हिन्दी समाज और 'सृजनात्मकता' की पड़ताल करता दिलीप खान का यह आलेख दो भागों में यहां प्रकाशित किया जा रहा है, प्रस्तुत है पहला भाग:
पहला भाग
देश के भीतर हालात कुछ भी हो, समुद्र पार की दुनिया को
चमक-दमक दिखते रहना चाहिए। बड़ी आबादी को लंबे समय से ये सब कुछ तकरीबन घुट्टी की
तरह पिलाई भी गई है कि घर का मामला घर में सुलझाना चाहिए लेकिन बाहर वालों को पता
न चले कि घर खस्ताहाल है। ‘नैतिक शिक्षा’ जैसी किताबों में इस थीम
पर कई किस्से-कहानियां रची गई हैं, जाहिर है किस्से-कहानियों वाली दुनिया इस सच से
सबसे ज़्यादा इत्तेफ़ाक रखती होंगी। हो सकता है कि दूजी भाषाओं के बाल साहित्य और
लोक-कथाओं में भी ऐसे प्रसंग और कहानियां मशहूर होंगी, लेकिन हिंदी में तो शर्तिया
है। इन कहानियों से मूल्य झड़कर समय-समय पर बाहर भी तैरते हैं। हिंदी के तार को
भारत की चौहद्दी से बाहर खींचते हुए सितंबर माह में दक्षिण अफ्रीका के जोहंसबर्ग
में नौंवे विश्व हिंदी सम्मेलन का आयोजन हुआ। आयोजन की उपलब्धियों का पता लगाने के
लिए अगर समय बीतने का इंतजार करे पर पता चलेगा उम्र की एक बड़ी अवस्था गुजर गई लेकिन
जोहंसबर्ग का तिलिस्म नहीं टूटा। 1975 में हुए पहले आयोजन के बाद से लंबा अरसा बीत
चुका है, लेकिन पहले से लेकर आठवें आयोजन तक की उपलब्धियों के बारे में ठीक-ठीक
विदेश मंत्रालय को भी पता नहीं होगा। आयोजन में भाषा पर चिंतन-मनन की बजाय सैर-सपाटा
और विदेशों में फोटो खिंचवाने में हिंदी के ‘मूर्धन्य’ लोग ज्यादा रमे रहते हैं।
सूरीनाम की सड़कों से न्यूयॉर्क के टाइम्स स्कावयर तक और वहां से लेकर जोहंसबर्ग
की गांधी प्रतिमा तक कैमरे के सामने हिंदी के प्रति सचेत लोगों का जत्था चिंतनशील
मुद्रा और फंकीपने का एक साथ मुजाहिरा पेश करते हैं। फेसबुक के जमाने में हर क्षण
विदेशों में खुद के होने के गुमान को साझा करने में कहीं भी चूक नहीं होती, और जो
तकनीक में थोड़े पीछे हैं वो भारत लौटने के इंतजार के दौरान सही गई पीड़ा को एक
साथ फेसबुक पर 50 से ज्यादा फोटो डालकर रफू करते हैं। मुफ़्त की किताबों और ब्रोशर
बटोरने के चक्कर में थैली भरकर विदेशी हवाई अड्डा पर पहुंचने वाले हिंदी-सेवकों को
जब ये पता चलता है कि किताबों की मूल्य के बराबर या फिर उससे ज़्यादा उन्हें लाने
में ख़र्च पड़ जाएंगे तो उन किताबों को वहीं डस्टबीन में डालकर सीना ताने देश
लौटते हैं कि हिंदी के नाम पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन के साक्ष्य बनने का वो गौरव
हासिल कर चुके हैं।
घूमने-फिरने के लिए हिंदी का गुणगान करने वाले परजीवी लोग
बड़ी तादाद में समाज में मौजूद है। इनकी झलक सिर्फ़ ऐसे मौकों पर ही मिल पाती है।
क्षेत्रीय सभा-संगोष्ठियों से लेकर राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय आयोजनों में शिरकत
करने और इसके लिए पसीना बहाने में ये पस्त रहते हैं। भाषा, साहित्य और हिंदी समाज
को लेकर चिंता समाज से जितनी भौगोलिक दूरी के साथ किया जाए आयोजन उतना बड़ा कहलाता
है। इनके औचित्य, इनकी सार्थकता वगैरह पर सवाल करने की कोशिश भी ज़्यादातर मौकों
पर थोथेपन को समेटे होती है। जो समारोह से वंचित रह गए वो विरोध में होते हैं
लेकिन अगली बार उनका नंबर लगते ही पुराने समर्थक विरोध में चले जाते हैं। तो, एक
तरह की नूराकुश्ती चलती रहती है। सरकारी आयोजनों का मुखर विरोध करने का मतलब है
सरकार की आलोचना और इसका नतीजा है रेलवे से लेकर तमाम बैंको और विश्वविद्यालयों
में हिंदी के नाम पर बनाए गए हज़ारों पदों का खुद से दूर छिटकना। जिस भाषा और
साहित्य में रचनाधर्मिता को एक अदद नौकरी पाने की सीढ़ी के तौर पर इस्तेमाल करने
का चलन लगातार बढ़ रहा हो, उसमें विरोध का स्वर अंतत: पीं पर जाकर ही ख़त्म
होगा। यह हिंदी साहित्य और कमोबेस पूरी हिंदी पट्टी की सच्चाई है। किसी भाषा के
नाम पर दिवस और पखवाड़ा मनाने से भाषाई उन्नति नहीं होती। ये सब कुल मिलाकर ऐसे
आयोजन होते हैं जिनमें साल भर की जमा भक्ति को एक साथ मंच पर उड़ेलकर कर्तव्य का
समापन मान लिया जाता है। फिर अगला सितंबर आने तक पूरे साल भक्ति भाव को अपने खूंट
से बांधकर संग्रहित करने का काम चलता रहता है। इस रस्म अदायगी में कई किस्म के लोग
शामिल होते हैं।
हिंदी से सीधे-सीधे जुड़े तबकों में दो बेहद अहम तबका हैं-
पहला वो, जो हिंदी की खाते हैं, लेकिन जीते अंग्रेज़ी में हैं। हिंदी के लगातार
विस्तृत होते बाज़ारमूल्य ने इस वर्ग को बताया है कि यदि बाज़ार पर कब्जा करना है
तो उस समाज की भाषा में ही उन तक पहुंचना होगा। मिसाल के लिए हम कैटरीना कैफ़ को लेते हैं। उनकी अब तक की शोहरत, अब तक की सफ़लता
और अब तक की चमक-दमक पूरी तरह हिंदी फ़िल्मों पर ही निर्भर है। वो हिंदी का पैसा
खाती हैं, हिंदी में डॉयलॉग बोलती हैं, लेकिन हिंदी में लगातार तीन वाक्य वो नहीं
बोल सकती और न ही भविष्य में हिंदी बोलने की वो कोई उम्मीद जगाती हैं। वो उतना भर
हिंदी बोलेंगी जितने से पैसे ही आवाजाही सुनिश्चित रह सके। हिंदी का ये वो वर्ग है
जो ऊपर की पूरी मलाई काट लेते हैं और पेंदी में पड़ी चीज़ें हिंदी को लेकर चिंता
करने वालों के खूंटे बांध जाते हैं। हिंदी पट्टी में इनको लेकर आलोचनाएं होती रहती
हैं। कई बार हिकारत और कई बार लुटेरे की दृष्टि से भी इन्हें देखा जाता है। दूसरा
तबका वो है जो हिंदी में रहते हुए, हिंदी बोलते हुए या यूं कहे कि कुछ ज़्यादा ही
हिंदी के प्रति सचेत रहते हुए हिंदी की हत्या करते हैं। समर्पण के मामले में यह
तबका अपना सीना ताने रखता है और लोगों को यह एहसास देता है कि हिंदी को लेकर
सर्वाधिक चिंतनशील प्राणी इसी जमात से ताल्लुक रखते हैं। राजभाषा मार्का यांत्रिकी
हिंदी को आदर्श मानने वाले इस वर्ग ने हिंदी के नाम पर ऐसे-ऐसे बेढंगे शब्द चलाए
हैं जो कुछ मीटर के सफ़र में ही पैर पकड़कर बैठ जाते हैं। थकाऊ हिंदी और समझ के
दायरे से अमूमन बाहर रहने वाली हिंदी को गढ़कर ये हिंदी सेवा करना चाहते हैं। जिस ‘मानक हिंदी’ को ये समाज में दौड़ाना
चाहते हैं उसके दोबारा हिंदी अनुवाद की ज़रूरत खुद लिखने-बोलने वालों को भी महसूस
होती है। कंप्यूटर का अनुवाद जब ‘अभिकलित्र’ होगा तो जाहिर है लोग
अभिकलित्र का अर्थ जानने के लिए इसका भी अनुवाद चाहेंगे।
अब सवाल ये है कि आमफ़हम हिंदी को कितनी जगह दी जा रही है? टीवी समाचार चैनलों, एफएम
रेडियो और अख़बारों-पत्रिकाओं में साधारण हिंदी के बदले अंग्रेज़ी को जगह देने की क्यों
मुहिम-सी चल पड़ी है? ‘मैदान’ के बदले ‘ग्राउंड’ और ‘फिसलने’ की जगह ‘स्लिप’ बोलने से क्या शब्दों की
संप्रेषणीयता बढ़ जाती है? अगर नहीं, तो आख़िरकार किन
दबावों में हिंदी मीडिया काम कर रहा है? किस मूल्यबोध में वो ऐसे
परिवर्तनों को स्वीकार करता है? देवनागरी के बदले रोमन के
बढ़ते चलन पर बीते दिनों सवाल भी उठे हैं लेकिन जो निर्णायक स्थिति में हैं उनपर
ऐसी आलोचनाओं का कोई असर पड़ता नहीं दिख रहा। सरकारी कोशिशों के मुक़ाबले हिंदी
समाचार मीडिया और हिंदी फ़िल्मों को लोग हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार में ज़्यादा
मुफ़ीद मानते हैं। ज़्यादा श्रेय भी इनको दिया जाता है लेकिन अपनी जिस पहुंच के
आधार पर इनको ये दर्ज़ा हासिल हुआ है उनके साथ इस समय मीडिया क्या व्यवहार कर रहा
है, इसपर तो सवाल उठेंगे ही। जितने करोड़ लोगों तक इसकी पहुंच है उसके जेहन में यह
जो भाषा पैबस्त कराएगा, वो उसी अनुरूप इसे अपनाएगा भी। न सिर्फ़ भाषा बल्कि
सामाजिक-राजनीतिक मूल्यों के बारे में भी यही बात लागू होती है।
दो बिंदुओं के जरिए मीडिया के व्यवहार को समझना आसान होगा।
पहले चर्चा फ़िल्म की और फिर अख़बारों की। हालिया रिलीज हुई हिंदी फ़िल्म ‘इंग्लिश-विंग्लिश’ की मिसाल लेते हैं। इसमें
सतही तौर पर यों तो अंग्रेज़ी को महज भाषाई टूल के तौर पर दिखाने की चेष्टा हुई है
लेकिन समग्रता में फ़िल्म संदेश देती है कि ‘बिन अंग्रेज़ी सब सून’। जाहिर है भाषा का मसला
सिर्फ़ शब्दों के इस्तेमाल और इसकी कलाबाज़ी तक सीमित नहीं है बल्कि इसके साथ
समूची संस्कृति का सवाल नत्थी है। बॉलीवुड ने जिस तरह अप्रवासी भारतीयों की
जीवन-कथा को भारतीय समाज की परिघटना के तौर पर दिखाना चालू किया है, उसके पसारे
में भाषा भी बंध जाती है। हिंदी की पूरी जातीयता अपने वास्तविक रूप में ऐसी
फ़िल्मों में नहीं सिमट पाती। चयनात्मक तौर पर कुछ परिपाटी को फ़िल्मों में जगह दी
जाती है और कुछ को छोड़ दिया जाता है। जाहिर है हिंदी जातीयता एनआरआई जातीयता से
अलहदा है और इसी वजह से उन दोनों की हिंदी भी अलग है। असल में हिंदी फ़िल्म और
समाचार मीडिया ने अंग्रेज़ी को प्रभु भाषा के तौर पर स्वीकार कर लिया है। अब इन
दोनों के चाल-ढाल ये बयां करते हैं कि हिंदी को लेकर ये कितने सशंकित हैं। अपने
उत्पादों को दोनों बेचेंगे हिंदी में ही, लेकिन तड़का लगाकर। हिंदी के कई अख़बारों
में अब अंग्रेज़ी के लेख अनूदित होकर संपादकीय पन्नों पर जगह पाते हैं। इस प्रचलन
में लगातार बढ़ोतरी देखी जा रही है। ऐसा नहीं है कि विषय की महत्ता को आधार बनाकर
इन लेखों का अनुवाद छापा जाता है, बल्कि ये ज़रूर लगता है कि हिंदी पट्टी के दायरे
से बाहर निकलने की छटपटाहट में ऐसी कोशिश की जा रही है। कई लेख तो बेहद मामूली और
कमज़ोर क़िस्म के होते हैं। बावजूद इसके उनको जगह मिलती है। कई दफ़ा किसी
अंग्रेज़ी अख़बार में पहले ही छप चुके लेख को दो-तीन दिनों बाद हिंदी में परोसा
जाता है। आख़िर वजह क्या है? क्या हिंदी लेखन कमज़ोर हो
गया है? क्या हिंदी लेखन में एकरसता है? मान लिया जाता है कि इन
दोनों सवालों के जवाब ‘हां’ है तो भी ऐसा क्यों है कि
अनुवाद के नाम पर सिर्फ़ अंग्रेज़ी का ही हिंदी तर्जुमा पेश किया जाता है? दूसरी भाषाओं से अनुवाद
क्यों नहीं होते? बांग्ला, मराठी, तेलुगू, तमिल जैसी भाषाओं में हो रहे लेखन
से क्यों हिंदी पाठकों को दूर किया जा रहा? अनुवाद बिल्कुल होने
चाहिए, लेकिन जिस तरह वर्चस्व को मानते हुए सिर्फ़ अंग्रेज़ी की सामग्रियों का
अनुवाद हो रहा है वो भाषाई आवाजाही से इतर संकेत देता है। हिंदी के कितने लेखों को
अंग्रेज़ी मीडिया अनुवाद कर छापता है? उनको ज़रूरत महसूस नहीं
होती और न ही हिंदी उनको इतना आकर्षित करती है कि अनुवाद छापे ही जाए। खुद लेखक ही
अपने लेख अनुवाद करवाकर छपवा लें तो छपवा लें। हिंदी शक्तिशाली नहीं रह गई है और
इसी वजह से इसको तवज्जो भी नहीं मिल रही।
कई अख़बारों-चैनलों के संपादक ज़िम्मेदारी का सारा बोझ
बाज़ार के कंधे डालकर मुक्त हो जाते हैं। बाज़ार एक साथ समस्या का कारण भी बनता है
और निदान भी। भाषाई छेड़-छाड़ पर बात करते समय जब संपादकों से ज़िम्मेदारी लेने की
बात होती है तो बाज़ार का नाम लेकर वो अचानक सवाल पर ठंडा पानी छिड़क देते हैं। कई
प्रतिबद्ध लेखकों-साहित्यकारों-संपादकों के लिए बाज़ार बचाव के जरिया के तौर पर
उभरता है। लेकिन बाज़ार के पूरे प्रचलन को देखें तो ये साफ़ लगेगा कि उपभोक्ता
संस्कृति को बेचने के लिए उसका कोई ख़ास भाषाई आग्रह नहीं है। जिस भाषा में माल
बिकेगा वो उस भाषा की डोर थाम लेगा। अमेरिकी कंपनी, जापानी कंपनी और पता नहीं
किन-किन मुल्कों की कंपनियां जब भारत के देहात में अपना माल खपाना चाहती हैं तो
भदेसपन पर उतर आती हैं। तो जो व्यक्ति यह तर्क देता है कि बाज़ार और विज्ञापनदाताओं
ने हिंदी का कबाड़ा किया है वह या तो झूठ बोल रहा होता है या फिर अर्धसत्य।
पुरुषों के फ़ैशन बाज़ार में बिल्कुल ताजी घुसपैठ करने वाले फ़ेयर एंड हैंडसम के
एक विज्ञापन का हवाला लीजिए। विज्ञापन में शाहरुख ख़ान एक लंगोटधारी पहलवान को
फ़ेयर एंड हैंडसम लगाने की नसीहत देते नज़र आते हैं। अपील का स्तर देखिए! लक्ष्य दर्शक देखिए कौन है? खुद शाहरूख खान की वेश-भूषा
देखिए। कितनी फ़िल्मों में आपने शाहरुख को मूंछों में देखा है? रब ने बना दी जोड़ी में
मूंछ वाले पति की जो उनकी भूमिका है वो लगभग पूरी फ़िल्म में तिरस्कृत सी रही है।
वो तब जाकर नायकत्व हासिल करते हैं जब पता चलता है कि चिकना-चुपड़ा हिप-हॉप डांसर
और मुच्छड़ पति दोनों एक ही व्यक्ति है। यानी आदर्शवादी पति (पति की भूमिका में न
होते तो भाई साहब वाली छवि थी वो) के रूप में जो उनकी पूरी साज-सज्जा थी वो किसी
भी शहरी फ़ैशनपरस्त को नहीं सुहाएगी। लेकिन, फ़ेयर एंड हैंडसम अपने विज्ञापन में
उसी छवि को भुनाती है। पूरे भदेसपन के साथ। एक विज्ञापनदाता कंपनी देहात और हिंदी
को पूरे साहस के साथ टीवी पर पेश कर सकती है लेकिन हिंदी को लेकर रात-दिन चिंता
में डूबते-उतराते लोगों के भीतर यह साहस नहीं दिखता।
यह एक तर्क हो सकता है कि इस साहस की डोर ताक़त के खंभे से
बंधी है और बाज़ार जिस ताक़त को अपने भीतर महसूस करता है वो ताक़त हिंदी लेखक
महसूस नहीं करते। लेकिन फिर भी साहसी फ़ैसला लेने वाले लेखकों, संपादकों,
प्रकाशकों और पाठकों की हमारे यहां कमी है। प्रकाशक अपना भार पाठकों-लेखकों के
कंधे डालते हैं, पाठक की उंगली लेखकों-प्रकाशकों की तरफ़ उठती है और लेखक
पाठक-प्रकाशक को दोषी ठहराते हैं। ‘दुनिया गोल है’ का पूरा सिद्धांत हिंदी
पठन-पाठन को लेकर ही बनाया गया लगता है। साहित्यकार किस सिमटी दुनिया में निवास
करते हैं ये उनको छोड़कर बाकी हर कोई जानता है। हिंदी के नाम पर जितनी साहित्यिक
पत्रिकाएं निकलती हैं उनके ज़्यादातर पाठक साझा हैं। पाठक का एक हिस्सा तो पत्रिका
से जुड़े लोगों का ही बन जाता है। यदि एक वैकल्पिक पत्रिका की पांच हज़ार प्रतियां
छपती हैं और दूसरी की दो हज़ार प्रतियां तो कुल पाठक संख्या सात हज़ार नहीं होने
वाली। हद से हद साढ़े पांच हज़ार होगी, क्योंकि एक ही पाठक एक तरह की छपने वाली
एकाधिक पत्रिकाओं को पढ़ते हैं। इनमें ज़्यादातर दोहरी भूमिका वाले पाठक होते हैं,
यानी वो पाठक के साथ-साथ लेखक भी होते हैं। आपस में वाह-वाह के आदान-प्रदान और
सुखानुभूति के बाद अंतिम परिणति के तौर पर कोई पुरस्कार-सम्मान तक यह क्रम चलता
रहता है। कुल जमा मान लेते हैं कि ऐसी पत्रिकाओं की पूरी दुनिया एक लाख लोगों तक
सीमित है, तो हिसाब लगाइए कि हिंदी पट्टी के अंतर्गत आने वाले राज्यों की आबादी का
यह कितना फ़ीसदी हिस्सा है? आप इस नतीजे पर पहुंचेंगे
कि बेहद मामूली आबादी साहित्य से वास्ता रखती है। जिस दिल्ली में लोग पहले
राष्ट्रपति और पहले प्रधानमंत्री के नाम तक में गड़बड़ी कर बैठते हैं उस पौने दो
करोड़ की दिल्ली में हिंदी के नाम पर मठाधीसी कर रहे कितने साहित्यकारों को लोग
जानते होंगे? जिन राज्यों ने हिंदी को पहली या फिर दूसरी प्राथमिकता की
राजभाषा करार दिया है उनकी संख्या 11 है। इनमें बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश,
उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश और
छत्तीसगढ़ शामिल हैं। इनकी कुल आबादी 62 करोड़ से अधिक है दुनिया के तकरीबन 100
देशों की सम्मिलित आबादी बसती है हिंदी पट्टी में। अकेले उत्तर प्रदेश में आठ
ऑस्ट्रेलिया और ढाई तुर्की आ जाएंगे। लेकिन यहां ओरहान पामुक नहीं है, लोर्का नहीं
है। कितना बड़ा है मार्केज का कोलंबिया? उतना ही बड़ा जितना उत्तर प्रदेश को चार हिस्सों में बांटने
पर कोई एक टुकड़ा होगा। लगभग 4 करोड़ लोग बसते हैं वहां। इसलिए मसला सिर्फ़ संख्या
का नहीं है। हिंदी की चर्चित कृतियों का नाम गिनाते वक़्त अमूमन इतिहास में क्यों
गोता लगाना पड़ता है? हिंदी पट्टी का जो आम वर्ग
है वो तो अब भी प्रेमचंद से आगे नहीं बढ़ पा रहा। उनके लिए हिंदी के चार जिंदा
लेखकों का नाम गिनाना ही दुनिया का सबसे कठिन सवाल बन जाता है। आख़िर दिक़्क़त
कहां है? ...जारी
उत्तम
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