27 नवंबर 2012

हिंदी को बंद गली का आख़िरी मकान मत बनाइए.




दूसरा भाग
हिन्दी समाज और 'सृजनात्मकता' की पड़ताल करता दिलीप खान का यह आलेख दो भागों में यहां प्रकाशित किया जा रहा है, प्रस्तुत है दूसरा भाग इसका पहला भाग यहां क्लिक कर पढ़ें.

सरकार इतनी संस्थाओं और आयोजनों पर धन झोंकती है, लेकिन हिंदी को सचमुच टिकाऊ और दीर्घजीवी बनाने की कवायद इनमें कहीं नज़र नहीं आती। देश के अधिकांश राज्यों में हिंदी साहित्य का स्कूली पाठ्यक्रम अब भी पुराने ढर्रे पर चल रहा है। इनमें समकालीन लेखकों की लगभग अनुपस्थिति कई सवाल खड़े करती है। पहला सवाल तो ये है कि क्या इन लेखकों ने वो स्तर हासिल नहीं किया कि पुराने लेखकों की बजाए इनको तवज्जो दी जाए? दूसरा सवाल ये है कि क्या हिंदी पाठ्यक्रम को अद्यतन करने वाले लोग कूपमंडूक और लकीर के फकीर वाली परंपरा से ताल्लुक रखते हैं कि कुछ भी नया करने में उनका हाथ कांपने लगता है? तीसरा सवाल ये है कि क्या जान-बूझकर समकालीन समय-समाज को प्रतिबिंबित करने वाली रचनाओं को पाठ्यक्रम से काटकर रखा जाता है और पुराना पड़ जाने पर उसे हमारे सामने पेश किया जाता है? अगर इनमें से किसी भी सवाल का जवाब हां है तो वो अकेले परेशान करने के लिए काफ़ी है।  

खिलते हुए हिंदी पट्टी के मध्यवर्ग को ऐसे विषयों में ज़्यादा दिलचस्पी नहीं है। साहित्य से यदि कोई अतिरिक्त लगाव नहीं रखे तो उन्हें कुछ भी नहीं पता कि क्या लिखा जा रहा है, कौन लिख रहा है और कैसा लिख रहा है? पूरा का पूरा मध्यवर्ग पूंजी जुटाने में मस्त है। क्या इसी संस्कृति ने मध्यवर्ग को साहित्य से काट दिया है या फिर साहित्य सचमुच उनकी ज़रूरत पूरी नहीं कर पाता? यही मध्यवर्ग गाल पर तिरंगा छापकर जंतर-मंतर पर अन्ना हज़ारे के साथ बैठकर नारे लगाता है लेकिन इसी मध्यवर्ग को साहित्य से कोई दिलचस्पी नहीं रहती तो वजह क्या है? दो उत्तर हो सकते हैं एक तो ये कि इस वर्ग ने साहित्य को बदलाव के टूल के तौर पर नकार दिया है या फिर हिंदी का साहित्य मध्यवर्ग की महत्वाकांक्षाओं पर सचमुच चोट करता है और इसी वजह से यह वर्ग इससे कन्नी काटता है। लेकिन एक तीसरा उत्तर भी हो सकता है जो इनसे ज़्यादा महत्वपूर्ण है। शायद पूरे समाज में पढ़ने को करियर के साथ इस तरह जोड़ दिया गया है कि करियर के अहाते से बाहर की कोई भी चीज़ पढ़ना फ़िजूलख़र्ची लगता है। कंप्यूटर इंजीनियर को यांत्रिक इंजीनियंरिंग नहीं मालूम तो इतिहास और साहित्य के लिए उसे कहां से फुरसत! शिक्षा का पूरा ढांचा ही पठन-पाठन को एक पीपे के भीतर महदूद करने वाला है। हिंदी कोई क्यों पढ़ेगा? हिंदी माध्यम में पढ़ने की सलाह क्यों देनी चाहिए जब सारी की सारी नौकरियों में अंग्रेज़ी को अनिवार्य बनाने की कोशिश जारी हो? एक तरफ़ शिक्षा की योजना बनाते समय सरकारी हुक़्मरान अंग्रेज़ी के प्रति आग्रह रखते हैं, ज़्यादातर सरकारी संस्थानों के प्रश्नपत्र इस घोषणा के साथ विद्यार्थियों के सामने पेश होते हैं कि वाक्यों में किसी भी तरह की त्रुटि के बाद अंग्रेज़ी को ही आधार माना जाएगा और दूसरी तरफ़ सरकार हिंदी के विकास को लेकर सितंबर-सितंबर चमकदार आयोजन करती है। सिर्फ़ रेलवे स्टेशनों पर हिंदी हमारी राजभाषा है लिखने से हिंदी की महत्ता को सरकार स्थापित नहीं कर सकती (किसी-किसी प्लेटफॉर्म पर तो राष्ट्रभाषा भी लिखा मिल जाएगा।)। इसके लिए सचमुच गंभीर प्रयास करने की ज़रूरत है।
उच्च शिक्षा के माध्यम के तौर पर जब तक हिंदी को प्रतिष्ठा नहीं मिलेगी तब तक इसका दोयम दर्ज़ा बरकरार रहेगा। दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र और दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाला देश भारत यह हिम्मत क्यों नहीं दिखा पाता कि वो अपनी राजभाषा को व्यवहार और चिंतन की भाषा में तब्दील करे। संयुक्त राष्ट्र में हिंदी को यदि सातवीं आधिकारिक भाषा के तौर पर मान्यता मिल जाती है तो हमें किस आधार पर गर्व करना चाहिए? बाहर में हिंदी-हिंदी चिल्लाने से मज़बूती कभी नहीं आने वाली। जिस समाज और जिस मिट्टी की यह भाषा है पहले वहां इसे इस्तेमाल करने वाले लोगों को भरोसा दिलाना होगा कि वो इस माध्यम में बेफ़िक्र होकर लिख-बोल सकते हैं। हिंदी बोलने-लिखने के उनके आत्मविश्वास की इज़्ज़त करनी होगी कि उनकी बदौलत ही सरकार संयुक्त राष्ट्र में हिंदी की दावेदारी पेश कर पा रही है। फ़र्ज़ कीजिए कल को हिंदी को वहां मान्यता मिल गई और देश के भीतर उसे हिकारत से ओह माई गॉड हिंदी कहकर देखा जाए तो सरकार के इस भाषाई प्रेम को लेकर कैसी तस्वीर उभरेगी?  
लोग पढ़ना चाहते हैं और पढ़ भी रहे हैं, लेकिन उनकी दिक़्क़त ये रहती है कि अलग-अलग विधाओं की विषय-सामग्री उनको हिंदी में नहीं मिल पाती। आख़िरकार हिंदी को लेकर चिंतित हुक़्मरान एक आसान काम क्यों नहीं कर पाते कि दूसरी भाषाओं की बेहतर किताबों का वो हिंदी में अनुवाद करवा दे। कितने रुपए इस मद में ख़र्च करने होंगे? हिंदी आयोजनों और हिंदी के नाम पर नए-नए संस्थान खोलने में जितनी धनराशि फूंकी जाती है उसके मुकाबले कहीं कम बजट में इसे पूरा किया जा सकेगा। भाषा के टिकाऊपन के लिए उसे प्रचलन, बोल-चाल, पठन-पाठन, विमर्श और सबसे अहम कि उसे रोज़गार की भाषा के तौर पर स्थापित करना होगा। आश्वस्त पेट के मार्फ़त की गई चिंता ज़्यादा ठोस होगी।         
जिस राजभाषा को अपनाने के बाद पेट पालने का सवाल सबसे पहले सामने आ जाए तो उसमें फैलाव कैसे आएगा? भाषा के फ़ैलाव के लिए जिन्हें ज़िम्मेदारी दी गई है वो नौकरी कर घर-गृहस्थी चलाने में व्यस्त हैं। इनमें से कई लोगों के भीतर भाषा की बेहतरी की कोई चिंता नहीं है और जो लोग सचमुच चिंतित है उनके हाथ में ज़िम्मेदारी और अधिकार नहीं हैं। हिंदी साहित्यिक दुनिया में ऐसे कितने लेखक हैं जो सिर्फ़ लिखकर जीवन-यापन कर पा रहे हैं? किसी का रबर का धंधा है तो कोई प्रबंधक है, कोई मिठाई की दुकान चलाता है तो कोई कपड़े का व्यापार करता है। फिर भी हठधर्मी होकर अगर कोई यह  तय कर ले कि वो कोई नौकरी नहीं करेगा और पठन-पाठन से अलग कोई धंधा भी नहीं, तो अगले कदम पर लघु-पत्रिका उसके स्वागत में खड़ी रहती है। दो-एक विज्ञापन के सहारे पत्रिका निकलनी शुरू होती है। लिखने वाले लोगों को कोई भुगतान नहीं होता। संबंधों के आधार पर लेख आ जाते हैं और महीने के अंत तक खींच-तान कर पत्रिका भी। कभी अगर लेखक ने रचना भेजने में देरी कर दी तो पत्रिका तत्काल प्रभाव से मासिक से अनियतकालीन में तब्दील कर दी जाती है। सैंकड़ों-हज़ारों की तादाद में निकलने वाली ऐसी पत्रिकाओं में इक्के-दुक्के ही ऐसी होती हैं जिनको देखकर लगता है कि इनके पीछे संपादक की कोई योजना है। ज़्यादातर प्रतियां मुफ़्त में बंटने के बाद बिक्री भले ही दस फ़ीसदी ही हो, लेकिन पत्रिका के कवर पर छपी क़ीमत को कम नहीं किया जा सकता! पता नहीं किस स्तरीयता के बोझ में दबकर संपादक यह आत्मघाती फ़ैसला लेते हैं?
हिंदी पट्टी के जिन इलाकों में संभावना तलाशती ये पत्रिकाएं पहुंचती हैं, वहां पहले से कुकुरमुत्तों की तरह चार महीनों में फ़टाफ़ट अंग्रेज़ी सिखाने वाली कोचिंग खुल चुकी होती है। चौराहे-चौराहे ब्रिलिएंट इंग्लिश, ब्रिटिश इंग्लिश और इंग्लिश वर्ल्ड जैसे आकर्षक नामों की तख़्तियां टांग दी जाती है। रैपिडेक्स की खुराक तले बच्चे बड़े होते हैं। उनका ख्वाब ही है कि वो एक बार, बस एक बार अंग्रेज़ी बोलना सीख जाए तो दुनिया को कदमों में झुका लेंगे। अंग्रेज़ी ज्ञान तक पहुंचने का साधन न बनकर खुद ही ज्ञान बन जाती है। भाषा से ज्ञान तक के सफ़र में वह पूरे समाज में एक ख़ास अधकचरी भाषिक संस्कृति का निर्माण करती है और वहां के लोग शहरी इलीट की बोलचाल के साथ तादात्म्य बैठाते हुए गर्व महसूसने में जुट जाते है। अंग्रेज़ी के साथ इलीटनेस का जो बोध जगता है उसी को हासिल करने के पीछे लोग अपनी ऊर्जा झोंकने लगते हैं और जाहिर है वो न इलीट बन पाते हैं और न ही अपनी मिट्टी में जमे रह पाते हैं। वो नकलची जैसा बनकर रह जाते हैं और इन नकलचियों के बीच सर्वाधिक प्रिय आत्मविश्वास कैसे बढ़ाए, धनी बनने के सौ टिप्स, और आकर्षक व्यक्तित्व के राज मार्का चमचमाती जिल्द वाली किताबें होती हैं। सब कुछ मशीनी बन कर रह गया है। व्यक्तित्व, पैसा, आत्मविश्वास, शोहरत, इज़्ज़त, वगैरह सबकुछ। एक किताब के भरोसे अमीर बनने का ख्वाब देखने वाली आबादी किस तरह खुद को स्थिर रखकर साहित्य के साथ समय दे पाएगी? दो मिनट का नास्ता और तीन मिनट की पढ़ाई के बीच बाज़ार द्वारा पेश किया गया पूरा व्यक्तित्व ही ओढ़ लेना चाहते हैं लोग। असलियत यही है कि इस पूरे समाज को यही रेडिमेड चीज़ें आकर्षित करती हैं। हर भाषा में ऐसा हो रहा है। हिंदी, अंग्रेज़ी, मराठी, सबमें। समाज में काफ़ी बदलाव आया है। बीते बीस साल की बेस्ट सेलर किताबों की सूची देख लीजिए उनमें ज़्यादातर ऐसी ही किताबें शामिल हैं।
सामाजिक बनावट से पठन-पाठन की प्रकृति अलग नहीं है। मुल्क के सामाजिक और राजनीतिक यथार्थ के साथ ये चीज़ें जुड़ी होती हैं। जिस तरह की विश्व व्यवस्था होगी, जैसा समाज होगा वो अपने साथ पढ़ने के आस्वाद को भी बदलेगा। अगर क्रिकेट को पुचकारा जाएगा तो क्रिकेट पर बिकने वाली पत्रिकाओं का प्रसार भी बढ़ेगा और इन पत्रिकाओं का प्रसार बढ़ेगा तो जाहिर तौर पर क्रिकेट को और ज़्यादा पुचकार मिलेगी। अलग-अलग माध्यमों की उपस्थिति ने इस प्रवृत्ति को मज़बूत किया है। टीवी और रेडियो पर इतनी सघनता से क्रिकेट अगर बजाए जाएंगे तो दर्शकों के मन में कृत्रिम कौतुहलता पनपेगी ही। फिर इसी कौतुहलता को भरने के नाम पर पत्रिकाओं और अख़बारों के पन्ने रंगे जाएंगे। कुल मिलाकर कह सकते हैं कि मीडिया के सारे उपांग मिलकर किसी विषय को सर्वाधिक रुचिकर विषय के तौर पर स्थापित करने की क्षमता रखते हैं।
सामाजिक रुचियों के संदर्भ में यह पड़ताल का ज़रूरी मुद्दा है कि क्या माध्यम के प्रति लोगों का रुझान बदला है? क्या इन माध्यमों के आगमन के बाद लंबा पढ़ने की आदत कम ही है? क्या किताब को टेलीविज़न, इंटरनेट और संचार के अन्य नए माध्यमों ने अपदस्त कर दिया है? क्या नई संचार तकनीक ने सबकुछ संक्षिप्त, छोटा और चुस्त करने की बात लोगों के जेहन में बैठा दी या फिर रुचिकर और लोकप्रिय रचनाओं की कमी हो चली है? पुस्तक मेलों में सबसे ज़्यादा बिकने वाली किताबों की सूची में हाल में लिखी किताबें जगह नहीं बना पाती जबकि साहित्य के प्रति उदासीनता के लाख चर्चों के बावज़ूद प्रेमचंद की कहानियां, उपन्यास और बच्चन की मधुशाला अब भी खूब बिकती है। युवा वर्ग में जो किताबें लोकप्रिय हैं उनमें गुनाहों का देवता और मुझे चांद चाहिए प्रमुख हैं। क्या नई शैली लोगों को पसंद नहीं आ रही है या फिर साहित्य का प्रचार लोगों तक नहीं हो रहा? अख़बारों और पत्रिकाओं की संख्या पर नज़र दौड़ाए तो इनमें बेतहाशा वृद्धि हुई है, इनमें से लगभग उतनी पत्रिकाओं और उतने अख़बारों में तो उतनी किताबों के बारे में सूचना ज़रूर छपती हैं जितनी पहले छपती थी लेकिन बड़ी प्रसार संख्या वाले अख़बारों से यह लगातार ग़ायब हो गए। हालांकि एक बड़ा और प्रमुख कारण यह भी है कि पहले हिंदी अख़बारों-पत्रिकाओं के जितने बड़े संपादक थे, उनमें से ज़्यादातर पत्रकारिता के साथ-साथ साहित्य में भी सक्रिय थे और साहित्य का मोल जानते थे। आज की तारीख़ में कई संपादकों की साहित्यिक समझदारी तो उतनी भर है जितनी से उन्हें पता चल जाए कि कौन सी किताब विवादों के घेरे में हैं और किसको कौन सा पुरस्कार मिला। यानी ख़बर में यदि साहित्य है तो थोड़ी-सी नज़र मार ली! पन्नों से ख़बर ग़ायब हुई तो जेहन से साहित्य भी!
विशेषज्ञता के जमाने में अब ऐसा लग रहा है कि एक साथ कोई व्यक्ति एक ही परिचय रख सकता है। मतलब अगर कोई साहित्यकार है तो वह पत्रकार नहीं हो सकता और अगर वह दोनों है तो विशेषज्ञता पर लोग थोड़ा शक करने लगेंगे। लेखन के इस विभाजन ने लेखन-शैली को भी विभाजित कर दिया है। पत्रकारों की ज़रूरत है कि वो समाज के बीच रोज़-रोज़ जाए ताकि अपनी नौकरी बचाए रखने के लिए ख़बरों की खुराक संबंधित अख़बार (या पत्रिका/टीवी चैनल) को मुहैया करा सके। लेखकों को यह ज़रूरत नहीं रह गई है। वो अपनी खुराक घर बैठे ही हासिल कर ले रहा है। बंद दरवाज़ें के उस पार लिखने में मशगूल लेखक को जनता क्यों तवज्जो देगी? आम जनता और लेखकों के बीच लगातार चौड़ी होती जा रही यह दूरी लोगों के बीच साहित्य के प्रति जग रही अरुचि के प्रमुख कारणों में से एक है। लोगों के भीतर एक विश्वास यह भी बना है कि लेखक समाज से एक हद तक कटा हुआ प्राणी होता है। इस दूरी के एहसास ने बड़ी संख्या में आम लोगों को साहित्य से दूर किया है। एक तो सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था बदलने से लोगों की रुचि में आ रहे परिवर्तन की वजह से करियर के लिए अनुपयोगी चीज़ों पर समय जाया नहीं करने का प्रचलन वैसे भी तेज हो रहा है तिस पर लेखकों द्वारा खुद को समेटे रखना और ज़्यादा अरुचि फ़ैला रहा है। जर्मन के बर्टोल्ट ब्रेख़्त से लेकर हिंदी के राहुल सांकृत्यायन तक को याद करने से जो पहली तस्वीर उभरती है वो यही कि इन लोगों ने लगातार समाज के साथ संवाद कायम रखा। मौजूदा दौर के हिंदी लेखक (ख़ासकर साहित्यकार) इस मामले में निराश करते हैं। जो संस्था जनता से दूरी बना लेगी, जनता कैसे उसे स्वीकार करेगी?
हिंदी के पाठक वर्ग में सामाजिक तौर पर ज़्यादा सामूहिकता देखी जा सकती है। अंग्रेज़ी में जीने-सोचने वाले समाज की तरह अभी वो ईकाई में नहीं बंटा है। हमारे यहां अंग्रेज़ी समाज की भाषा के तौर पर अभी भी स्थापित नहीं है। लोग टुकड़ों में अंग्रेज़ी बोलते हैं। मसलन एक समाज में यदि दर्ज़न भर लोग अंग्रेज़ी बोल रहे हैं तो उनके रहने-सहने की व्यवस्था एक साथ नहीं है। यानी भाषाई आधार पर वो एक समाज का निर्माण नहीं कर पा रहे। अंग्रेज़ी का पूरा समाज ऐसी ईकाई के तौर पर ही बना हुआ है। इसलिए घर बैठे लेखन करने वाले अंग्रेज़ी लेखकों की किताबें हिंदी लेखकों की तुलना में ज़्यादा मशहूर और ज़्यादा लोकप्रिय हो जाती हैं। यह उनकी सामाजिक बनावट के अनुकूल है। हिंदी में ऐसी परिपाटी दूर तक नहीं चल पाती। समाज में जाने का मतलब यह कतई नहीं है कि लेखक रोज़-रोज़ सड़क नापते रहे, बल्कि यह ज़रूर है कि वो अपने लेखन में मौजूदा सामाजिक ज़रूरतों और मनोभाव को सही रूप में जाहिर करे। इसी भाव को समझने के लिए सड़क नापने की ज़रूरत है।
जब तक हिंदी अनिवार्य है तब तक तो अगली कक्षा में जाने के लिए सबको पढ़ना है, लेकिन उच्च शिक्षा में हिंदी लोग क्यों पढ़ते हैं इसका विश्लेषण किया जाना चाहिए। पढ़ने के दौरान उद्देश्य क्या होता है? विश्वविद्यालय से पीएच.डी करते समय तकरीबन सारे शोधार्थी इस कोशिश में रहते हैं कि उसी चौहद्दी में वो जीवन गुजार दे, और यब लेक्चरर वाली एक अदद सीट मिलने पर निर्भर करता है। अपनी रचनात्मक ऊर्जा का एक बड़ा हिस्सा इसी मामले को फिट करने में हिंदी के शोधार्थी लगाते रहते हैं। अकादमिक दुनिया में सफ़लता पाने की जो पाई लागूं संस्कृति है उसमें खुद को पहले से ढालने की जुगत में भिड़ जाते हैं। फिर जिस रस्ते नौकरी को प्राप्त होते हैं उसी रास्ते को आदर्श मानते हुए अपने विद्यार्थियों को पाठ पढ़ाते हैं। आख़िर कैसे एक आज़ाद हवा में सांस लेने वाली संस्कृति पनपेगी? 
लेकिन उम्मीद भी है। हिंदी में लिखने वाले लोगों की तादाद इतनी बड़ी है यह बात इंटरनेट बता रहा है और वो भी तब जब बेहद सीमित लोगों की इस तक पहुंच है। ब्लॉगों ने हिंदी को फ़ैलाया है और दुनिया भर में फ़ैलाया है। इंटरनेट के इस्तेमाल पर लगभग सहमति बन चुकी है। इसलिए धीरे-धीरे हिंदी के बूढ़े-बुजुर्ग भी आज-कल इंटरनेट पर हाथ आजमाने लगे हैं या फिर पोते-पोतियों के मार्फत इसकी ख़बर रखने लगे हैं। अख़बार अपने प्रिंट संस्करण के साथ-साथ इंटरनेट पर भी अपडेट कर रहा है, टीवी चैनल भी इंटरनेट पर मौजूद है। अंग्रेज़ी मौजूद है, हिंदी मौजूद है। हिंदी के लिए यह सुखद है कि यहां इसका इस्तेमाल बढ़ रहा है। लेकिन, हिंदी संस्थानों में इंटरनेट को लेकर कैसी मानसिकता है इसका एक अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्याल, वर्धा द्वारा संचालित हिंदी समय डॉट कॉम पर जब डेली विजिटर की संख्या मात्र 200 पर पहुंची तो वहां इसके संचालक ने मिठाई बांटी। सितंबर 2012 में यह वेबसाइट महज 200 लोगों को रोज आकर्षित कर पाने में कामयाब हुई। लाखों रुपए हर महीने इस पर झोंके जा रहे हैं जबकि निजी तौर पर एक व्यक्ति-दो व्यक्तियों द्वारा संचालित कई ब्लॉगों-वेबसाइटों पर रोज़ाना 500 से ज्यादा लोग आवाजाही करते हैं। यह उदाहरण ये दर्शाता है कि संस्थागत रूप से हिंदी सड़ी हुई है। आप इसे उल्टा कर कहिए कि हिंदी को विकसित करने के नाम पर बनी सारी संस्थाएं सड़ी हुई हैं।
(दैनिक भास्कर समूह की पत्रिका अहा! जिंगदी में देवाशीष प्रसून के इनपुट के साथ प्रकाशित)

25 नवंबर 2012

हिंदी को बंद गली का आख़िरी मकान मत बनाइए.



हिन्दी समाज और 'सृजनात्मकता' की पड़ताल करता दिलीप खान का यह आलेख दो भागों में यहां प्रकाशित किया जा रहा है, प्रस्तुत है पहला भाग:


                                                              पहला भाग


देश के भीतर हालात कुछ भी हो, समुद्र पार की दुनिया को चमक-दमक दिखते रहना चाहिए। बड़ी आबादी को लंबे समय से ये सब कुछ तकरीबन घुट्टी की तरह पिलाई भी गई है कि घर का मामला घर में सुलझाना चाहिए लेकिन बाहर वालों को पता न चले कि घर खस्ताहाल है। नैतिक शिक्षा जैसी किताबों में इस थीम पर कई किस्से-कहानियां रची गई हैं, जाहिर है किस्से-कहानियों वाली दुनिया इस सच से सबसे ज़्यादा इत्तेफ़ाक रखती होंगी। हो सकता है कि दूजी भाषाओं के बाल साहित्य और लोक-कथाओं में भी ऐसे प्रसंग और कहानियां मशहूर होंगी, लेकिन हिंदी में तो शर्तिया है। इन कहानियों से मूल्य झड़कर समय-समय पर बाहर भी तैरते हैं। हिंदी के तार को भारत की चौहद्दी से बाहर खींचते हुए सितंबर माह में दक्षिण अफ्रीका के जोहंसबर्ग में नौंवे विश्व हिंदी सम्मेलन का आयोजन हुआ। आयोजन की उपलब्धियों का पता लगाने के लिए अगर समय बीतने का इंतजार करे पर पता चलेगा उम्र की एक बड़ी अवस्था गुजर गई लेकिन जोहंसबर्ग का तिलिस्म नहीं टूटा। 1975 में हुए पहले आयोजन के बाद से लंबा अरसा बीत चुका है, लेकिन पहले से लेकर आठवें आयोजन तक की उपलब्धियों के बारे में ठीक-ठीक विदेश मंत्रालय को भी पता नहीं होगा। आयोजन में भाषा पर चिंतन-मनन की बजाय सैर-सपाटा और विदेशों में फोटो खिंचवाने में हिंदी के मूर्धन्य लोग ज्यादा रमे रहते हैं। सूरीनाम की सड़कों से न्यूयॉर्क के टाइम्स स्कावयर तक और वहां से लेकर जोहंसबर्ग की गांधी प्रतिमा तक कैमरे के सामने हिंदी के प्रति सचेत लोगों का जत्था चिंतनशील मुद्रा और फंकीपने का एक साथ मुजाहिरा पेश करते हैं। फेसबुक के जमाने में हर क्षण विदेशों में खुद के होने के गुमान को साझा करने में कहीं भी चूक नहीं होती, और जो तकनीक में थोड़े पीछे हैं वो भारत लौटने के इंतजार के दौरान सही गई पीड़ा को एक साथ फेसबुक पर 50 से ज्यादा फोटो डालकर रफू करते हैं। मुफ़्त की किताबों और ब्रोशर बटोरने के चक्कर में थैली भरकर विदेशी हवाई अड्डा पर पहुंचने वाले हिंदी-सेवकों को जब ये पता चलता है कि किताबों की मूल्य के बराबर या फिर उससे ज़्यादा उन्हें लाने में ख़र्च पड़ जाएंगे तो उन किताबों को वहीं डस्टबीन में डालकर सीना ताने देश लौटते हैं कि हिंदी के नाम पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन के साक्ष्य बनने का वो गौरव हासिल कर चुके हैं।
घूमने-फिरने के लिए हिंदी का गुणगान करने वाले परजीवी लोग बड़ी तादाद में समाज में मौजूद है। इनकी झलक सिर्फ़ ऐसे मौकों पर ही मिल पाती है। क्षेत्रीय सभा-संगोष्ठियों से लेकर राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय आयोजनों में शिरकत करने और इसके लिए पसीना बहाने में ये पस्त रहते हैं। भाषा, साहित्य और हिंदी समाज को लेकर चिंता समाज से जितनी भौगोलिक दूरी के साथ किया जाए आयोजन उतना बड़ा कहलाता है। इनके औचित्य, इनकी सार्थकता वगैरह पर सवाल करने की कोशिश भी ज़्यादातर मौकों पर थोथेपन को समेटे होती है। जो समारोह से वंचित रह गए वो विरोध में होते हैं लेकिन अगली बार उनका नंबर लगते ही पुराने समर्थक विरोध में चले जाते हैं। तो, एक तरह की नूराकुश्ती चलती रहती है। सरकारी आयोजनों का मुखर विरोध करने का मतलब है सरकार की आलोचना और इसका नतीजा है रेलवे से लेकर तमाम बैंको और विश्वविद्यालयों में हिंदी के नाम पर बनाए गए हज़ारों पदों का खुद से दूर छिटकना। जिस भाषा और साहित्य में रचनाधर्मिता को एक अदद नौकरी पाने की सीढ़ी के तौर पर इस्तेमाल करने का चलन लगातार बढ़ रहा हो, उसमें विरोध का स्वर अंतत: पीं पर जाकर ही ख़त्म होगा। यह हिंदी साहित्य और कमोबेस पूरी हिंदी पट्टी की सच्चाई है। किसी भाषा के नाम पर दिवस और पखवाड़ा मनाने से भाषाई उन्नति नहीं होती। ये सब कुल मिलाकर ऐसे आयोजन होते हैं जिनमें साल भर की जमा भक्ति को एक साथ मंच पर उड़ेलकर कर्तव्य का समापन मान लिया जाता है। फिर अगला सितंबर आने तक पूरे साल भक्ति भाव को अपने खूंट से बांधकर संग्रहित करने का काम चलता रहता है। इस रस्म अदायगी में कई किस्म के लोग शामिल होते हैं।
हिंदी से सीधे-सीधे जुड़े तबकों में दो बेहद अहम तबका हैं- पहला वो, जो हिंदी की खाते हैं, लेकिन जीते अंग्रेज़ी में हैं। हिंदी के लगातार विस्तृत होते बाज़ारमूल्य ने इस वर्ग को बताया है कि यदि बाज़ार पर कब्जा करना है तो उस समाज की भाषा में ही उन तक पहुंचना होगा। मिसाल के लिए हम कैटरीना कैफ़ को लेते हैं। उनकी अब तक की शोहरत, अब तक की सफ़लता और अब तक की चमक-दमक पूरी तरह हिंदी फ़िल्मों पर ही निर्भर है। वो हिंदी का पैसा खाती हैं, हिंदी में डॉयलॉग बोलती हैं, लेकिन हिंदी में लगातार तीन वाक्य वो नहीं बोल सकती और न ही भविष्य में हिंदी बोलने की वो कोई उम्मीद जगाती हैं। वो उतना भर हिंदी बोलेंगी जितने से पैसे ही आवाजाही सुनिश्चित रह सके। हिंदी का ये वो वर्ग है जो ऊपर की पूरी मलाई काट लेते हैं और पेंदी में पड़ी चीज़ें हिंदी को लेकर चिंता करने वालों के खूंटे बांध जाते हैं। हिंदी पट्टी में इनको लेकर आलोचनाएं होती रहती हैं। कई बार हिकारत और कई बार लुटेरे की दृष्टि से भी इन्हें देखा जाता है। दूसरा तबका वो है जो हिंदी में रहते हुए, हिंदी बोलते हुए या यूं कहे कि कुछ ज़्यादा ही हिंदी के प्रति सचेत रहते हुए हिंदी की हत्या करते हैं। समर्पण के मामले में यह तबका अपना सीना ताने रखता है और लोगों को यह एहसास देता है कि हिंदी को लेकर सर्वाधिक चिंतनशील प्राणी इसी जमात से ताल्लुक रखते हैं। राजभाषा मार्का यांत्रिकी हिंदी को आदर्श मानने वाले इस वर्ग ने हिंदी के नाम पर ऐसे-ऐसे बेढंगे शब्द चलाए हैं जो कुछ मीटर के सफ़र में ही पैर पकड़कर बैठ जाते हैं। थकाऊ हिंदी और समझ के दायरे से अमूमन बाहर रहने वाली हिंदी को गढ़कर ये हिंदी सेवा करना चाहते हैं। जिस मानक हिंदी को ये समाज में दौड़ाना चाहते हैं उसके दोबारा हिंदी अनुवाद की ज़रूरत खुद लिखने-बोलने वालों को भी महसूस होती है। कंप्यूटर का अनुवाद जब अभिकलित्र होगा तो जाहिर है लोग अभिकलित्र का अर्थ जानने के लिए इसका भी अनुवाद चाहेंगे।
अब सवाल ये है कि आमफ़हम हिंदी को कितनी जगह दी जा रही है? टीवी समाचार चैनलों, एफएम रेडियो और अख़बारों-पत्रिकाओं में साधारण हिंदी के बदले अंग्रेज़ी को जगह देने की क्यों मुहिम-सी चल पड़ी है? मैदानके बदलेग्राउंड और फिसलने की जगहस्लिप बोलने से क्या शब्दों की संप्रेषणीयता बढ़ जाती है? अगर नहीं, तो आख़िरकार किन दबावों में हिंदी मीडिया काम कर रहा है? किस मूल्यबोध में वो ऐसे परिवर्तनों को स्वीकार करता है? देवनागरी के बदले रोमन के बढ़ते चलन पर बीते दिनों सवाल भी उठे हैं लेकिन जो निर्णायक स्थिति में हैं उनपर ऐसी आलोचनाओं का कोई असर पड़ता नहीं दिख रहा। सरकारी कोशिशों के मुक़ाबले हिंदी समाचार मीडिया और हिंदी फ़िल्मों को लोग हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार में ज़्यादा मुफ़ीद मानते हैं। ज़्यादा श्रेय भी इनको दिया जाता है लेकिन अपनी जिस पहुंच के आधार पर इनको ये दर्ज़ा हासिल हुआ है उनके साथ इस समय मीडिया क्या व्यवहार कर रहा है, इसपर तो सवाल उठेंगे ही। जितने करोड़ लोगों तक इसकी पहुंच है उसके जेहन में यह जो भाषा पैबस्त कराएगा, वो उसी अनुरूप इसे अपनाएगा भी। न सिर्फ़ भाषा बल्कि सामाजिक-राजनीतिक मूल्यों के बारे में भी यही बात लागू होती है।
दो बिंदुओं के जरिए मीडिया के व्यवहार को समझना आसान होगा। पहले चर्चा फ़िल्म की और फिर अख़बारों की। हालिया रिलीज हुई हिंदी फ़िल्म इंग्लिश-विंग्लिश की मिसाल लेते हैं। इसमें सतही तौर पर यों तो अंग्रेज़ी को महज भाषाई टूल के तौर पर दिखाने की चेष्टा हुई है लेकिन समग्रता में फ़िल्म संदेश देती है कि बिन अंग्रेज़ी सब सून। जाहिर है भाषा का मसला सिर्फ़ शब्दों के इस्तेमाल और इसकी कलाबाज़ी तक सीमित नहीं है बल्कि इसके साथ समूची संस्कृति का सवाल नत्थी है। बॉलीवुड ने जिस तरह अप्रवासी भारतीयों की जीवन-कथा को भारतीय समाज की परिघटना के तौर पर दिखाना चालू किया है, उसके पसारे में भाषा भी बंध जाती है। हिंदी की पूरी जातीयता अपने वास्तविक रूप में ऐसी फ़िल्मों में नहीं सिमट पाती। चयनात्मक तौर पर कुछ परिपाटी को फ़िल्मों में जगह दी जाती है और कुछ को छोड़ दिया जाता है। जाहिर है हिंदी जातीयता एनआरआई जातीयता से अलहदा है और इसी वजह से उन दोनों की हिंदी भी अलग है। असल में हिंदी फ़िल्म और समाचार मीडिया ने अंग्रेज़ी को प्रभु भाषा के तौर पर स्वीकार कर लिया है। अब इन दोनों के चाल-ढाल ये बयां करते हैं कि हिंदी को लेकर ये कितने सशंकित हैं। अपने उत्पादों को दोनों बेचेंगे हिंदी में ही, लेकिन तड़का लगाकर। हिंदी के कई अख़बारों में अब अंग्रेज़ी के लेख अनूदित होकर संपादकीय पन्नों पर जगह पाते हैं। इस प्रचलन में लगातार बढ़ोतरी देखी जा रही है। ऐसा नहीं है कि विषय की महत्ता को आधार बनाकर इन लेखों का अनुवाद छापा जाता है, बल्कि ये ज़रूर लगता है कि हिंदी पट्टी के दायरे से बाहर निकलने की छटपटाहट में ऐसी कोशिश की जा रही है। कई लेख तो बेहद मामूली और कमज़ोर क़िस्म के होते हैं। बावजूद इसके उनको जगह मिलती है। कई दफ़ा किसी अंग्रेज़ी अख़बार में पहले ही छप चुके लेख को दो-तीन दिनों बाद हिंदी में परोसा जाता है। आख़िर वजह क्या है? क्या हिंदी लेखन कमज़ोर हो गया है? क्या हिंदी लेखन में एकरसता है? मान लिया जाता है कि इन दोनों सवालों के जवाब हां है तो भी ऐसा क्यों है कि अनुवाद के नाम पर सिर्फ़ अंग्रेज़ी का ही हिंदी तर्जुमा पेश किया जाता है? दूसरी भाषाओं से अनुवाद क्यों नहीं होते? बांग्ला, मराठी, तेलुगू, तमिल जैसी भाषाओं में हो रहे लेखन से क्यों हिंदी पाठकों को दूर किया जा रहा? अनुवाद बिल्कुल होने चाहिए, लेकिन जिस तरह वर्चस्व को मानते हुए सिर्फ़ अंग्रेज़ी की सामग्रियों का अनुवाद हो रहा है वो भाषाई आवाजाही से इतर संकेत देता है। हिंदी के कितने लेखों को अंग्रेज़ी मीडिया अनुवाद कर छापता है? उनको ज़रूरत महसूस नहीं होती और न ही हिंदी उनको इतना आकर्षित करती है कि अनुवाद छापे ही जाए। खुद लेखक ही अपने लेख अनुवाद करवाकर छपवा लें तो छपवा लें। हिंदी शक्तिशाली नहीं रह गई है और इसी वजह से इसको तवज्जो भी नहीं मिल रही।
कई अख़बारों-चैनलों के संपादक ज़िम्मेदारी का सारा बोझ बाज़ार के कंधे डालकर मुक्त हो जाते हैं। बाज़ार एक साथ समस्या का कारण भी बनता है और निदान भी। भाषाई छेड़-छाड़ पर बात करते समय जब संपादकों से ज़िम्मेदारी लेने की बात होती है तो बाज़ार का नाम लेकर वो अचानक सवाल पर ठंडा पानी छिड़क देते हैं। कई प्रतिबद्ध लेखकों-साहित्यकारों-संपादकों के लिए बाज़ार बचाव के जरिया के तौर पर उभरता है। लेकिन बाज़ार के पूरे प्रचलन को देखें तो ये साफ़ लगेगा कि उपभोक्ता संस्कृति को बेचने के लिए उसका कोई ख़ास भाषाई आग्रह नहीं है। जिस भाषा में माल बिकेगा वो उस भाषा की डोर थाम लेगा। अमेरिकी कंपनी, जापानी कंपनी और पता नहीं किन-किन मुल्कों की कंपनियां जब भारत के देहात में अपना माल खपाना चाहती हैं तो भदेसपन पर उतर आती हैं। तो जो व्यक्ति यह तर्क देता है कि बाज़ार और विज्ञापनदाताओं ने हिंदी का कबाड़ा किया है वह या तो झूठ बोल रहा होता है या फिर अर्धसत्य। पुरुषों के फ़ैशन बाज़ार में बिल्कुल ताजी घुसपैठ करने वाले फ़ेयर एंड हैंडसम के एक विज्ञापन का हवाला लीजिए। विज्ञापन में शाहरुख ख़ान एक लंगोटधारी पहलवान को फ़ेयर एंड हैंडसम लगाने की नसीहत देते नज़र आते हैं। अपील का स्तर देखिए! लक्ष्य दर्शक देखिए कौन है? खुद शाहरूख खान की वेश-भूषा देखिए। कितनी फ़िल्मों में आपने शाहरुख को मूंछों में देखा है? रब ने बना दी जोड़ी में मूंछ वाले पति की जो उनकी भूमिका है वो लगभग पूरी फ़िल्म में तिरस्कृत सी रही है। वो तब जाकर नायकत्व हासिल करते हैं जब पता चलता है कि चिकना-चुपड़ा हिप-हॉप डांसर और मुच्छड़ पति दोनों एक ही व्यक्ति है। यानी आदर्शवादी पति (पति की भूमिका में न होते तो भाई साहब वाली छवि थी वो) के रूप में जो उनकी पूरी साज-सज्जा थी वो किसी भी शहरी फ़ैशनपरस्त को नहीं सुहाएगी। लेकिन, फ़ेयर एंड हैंडसम अपने विज्ञापन में उसी छवि को भुनाती है। पूरे भदेसपन के साथ। एक विज्ञापनदाता कंपनी देहात और हिंदी को पूरे साहस के साथ टीवी पर पेश कर सकती है लेकिन हिंदी को लेकर रात-दिन चिंता में डूबते-उतराते लोगों के भीतर यह साहस नहीं दिखता।
यह एक तर्क हो सकता है कि इस साहस की डोर ताक़त के खंभे से बंधी है और बाज़ार जिस ताक़त को अपने भीतर महसूस करता है वो ताक़त हिंदी लेखक महसूस नहीं करते। लेकिन फिर भी साहसी फ़ैसला लेने वाले लेखकों, संपादकों, प्रकाशकों और पाठकों की हमारे यहां कमी है। प्रकाशक अपना भार पाठकों-लेखकों के कंधे डालते हैं, पाठक की उंगली लेखकों-प्रकाशकों की तरफ़ उठती है और लेखक पाठक-प्रकाशक को दोषी ठहराते हैं। दुनिया गोल है का पूरा सिद्धांत हिंदी पठन-पाठन को लेकर ही बनाया गया लगता है। साहित्यकार किस सिमटी दुनिया में निवास करते हैं ये उनको छोड़कर बाकी हर कोई जानता है। हिंदी के नाम पर जितनी साहित्यिक पत्रिकाएं निकलती हैं उनके ज़्यादातर पाठक साझा हैं। पाठक का एक हिस्सा तो पत्रिका से जुड़े लोगों का ही बन जाता है। यदि एक वैकल्पिक पत्रिका की पांच हज़ार प्रतियां छपती हैं और दूसरी की दो हज़ार प्रतियां तो कुल पाठक संख्या सात हज़ार नहीं होने वाली। हद से हद साढ़े पांच हज़ार होगी, क्योंकि एक ही पाठक एक तरह की छपने वाली एकाधिक पत्रिकाओं को पढ़ते हैं। इनमें ज़्यादातर दोहरी भूमिका वाले पाठक होते हैं, यानी वो पाठक के साथ-साथ लेखक भी होते हैं। आपस में वाह-वाह के आदान-प्रदान और सुखानुभूति के बाद अंतिम परिणति के तौर पर कोई पुरस्कार-सम्मान तक यह क्रम चलता रहता है। कुल जमा मान लेते हैं कि ऐसी पत्रिकाओं की पूरी दुनिया एक लाख लोगों तक सीमित है, तो हिसाब लगाइए कि हिंदी पट्टी के अंतर्गत आने वाले राज्यों की आबादी का यह कितना फ़ीसदी हिस्सा है? आप इस नतीजे पर पहुंचेंगे कि बेहद मामूली आबादी साहित्य से वास्ता रखती है। जिस दिल्ली में लोग पहले राष्ट्रपति और पहले प्रधानमंत्री के नाम तक में गड़बड़ी कर बैठते हैं उस पौने दो करोड़ की दिल्ली में हिंदी के नाम पर मठाधीसी कर रहे कितने साहित्यकारों को लोग जानते होंगे? जिन राज्यों ने हिंदी को पहली या फिर दूसरी प्राथमिकता की राजभाषा करार दिया है उनकी संख्या 11 है। इनमें बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ शामिल हैं। इनकी कुल आबादी 62 करोड़ से अधिक है दुनिया के तकरीबन 100 देशों की सम्मिलित आबादी बसती है हिंदी पट्टी में। अकेले उत्तर प्रदेश में आठ ऑस्ट्रेलिया और ढाई तुर्की आ जाएंगे। लेकिन यहां ओरहान पामुक नहीं है, लोर्का नहीं है। कितना बड़ा है मार्केज का कोलंबिया?  उतना ही बड़ा जितना उत्तर प्रदेश को चार हिस्सों में बांटने पर कोई एक टुकड़ा होगा। लगभग 4 करोड़ लोग बसते हैं वहां। इसलिए मसला सिर्फ़ संख्या का नहीं है। हिंदी की चर्चित कृतियों का नाम गिनाते वक़्त अमूमन इतिहास में क्यों गोता लगाना पड़ता है? हिंदी पट्टी का जो आम वर्ग है वो तो अब भी प्रेमचंद से आगे नहीं बढ़ पा रहा। उनके लिए हिंदी के चार जिंदा लेखकों का नाम गिनाना ही दुनिया का सबसे कठिन सवाल बन जाता है। आख़िर दिक़्क़त कहां है? ...जारी