08 नवंबर 2012

आफ़्सपो से आफ़्सपा और इरोम शर्मिला

-दिलीप खान
जब कोई चीज़ चर्चा से बाहर होने लगे तो उसे सामान्यत: अप्रासंगिक मान लेना चाहिए। कम से कम जिनके बीच होने लगे उस गलियारे से अप्रासंगिक मान लेना चाहिए। 4 तारीख़ राजनीतिक हलकों के लिए काफ़ी कसरती दिन था। दिल्ली के रामलीला मैदान में कांग्रेस विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए तोरण द्वार खोलने के कैबिनेट के फ़ैसले पर सफ़ाई दे रही थी और बता रही थी कि कांग्रेस देश के लिए कितनी ज़रूरी है। पटना के गांधी मैदान में नीतीश कुमार बिहारियों के भीतर बिहारीपने को ललकार कर हवा भर रहे थे और बता रहे थे कि कि 2014 के लिए जद(यू) क्यों ज़रूरी है। हिमाचल में भाजपा और कांग्रेस, दोनों सुबह से कतारबद्ध मतदाताओं की ओर टकटकी बांधकर हवा का रुख भांप रही थीं कि कुर्सी किसको मिलने वाली है। मुरली मनोहर जोशी सहित भाजपा के कई नेता गधे के आगे बीन बजाकर ये दिखाने की कोशिश कर रहे थे कि भाजपा करिश्माई पार्टी है लिहाजा दूसरे दलों के बहकावे में आने से बचे! पहली लाठी के लिए जेपी को भी दो-तीन बार याद किया गया लेकिन उस दिन 12वें साल में पहुंचने वाले इरोम शर्मिला के अनशन का ज़िक्र कहीं नहीं आया। राजनीतिक पार्टियां तटस्थ बनी रहीं। 12 सेकेंड भी ख़र्च नहीं किया किसी पार्टी ने। चर्चा-कुचर्चा कुछ नहीं। विरोध-समर्थन कुछ नहीं। यानी इरोम के होने-न होने से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ रहा है। अप्रासंगिक होना और क्या होता है?

इरोम शर्मिला
इस लेख में तीन-चार बिंदुओं पर चर्चा की जाएगी। पहला, संसदीय राजनीति में आंदोलन का असर और मुद्दे। दूसरा इरोम शर्मिला की राजनीति और तीसरा आफ़्सपा और भारतीय राज्य। इसमें कोई संदेह नहीं कि पहले साथ-साथ फिर अलग हुए अन्ना हज़ारे और अरविंद केजरीवाल ने बीते दो सालों में देश में सबसे ज़्यादा सुर्खियां बटोरी है। इन दो वर्षों में भ्रष्टाचार सबसे बड़े मुद्दे के तौर पर देश के सामने पेश हुआ है। संसद से लेकर मीडिया तक सबसे ज़्यादा इन्हीं मुद्दों पर बहस करते नज़र आए। हालांकि बीच-बीच में क्षेपक के तौर पर काला धन और महंगाई ने भी अपनी अहमियत दिखाई है, लेकिन भ्रष्टाचार इन पर इक्कीस पड़ा है। अन्ना और केजरीवाल अपने आंदोलन को गांधीवादी बताते हैं और इरोम शर्मिला चानू भी खुद को ऐसा ही कहती हैं। दोनों का एकसूत्रीय एजेंडा है जो एक क़ानून और विधेयक के बनने-हटाने की मांग करता है। अन्ना-केजरीवाल (एक साथ नाम ले रहा हूं) जनलोकपाल विधेयक लाना चाहते हैं और इरोम शर्मिला सशस्त्र बल विशेषाधिकार क़ानून (आफ़्सपा) हटाना चाहती हैं। लेकिन, मध्यवर्ग और भारतीय संसद के लिए दोनों के असर का आयतन अलग-अलग है। पूरे देश का मध्यवर्ग भ्रष्टाचार को अपना मुद्दा मानता है, जबकि उत्तर-पूर्व और कश्मीर से बाहर रहने वाले लोगों को सामान्यत: आफ़्सपा से कोई मतलब नहीं है। यह किसी भी तरह उनको परेशान नहीं करने जा रहा। दिल्ली के जंतर-मंतर  और इंफाल से संसद और समाचार चैनल के दफ़्तर की दूरी बराबर नहीं है लिहाजा असर भी बराबर नहीं होगा। यह बात बाकी लोगों की तरह इरोम भी जानती है। वह जानती है कि उनका अनशन मिसाल बनने तक तो ठीक है लेकिन बेअसर है। मणिपुर के सेव शर्मिला सोलिडैरिटी कैंपेन (SSSC) के कार्यकर्ताओं ने रामलीला मैदान में उस दिन पर्चा भी बांटा था जिस दिन अन्ना हज़ारे 13 दिनों के बहुचर्चित अनशन का ख़ात्मा कर रहे थे। हालांकि उन पर्चों का इंडिया अगेंस्ट करप्शन पर कोई असर नहीं पड़ा। लेकिन बरास्ते मीडिया मणिपुर में अन्ना का असर पड़ रहा था। इरोम ने अन्ना से गुजारिश की कि वो मणिपुर आएं। फ़ौजी पृष्ठभूमि वाले अन्ना आफ़्सपा का विरोध करने क्योंकर मणिपुर जाते?

अन्ना हज़ारे और इरोम शर्मिला में आफ़्सपा के मुद्दे पर अंतर होने के बावज़ूद राजनीतिक साम्यता है। सांगठनिक मामले में तो इरोम का अनशन और ज़्यादा व्यक्तिवादी है। मणिपुर में जो संगठन आफ़्सपा के मुद्दे पर बने भी हैं उनमें इरोम को लेकर हमदर्दी ज़्यादा आफ़्सपा का विरोध कम है। सेव शर्मिला सोलिडैरिटी कैंपेन जैसे दसियों संगठन वहां पर हैं जो इरोम को केंद्र में रखकर बने हैं। इरोम निश्चित तौर पर दमनकारी भारतीय सेना के विरोध की एक बड़ी प्रतीक है, लेकिन अंतत: वह समाधान कहां तलाश रही है, ये एक अहम सवाल है।  

आफ़्सपा जैसे राजनीतिक सवालों को वो ईश्वर के भरोसे हल करना चाहती हैं। एक राजनीतिक अनशन में वो आध्यात्मिकता-जैसा-अहसास क्यों तलाशती है? सितंबर 2011 में उन्होंने अपने अनशन की सफ़लता की उम्मीद जाहिर करते हुए कहा, हमें ईश्वर में गहरी आस्था है और वो शीघ्र ही न्याय करेगा। सबसे लंबे अनशन के रिकॉर्ड से क्या भारतीय राज्य आफ़्सपा हटा देगा? राज्य भी इस अनशन को उसी रूप में देख रहा है। 10 साल होने पर याद किया गया था। 12 साल पर याद नहीं किया गया। संभव है 20 या फिर सिल्वर जुबली 25 में राज्य उन्हें फिर से याद करे। मनमोहन सिंह, चिदंबरम या फिर आडवाणी, सोनिया और सुषमा की नींद क्यों किसी इरोम के भूखे रहने से उड़ेगी, जबकि ये सब जानते हैं कि देश में रोज़ भूखे रहने वालों की संख्या लाखों में हैं! अन्ना के 13 दिनों में इन सबको बेचैनी थी क्योंकि वो लाख-दो लाख लोगों को लेकर रामलीला में बैठे थे और अलग-अलग राज्यों में कुछेक हज़ार लोग तैयार बैठे रहते थे।

बारह साल पहले जिस 2 नवंबर की घटना को देखकर इरोम ने 4 नवंबर को अनशन का फ़ैसला लिया था तब से लेकर अब तक क्या बदला? कई लोग 2 नवंबर से ही अनशन गिनते हैं जबकि दो नवंबर को इरोम शर्मिला हमेशा की तरह वृहस्पतिवार का व्रत कर रही थीं। दर्शन की धुरी सचमुच अन्ना और गांधी के पास ही है उनकी! इरोम को समर्थन देने वाले मणिपुर के कई लोगों से निजी बातचीत में मैंने पाया है कि उनकी तुलना करने की दृष्टि ग़लत दिशा में होती है। मसलन मणिपुर में आफ़्सपा है लेकिन छत्तीसगढ़ में क्यों नहीं है? छत्तीसगढ़ में तो माओवादी ज़्यादा उत्पाद करते हैं!
इरोम को लेकर धरना-प्रदर्शन

इस सवाल को दूसरे तरीके से देखने पर लगता है कि मणिपुर की पूरी लड़ाई सचमुच यही है। इसके लिए मणिपुर में आफ़्सपा के इतिहास को देखा जाना चाहिए और समझा जाना चाहिए कि एक समूची राष्ट्रीयता तो दबाने के लिए ही वहां आफ़्सपा लाया गया था। छत्तीसगढ़ के साथ ये बात लागू नहीं होती थी लिहाजा वहां आफ़्सपा नहीं है। वहां दूसरे क़ानून है। जनसुरक्षा आदि के नाम पर बने क़ानून जोकि भारतीय राज्य के लिए उस समय की ज़रूरत थी। लेकिन ये इरोम का सवाल नहीं है। इरोम चाहती हैं कि आफ़्सपा के बग़ैर भारत मणिपुर में रहे। नतीजतन हो ये रहा है कि लगातार सत्ताधारी लोग मणिपुर को ठग रहे हैं। जब मांग पर आकर सुई टिक जाती है कि सरकार से ये हमारी मांग है तो सरकार का कद बहुत बढ़ जाता है। वह निर्णय लेने की स्थिति में होती है कि मांग को माने या फिर ठुकराए। बहुत दिन नहीं हुए जब इसी साल विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री इबोबी सिंह ने कहा था कि दोबारा सत्ता में आने पर वो मणिपुर से आफ़्सपा ख़त्म करेंगे। (ज़ोर इस पर था कि केंद्र में भी अपनी सरकार है इसलिए वो मेरी सुनेगी।) अब तक कुछ नहीं हुआ, उल्टे बाद में उनका बयान आया कि मणिपुर में अभी ऐसी स्थिति नहीं हुई है। 11 अगस्त 2004 को जब ग्रेटर इंफाल से आफ़्सपा हटाया गया उससे पहले तक इंफाल को भी हटाने की स्थिति में नहीं गिना जाता था। अब वहां सब ठीक-ठाक है, लेकिन बाक़ी इलाक़ा उस योग्य नहीं हुआ है! 2004 में आफ़्सपा को लेकर मणिपुर में तेज आंदोलन चले थे। लगातार। कुछ इलाकों से हटाकर राज्य ने उन्हें शांत कर दिया। राजधानी को दुरूस्त करने के बाद तलछट पर ज़्यादा हल्ला नहीं होता। एक रस्मी मामला चलता रहता है। मणिपुर को अलग राष्ट्र बनाए जाने के मुद्दे पर जो दिल्ली वाले नाक-भौंह सिकोड़ते हैं उनको मणिपुर के बारे में चार घटनाओं की जानकारी नहीं होती हैं। मुख्यमंत्री का नाम भी नहीं जानते होंगे! सिर्फ़ हिस्सेदारी पर सीना तान खड़े हो जाते हैं। ये सच है कि भ्रष्टाचार की तरह मणिपुर ‘राष्ट्रीय मुद्दा’ नहीं है बल्कि यह राष्ट्रीयता का मुद्दा है। इसमें कश्मीर भी जुड़ा है, मेघालय भी और नागालैंड भी।

उत्तर-पूर्व और कश्मीर में लगे आफ़्सपा को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखने की ज़रूरत है। मणिपुर या फिर असम भारत का हिस्सा कैसे बने इसे भी समझा जाना चाहिए। कई राज्यों को खुद में समेटे असम पर अंग्रेज़ों ने जब अधिकार जमाया था तो उसमें भारत की भूमिका शून्य थी। इतिहास में सब दर्ज़ है। 1826 में यांदबू की संधि अंग्रेज़ और बर्मा के बीच हुई थी और इसी संधि के बाद असम ब्रिटिश भारत के कब्जे में आया। यानी मूल रूप से बर्मा ने असम को अंग्रेज़ को सौंपा। जब भारत से अंग्रेज़ गए तो उस समय भी मणिपुर या फिर त्रिपुरा भारत का हिस्सा नही था। भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 में साफ़ कहा गया है कि ब्रिटिश शासन के अंतर्गत रहने वाले सभी प्रिंसली स्टेट अब आज़ाद रहेंगे। यानी मणिपुर को एक अलग राष्ट्र के तौर पर अंग्रेज़ों से आज़ादी मिली। 1947 में मणिपुर ने अपने संविधान के मुताबिक़ आम चुनाव करवाया। 1949 में जाकर भारत ने मणिपुर पर दावा ठोका। तब से लेकर अब तक मणिपुर में भारत की स्वीकृति कभी भी बड़े स्तर पर नहीं रही।

आफ़्सपा क्या अंग्रेज़ों के जाने के बाद का विचार है? जवाब है- नहीं। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन को कुचलने के लिए लॉर्ड लिनलिथगो ने आर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर ऑर्डिनेंस (आफ्सपो) लागू किया था। अंग्रेज़ों ने जाते-जाते भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 में इसे रद्द कर दिया। फिर बाद में ‘आज़ाद भारत’ में इसे उत्तर-पूर्वी राज्यों के लिए 1958 में पुनर्जीवित किया गया। एक छोटा सवाल है? क्या भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान लागू हुए आफ़्सपो को हटाने के लिए कोई अलग आंदोलन चला था? अपने इतिहास की अब तक की जानकारी में मैंने ऐसे किसी आंदोलन को नहीं देखा-सुना है। आंदोलन जब भी हुआ अंग्रज़ों को भारत से भगाने के लिए हुआ। इरोम का आंदोलन आफ़्सपो (आफ़्सपा) को हटाने के लिए है।
ओह! आई सी..सो दिस इज़ आफ़्सपा!
आफ़्सपा लागू करने के लिए 1958 में तात्कालिक कारण के तौर पर असम के नगा हिल्स में जातीय संघर्षों से निपटना बताया गया। अब तक भारतीय राज्य उससे नहीं निबट पाई। लगातार ऐसे संघर्ष भी बढ़े हैं और प्रतिबंधित संगठनों की सूची में नए नाम भी। नाभिकीय श्रृंखला प्रतिक्रिया-जैसा-कुछ हो रहा है देश में। माओवाद को राज्य ख़त्म करना चाहता है, मुंआ बढ़ जाता है। दो राज्य, तीन राज्य से 18 राज्य! हे ईश्वर!! 1958 में आफ़्सपा लागू करने में भारतीय संसद इतनी जल्दबाजी में थी कि दो घंटे की बहस में ही यह फ़ैसला ले लिया गया। अब लोकपाल पर दो-दो, तीन-तीन दिन ‘अनिर्णीत बहस’ चलती है! यही प्राथमिकता दिखाता है। 18 अगस्त 1958 को इसे पारित करते समय मणिपुर के अलावा दूसरे प्रांत के भी कई सांसदों ने इसका विरोध किया था, लेकिन बहुमत का मतलब लोकतंत्र होना होता है, संसद ने इसे साबित किया।

“यह काला क़ानून है...हम कैसे यह सोच भी सकते हैं कि एक सैनिक अधिकारी के पास किसी को गोली मारने या फिर बिना वारंट किसी को गिरफ़्तार करने का अधिकार होगा? यह ग़ैरक़ानूनी क़ानून है।” - श्री एल. अचाव सिंह

“हथियारबंद सैनिकों से समस्या का समाधान नहीं होगा।”- रुंगसुंग सुइसा

“यह मार्शल लॉ है। हमें कनसंट्रेशन कैंप से भरा आज़ाद भारत नहीं चाहिए जहां एक हवलदार के पास ये हक़ हो कि वह किसी नागरिक को शक की बिनाह पर गोली से उड़ा दे।”- श्री महंती

संसद में बहस के दौरान ऐसे कई मुद्दे उभरे, लेकिन वो आफ़्सपा को लागू होने से रोकने के लिए नाकाफ़ी रहे। बिना आपातकाल लागू किए इसे लागू नहीं करने की बात भी उठी। लोकसभा उपाध्यक्ष सरदार हुकम सिंह ने कड़ी निंदा की। फिर भी आफ़्सपा लागू हुआ। बेहद जल्दबाजी में भारतीय राज्य ने इसे मणिपुर सहित समूचे उत्तर-पूर्व पर थोपा। कश्मीर तो बहुत बाद में 1990 में इसकी जद में आया। फिर गाहे-बगाहे थोथेबाज़ी की तरह संसद में आफ़्सपा उठता रहा और सांसदों की ज़ुबान से यह शब्द फिसलता रहा। 11 दिसंबर 2006 को शून्यकाल में लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने इसे दमनकारी बताते हुए हटाने की मांग की थी। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसे हटाने की मांग उठी। इसी साल 6 मार्च को संयुक्त राष्ट्र में यह मांग उठी। फिर संयुक्त राष्ट्र की तरफ़ से मामले की तहकीकात के लिए क्रिस्टॉफ हेन्स भारत आए थे जिन्हें मणिपुर जाने की इजाजत ही नहीं मिली। यानी भारतीय राज्य ने हेन्स को मणिपुर जाने देने की इजाजत दिए बग़ैर आफ़्सपा को समझने का स्पेस दिया। हेन्स साहब कश्मीर और असम होकर लौट गए। बहरहाल, आफ़्सपा को उन्होंने दमनकारी काला क़ानून बताया। इंटरनेशनल कोवेनैंट ऑन सिविल एंड पॉलिटिकल राइट्स (ICCPR) के हस्ताक्षरी होने के कारण भी भारत आफ़्सपा लागू नहीं रख सकता। उसके अनुच्छेद 6, 9 और 14 से आफ़्सपा का भाग 4 टकराता है। लेकिन फिर भी लागू है।

 
इसे लागू रखने के समर्थकों की तरफ़ से मूर्खतापूर्ण दलीलों में कमी नहीं आती। राष्ट्र की सुरक्षा से लेकर पता नहीं क्या-क्या! 1991 में भारत के अटॉर्नी जनरल जी रामास्वामी ने कहा कि आफ़्सपा उन-उन इलाकों में लागू है (और इसे लागू रहना भी चाहिए) जिनकी सीमाएं विदेशों से सटती है। यह एहतियातन है। विदेशी लोग स्थानीय लोगों में घुल-मिलकर राष्ट्र के बारे में भड़काते हैं। अब उन्हें कौन समझाए कि मणिपुर चीन से उतनी ही दूर है जितना चंडीगढ़! आफ़्सपा के लागू होने के बाद से उन इलाकों में क्या-क्या हुआ यह अब छिपा हुआ सत्य नहीं है। यह देश पहले वीरता पुरस्कार देता है और बाद में ‘देश के जवान’ पुरस्कार पाने वाले को गोली मारते हैं। ‘देश के जवान’ बलात्कार करते हैं और फिर उसके निशान मिटाने के लिए गुप्तांग में गोली मारते हैं। पूछे जाने पर ‘जवानों’ का तर्क होता है कि भागने पर उन्होंने गोली चलाई। ओह! निशाना देखिए भारतीय सैन्य बलों का! ...और भारतीय राज्य इन सबको जारी रखना चाहता है। वह चाहता है कि जवानों को इस तरह की करतूत को अंजाम देने के लिए क़ानूनी संरक्षण हासिल हो।

मणिपुर में भारतीय राज्य के रवैये को लेकर नाराजगी रही है और ये सिर्फ़ आफ़्सपा तक सीमित मामला नहीं है। आफ़्सपा के बग़ैर भारत को स्वीकारना आर्य समाजी राजनीति जैसा है जिसमें धर्म के खर-पतवार को बीनकर शुद्धता में इसे अपनाने को कहा जाता है। जब फ़ौजी पृष्ठभूमि (और पुख़्ता फ़ौज प्रेम) वाले अन्ना को चिट्ठी लिखकर फ़ौज के अधिकार छीनने के लिए शर्मिला चिट्ठी लिखती हैं तो वो किस राजनीतिक ज़मीन पर खड़ी हैं? अपनी चिट्ठी में इरोम कहती हैं कि भ्रष्टाचार हर समस्या की जड़ है, आइए मणिपुर से इसे भगाने के लिए आंदोलन कीजिए। मणिपुर के राजनीतिक हालात को देखते हुए अगर पूछे तो ये किस तरह की समझदारी है? पुरस्कार लेने से हाल में इरोम ने मना किया है लेकिन इससे पहले शिक्षा बाज़ार में पैसा पीटने वाले अरिंदम चौधरी की संस्था आईआईपीएम से उन्होंने ‘रविन्द्रनाथ टैगोर शांति पुरस्कार-2010’ लिया। आईआईपीएम अब देश में शांति की परिभाषा तय करने में लगा है और इरोम उसको वैधता दे रही हैं!

मनोरमा देवी की हत्या के बाद जब भारत सरकार द्वारा गठित जीवन रेड्डी समिति ने आफ़्सपा को हटाने की सिफ़ारिश की। पी चिदंबरम ने हाल की अपनी एक प्रेस कांफ्रेंस में कहा कि रिपोर्ट पर विचार चल रहा है। यानी 2005 से लेकर अब तक मामला विचाराधीन ही है! हालांकि रेड्डी समिति ने वहां पर ‘थोड़े नरम’ क़ानून की वकालत की है। ये नरमी आफ़्सपो से आफ़्सपा होना या फिर पोटो से पोटा होने जैसा ही है! यदि आफ़्सपा का नरम रूप मणिपुर में लागू होता है तो क्या इरोम अनशन तोड़ देंगी? उनकी मांग तो यही है!

न्यायमूर्ति आफ़ताब आलम की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने इसी हफ़्ते मणिपुर के बाबत सरकार को लताड़ लगाई है कि वो जल्द इस पर कुछ करें क्योंकि मणिपुर में रोज़-रोज़ बेकसूर मारे जा रहे हैं। कुछ नहीं रुका है। सब समानांतर चल रहा है। हत्याएं चल रही हैं, अनशन चल रहा है। मीडिया की अपनी रिपोर्टिंग चल रही हैं। अन्ना के आंदोलन के पहले अध्याय यानी 2011 के वक्त मीडिया इरोम के निजी ताल्लुकात पर ख़बरें छापता रहा। टेलीग्राफ़ को मणिपुर में जलाया गया। कुछ संगठनों ने पाबंदी लगा दी। मीडिया पर इस लेख में कुछ नहीं कहा जाएगा। कभी बाद में चर्चा।   

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