09 नवंबर 2012

आम आदमी की तलाश में

इन दिनों आईआईटी, खड़गपुर में पढ़ा रहे आनंद तेलतुंबड़े यहां अरविंद केजरीवाल के अपने विश्लेषण के जरिए भारतीय व्यवस्था, इसके क्रांतिकारी विरोध और नव उदारवादी अर्थव्यवस्था में भ्रष्टाचार की जगह पर रोशनी डाल रहे हैं. तेलतुंबड़े अपने ब्राह्मणवाद और साम्राज्यवाद विरोधी क्रांतिकारी लेखन और अपनी राजनीतिक-सामाजिक सक्रियता के लिए जाने जाते हैं. खैरलांजी पर उनकी किताब को देश और दुनिया में बेहद सराहना मिली है. मूल अंग्रेजी लेख हार्डन्यूज में प्रकाशित. अनुवाद: रेयाज

 आप बस अरविंद केजरीवाल की तारीफ कर सकते हैं. जिस उत्साह के साथ उन्होंने भ्रष्टाचार के मुद्दे के आगे सारे मुद्दों को फीका कर दिया है, जिस रणनीति के तहत उन्होंने लोगों को जुटाने के लिए अन्ना हजारे के नैतिक प्रभुत्व का इस्तेमाल किया, जिस कौशल से वो हजारे और उनकी टीम के साथ तकरार से निबटे, जिस खूबी के साथ वो राजनीति में दाखिल हुए, जिस फुर्ती के साथ उन्होंने जाहिर विरोधाभासों को छुपाया, और जिस अनथक उत्साह के साथ वो अपने आप को आगे बढ़ा रहे हैं, ऐसी कोई दूसरी मिसाल आसानी से नहीं मिलती. इन दिनों किसी सार्वजनिक हित के मुद्दे का इस्तेमाल करते हुए, नवउदारवादी चक्कियों में पिसते हुए, बिखर रहे अलग-अलग व्यक्तियों को आकर्षित करना आसान नहीं है, और इसे एक साल से ज्यादा वक्त तक बरकरार रखना एक औसत उपलब्धि नहीं है. भले उनसे सहमत हों या नहीं, उन्होंने इस देश के राजनीतिक क्षितिज पर एक निशान छोड़ दिया है और व्यवस्था के इस अहम पहलू को उजागर किया है कि यह जनवादविहीन है.
ऐसा उऩ्होंने कैसे किया? वो जिस राजनीति में कूद पड़े हैं, क्या वो उसे आगे बढ़ा पाने में कामयाब हो पाएंगे? ये कुछ सवाल हैं जो इस संदर्भ में प्रासंगिक रूप से उठ खड़े हुए हैं.
भारत अनेक गंभीर समस्याओं से ग्रस्त है जैसे कि गरीबी, तेजी से बढ़ती असमानता, कुपोषण, अल्पपोषण, नवजात मृत्यु दर, बीमारियां, साफ-सफाई, पेयजल, भोजन, शिक्षा, किसानों की आत्महत्याएं, बढ़ती आपराधिकता और इसी तरह की समस्याएं. सीधे-सीधे आबादी के पांच में से चार हिस्से इससे पीड़ित हैं. हालांकि संभवत: इनमें से एक भी समस्या केजरीवाल के लोगों को नहीं सूझी होती. असल में एक समस्या के बतौर भ्रष्टाचार को और उसके समाधान के बतौर जन लोकपाल को चुनना एक गहरी चाल थी.
ऐसा इसलिए नहीं कि भ्रष्टाचार कम आमदनी वाले तबकों को सबसे ज्यादा परेशान करने वाली व्यापक समस्या है. बल्कि इसलिए क्योंकि भ्रष्टाचार राजनीतिक वर्ग और राज्य की संरचना के साथ जुड़ा हुआ है, जिनसे नव उदारवाद के दौर का बाजार-प्रेमी मध्यवर्ग खास तौर से नफरत करता है. अगर इस मुद्दे को महज भ्रष्टाचार तक छोड़ दिया जाता तो यह उतना आकर्षक नहीं रहा होता. इसलिए इसमें संतुलन लाने के लिए जन लोकपाल के रूप में एक एकांगी समाधान भी पेश किया गया.
खास तौर से नव उदारवाद के पास किसी भी समस्या का फौरी समाधान है. यह हर चीज को अलग-थलग संबंधों में देखता है और उन्हें इसके व्यवस्थागत संबंधों से अलग कर देता है. इससे स्वाभाविक रूप से विभिन्न संस्थाएं जिस जटिल तानेबाने का हिस्सा होती हैं, उसे नजरअंदाज कर दिया जाता है. जब मार्ग्रेट थैचर ने कहा था कि समाज जैसी कोई चीज नहीं होती, कि सिर्फ व्यक्ति और उनकी समस्याएं होती हैं, तो वो मूल रूप से नवउदारवादी विचारधारा की ही व्याख्या कर रही थीं. एक अलग-थलग व्यक्ति की किसी समस्या की वजह उसके भीतर प्रतिस्पर्धात्मकता की कमी बता दी जाती है, इसका समाधान ये है कि वो ज्यादा कड़ी कोशिश कर सकता है.
जन लोकपाल का समाधान मौजूदा ढांचे के भीतर भ्रष्टाचार का एक फौरी समाधान है. इस तरह केजरीवाल के पास दोनों हैं, समस्या भी और समाधान भी. और दोनों ही फलते-फूलते नवउदारवादी मध्य वर्ग को सीधे-सीधे आकर्षित करते हैं.
भ्रष्टाचार की समस्या के प्रति आकर्षण का दूसरा पहलू ये है कि इसे बाजार के तर्क की एक विकृति के रूप में देखा गया है. यह वैश्विक बाजार में ‘ब्रांड इंडिया’ पर एक कलंक है और भारत को एक ‘महाशक्ति’ बनाने की राह में एक गंभीर बाधा है. पहले के चार दशकों के दौरान अपमानजनक हिंदू वृद्धि दरों से परे जीडीपी वृद्धि में बढोतरी ने भारत में इन लोगों को उत्साह से भर दिया है. वो भ्रष्टाचार को अपनी संभावनाओं को नुकसान पहुंचाते देखने से नफरत करेंगे. जो भी हो, एक वर्ग के बतौर उनके अपने हित तो इसके उभार से ही जुड़े हैं. मौजूदा ढांचे के भीतर ही समस्या और समाधान की इस समझ ने, जिसने उनकी अपनी दुनिया पर ही तबाही का खतरा पैदा कर दिया है, शहरी मध्यम वर्गों का ध्यान इसकी तरफ खींचा है और उनको केजरीवाल के आसपास जमा होने को मजबूर किया है. उनको भरोसा है कि एक बार जन लोकपाल लागू हो जाए, फिर भ्रष्टाचार की ज्यादातर समस्या हल हो जाएगी.
उनकी लामबंदी में सबसे पहले तो हजारे के मसीहाई शुभंकर ने उत्प्रेरक की भूमिका निभाई. भ्रष्टाचार के मुद्दों पर महाराष्ट्र में ताकतवर नेताओं से भिड़ने के साहस, कठोर अनुशासित जीवन और सीधी बातों ने पहले ही नैतिक रूप से उनका कद बढ़ा दिया था. हजारे गांधी नहीं है लेकिन लोगों को आकर्षित करने के गांधी के करिश्मे की याद दिलाते हैं. सरकार को अपेक्षा थी कि मध्यवर्ग का सब्र चुक जाएगा और इसने एक नपी-तुली प्रतिक्रिया जताई, शुरू में तो उसने नजरअंदाज किया, फिर इसे भाजपा की बी टीम का कह कर उसकी निंदा की और फिर उससे बातचीत में मशगूल हुई.

भ्रष्टाचार से नफरत करनेवाले नवउदारवादी मध्यम वर्गों और बाजार के लेन-देन के लिए भ्रष्टाचार को एक स्नेहक या लुब्रिकेंट के रूप में लेने वाले नवउदारवादी शासकीय वर्गों के नजरिए में टकराव पैदा हुआ. बहसें बीच में रुक गईं. सरकार ने शर्मिंदगी छुपाने के लिए संसदीय शुद्धता का अपना वही पुराना राग अलापा और टीम अन्ना को जनादेश हासिल करने की चुनौती दी. राजनीति की गंदगी को सरेआम भला-बुरा करने के बाद टीम अन्ना के लिए इसके जरिए जनादेश हासिल करने के विकल्प का तो सवाल ही नहीं पैदा होता था.
कुछ विराम के बाद जब आंदोलन को फिर से शुरू किया गया तो बिखराव और थकान के विभिन्न संकेत दिखे. बेसब्र मध्य वर्ग एक समाधान न दिखने से निराश था. केजरीवाल ने इसे महसूस किया और चुनावी राजनीति में शामिल होने का एलान करके अपने समर्थकों की जमात को नए उत्साह से भरा. हजारे हिचके और फिर नाराज हो गए.
केजरीवाल सम्मानजनक तरीके से उनसे अलग हुए और रॉबर्ट वाड्रा, सलमान खुर्शीद और नितिन गडकरी जैसे नामचीन लोगों के भ्रष्टाचार को उजागर करते हुए हरकत में आए. गडकरी को शायद उन्होंने भाजपा के प्रति नरम पड़ने के आरोपों का खंडन करने के लिए शामिल किया. उन्होंने यह पेशकश रखी कि उनकी पार्टी ‘जनता’ को केंद्रीय रंगमंच पर लाएगी और विस्तार से ये बताया कि उम्मीदवार खुद जनता द्वारा ही तय किए जाएंगे. हजारे तक ने कहा कि वो उनका समर्थन करेंगे.
इस पेशकश के तौर-तरीकों संबंधी अव्यावहारिकता के बावजूद कोई पूछ सकता है कि केजरीवाल को उम्मीदवारों के लिए अच्छे आदमी कहां से मिलेंगे? क्या चीज यह सुनिश्चित करेगी कि सत्ता मिल जाने के बाद भी वो अच्छे बने रहेंगे? हो सकता है कि उनके चुनाव लड़ने का पैसा खुद मतदाताओं से ही आने से इस क्षेत्र में भ्रष्टाचार का सांस्थानिक आधार, कम से कम उसूली तौर पर, गायब हो जाए, लेकिन अनगिनत दूसरे मुद्दे गायब नहीं होंगे.
कोई पूछ सकता है अगर इस देश की तीन चौथाई आबादी 20 रुपए रोज से कम पर गुजर कर रही है तो क्या वो सचमुच केजरीवाल की चुनावी मशीन का खर्च उठा सकने के काबिल होगी?
हालांकि केजरीवाल ने एक सामाजिक आंदोलन खड़ा करके एक घाघ रणनीतिकार के बतौर अपना कौशल साबित किया है, लेकिन वो चुनावी राजनीति की जटिलताओं को समझने में अपना बचकानापन भी जाहिर कर चुके हैं. वो नहीं महसूस कर पाए कि वो विरोधी द्वारा बिछाए गए फंदे में फंस चुके हैं, जो उनके आगे अपने में मिला लिए जाने या फिर कूड़े की तरह फेंक दिए जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं छोड़ेगा. हो सकता है कि भ्रष्ट लोगों के मामलों को उजागर करने का मौजूदा दौर, धरना या नारेबाजियों का शोर लोगों को तब तक रोमांचित करे जब तक वो अनोखे बने रहें, टीवी के पर्दों पर उन्हें जगह मिलती रहे, लेकिन जल्दी ही वो यह अनोखापन खोने लगेंगे. वो राजनीतिक वर्ग को परेशान कर सकते हैं, उसे सचमुच सजा नहीं दे सकते.
क्या कोई वाड्रा या खुर्शीद या गडकरी के जेल जाने की कल्पना कर सकता है? केजरीवाल को यह समझना होगा कि वो इस व्यवस्था की उपज हैं, जो ताकत के बल पर उनकी हिफाजत करेगी. जिन लोगों पर केजरीवाल ने उम्मीदें टिका रखी हैं, उनकी इस व्यवस्था में कोई जगह नहीं है. वो यहां इस जारी लूट की प्रक्रिया को जायज बनाने के लिए हैं. चुनावों के आते ही उन्हें यह समझ में आ जाएगा कि उनका सारा भंडाफोड़ और उनका विरोध धनबल और बाहुबल की घिनौनी दलीलों से पार पाने में नाकाम होंगे. इसके परे यह व्यवस्था की दलील है जो आपको अपने भीतर खींच लेती है या फिर आपको हाशिए पर फेंक देती है.
क्या केजरीवाल इतने भोले हैं कि वो यह सब समझ नहीं सकते? जो व्यक्ति आईआईटी, खड़गपुर से पढ़ा हुआ हो, जिसने भारतीय राजस्व सेवा में बरसों अपनी सेवा दी हो, और जिसका बरसों तक एक कार्यकर्ता के बतौर भी लोगों से खासा जुड़ाव रहा हो, यकीनन उससे इतने भोले होने की उम्मीद नहीं की जा सकती. चाहे बात भ्रष्टाचार की प्रक्रियाओं के बारे में हो या चुनावी राजनीति की गतिकी की. मिसाल के लिए, जब वो भ्रष्टाचार पर ध्यान केंद्रित करते हैं तो क्या वो ये नहीं जान रहे होते हैं कि यह महज एक लक्षण है, बीमारी नहीं?
ऐसा हो सकता है कि हमारे राजनीति वर्ग की सड़न को एक ऐसी बात के रूप में लिया जाए जो अपने आप में ही सिद्ध हो. लेकिन तब हमारी प्रातिनिधिक लोकतंत्र की संस्थागत संरचना इसकी जड़ में है. और उस कॉरपोरेट भ्रष्टाचार के बारे में क्या, जो इस संरचना को कायम रखे हुए है?
तथ्य ये है कि 1991 के बाद का ‘खुले दरवाजे वाला’ भारत वैश्विक पूंजी के विशाल नेटवर्क का एक सिरा है, जिसे भ्रष्टाचार से कोई नैतिक परहेज नहीं है. केवल भारत में ही नहीं पूरी दुनिया में पिछले दो दशकों में भ्रष्टाचार की तेजी से बढ़ती हुई दर इस तथ्य की पुष्टि करती है. क्या केजरीवाल की लफ्फाजी इस दैत्य को रोक सकती है? जिस हद तक उनका अभियान नव उदारवादी उसूलों का पूरक रहा है, उसे देखते हुए उसे इस दैत्य का पालन-पोषण करनेवाले के रूप में ही देखा जा सकता है.
राजनीतिक केजरीवाल का नया आदर्श वाक्य है ‘मैं आम आदमी हूं’ (विडंबना यह है कि यह नवउदारवादी मनमोहन सिंह और कांग्रेस पार्टी का शगूफा है) जो टीम अन्ना में टूट के बाद सामने आया है. यह ‘मैं अन्ना हूं’ से बेहतर है जो कुछ कुछ 1970 के दशक के शुरुआती बरसों में कोलकाता की दीवारों पर ‘चीन का चेयरमैन हमारा चेयरमैन’ जैसा लगता था. टूट ने लोगों को असमंजस में डाल दिया, जिन्हें अन्ना की बातों और रामदेव की लफ्फाजियों में एक भगवा धमक सुनाई देती थी. क्या केजरीवाल ने उनसे खुद को अलग कर लिया है?
शायद, हां. वैसे भगवा ताकतों द्वारा अपनी पकड़ में सभी संभावित विकल्पों के निर्माण की रणनीति को नजर में रखें तो कोई बहुत यकीन से कुछ नहीं कह सकता. यकीनन एक चीज जो जाहिर तौर पर दोनों में समान है वो है देश पर शासन करने के लिए ‘अच्छे लोगों’ को हासिल करने पर उनका जोर: एक लोकपाल बनने के लिए एक अच्छा आदमी, चुनाव लड़ने के लिए अच्छे उम्मीदवार, नौकरशाही के लिए अच्छे आदमी और इसी तरह. कोई पूछ सकता है कि एक सड़ी हुई व्यवस्था में अच्छा आदमी कहां खोजा जाए?
इस सवाल का तर्कसंगत जवाब सिर्फ भारतीय जेलें हो सकती हैं, क्योंकि यही वो जगह है जहां वे लोग रखे जाते हैं जो मौजूदा व्यवस्था के लिए अस्वीकार्य साबित हुए हैं. असल में उन लोगों का देशद्रोह के आरोपो में भारतीय जेलों में दिन गुजारना इस बात का संकेत है कि उन्होंने इस व्यवस्था से नफरत किया था और इसे पूरे तौर पर बदलना चाहते थे. सिर्फ यही लोग भारत में बचे रह गए अच्छे लोग हो सकते हैं.
क्या केजरीवाल और उनके ‘लोग’ उनके बारे में सोचेंगे?

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