23 सितंबर 2012

कोलगेट : भूतपूर्व एयर मार्शल और भूतपूर्व मंत्रीजी की जुगलबंदी

-दिलीप खान

गांधी शांति प्रतिष्ठान में भारत-नेपाल संबंधों को लेकर महीने की शुरुआत में एक कार्यक्रम था। उमस भरी गर्मी में मंच से जो व्यक्ति नेपाली में लगातार बोले जा रहा था, पता चला कि वो नेपाल के भूतपूर्व विदेशमंत्री हैं। हॉल में कोई ताम-झाम, कोई डेकोरम नहीं था। भारत में एक बार जो मंत्री बन गया, वो मरते-मरते अपने भीतर मंत्री वाली शक्ति को टटोलते रहता है। हर पहर सुरक्षा वगैरह चाक-चौबंद। रसूख बरकरार रहता है। संन्यास लेने के बाद भी लोग मंत्रीजी ही बुलाते हैं। इस लिहाज से देखें तो राज्य सभा सांसद प्रेमचंद गुप्ता ने तो सिर्फ़ पद ही खोया है, राजनीति में तो वो बरकरार है। एक समय वो कॉरपोरेट मामलों के कैबिनेट मंत्री थे। वर्षों से लालू प्रसाद (यादव) के काफ़ी करीब रहे हैं। प्रेमचंद गुप्ता के दो बेटे -मयूर गुप्ता और गौरव गु्प्ता- व्यवसायी हैं। इन दोनों में हालांकि गौरव गुप्ता को ज़्यादा तेज माना जाता है, लेकिन यहां उनकी प्रतिभा का हम तुलनात्मक अध्ययन करने नहीं जा रहे। कोलगेट से इनका क्या ताल्लुक है, इसपर बात करेंगे लेकिन उससे पहले एक और सज्जन से आपका परिचय करा देते हैं।  

नाम है डेंजल कीलोर। भूतपूर्व एयर मार्शल डेंजल कीलोर। युद्ध में डटकर लड़ने वाला - जैसा कि अमूमन हर फौजी होता है! (अन्ना हज़ारे बुरा न मानें)। थर्मामीटर से शूरता, वीरता और पराक्रम वगैरह को मापने पर बढ़िया नतीजे पर पहुंचा जा सकता है क्योंकि पाकिस्तान के साथ युद्ध में उन्होंने खूब वाहवाही लूटी थी। 1965 के युद्ध में। पदोन्नति भी मिली थी। आज भी अतीत में गोता लगाए रखते हैं। हमने दुश्मनों को ऐसे धूल चटाई तो वैसे धूल चटाई! बताया जाता है कि अपनी बातचीत में बरबस ही युद्ध की तान छेड़ने में उनको महारत हासिल है। हालांकि ये फौजदोष बेहद सामान्य है, फिर भी इसके जरिए अपने व्यक्तित्व में भूतपूर्व के एहसास को वे ताजेपन से ढंकना चाहते हैं। मंत्रीजी की तरह ही। 
कॉरपोरेट मामलों के पूर्व मंत्री प्रेमचंद गुप्ता

17 जून 2009 को कोयला मंत्रालय ने महाराष्ट्र का दहेगांव माकरधोकरा-IV कोयला खदान संयुक्त रूप से तीन कंपनियों को आवंटित करने की घोषणा की। गुजरात अंबुजा सीमेंट, लाफ़ार्ज इंडिया और आईएसटी स्टील एंड पावर लिमिटेड। इस खदान की कुल क्षमता 4.88 करोड़ टन है। इसका 53 फ़ीसदी हिस्सा आईएसटी स्टील एंड पावर लिमिटेड की झोली में आया। मयूर गुप्ता और गौरव गुप्ता इसके मालिक हैं। गौरव गुप्ता ही इसके निदेशक हैं और डेंजल कीलोर साहब अध्यक्ष।
 
जोहरा चटर्जी की अध्यक्षता वाला अंतर-मंत्रालयी समूह ने पहले चरण के अंत में जिन दो खदानों (इनको मिलाकर अब तक कुल 13 खदानों का अवंटन रद्द हुआ है) का आवंटन रद्द करने की सिफ़ारिश की उनमें एक ब्लॉक दहेगांव माकरधोकरा-IV भी है। दूसरा खदान छत्तीसगढ़ का भास्करपारा है जिसे 21 नवंबर 2008 को संयुक्त रूप से ग्रासिम इंडस्ट्रीज (मिस्टर इंडिया जैसे सौंदर्य प्रतियोगिता के प्रायोजक बिड़ला समूह की कंपनी) और मुकेश भंडारी की कंपनी इलेक्ट्रोथर्म (इंडिया) लिमिटेड को दिया गया था। इसकी क्षमता 1.86 करोड़ टन है। इसमें इलेक्ट्रोथर्म की हिस्सेदारी 52 फीसदी और ग्रासिम इंडस्ट्रीज की 48 फ़ीसदी है। भास्करपारा के इस खदान में तो आदित्य मंगलम बिड़ला का पैसा लगा ही है लेकिन गुप्ता और डेंजल कीलोर को जो खदान आवंटित हुआ उसमें भी बिड़ला की सेंधमारी है क्योंकि लाफार्ज सीमेंट (फ्रांसीसी जोड़ीदार के साथ) बिड़ला का ही उत्पाद है। कोयला खदान आवंटन के समय बिड़ला ने जान-बूझकर अलग-अलग कंपनियों से दांव खेला, ताकि ज़्यादा खदान हासिल कर सके। हिंडालको तो खैर है ही। आप कहिए कि दहेगांव माकरधोकरा-IV खदान में नेता, फौजी और कॉरपोरेट तीनों की जुगलबंदी थी।
 
आरोप ये है कि खदान हासिल करने के लिए कंपनियों ने मंत्रालय को ग़लत जानकारी देकर गुमराह किया। कहा ये भी जा रहा है कि इसके लिए मंत्री जी का व्यक्तित्व भी बड़ा सहारा बना। हालांकि प्रेमचंद गुप्ता इससे लगातार इनकार कर रहे हैं। लेकिन कोयला खदान मामले में राजनीतिक टिप्पणियों पर नज़र दौड़ाएं तो आप देखेंगे कि कांग्रेस पर उठने वाली उंगली के बचाव में जितना कांग्रेसी कार्यकर्ताओं के गले से आवाज़ नहीं निकली होगी उससे ज़्यादा ज़ोर से लालू प्रसाद (यादव) ने चीख़ निकाली है। यूपीए सरकार को देने वाले सिर्फ़ राजनीतिक समर्थन का मामला भर नहीं है ये! जब प्रेमचंद गुप्ता का नाम सार्वजनिक हुआ तो लालूजी थोड़ा मलिन पड़े। राजनीतिक दबाव के चलते प्रेमचंद बाबू के बेटे का खदान हो या फिर पर्यटन मंत्री सुबोधकांत सहाय के मानक निदेशक पद पर रहने वाले भाई सुधीर कुमार सहाय का खदान, सबको रद्द करना राजनीतिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए भी ज़रूरी था, लिहाजा सरकार और ख़ास तौर पर कांग्रेस यह कोशिश कर रही है कि विपक्ष को वो ऐसा मौका न दें कि सीधे-सीधे राजनीतिक परिवारवाद वाले मामले पर सरकार को वो लंबी दूरी तक घसीट ले जाए। सीबीआई ने भी जायसवाल समूह (अभिजीत समूह की सिस्टर कंपनी) के घसीटे में अरविंद और मनोज जायसवाल सहित कांग्रेस सांसद विजय दर्डा (लोकमत मीडिया समूह के मालिक) के बेटे देवेंद्र दर्डा पर पकड़ बनाई है। यह जांच से ज़्यादा राजनीतिक मजबूरी भी है। वरना सीबीआई की कार्यशैली तो सब जानते ही हैं।
 
लेकिन नेताओं और कॉरपोरेट के भ्रष्ट होने पर लगभग समहत हो चुके मध्यवर्ग को एयर मार्शल वाला तथ्य थोड़ा परेशान कर सकता है, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि देशभक्ति और ईमानदारी के शब्दकोश में फौजी शब्द बेहद महत्वपू्र्ण है। यह ट्रेंड दुनिया भर में लगभग एक जैसा है। अभी हाल ही में अपने चुनाव प्रचार में बराक ओबामा ने देशभक्ति साबित करने के लिए यह जोर देकर कहा कि उनके दादा अमेरिकी सेना में रह चुके हैं। फौज की पात्रता पूरी नहीं करने वाले लोग एनसीसी वगैरह से ही काम चला लेते हैं। अन्ना हज़ारे ने अपने साल भर वैलिडिटी वाले आंदोलन में कई-कई बार अपनी फौजी पृष्ठभूमि और अविवाहित बने रहने कीख़ासियत पर ज़ोर दिया। लेकिन भारत में यह सर्वे का एक मजेदार विषय है कि सेना से रिटायर होने वाले अधिकारी बाद के दिनों में करते क्या हैं? निजी सुरक्षा एजेंसी खोलने से लेकर ट्रांसपोर्ट के धंधे में उतरने और खनन के काम में बड़ी संख्या में इन भूतपूर्व फौजियोंका दख़ल है। रियायती दरों पर कई पट्टे इन्हें हासिल होते हैं। कई धंधों में इन्हें ख़ास सहूलियत दी जाती है, लिहाजा पैसे वाली पार्टी के साथ सांठ-गांठकर कर ये गेम करते हैं। फ़ायदा दोनों का होता है। सामान्य ज्ञान के इस प्रश्न का उत्तर सब जानते हैं कि सफ़ेद सोना कपास को और काला सोना कोयला को कहते हैं।
मोर्चे पर जाते हुए डेंजल कीलोर की जवानी की तस्वीर
 
फ़ौजियों की गड़बड़ी, धोखाधड़ी को अमूमन ढंक दिया जाता है। मोराल डाउन होने जैसी भविष्यवाणियों के तले। संयोग देखिए कि इस कोलगेट में डेंजल कीलोर साहब का नाम सामने आया (टीवी चैनलों, अख़बारों में मत ढूंढिए, नहीं मिलेगा) और सबने देखा कि संसद संत्र में गतिरोध पैदा करने के साथ-साथ मनमोहन सिंह के इस्तीफ़े पर बीजेपी किस तरह अड़ी। इससे पहले 2जी को लेकर बीजेपी ने लगातार चिदंबरम का बहिष्कार किया, लेकिन दशक भर पहले फ़ौजियों के ताबूत घोटाला (कोफिनगेट) मामले में जब तत्कालीन रक्षामंत्री जॉर्ज फर्नांडीस का नाम आया था तो कांग्रेस ने संसद नहीं चलने दी थी और दो साल तक फ़र्नांडीस का बहिष्कार किया था। बहिष्कार-बहिष्कार बराबर। संसद ठप्प-संसद ठप्प बराबर। कोयला खदान तब भी बंट रहे थे, अब भी बंट रहे हैं।  
 
लोहा, स्टील, सीमेंट और सबसे ज़्यादा बिजली बनाने के नाम पर जो कोयला खदान हासिल किए गए उनमें से ज़्यादातर खदानों का कंपनियों ने इस्तेमाल नहीं किया। चूंकि जिन उद्देश्यों के लिए खदान लिए जा रहे थे, उनमें कई दिक्कतें थीं। मसलन, पावर प्रोजेक्ट शुरू करने के लिए कंपनी को मध्यप्रदेश में ज़मीन मिली ही नहीं है लेकिन महाराष्ट्र का कोयला खदान कंपनी ने अपने नाम करवा लिया। बाद में पता चला कि मध्यप्रदेश में कंपनी को पर्यावरण लायसेंस नहीं मिला। अब खदान पड़ा हुआ है। फ़ौजी, कॉरपोरेट और नेताजी को सस्ता खदान मिल गया। कभी-न-कभी खोद ही डालेंगे। दशक भर पहले लक्ष्य बनाया गया था कि सन 2012 तक हर गांव में बिजली पहुंच जाएगी, लेकिन कुछ हफ़्ते पहले देश का तीन बिजली ग्रिड फेल होने के बाद पूरा उत्तरी और पूर्वी हिस्सा अंधेरे में डूब गया था। न बिजली, न सीमेंट का उत्पादन, सिर्फ़ कोयला खदान का हुआ आवंटन!   

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