15 अप्रैल 2011

नारों, गीतों और पोस्टरों के बिनायक सेन


बिनायक सेन को उच्चतम न्यायालय द्वारा आज बेल के तहत रिहाई का आदेश दे दिया गया. इसके साथ सुप्रीम कोर्ट ने कुछ टिप्पणियां भी की हैं. मसलन माओवादी समर्थक होना देशद्रोह नहीं है, जैसे गांधी की पुस्तक किसी के घर में मिलने से कोई गांधीवादी नहीं हो जाता वैसे ही कोई माओवादी साहित्य रखने से माओवादी नहीं साबित किया जा सकता. प्रतिक्रियाएं थी लोकतंत्र की जीत है....प्रतिक्रियाएं थी की लोकतंत्र बचा हुआ है. निश्चिततौर पर राज्य के न्यायपालिका में एक संकीर्ण दृष्टिकोंण व राज्य के दबाव भी काम करते हैं. हमे इस फैसले का स्वागत भी करना चाहिए. पर अहम है कि एक फैसला यह साबित कर सकता है क्या? उन ७०० लोगों का क्या जो २०१० के जमवरी, फरवरी, मार्च व अलग-अलग महीनों में छत्तीसगढ़ की जेलों में कैद कर दिए गये. उन पर भी कम-ओ-बेस यही आरोप हैं. उनमे से कुछ ने सिर्फ दिल्ली का नाम सुना है...कुछ के परिवार वालों व सम्बन्धियों ने पहली बार कोर्ट देखा. कुछ वह भी नहीं देख पाये कि बस्तर से या दांतेवाड़ा से रायपुर आना बहुत मंहगा है, वे इसकी कीमत नहीं अदा कर सकते, जिंदगी इन यात्राओं से सस्ती है.........माडरेटर
यह आलेख गुंजेश द्वारा लिखा गया है. जो हिन्दी के युवा कथाकार हैं और अखबारों में राजनैतिक मसलों के स्वतंत्र टिप्पणीकार भी.
डॉ. बिनायक सेन को रिहा करने की मांग को लेकर निकले जुलुस से लौटे चार महीने से ज़्यादा हो गए हैं। बिनायक सेन को पहली बार 19 या 20 फ़रवरी को त्रिचुर, केरल में देखा था यानि अब से लगभग 15 महीने पहले। फिर आज से साल भर पहले बिनायक सेन को विश्वविद्यालय में गाते हुए सुना था "आसमा पर है खुदा और ज़मी पर हम आज कल वो इस तरफ देखता है कम। "चार महीने पहले चार जनवरी को जो बिनायक सेन का जन्म दिन भी था, इलिना सेन बोलते हुए रुक जाती थीं, तो अचानक बिनायक बोलने लगते थे... पोस्टरों में, नारों में, गीतों में, बरगद के नीचे पसरी चुप्पी में, वक्ताओं के वक्तव्यों में, अपनी सधी हुई आवाज़ में वो मेरी स्मृतियों में थे और इलिना सेन कि लरजती आवाज़ में मेरे सम्मुख। पता नहीं क्यूँ स्मृतियाँ इतनी गड्डमड्ड हो गई थी। केरल में डॉ. बिनायक को बोलते हुए सुना था और मेरे साथ उस हॉल में बैठे पाँच सौ से ज्यादा लोग और उनके सांसों में गई हवा, उनके आँखों के सामने की रौशनी, और ३ घंटे का वो पूरा समय इस बात का गवाह है कि डॉ. सेन ने हिंसा का समर्थन कभी नहीं किया। उन्होंने खुले स्वर में कहा था कि वो डॉ. हैं और उनका काम है इलाज करना, 24 दिसंबर को फैसले के बाद भी अपने बयान में बिनायक सेन ने यही कहा। चार जनवरी को भी हम यही दुहरा रहे थे। हम कोई ऐतिहासिक नहीं बल्कि 'इतिहासिक' काम कर रहे थे। हम वही कर रहे थे जिसके लिए इतिहास ने हमें तैयार किया था। विश्विद्यालय से जुलुस निकल रहा था और मन हुलस रहा था कि हमारे इतिहास ने जो हमारे मेरे लिए तय कर रखा है हम वह कर रहे हैं। पर सवाल यह था कि एक आदमी जो एक स्वस्थ छतीसगढ़ के सपने देखता है जो मानवाधिकारों की सुरक्षा की लडाइयों में शामिल रहा है, त्रिचुर में जिसका इंतजार वहाँ की सम्पन्न प्रेस आँखें बिछाये कर रही थी। आखिर किन साजिशों के कारण उसे गिरफ्तार किया गया। कहीं यह गिरफ्तारी साजिशन तो नहीं हुई है, अगर यह साजिशन हुई है तो क्या यह संविधान के साथ सरकारों की चार सौ बिसी नहीं है ? अगर है तो फिर तो क्या इसका जबाब सिर्फ बिनायक सेन जिंदाबाद का नारा है ? महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के छात्र और शिक्षक जनवरी की गुनगुनी धुप में नारों-गानों के साथ वर्धा की सड़कों पर निकलेंगे यह भी शायद इतिहास ने तय कर रखा होगा, पर मन अगर इतिहास से मुठभेड़ कर रहा था तो इस बात पर की तुमने ने यह सब ,बकौल ओबामा, दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए ही क्यों तय रखा है और अगर इतिहास इतना शक्तिशाली है तो फिर हम कौन हैं जो वर्तमान में जीने का दंभ भरते हैं, क्या हम उसी भारत के नागरिक हैं जिसने दुनिया की सबसे हसीन किताब में खुद को लोकतान्त्रिक और समाजवादी राज्य घोषित किया है। जो यह सुनिश्चित करने का दावा करती है कि सौ गुनहगार छुट जाएँ पर एक बेगुनाह को सज़ा न मिले। सवाल सिर्फ बिनायक सेन का होता तो बात उतनी नहीं थी यह सवाल उन सभी लोगों का है जिनके लिए बिनायक काम करते हैं, जिनके बारे में बिनायक सोचते हैं। शुक्रवार को आयी खबर के अनुसार सुप्रीम कोर्ट ने मानवाधिकार कार्यकर्ता और चिकित्सक बिनायक सेन की जमानत याचिका को मंजूरी दे दी है। कोर्ट ने अपने निर्देश में कहा है, "बिनायक सेन के ख़िलाफ़ राजद्रोह का आरोप नहीं बनता। हम एक लोकतांत्रिक देश हैं, बिनायक नकस्लियों से सहानुभूति रखने वालों में से हो सकते हैं लेकिन इस बिनाह पर उनके ख़िलाफ़ राजद्रोह का मामला नहीं लगाया जा सकता।" यह देश की सर्वोच्य न्यालय का फैसला है क्या इस फैसले के आलोक में निचली अदालत और उसकी निष्पक्षता पर शक नहीं किया जा सकता है? क्या यह फैसला कहीं- न कहीं यह साबित नहीं करता है कि दोनों अदालतों के पास एक ही मामले को देखने के दो पैमाने थे? आज जब देश कि ज़्यादातर मीडिया इस फैसले को लोकतन्त्र की जीत और न जाने क्या क्या घोषित करेगी तब कहीं न कहीं ठहर कर हमें यह भी सोचना होगा की 25 दिसंबर से 15 अप्रैल तक बिनायक को सलाखों के पीछे रखने का जिम्मेदार कौन होगा?
हमें यह भी सोचना होगा की हमारी न्याय प्रणाली में अगर बिनायक सेन जिनके साथ विश्व भर के बुद्धिजीवी लगे थे ऐसा व्यवहार हो सकता है तो फिर उन हजारों लाखों लोगों के साथ क्या होता होगा जो कई सालों में अपने ऊपर लगे आरोपों पर कोई फैसला पाते होंगे और फिर उसी फैसले को ब्रह्म वाक्य की तरह स्वीकार कर लेते होंगे। क्या यह सही समय नहीं है जब देश भर की मीडिया को बिनायक के साथ हुई इस पूरी कानूनी प्रक्रिया का सार्थक विश्लेषण कर देश के सामने रखना चाहिए। फैसले को किसी उत्सव की तरह न लेकर उसे एक मौके की तरह लेना चाहिए। एक ऐसा मौका जब देश की तमाम लोकतान्त्रिक संस्थाओं को अपने गिरेबान में झाँके से नहीं शर्माना चाहिए। क्या यह सही समय नहीं है जब सही अर्थों में लोकतन्त्र और न्याय व्यवस्था को पुनः परिभाषित किया जाना चाहिए?
सम्पर्क- gunjeshkcc@gmail.com

1 टिप्पणी:

  1. *मेरा काम है इलाज करना*
    बिनायक अपना काम जारी रखें. भविष्य के लिए उदाहरण बनें.

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