदिवासियों को अपनी भूख मिटानी है, अपना क्रोध मिटाना है और भुलाना है अपना पूरा का पूरा दर्द भी. ६ साल की बच्ची मड़वी भीमे तक को पीटा गया हम गाँव में उसकी तलाश कर रहे थे पर वह नहीं मिल सकी. लोगों ने बताया कि उसे सिर्फ इसलिए पीटा गया कि वह अकेली घर के बाहर खड़ी होकर रो रही थी. इसके पहले भी सलवा-जुडुम द्वारा २००९ में ताड़मेटला के कुछ घरों में आग लगाई जा चुकी है. कुछ लोग फिर से अपने घरों को बनाने के बारे में सोच रहे हैं और कुछ जिंदा रहने के लिए भूख की जरूरतों के बारे में. गाँव के बीचोबीच गाँव वालों के सहयोग से माओवादियों ने एक तालाब बनवाया है और सरकार ने इनकी झोपड़ियों के लिये आग, आखिर इन्हें किधर कूदना चाहिये. सोड़ी भीमा, गोंचे भीमा, मिड़ियम आयता, ताती अड़मा, एलमा देवा, लेकम उंगा ये सब इमली के एक पेड़ के नीचे इकट्ठा होकर शायद ऐसा ही कुछ सोच रहे थे. एस.डी.एम. आकर जा चुके हैं उन्होंने लिस्ट बनाने को कहा है और यह भी कि वे नुकसान की पूरी भरपाई करेंगे. भरपाई पीड़ाओं की, दुखों की, त्रासदी की तरह बीत रहे समय की और उसकी भी जो माड़वी जोगी के साथ हुआ.

मोरपल्ली गाँव के ३३ घरों को ११ मार्च को ही जला दिया गया. इन तीन गाँवों को जलाने की शुरुआत इसी गाँव से हुई. गाँवों

में लगाई गयी आग और जले हुए घरों की शक्ल के अलावा भी इसकी कुछ अलग कहानी है. ११ मार्च की सुबह पहले इस गाँव को लूटा गया. आदिवासी समाज में लुटने के लिये बत्तखे होती हैं, बकरियाँ होती हैं और मुर्गे इसके अलावा थोड़े बहुत पैसे जिसे वे अपने साथ ही लेकर चलते हैं. यह लूट कर जब सलवा-जुडुम (कोया कमांडो) के लोग जा रहे थे तो गाँव से १ किमी. की दूरी पर माओवादियों ने इस लूट के विरुद्ध उन पर हमला कर दिया. गाँव के लोगों ने बताया कि इस कुछ घंटे की कार्यवाही के दौरान ३ कोया कमांडो मारे गये और ९ धायल हुए. इस घटना में सुदर्शन नाम से एक माओवादी की भी मौत हुई और दो माओवादी जिसमे एक महिला भी शामिल है घायल हुए. तेरह मार्च के अखबारों में ३२ माओवादियों के मारे जाने की यही खबर थी. एक माओवादी के मारे जाने को ३२ की संख्या बताई गयी. गाँव के लोगों का कहना था कि मारे गये कोया कमांडो में एक महत्वपूर्ण लीडर भी मारा गया, इसके बाद लगातार इन गाँवों पर हमले किए गये. ३२ माओवादियों के मारे जाने की खबर और लगातार चल रही मुठभेढ़ की भ्रामकता ने इस इलाके की नाकेबंदी करने में मदद की ताकि गाँवों में आगजनी और तबाही को अंजाम दिया जा सके. चिंतलनार के निकट पोलमपल्ली गाँव में लगातार हवाई फायरिंग की जाती रही ताकि यह दर्शाया जा सके कि मुठभेड़ चल रही है और पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को इस बिना पर रोक दिया गया यहाँ तक कि स्थानीय प्रशासन को भी. किसी भी तरह की राहत सामाग्री नहीं पहुंचाई जा सकी. यह बताया गया कि माओवादियों ने आगे के रास्तों पर बम बिछा रखा है. मोरपल्ली में एमला गुडे और माडवी गुडे के साथ बलात्कार किया गया. माड़वी सुले जो आगजनी के भय से भागकर एक इमली के पेड़ पर चढ़ गये थे उन्हें पेड़ पर ही गोली मार दी गयी. अंदाजा लगाया जा सकता है एक चिड़िया के शिकार की तरह रहा होगा यह वाकिया. इसके पहले २००७ में मोरपल्ली के ५० से अधिक घरों को सलवा-जुडुम द्वारा जलाया गया था और अब जबकि गाँव के लोग फिर से जीने की मूलभूत जरूरतों को जुटा चुके थे और जुटा रहे थे इन्हें सलवा-जुडुम की तबाही का एक और मंजर देखना पड़ा. एलमा गुडे की उम्र तीस साल है. जब उनको पकड़ कर उनके साथ बलात्कार किया गया तो वे महुवा बीन कर लौट रही थी. माड़वी लके को उनके पिता माड़वी जोगा और भाई माड़वी भीमा के साथ चिंतलनार स्टेशन ले जाया गया. इसका महज अंदाजा लगाया जा सकता है कि जब लके के साथ बलात्कार किया जा रहा था तो बगल की कोठरी में भाई और पिता उसकी चीखने की आवाजें सुन रहे थे, बेबस और निःशब्द होकर या शायद भय और विभत्सता में उन्होंने इन चीखती आवाजों को मंजूर कर लिया हो. दूसरी सुबह लके को निरवस्त्र अवस्था में ही पिता और भाई के हाथ सौप दिया गया. जहाँ से गांव तक वह उसी स्थिति में आने को मजबूर थी. गाँव के लोग हमे आगजनी करने वाले लोगों के नाम गिना रहे थे और उनके गाँव भी. दण्डकारन्य के इस इलाके में दूर-दूर तक फैले आदिवासी गाँवों में सब एक दूसरे को जानते हैं. इन गाँवों तक पहुंचने का कोई एक रास्ता नहीं होता, दिशाएं होती हैं और सूखी हुई पत्तियों के नीचे एक लकीर जिनके सहारे जंगल की झाड़ियां और छोटे पहाड़ों को पार करते हुए दूसरे गाँव तक पहुंचा जा सकता है. यह एक कठिन डगर है किसी बाहरी व्यक्ति के पहुंचने पर ग्राम कमेटी के लोग उसकी तफ्सीस करते हैं और लगातार संदिग्ध निगाहों से उसे परखते हैं. रात के वक्त कुछ टार्चें आपके नजदीक आती हैं, अपने कंधों पर रेडियो टांगे एक बच्चे को गोंद में उठाये और वे आपसे वाकिफ होते हैं. दरअसल यह माओवादियों की इंटेलीजेंसिया है जो बच्चे के रूप में, किसी बूढ़े के रूप में या फिर किसी नवजवान के रूप में आपसे मुलाकात करती है. गाँवों में घूमते हुए हमने माओवादियों के वे पर्चे भी प्राप्त किये जिसमे इस घटना की निंदा की गयी थी और सामाजिक कार्यकर्ताओं व मानवाधिकार कार्यकर्ताओं से इसे उजागर करने की अपील की गयी थी. तीन गाँवों का जिक्र करते हुए वह चौथा गाँव छूट जाता है जहाँ से बाड़से भीमा को लाकर तीमापुरम में १३ मार्च को काट दिया गया था. उन्हें पुल्लमपाड़ से लाया गया था. मोरपल्ली में आगजनी के वे चश्मदीद गवाह थे और सलवा-जुडुम के पूरी तरह से खिलाफ. लिहाजा उन्हें सिर्फ जिंदगी से ही हाथ नहीं धोना पड़ा बल्कि उनके अंगों को विभत्स तरीके से काटा गया. बाड़से भीमा की हत्या के पहले ही गाँव के लोग घर छोड़कर भाग गये और ३३ घरों को कोया कमांडो ने आग के हवाले कर दिया. मिसमा गाँव के करतम दुला, चरकाम गाँव के वंजम देवा, जगन्ना गुड़ा गाँव से रमेश और न जाने कितने नामों को गाँव वाले बता रहे थे, ये उनके नाम थे जो आगजनी करने में शामिल थे. तारमेटला के अलावा मोरपल्ली और तीमापुरम में अभी तक कोई राहत सामाग्री सरकार द्वारा नहीं पहुंचाई जा सकी. गाँव के लोगों ने बताया कि माओवादियों की जनताना सरकार की तरफ से हर घर को १००० रूपए और कुछ अनाज तेल दिया गया है जिसके सहारे वे पेड़ों के नीचे अपना पेट भरते हुए, अपने जले हुए घरों को फिर से ठीक करने को सोच रहे हैं.

जब राज्य अपनी बनायी हुई संस्थाओं यहाँ तक कि सर्वोच्च संस्थाओं से मुंह मोड़ ले, उसके आदेशों की अवहेलना करे तो शायद लोगों के बीच उसकी वैधता खो ही जानी चाहिए. सर्वोच्च न्यायालय ने पिछले दिनों सलवा-जुडुम को बंद
करने का आदेश दिया पर वह जारी है. सर्वोच्च न्यायालय ने सैन्य बलों के कैम्प के रूप में प्रयुक्त किए जा रहे स्कूलों को खाली करने का आदेश दिया उसे अभी तक लागू नही किया गया. माओवादियों के उन्मूलन के लिए ९० के दशक से अब तक कई प्रयोग किए जा चुके हैं जो विफल रहे हैं. जन जागरण के नाम पर, शांति अभियानों के नाम पर. पुलिस यहाँ स्कूल अध्यापक बन कर आती, माओवादी दलम की शक्ल में वह घूमती और आदिवासियों के साथ जमीन पर बैठकर माओवादियों जैसा व्यवहार करती. पर यह सब, कुछ दिन ही चल सका बाद में गाँव वालों द्वारा उन्हें पहचान लिया गया और पुलिस को वहाँ से भागना पड़ा. दण्डकारन्य एक नाटक के मंच सा हो गया जहाँ सबकुछ वास्तविक रूप में खेला जा रहा है. हत्या के बाद वहाँ कोई पात्र उठकर अपने कपड़े नहीं बदलता, घटनाओं की जगह और शक्ल बदल जाती है हर बार वे और बढ़ जाती हैं. एक कहानी जो लंबे समय से किसी खेल की तरह आदिवासियों के साथ खेली जा रही है. साल, दिन और मौसम बदल रहे हैं, जिंदगियां यहाँ ठहर सी गयी हैं, पुरानी दहशतों को याद करती हुई और नये दहशतों के इंतजार में.
सम्पर्क- 9890987458, mail- chandrika.media@gmail.com

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें