मंडेला के देश में चार दिन
-उर्मिलेश
हल्की बारिश थमने के बाद
जोहान्सबर्ग की पहली रात और खुशनुमा हो गई थी। होटल की खिड़की से देखा, आसमान बिल्कुल
साफ था। खूब सारे तारे दिखाई दे रहे थे, जैसे बचपन में अपने गांव वाले घर के आंगन में
सोते वक्त अक्सर दिखाई देते थे। याद नहीं, मैंने दिल्ली में
कभी ऐसी तारों भरी रात देखी हो। सोचा, सोने से पहले क्यों न होटल के सामने वाली सड़क
पर टहलते हुए आसमान और मंडेला स्क्वायर के पास के इलाके का नजारा करें। बाहर थोड़ी
ठंड़ थी इसलिए जैकेट डाल लिया। कमरा बंद कर फौरन नीचे आया। बाहर जाने लगा तो
होटल-स्टाफ की एक महिलाकर्मी ने मुझे रोकते हुए समझाया, ‘ सर, यहां रात में
बाहर निकलना ‘सेफ’ नहीं है। अच्छा
होगा, दिन में भी अकेले
न निकलें। आपने तो अभी कुछ ही देर पहले ‘चेक-इन’ किया। हिन्दी
कांफ्रेंस के लिए इंडिया से आए हैं। आपका सम्मेलन कल सुबह सैंडटन कन्वेंशन सेंटर
में शुरू होगा।
वह सेंटर भी इसी इलाके में है और वहां तक पहुंचने के लिए आपको होटल
से बाहर जाने की जरुरत नहीं है। होटल के अंदर से वहां तक जाने का हवाई-गलियारा
(स्काई वाक) बना हुआ है।’ इन हिदायतों को सुनकर थोड़ी देर के लिए वाकई अचरज हुआ। सन 1998-2002 के दौरान न जाने कितनी बार कश्मीर गया। भोजन के बाद रात को श्रीनगर के
आ-दूश होटल से बाहर निकलकर रेजीडेंसी रोड
पर मजे से टहलता था। सड़क पर कई बार सैनिकों या अर्धसैनिक बल के जवानों से
आमना-सामना होता तो ‘खाने के बाद टहल रहा हूं’ कहते हुए आगे
निकल जाता। कई बार वे पूछताछ भी करते। दहशत और आतंक भरे माहौल के बावजूद कभी किसी
होटल में हमे बाहर जाने से नहीं रोका गया। दुखी-मन रिसेप्शन के पास पड़े सोफे पर
बैठ गया। दिल्ली विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर-मित्र की बात याद आई, जिन्होंने कुछ
माह पहले दक्षिण अफ्रीका के दौरे से लौटने के बाद कहा था, ‘जोहान्सबर्ग के
हालात अच्छे नहीं। किसी बाहरी आदमी के लिए सड़कों पर आजाद ढंग से चलना मुश्किल हो
गया है।‘
जोहन्सबर्ग का मंडेला चौराहा (स्क्वेयर) |
भव्य सितारा होटल की
चौदहवीं मंजिल पर मुझे कमरा मिला था। जाने के लिए लिफ्ट को भी अपने कमरे की खास
इलेक्ट्रॉनिक चाभी से चलाना था। दो-तीन बार लिफ्ट के सिस्टम में कार्डनुमा चाभी को
अंदर-बाहर करता रहा तब जाकर लिफ्ट चली और कुछ सेकेंड्स में सीधे चौदहवीं मंजिल
जाकर रुकी। कमरा खोलने में जो मशक्कत करनी पड़ी वह कुछ कम नहीं। लिफ्ट से ज्यादा
वक्त इसमें लगा। बहरहाल, एक बार अनुभव हो जाने के बाद यह प्रक्रिया कठिन नहीं रही।
कुछ देर बाद दिल्ली से ही अपने साथ आए एक सज्जन का कमरे में फोन आया। इसी होटल में
ऊपर की किसी अन्य मंजिल पर उन्हें कमरा मिला था। उन्होंने मेरे कमरे में आकर गपशप
करते हुए चाय पीने की इच्छा जाहिर की। मैंने कहा—‘आ जाइए, इसमें पूछने की
क्या बात ?’ वह कहने लगे- ‘लेकिन आउंगा कैसे, लिफ्ट तो आपकी
मंजिल पर रूक ही नहीं रही है। मैं वहां जाने के लिए अधिकृत नहीं हूं, ऐसी आवाज आ रही
है। मैं रास्ते में अटका हूं।‘ मैंने कहा, ‘आपके और हमारे बीच ज्यादा ऊंचाई नहीं है, आप सीढ़ी से आ
जाइए।’ मेरे इस सुझाव पर
उन्होंने कहा कि ‘कोई सीढ़ी नहीं है, इस होटल में।
चारों तरफ देख आया हूं।‘ मैंने कहा, ‘ऐसा कैसे हो सकता है, यह तो
फायर-फाइंटिंग नियमावली का उल्लंघन होगा।’ उन्होंने मायूसी
जाहिर करते हुए कहा, ‘ऐसा ही है।’ तब मुझे उपाय सूझा, मैंने कहा, ‘आप भू तल पर जाइए, वहां मैं आता
हूं। वहां से फिर आपको लेकर चौदहवीं मंजिल आ जाऊंगा।’ अपनी कार्डनुमा
चाभी को लेकर मैं नीचे गया और फिर उन्हें लेकर अपने कमरे में आया।
सबसे पहले
रिसेप्शन को फोन कर जानना चाहा कि नीचे से ऊपर या ऊपर से नीचे के फ्लोर पर किसी
मित्र के कमरे में जाना हो तो लिफ्ट को किस तरह चलाएं?’ दूसरी तरफ से जो
जवाब मिला वह हैरत में डालने वाला था—‘सर, अपने कमरे से आप सिर्फ नीचे (ग्राउंड फ्लोर) या छठीं मंजिल (जहां से रेस्तरां या
स्काईवाक के लिए रास्ता जाता है) पर आ सकते हैं।
अन्य मंजिलों पर नहीं। यह सुरक्षा बंदोबस्त हमने अपने होटल में रहने वाले गेस्ट्स
की सुरक्षा के मद्देनजर किया है।’ लगभग घंटे भर
गपशप के बाद जब वह अपने कमरे की तरफ जाने लगे तो मैने पूछा, ‘जाएंगे कैसे?’ उन्होंने कहा, ‘वही तरीका
अपनाएंगे, नीचे जाकर फिर
अपनी मंजिल पर आने का।’ मैं उन्हें छोड़ने लिफ्ट तक गया। वहां अचानक मेरी नजर बाईं
तरफ एक ऐसे दरवाजे पर गई, जिसमें कोई लाक-सिस्टम नहीं नजर आ रहा था। मेंने उनकी तरफ
इशारा किया, वो देखिए। फिर हम
दोनों वहां गए। पता चला, यह सीढ़ियों का दरवाजा है। लेकिन उस पर न तो कुछ लिखा था और
न ही निकास या सीढ़ी होने का कोई संकेत दिया हुआ था। मैंने कहा, ‘महाशय, इतनी मेहनत से
खोजे रास्ते का अब आप उपयोग करें।’ वह सज्जन सीढियों के रास्ते अपने कमरे की तरफ गए और मैं
अपने कमरे में आकर दक्षिण अफ्रीकी मुक्ति संग्राम के बारे में एक पुराना लेख पढ़ने
लगा, जो घर से रवाना
होते समय पुरानी पत्रिकाओं के मेरे घटते-बढ़ते कलेक्शन में मिल गया था।
अपने छात्र-जीवन और फिर
पत्रकारिता के शुरुआती दिनों में हमने दक्षिण अफ्रीका के बारे में काफी कुछ पढ़ा
था। दुनिया के पैमाने पर उन दिनों की तरक्कीपंसद युवा पीढ़ी के जो कुछ बड़े
महानायक थे, उसमें नेल्सन
मंडेला एक महत्वपूर्ण नाम था। दिल्ली स्थित जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय के
छात्रावासों के कमरों में हमारे कई मित्रों ने तो लेनिन, चे या कास्त्रो
के साथ मंडेला की तस्वीर भी लगा रखी थी। एक योद्धा, जिसने अपने जीवन
के सर्वोत्तम 27 साल दक्षिण अफ्रीका की रंगभेदी-नस्लभेदी सरकार की जेल में बिता
दिए। सच पूछिए तो विश्व हिन्दी सम्मेलन में शामिल होने का भारत सरकार का जब
निमंत्रण मिला तो मैं थोड़े असमंजस में रहा क्योंकि महज चार दिन पहले ही डेनमार्क
के सात-दिवसीय दौरे से लौटा था। पर जोहान्सबर्ग जाने की मन में इच्छा भी थी।
सम्मेलन के बहाने हमें मंडेला का देश देखने का मौका मिलेगा।
एक ऐसा देश, जहां रंग व नस्ल
आधारित भेदभाव और जुल्म से लड़ते हुए मोहनदास करमचंद गांधी भारतीय स्वाधीनता
आंदोलन के महात्मा गांधी बने। अस्वस्थ चल रहे बुजुर्ग मंडेला को देखने का सौभाग्य
तो शायद न मिले पर उस महान योद्धा की निशानियां जरूर दिखेंगी। और यही सब सोचते हुए
मैंने जोहान्सबर्ग जाने की तैयारी शुरू कर दी। दो दिन के अंदर ही यात्रा की
सरकारी-औपचारिकताएं पूरी हो गईं। 21 सितम्बर की सुबह अमीरात-एयरलाइंस की उड़ान से
दुबई होते हुए जोहान्सबर्ग के लिए रवाना हुआ। विमान में सम्मेलन के कई लेखक-प्रतिनिधि
सवार थे। राजनेता और अफसर शायद पहले ही जा चुके थे। दुबई से हमें उसी एयरलाइंस के
दूसरे विमान से जोहान्सबर्ग के लिए उड़ना था। बीच में लगभग डेढ़ घंटे का अंतराल
था। इस दौरान हम लोग दुबई हवाई अड्डे के विशाल शापिंग कांप्लेक्स में घूमते-फिरते
रहे। शापिंग कांप्लेक्स की एक खास बात है कि यहां सिर्फ शराब, चाकलेट और कपड़े
की ही दुकानें नहीं हैं, सोना, चांदी, हीरे और अत्याधुनिक इलेक्टानिक सामान भी यहां बिकते हैं।
योजना बनाकर आए कुछ सम्पन्न लोग सोने की दुकानों पर मोल-भाव करते दिखे। कुछ ने
खरीदा भी।
जोहन्सबर्ग का गांधी चौराहा |
दुबई से लगभग आठ घंटे
लंबी उड़ान के बाद हम जोहान्सबर्ग हवाई अड्डे पर उतरे तो वहां रात हो गई थी। हल्की
बारिश से माहौल में थोड़ी ठंड थी। प्रिटोरिया स्थित भारतीय उच्चायोग की तरफ से
हवाई अड्डे पर जूनियर अधिकारियों की एक टीम आई थी। उस फ्लाइट से लगभग पचास-साठ
डेलीगेट आए थे। कौन-किस होटल में रुकेगा, इसका चार्ट पहसे से बना हुआ था। उसे देखकर हम
लोगों को बसों में बैठाया जा रहा था। मेरा अलाटमेंट सैंडटन इलाके के एक सितारा
होटल में था। लगभग चालीस मिनट के इंतजार के बाद हमें बस से होटल ले जाया गया।
बारिश में धुली सड़कें और चमक रही थीं। रास्ते में साधाऱण मकानों से लेकर आलीशान
बिल्डिंगें थीं। हरियाली कम थी पर महानगर साफ-सुथरा दिख रहा था। दक्षिण अफ्रीका के
बारे में पढ़ रखा है कि वह सोना, हीरा, प्लैटिनम और कोयला सहित तरह-तरह के बेशकीमती खनिजों से भरा
देश है। पर वहां के ज्यादातर लोग भारत की तरह ही गरीब और बदहाल हैं। लेकिन हवाई
अड्डे से होटल के रास्ते में हमें विपन्नता की तस्वीर नहीं दिखी, जैसी आमतौर पर
अपने भारत में नगरों-महानगरों की चकाचौंध
के बावजूद इधर-उधर दिख ही जाती है। दूसरे-तीसरे दिन जोहान्सबर्ग के अंदरुनी हिस्से
में और सोवैटो जाते वक्त यहां के समाज की जो तस्वीर हमने देखी, वह उतनी गुलाबी
नहीं थी। कई तस्वीरें तो डरावनी थीं। इसकी शुरुआत पहले ही दिन होटल के रिसेप्शन से
हो गई थी। प्रवास के दूसरे दिन पता चला कि सम्मेलन में दिल्ली से आए सरकारी
अधिकारियों के एक समूह पर हमला हुआ। हमलावरों ने उनके पास जो भी पाया, लूट लिया। यह सब
नेल्सन मंडेला स्क्वायर के आसपास ही घटित हुआ। जो बातें अब तक सुनते आए थे, वह हमारे सामने
दर्ज हो रही थीं। छीना-झपटी में कुछ लोगों को चोट भी लगी। गनीमत कि उनके पासपोर्ट
और बेशकीमती सामान नहीं गए। लेकिन इस तरह की बुरी खबरों से हम ज्यादा प्रभावित
नहीं हुए। सुबह की सैर का सिलसिला हमने जारी रखा।
दक्षिण अफ्रीका में कानून
व्यवस्था, लूटपाट और संगठित
अपराध की हकीकत अपने विकराल चेहरे के साथ 23 सितम्बर को हमारे सामने आई। बीती रात, ब्रीट्स में देश
के मशहूर खेल-शख्सियत और पूर्व विश्वविजेता हेवीवेट मुक्केबाज कोर्री सैंडर्स को
एक रेस्तरां में अपने भतीजे का 21वां जन्मदिन मनाते समय गोलियों से भून दिया गया।
रेस्तरां से बाहर निकलते वक्त तीन हमलावर वहां मौजूद सभी लोगों के बैग, सेलफोन और पर्स
आदि लेते गए। गोलियों से छलनी होने के बावजूद सैंडर्स अपनी बेटी, भतीजे और अन्य
बच्चों को बचाने में लगा रहा। अंततः 23 सितम्बर की सुबह चार बजे प्रिटोरिया के एक
अस्पताल में सैंडर्स ने दम तोड़ दिया। अगले दिन जोहान्सबर्ग के अखबारों में छपी इस
खबर में दक्षिण अफ्रीका का लहूलुहान चेहरा झांकता रहा। यह दीगर बात है कि खबर को
उतनी प्रमुखता नहीं मिली, जिसकी वह हकदार थी। देश के एक प्रमुख अंग्रेजी दैनिक ने तो
उसे अपने दूसरे पेज पर छापा।
जोहन्सबर्ग: विहंगम दृश्य |
अभी एक दिन पहले ही मैं
शहर के पुराने इलाकों में गया था। मेरा टैक्सी डाइवर बार-बार मुझे हिदायत देता था, गाड़ी से उतरो
नहीं, सारी चीजें अंदर
से ही देखते जाओ। तब मुझे उसकी यह सतर्कता कुछ ज्यादा ही लग रही थी। सम्मेलन के
उद्घाटन सत्र के बाद मैं शहर घूमने निकल गया था। मुझे लगा, बाहर जाकर असली
शहर का जायजा लेना चाहिए ताकि पंचसितारा होटलों और जोहान्सबर्ग के अमेरिकी अंदाज
में बने नए व्यावसायिक इलाके से दूर पुराने शहर का चेहरा और आम जिन्दगी की
जद्दोजहद दिखे। इसके लिए एक भरोसेमंद टैक्सी वाले की जरुरत थी। होटल के बिल्कुल
सामने एक टैक्सी वाले से मुलाकात हो गई। वह किसी गेस्ट को होटल छोड़कर लौट रहा था
और मैं दोपहर के भोजन के बाद नीचे आया हुआ था।
मैंने उससे पूछा, ‘ मैं एक इंडियन
जर्नलिस्ट हूं। शहर, उसके अंदर की कालोनियों और साधारण लोगों की बस्तियों को
देखना चाहता हूं। क्या आप मुझे ले चलेंगे?‘
किराए और यात्रा की समय-सीमा पर संक्षिप्त बातचीत के बाद वह
फौरन तैयार हो गया। मैं अपने कमरे में गया और पंद्रह मिनट में तैयार होकर नीचे आ
गया। साथ चलने के लिए एक अन्य गैर-पत्रकार मित्र तैयार हो गए। शहर के पाश इलाकों
से गुजरते हुए हम डाउन-टाउन और फिर गरीब लोगों की बस्तियों की तरफ गए। अपने देश के
इंदिरा आवास के नाम पर बने दरबे-नुमा आवासों की तरह के कुछ मकान भी देखे। हालांकि
इन मकानों की गुणवत्ता अपने देश के इंदिरा आवासों से बेहतर थी। इनमें यहां के
साधारण गरीब लोग रहते हैं। यहां बेहाली और गुरबत का साया था। कई घरों में हमने
देखा, बूढ़े-बुढियां
लाचार पड़े थे। उनके जवान बेटे-बेटियां कुछ कमाने के नाम पर बाहर निकले हुए थे। इस
तरह की बदहाल-जिन्दगियों से कुछ ही दूरी पर नए-पुराने धनिकों की चमकीली दुनिया थी, कांटेदार तारों
से घिरी ऊंची अट्टालिकाएं, अत्याधुनिक सामानों से भरे शापिंग काम्पलेक्स, सिनेमा, नाचघर और न जाने
क्या-क्या! डाउन-टाउन में हमें कई नाच-घर या मनोरंजन केंद्र दिखे।
बाकायदा उनके
बैनर-पोस्टर भी टंगे थे। मेरे टैक्सी-वाले ने बताया कि इनमें हर तरह का धंधा होता
है। टैक्सी वाले और मेरे बीच इस यात्रा के दौरान काफी कुछ बातें हो चुकी थीं। हम
दोनों ने एक दूसरे को थोड़ा-बहुत समझ लिया था। उसे भरोसे में लेकर मैंने पूछा, ‘आप बार-बार मुझे
गाड़ी से उतरकर सड़क या फुटपाथ पर चलते लोगों से बातचीत करने से रोक रहे हो, क्या वजह है। ये
लोग तो अच्छे मालूम होते हैं, फिर क्या डर है?’ उसने मुझे समझाने के अंदाज में कहा, ‘असल में आप समझ
नहीं सकते कि उनमें कौन क्या और कैसा है, जबकि वो समझ रहे हैं कि आप कौन हो। उन्हें इस
बात से मतलब नहीं कि आप अमेरिकन हो या इंडियन, ज्यादा अमीर हो
या साधारण। उनके लिए यही पर्याप्त है कि आप पर्यटक हो, किसी बाहरी देश
के पासपोर्ट वाले हो और आपकी जेब में कुछ रैंड (दक्षिण अफ्रीकी मुद्रा) या डॉलर होंगे। यह सब हासिल करने
के लिए खुराफाती लोग आपको पकड़ सकते हैं, आप पर हमला कर सकते हैं और जरुरत के हिसाब से
चाकू भी चला सकते हैं।
जोहन्सबर्ग- खेल का बड़ा केंद्र |
सब जगह यह समस्या नहीं है पर इन इलाकों में है। आप
प्रिटोरिया जाइए, वहां ऐसा माहौल नहीं है।’ मैंने वेबसाइट पर
पढ़ी एक खबर का हवाला देते हुए पूछा, ‘लेकिन कुछ ही दिनों पहले प्रिटोरिया के बाहरी
इलाके में एक पैतीस वर्षीय गोरा दक्षिण-अफ्रीकी नागरिक ‘श्वेत-विरोधी
घृणा अभियान’ का शिकार हो गया।
उसका बच्चा अपने बाप को मरते हुए देखता रहा। ऐसा क्यों है?’ डाइवर भले ही कम
पढ़ा-लिखा रहा हो पर मैने महसूस किया, वह बेहद संजीदा और समझदार था। उसने कहा, ‘ आप किस खबर की
बात कर रहे हैं,
मुझे नहीं मालूम।
लेकिन यह बात सही है कि सन 1994 में सत्ता बदलने के बाद हम अश्वेत लोगों के कुछ
हिस्सों में गोरों से बदला लेने की मानसिकता पैदा हुई है। यह बहुत बुरी बात है। एक
जमाना था, जब हम कालों को
वोट का अधिकार तक नहीं था। हमने जुल्म के खिलाफ लड़ाई जीती। संकल्प लिया गया कि
रंगभेद-नस्लभेद का शासन खत्म होने के बाद दोनों तरह के लोगों-काले और गोरों को अब
साथ रहना है और देश को मजबूत बनाना है। पर ऐसा नहीं हो पा रहा है। यह बहुत बड़ी
समस्या है, हमारे देश की।’ उसकी
आत्मस्वीकृति में ईमानदारी थी।
दक्षिण अफ्रीका की यह
समस्या विकट होती गई है। राजनीतिक-भाषणबाजी के अलावा इसे संभालने की ठोस कोशिश
नहीं की जा रही है। दोनों समुदायों के बीच इतनी लंबी खाई पैदा हो चुकी है कि उसे
पाटना फिलहाल संभव नहीं दिख रहा है। इसके पीछे निश्चय ही तमाम तरह के निहित
स्वार्थ सक्रिय हैं। नेल्सन मंडेला सहित सभी प्रमुख विचारक पहले से कहते आ रहे हैं
कि दक्षिण अफ्रीकी राष्टवाद के विकास का रास्ता अब अश्वेत और गोरे अफ्रीकियों की
एकता की जमीन से ही गुजरेगा। दोनों को एक होकर आगे बढ़ना होगा। पर इसे अमलीजामा
पहनाने की बड़ी चुनौतियां हैं। मंडेला-कार्यकाल में जिन आर्थिक-नीतियों की बुनियाद
पड़ी, वह आगे जाकर
समस्याओं का समाधान करने की बजाय स्वयं समस्या बन गई।
अब तो उनके कई पक्के समर्थक
भी कहने लगे हैं कि पहले गरीबी और असमानता खत्म करने पर जोर दिया जाना चाहिए था।
सामाजिक, जातीय और नस्लीय
अतंर्विरोधों को तब बेहतर ढंग से हल किया जा सकता था। अर्थव्यवस्था में अत्यधिक
निजीकरण पर जोर ने धन-सम्पत्ति के संकेद्रण को और बढ़ा दिया है। राजनीतिक सत्ता
मुट्ठी भर लोगों के हाथों में केंद्रित है। तेजी से बढ़ रही आर्थिक गैर-बराबरी ने
सामाजिक अंतर्विरोधों को तीखा किया है। पहले बड़े स्तर पर राष्टीयकरण की प्रक्रिया
चलनी चाहिए थी। इससे दरिद्रता और बेरोजगारी जैसी समस्याओं को हल किया गया होता। पर
सरकार ने यहां निजीकरण-आधारित पूंजीपरस्ती का रास्ता चुना। गरीबों के लिए कुछ योजनाएं
लाई गईं। पर ये कथित कल्याणकारी योजनाएं ऊंट के मुंह में जीरा साबित हो रही हैं।
दक्षिण अफ्रीका में इस वक्त बेरोजगारी 24 फीसद की दर से बढ़ रही है।
नक्शे में जोहन्सबर्ग |
लगभग साढ़े
पांच करोड़ आवादी वाले देश के 90 फीसद अश्वेत गरीब हैं। सरकार दावा करती है कि
गरीबों की बड़ी आबादी शासन द्वारा शुरु की गईं कल्याणकारी योजनाओं का लाभ पा रही
है और उसका जीवन स्तर बेहतर हुआ है। लेकिन अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस के अपेक्षाकृत
रेडिकल युवा नेता, सहयोगी गुट और विपक्षी दल सरकार के दावे को खारिज करते हैं।
पिछले दिनों अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस की यूथ लीग के अध्यक्ष जूलियस मलेमा को पार्टी
से निकाल दिया गया। यूथ लीग और कई अन्य समूहों के रेडिकल नेताओं का कहना है कि
सरकार जब तक खदानों का राष्टीयकरण करके बड़े नीतिगत फैसले नहीं करती तब तक बढ़ती
बेरोजगारी, गरीबी और
गैरबराबरी जैसी बड़ी समस्याओं से निजात नहीं मिलेगा। कई गुटों और नेताओं ने मांग
की है कि सरकार 60 फीसदी खदानों का मुआवजा दिए बगैर राष्टीयकरण करे। इनमें यूथ लीग
नेता भी शामिल हैं। जूलियस स्वयं भी कम विवादास्पद नहीं हैं। उन पर भ्रष्टाचार के
कई आरोप हैं। पर एएनसी में जूमा-विरोधी खेमे के कई प्रमुख नेता इन दिनों उनका साथ
दे रहे हैं। कम्युनिस्टों का खेमा शुरू से यह मांग करता रहा है। इन दिनों इस खेमे
का समर्थन बढ़ रहा है। उधर, सरकार खदानों के राष्ट्रीय़करण की मांग को नकारात्मक विचार
मानती है। उसका कहना है कि इससे आर्थिक सुधारों का सिलसिला थम जाएगा। देश में
सक्रिय ज्यादातर थिंक-टैंक और एनजीओ भी सरकार की हां में हां मिला रहे हैं। इस तरह
के संगठनों को अमेरिका और यूरोपीय देशों से काफी मोटे अनुदान मिलते हैं। (साप्ताहिक शुक्रवार में प्रकाशित)
...जारी
(लेखक से urmilesh218@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है)
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