12 नवंबर 2012

हम किससे डरें नेल्सन मंडेला! भाग-2

मंडेला के देश में चार दिन

 -उर्मिलेश      
उर्मिलेश
हमारी गाड़ी एक पुराने इलाके की तरफ बढ़ रही है। जोहान्सबर्ग के नए इलाकों से यह काफी अलग है। सड़क से महज दस-पंद्रह मीटर की दूरी पर पीले-मटमैले रंग के एक ऊंचे टीले और उसके चारों तरफ लगे कंटीले तारों को दिखाते हुए मैंने अपने डाइवर से पूछा, ‘यह क्या है?’ उसने कहा, ‘सोने की खदान। यहां अब खुदाई नहीं हो रही है। पर थोड़े-बहुत सोने अब भी मिलते रहते हैं।मैंने पूछा, ‘यह खदानें अब सरकार या स्थानीय अफ्रीकी लोगों के पास होंगी!उसने मुस्कराते हुए कहा, ‘यही तो समस्या है। इनका राष्टीयकरण नहीं हो सका। ज्यादातर सोने की खदाने बड़े निगमों और देश-विदेश के धन्नासेठों के पास ही हैं। इनमें काम करने वाले, खासकर खदान-मजदूर गरीब अफ्रीकी लोग हैं। इनकी तनख्वाह बहुत कम होती है। इससे इनमें भारी नाराजगी है।

यहां आने से पहले भारत में ही मैंने किसी अखबार या वेबसाइट पर पढ़ा था कि कैसे हाल में दक्षिण अफ्रीका के लॉनमिन प्लैटिनम खदान क्षेत्र के मजदूरों पर पुलिस या अर्द्धसैनिक बल ने गोलियां चलाईं, इसमें 34 लोग मार डाले गए। इस गोलीकांड ने रंगभेदी सरकारों के निरंकुश शासन के दिनों की याद ताजा कर दी। मैंने डाइवर से इस बाबत पूछा, ‘सुना है, हाल में प्लैटिनम खदान वाले एक इलाके में हड़ताल तोड़ने के लिए पुलिस ने गोली चलाकर 34 लोगों को मार डाला।उसने मेरी तरफ देखा और कहा, ‘सर, बहुत बड़ा गोलीकांड था। वहां अब भी शांति नहीं है। सरकार पूरी तरह मालिकों के साथ है। मजदूर लाचार हैं।मैं अपने मोबाइल पर नेट खोल कर उस घटना का ब्यौरा ढूढ़ने लगा। 16 अगस्त की इस नृशंसता पर दक्षिण अफ्रीकी सरकार को कोई अफसोस नहीं है जबकि दो खदान-क्षेत्रों में अब तक कुल 47 लोग मारे जा चुके हैं। इसमें अफ्रीकी नेशनल कांफ्रेंस की एक महिला कौंसिलर भी शामिल हैं, जिनकी मौत पुलिस की गोली से उस वक्त हुई, जब वह बाजार में कुछ खरीदने गई हुई थीं।

राष्ट्रपति जैकब जूमा के कार्यालय ने 21 सितम्बर, यानी जिस दिन हम जोहान्सबर्ग पहुंचे, बाकायदा फैसला किया कि सरकार खदान मजदूरों के प्रतिरोध को कुचलने के लिए पुलिस की मदद में अब सेना भेजेगी। इंटरनेशनल हेराल्ड टिब्यूनने वर्ल्ड न्यूज के अपने पेज पर इस खबर को सरकारी सूत्रों के हवाले छापा है-दक्षिण अफ्रीकी संविधान की धारा 201(1) के तहत प्लैटिनम खदान मजदूरों के प्रतिरोध-संघर्ष को कुचलने के लिए सरकार ने सेना को मरिकाना इलाके में तैनात करने का फैसला किया है ताकि वह स्थानीय पुलिस की मदद कर सके। सरकार के मुताबिक मजदूरों के आंदोलन से इलाके में कानून-व्यवस्था का संकट पैदा हो गया है। यह इलाका जोहान्सबर्ग के पश्चिमोत्तर में है।होटल लौटने पर मैंने एक स्थानीय पत्रकार से इस बारे में बातचीत की तो पता चला कि खदानों का प्रबंधन ही नहीं, राष्ट्रपति जूमा भी मजदूरों की वाजिब मांगों को सिरे से खारिज कर रहे हैं। इससे लोगों में नाराजगी है। मजदूरों की मांग है कि  उनकी महीने की तनख्वाह कम से कम 16000 रैंड की जाय। अभी उन्हें बमुश्किल 7000 से 8000 रैंड मिलते हैं, जो यहां के जीवन-स्तर और महंगाई को देखते हुए बेहद कम हैं।

जोहान्सबर्ग के पाश इलाकों की कांटेदार तारों और इलेक्ट्रॉनिक सुरक्षा-बंदोबस्त से घिरी बड़ी-बड़ी कोठियां श्वेतों की ही हैं। वे अपने घरों से अपनी लंबी चमचमाती गाडियों में या सुरक्षाकर्मियों के साए में ही निकलते हैं। सुबह सैर करते समय मैंने कई गोरे युवक-युवतियों के झुंड देखे, जो जॉगिंग कर रहे थे। मैंने एक स्थानीय सुरक्षाकर्मी से पूछा, ‘ये कौन लोग हैं, पर्यटक या स्थानीय लोग?’ उसने कहा, ये पास की कालोनी के यहूदी लोग हैं, जो बड़ी-बड़ी कोठियों में रहते हैं। इनके पास बड़े-बड़े बिजनेस हैं। असुरक्षित महसूस करने के चलते वे सुबह की सैर पर भी समूह में ही निकलते हैं। आमतौर पर उनके साथ सादी वर्दी वाले निजी सुरक्षाकर्मी भी होते हैं। सिर्फ श्वेतों या पर्यटकों के लिए ही नहीं, संपूर्ण जनता के लिए आज जोहान्सबर्ग में अपराध और भ्रष्ट्राचार, दो बड़ी चुनौतियां हैं। भ्रष्ट्राचार के मामले में दक्षिण अफ्रीका अपने देश की तरह ही नजर आता है। उनके नेता-अफसर भी मालामाल हैं। हालांकि भ्रष्ट देशों की सूची (ट्रांसपरेसी इंटरनेशनल द्वारा जारी) में दक्षिण अफ्रीका की स्थिति भारत से थोड़ी बेहतर है। अपने देश में अभी लोकपाल नहीं है लेकिन प्रिटोरिया में बाकायदा पब्लिक प्रोटेक्टरनाम से एक संस्था काम कर रही है, जिसका मुख्य मकसद भ्रष्टाचार-निवारण है। इस संस्था की सक्रियता से ही सन 2010 देश के मुख्य पुलिस आयुक्त जैकी सेलेबी, जो इंटरपोल के प्रमुख भी रह चुके हैं, को भ्रष्टाचार के मामले में दोषी ठहराकर दंडित किया गया।
प्रिटोरिया की सड़कों पर ये नजारे आम हैं।
उन पर एक क्राइम सिंडिकेट के सरगना से 1 लाख 20 हजार रैंड रिश्वत लेने सहित कई गंभीर आरोप थे। इसकी जांच के दायरे में कुछ मंत्री भी आए हैं। वैसे ही जैसे अपने देश में भी यदा-कदा कुछ(कम असरदार) नेता-अफसर भ्रष्टाचार के संगीन आरोपों के तहत जेल चले जाते हैं। हमारी सीबीआई और सीवीसी की तरह दक्षिण अफ्रीकी सरकार में भी स्पेशल इन्वीस्टिगेटिव यूनिट और नेशनल प्रासीक्यूटिंग अथारिटी जैसी संस्थाएं काम कर रही हैं। पर बढ़ती गैर-बराबरी, संगठित व छिटफुट अपराध और भ्रष्टाचार ने व्यवस्था के छिद्रों को और बड़ा कर दिया है। सन 94 के सत्ता-हस्तानांतरण के बाद समाज में समरसता, समता और उदारता का सपना देखा गया था लेकिन वह अंदर ही अंदर लगातार बिखरता गया है। बड़ी ताकतों एवं विश्व बैंक-आईएमएफ संपोषित आर्थिक सुधारों के दौर में जिस तरह असमानता बढ़ रही है और रोजगार बेहद सीमित हैं, उससे समाज में नए तरह की जटिलता आई है। असंतोष और अराजकता में भारी इजाफा हुआ है। जोहान्सबर्ग में सड़क चलते विदेशी पर्यटकों के साथ मारपीट या लूटपाट की वारदात के पीछे की असल कहानी यही है। पर्स छीनने या बटुआ लूटने वाले बेरोजगार युवाओं की बढ़ती फौज के लिए वे बड़े लोग जिम्मेदार हैं, जो सूट-बूटधारी विदेशी-लुटेरों के साथ मिलकर सोने और बहुमूल्य खनिजों से भरी इस धरती को दोनों हाथों से लूट रहे हैं और यहां की अकूत सम्पदा का एक बड़ा हिस्सा विदेशी महाप्रभुओं, बैंकों और कंपनियों के हवाले कर रहे हैं। 

अगले दिन हम सोवैटो गए, वही सोवैटो, जो रंगभेदी निरंकुश शासन के दौर में अफ्रीकी मुक्ति संग्राम का सबसे महत्वपूर्ण मुकाम हुआ करता था। उन दिनों प्रिटोरिया का मतलब रंगभेदी निरंकुश सरकार का मुख्यालय और सोवैटो का मतलब नेल्सन मंडेला के नेतृत्व वाले मुक्ति संग्राम का केंद्र था। सन 1976 में यहां जबर्दस्त जनविद्रोह हुआ था। इसकी शुरुआत छात्र-युवाओं ने की। वे अपनी शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी  की बजाय अफ्रीकी भाषाओं को बनाने की मांग कर रहे थे। 16 जून, 76 को निरंकुश सरकार ने युवाओं के एक जुलूस पर अंधाधुंध गोलियां बरसाईं, जिसमें 200 से अधिक लोग मारे गए थे। उसके बाद जनविद्रोह और भड़क उठा। इसे सोवैटो-अपराइजिंगके नाम से जाना जाता है।

सोवैटो के दौरे में हम चार लोग थे। पटना से आए कवि अरुण कमल, कथाकार ह्रषिकेश सुलभ और भोपाल से आए व्यंग्यकार डा. ज्ञान चतुर्वेदी। उस दिन हमने एक बड़ी गाड़ी ली, जिसमें कम से कम छह लोग बैठ सकते थे। चूंकि इस बार गाड़ी होटल के जरिए ली इसलिए थोड़ी महंगी थी। पर ड्राइवर बहुत समझदार आदमी था। वह अपने देश के भाषा आंदोलन का कार्यकर्ता रह चुका था। जोहान्सबर्ग के प्रमुख इलाकों से गुजरते हुए वह हमें सोवैटो ले गया। इनमें नेल्सन मंडेला संस्थान और उनका निवास भी शामिल थे। लगभग बीस लाख आबादी वाले सोवैटो पहुंचकर हमे पहली बार देसीपन का एहसास हुआ। देसी-मकान, देसी दुकान, देसी वाइन-रम और देसी लोग। नगर में एक तरफ निजी मकान हैं तो दूसरी तरफ 99 साल की सरकारी लीज वाले आवास। सोवैटो की सड़कों के किनारे बुजेलाके रंग-बिरंगे माडल लगे हैं। बुजेला पारंपरिक अफ्रीकी वाद्ययंत्र हैं। ये अपने देश के तुड़कों, धुधकों या तुरहों जैसे हैं।
अफ्रीकी संस्कृति और सोवैटो के ठेठ देसी-अंदाज का ये चित्र पेश करते हैं। लेकिन सोवैटो में वह गर्मजोशी नहीं दिख रही है, जिसकी हमने यहां आने से पहले कल्पना की थी। सड़क, दुकान और मकान, कहीं भी लोगों में अपना शासन पा लेने का उत्साह नजर नहीं आता। सड़क किनारे एक वाइनशाप से हमने वाइन की कुछ बोतलें और खाने का सामान खरीदा। वाइन खरीदते समय हमने (मैं और ह्रषीकेश सुलभ) देखा, कुछ अधेड़ और बुजुर्ग लोग सस्ती देसी शराब पीकर उदास बैठे हैं। कुछ के सामने खाली बोतल पड़े थे। शाप में हमारे ड्राइवर एबी भी साथ थे। हम लोग जहां भी गाड़ी से उतरते, वह हमारे साथ-साथ रहते। उनके कहे बगैर हम उनकी भलमनसत और सतर्कता को अच्छी तरह महसूस कर रहे थे। जब हम अपना सामान लेकर बाहर निकलने लगे तो हमने वहां टुन्न होकर बैठे स्थानीय जनों का अभिवादन किया। उन्होंने आदर के साथ उसका जवाब दिया।  

स्वदेश रवाना होने से एक दिन पहले यानी 24 सितम्बर को हम प्रिटोरिया गए, जो जोहान्सबर्ग के पास ही है। जोहान्सबर्ग से जिस रास्ते हम प्रिटोरिया गए, वह काफी चौड़ा है। हमारे ड्राइवर ने बताया कि यही सड़क जिम्बाव्वे के हरारे चली जाती है। दूसरी तरफ मोजाम्बिक का रास्ता है। आसपास की तांबई-ललछौंवी पथरीली जमीन के बीच से गुजरती काली-चौड़ी सड़क पर हमारी गाड़ी सौ कि.मी. प्रति घंटे की गति से दौड़ रही है। प्रिटोरिय़ा में दाखिल होने से पहले ही हमारी गाड़ी एक भव्य स्मारक के पास रुकती है। यह वोरट्रेकर स्मारक है। हालैंड से दक्षिण अफ्रीका आने वाले गोरों की याद में यह स्मारक बना है। दक्षिण अफ्रीका में डच लोगों का पहला जत्था सन 1652 में आया था। सबसे पहले उन्होंने केपटाउन में लंगर डाला और फिर अंदर दाखिल हुए। हालैंड से आए गोरों को भारत जाने के रास्ते में केपटाउन सही मुकाम नजर आया। उन्हें जल्दी ही समझ में आ गया कि अफ्रीकी लोगों का यह देश खनिजों से भरा पड़ा है।
अपनी केप बस्ती छोड़कर गोरों के जत्थे खनिजों की खोज में पूरी तैयारी के सन 1835-1854 के दौरान देश के अंदर घूमने लगे। शायद उन्होंने ही पहली बार यहां सोने और अन्य खनिजों की तिजारत शुरू की। यह समारक खनिजों के खोज-अभियान में निकले गोरों की याद में सन 1949 में बना था। हर साल, 16 दिसम्बर को यहां बड़ा समारोह होता है। स्मारक के एक कोने में अंद्रीस प्रिटोरस की भी मूर्ति बनी हुई है। इसी के नाम पर शहर का नाम प्रिटोरिय़ा पड़ा। सन 94 के बाद प्रिटोरिया का नाम बदलने की मांग भी उठती रही है। लेकिन एएनसी नेताओं और सरकार ने नाम बदलने की मांग को लगातार खारिज किया है। एक बात अच्छी लगी कि कुछ छिटफुट अनुदार मांगों-टिप्पणियों के बावजूद गोरों के स्मारक को लेकर सरकार और आम अश्वेत लोग भी उदार और सहिष्णु हैं। लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू चिंता जगाता है, जहां गावों-कस्बों-शहरों और खदान क्षेत्रों में गरीबी, लाचारी, बेबसी, अराजकता और अपराध का साया लगातार बढ़ रहा है। श्वेतों का रवैया इस मुद्दे पर सकारात्मक नहीं है। उनकी चिंता सिर्फ अपनी कंपनियों, जमीन-जायदाद और पूंजी विस्तार के संरक्षण की है। देश की अश्वेत आबादी के मसलों से वे अपने को बिल्कुल काटकर देख रहे हैं। एक ही देश में दोनों की अलग-अलग दो दुनिया है।
..और केपटाउन

जोहान्सबर्ग और प्रिटोरिया, ट्विन-सिटी कहे जाते हैं पर अपने हैदराबाद-सिकन्दराबाद जैसे बिल्कुल जुड़े नहीं हैं। दोनों के बीच लगभग चालीस मिनट की ड्राइव है। ज्यादातर राजकीय कामकाज प्रिटोरिया से होता है। लेकिन संसद अब केपटाउन में है। राजधानी छह महीने यहां और छह महीने केपटाउन होती है। सभी देशों के दूतावास आदि प्रिटोरिया में ही हैं।

यहां का माहौल थोड़ा अलग दिखा। आज सोमवार है लेकिन नेशनल हेरिटेज डे की छुट्टी है और लोग शहर के पार्कों में उमड़ पड़े हैं। यहां जोहान्सबर्ग की तरह माहौल में लूट-पाट की दहशत नहीं है। सचिवालय और पार्लियामेंट की बिल्डिंगें अंग्रेजों के जमाने में हमारे यहां बनी सरकारी इमारतों की तरह भव्य हैं। इनके ठीक नीचे की सड़क के एक किनारे छुट्टी के दिन आज हस्तशिल्प और अन्य सजावटी सामानों का बाजार सजा है। ज्यादातर दुकानों को औरतें संभाल रही हैं। इनमें ज्यादातर बीस से तीस वर्ष के बीच की युवतियां हैं। बहुत तेज तर्रार और हंसमुख हैं। सामानों के दाम को लेकर अपने चांदनी चौक या करोलबाग की तरह मोलतोल चल रहा है पर एक सीमा के बाद ये लड़कियां दाम पर अडिग हैं। सामान बिके या नहीं, ग्राहकों के साथ इनका व्यवहार बहुत मीठा है। कीमत ज्यादा होने या किसी अन्य बहाने सामान नहीं खरीदने वालों को भी यह लड़कियां बायकहकर विदा करती हैं। 

सोवैटो से लेकर जोहान्सबर्ग के आसपास के शहरी और ग्रामीण इलाकों के हालात देखने के बाद मुझे लगा दक्षिण अफ्रीका की अश्वेत जनता ने सन 1994 के महान सत्ता-हस्तानांतरण के बाद वास्तविक आर्थिक-राजनीतिक क्रांति का जो सपना देखा था, वह लगातार टूट रहा है। पहले राष्टपति के तौर पर नेल्सन मंडेला के कार्यकाल में ही उसका टूटना शुरू हुआ। बाद में हालात और बिगड़े। देश की आम अश्वेत आबादी में आज राजनीतिक मोहभंग की स्थिति है। इसके बावजूद उसमें अपना देश पाने का संतोष जरूर है। शायद यही वह चीज है, जिसने निराशा भरे माहौल के बावजूद दक्षिण अफ्रीकी राष्ट्रवाद को जिन्दा रखा है। पर एक समय इस राष्ट्रवाद की ध्वजवाहक रही मंडेला की पार्टी आज पहले के मुकाबले कमजोर हुई है।
हमने मुक्ति संग्राम का नेतृत्व करने वाली अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस(एएनसी) का मुख्यालय भी देखा। वहां मौजूदा सामाजिक विकृतियों और आम जन की बदहाली को लेकर किसी तरह की चिंता या छटपटाहट कहीं नहीं नजर आई। जोहान्सबर्ग में एक शानदार शापिंग माल के ठीक नीचे खुले मैदान में नेल्सन मंडेला की भव्य मूर्ति लगी हुई है। इस इलाके को अब नेल्सन मंडेला स्क्वायर कहते हैं। देश-विदेश के सैलानी यहां आकर मंडेला की मूर्ति के नीचे फोटो खींचते हैं। मूर्ति किसी स्टेज या चबूतरे पर नहीं खड़ी है। तीन तरफ शापिंग मॉल की दुकानें हैं और एक तरफ फौव्वारा है। फौव्वारे के ठीक सामने यह मूर्ति समतल स्थान पर स्थापित की गई है, मंडेला के पांव जमीन पर जमे दिखते हैं। लेकिन उनकी पार्टी-एएनसी के पांव अब दक्षिण अफ्रीकी जनता के बीच डगमगा रहे हैं। विडम्बना यह है कि उसका कोई ठोस विकल्प फिलहाल नजर नहीं आता।       

अपने देश के सत्ताधारी नेताओं और दलों की तरह एएनसी के शीर्ष नेता भी आर्थिक सुधारों, खासकर विदेशी पूंजी गठबंधन और नए निवेश की चकाचौंध में मस्त हैं। प्रिटोरिया के एपारथाइड-म्युजियम में रंगभेदी निरंकुश शासन की तमाम तरह की क्रूरताओं के दस्तावेजी-सबूत बड़े जतन से रखे गए हैं। आजादी के लिए फांसी पर चढ़ाए असंख्य योद्धाओं के चित्र भी यहां हैं। वे तीन-चार कतारों में हैं और उनमें कई गोरे योद्धा भी हैं, जिन्होंने गोरे-शासकों की निरंकुशता के खिलाफ लड़ाई लड़ी और शहादत का रास्ता चुना। बदलाव के लिए चीखती आवाजों को वृत्त-चित्रों में सुरक्षित रखे जाने और म्युजियम देखने आए लोगों को बार-बार सुनाए जाने (ताकि वे महसूस कर सकें कि रंगभेदी शासन कितना क्रूर था) के बावजूद आज के सत्ताधारी नेताओं को खदानों और खेतों में दक्षिण अफ्रीकी मजदूरों का बहता खून और पसीना नहीं दिखाई दे रहा है। एपारथाइड म्युजियम में अंदर दाखिल होने के लिए दो दरवाजे हैं।
प्रवेश-टिकट पर प्रतीकात्मक ढंग से ह्वाइटऔर ब्लैकलिखा मिलता है। यह दर्शकों में दक्षिण अफ्रीका के रंगभेदी शासनातिहास की कटु यादों का एहसास भरने के लिए किया गया है। आप किसी भी दरवाजे से जाएं, अंदर दाखिल होने के लिए रंग या नस्लभेद आधारित कोई पाबंदी नहीं है। लेकिन प्रिटोरिया से लौटते हुए मुझे लगा, दक्षिण अफ्रीका में हर जगह अब भी दो दरवाजे बरकरार हैंएक आम अश्वेत गरीब आदमी का और दूसरा अमीरों का, जिसमें अब श्वेतों के साथ सत्ताधारी खेमे के कुछ अश्वेत भी शामिल हो गए हैं।

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