26 अप्रैल 2011

सत्य सांई बाबा और ढोंगी आस्थाओं का देश


चन्द्रिका
इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि सत्य साईं बाबा १९२६ में पैदा हुए थे और तकरीबन ८५ साल जिंदा रहे पर बाबाओं और ढोंगी आस्थाओं की दुनिया में इस पर भी कई गुणा-गणित लगाये जा सकते हैं. उस सुबह की मृत्यु को परमेश्‍वर के मृत्यु की बेला बताइ जा सकती है. उनके पैदा होने या मरने से कलियुग की शुरुआत भी हो सकती है. १७६ देशों में उनके करोड़ों अनुयाई थे और १४ वर्ष की उम्र में उन्होंने खुद को शिरडी के सांई बाबा का अवतार घोषित कर दिया था. यह देश में ढोंग और अवैज्ञानिकता की पराकाष्ठा है जहाँ मिथक इतिहास बनकर चलता है और बाबा अवतार लेते हैं. यह देश है जहाँ डार्विन असत्य घोषित कर दिए जाते हैं, मानव विकास की संरचना को तोड़कर अवतारों के विकास की लम्बी परम्परा हमारे देश में मौजूद है. लिहाजा यहाँ वैज्ञानिक कम बाबा ज्यादा पैदा हुए हैं. पिछले वर्षों हुए सत्य सांई के कुकर्मों की चर्चा को यदि छोड़ भी दिया जाय तो भी ढोंग की इस पराकाष्ठा और अंध आस्था को जानना बेहद जरूरी हो जाता है. यह बेहद दिलचस्प है जहाँ विज्ञान की अति विकसित अवस्था से लेकर ढोंग की अति पिछड़ी अवस्था का पूरा खेल एक साथ कुछ दिनों तक चलता रहा. बाबा वेंटिलेटर पर भी थे और उनके अनुयाई अपनी मूढ़ता के साथ हास्पिटल की आरती और परिक्रमा में. बाबा दुनिया की आधुनिक तकनीक और दवाईयों से सांस ले रहे थे और उनके अनुयाई उन्हें जिंदा रखने के लिए अपने बच्चे को जलती सड़क पर लिटा रहे थे. बाबा के मरने के बाद इनकी अस्थायें टूट जानी थी पर ऐसा नहीं हुआ क्योंकि नयी झूठी आस्थायें पाल ली गयी. धार्मिक आस्थायें ऐसी ही होती हैं वे बगैर किसी तर्क के जिंदा रहती हैं. उन्हें जिंदा रखने के लिए किसी सुबूत की जरूरत नहीं होती और न ही सुबूतों के वैज्ञानिक पुष्टि की. इनके लिए कोई भी ज्ञान अस्वीकर्य होता है क्योंकि ज्ञान ईश्‍वर की मृत्यु है. इस देश का एक बड़ा मध्यम वर्ग है जिसे अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के तहत धर्म और धार्मिक क्रिया-कर्म मिलते हैं और उपलब्ध अवसर व रोजगार के तहत वह वैज्ञानिकता युक्त व्य्वसायों को चुनता है. वह कार्य कारण सम्बंधों को जोड़ते हुए सभी वैज्ञानिक युक्तियों का प्रयोग करता है पर वैज्ञानिकता उसे अस्वीकार्य है. इसलिए किसी भी व्यक्ति का वैज्ञानिक होना और उसमे वैज्ञानिकता का होना दोनों में फर्क है. क्योंकि सांस्कृतिक तौर पर आस्थायें उन्हें दे दी जाती है और वर्गीय आधार पर ये उच्च स्तरीय अवसर उन्हें उपलब्ध हो जाते हैं. ब्रम्हणों या उच्च जातियों के लिए ये रास्ते ज्यादा सुलभ और उपयुक्त रहे हैं. लिहाजा परमाणु बिस्फोट के पहले नारियल फोड़े जाते हैं, आपरेशन कक्ष में जाने के पहले शंकर के मिथकीय स्वरूप की पूजा की जाती है.
दुनिया में जब राजशाही थी और धर्म दुनिया को चलाने वाली सत्ता के केन्द्र में हुआ करता था तब राजाओं को यह यकीन होता था कि वे ईश्‍वर के भेजे गये नुमाइंदे हैं. उन्हें यह यकीन था कि उनकी मौत बगैर ईश्‍वर की इच्छा के नहीं हो सकती. पर यूरोप में पुनर्जागरण के दौरान जब राजा चार्ल्स का गला भरे चौराहे पर काटा गया तो यह यकीन चूर हो गया. तर्क की विजय ने पूरी दुनिया में मानवीय समाज के शोषण और उसकी मुक्ति के स्रोत दिखाये. उस समय यूरोप में धर्म और विज्ञान का टकराव चल रहा था. चर्च इतने मजबूत होते थे कि वैज्ञानिक तथ्यों की पुष्टि के लिए चर्च नामक धर्म सत्ता से मुहर लगवानी पड़ती थी. आज यह मामला पूरी दुनियां में उलट गया है और धर्म सत्ता को वैज्ञानिकता की मुहर लगवानी पड़ती है. एक हद तक भारतीय समाज में भी वैज्ञानिकता की यही स्वीकार्यता है. ओम के उच्चारण और गायत्री मंत्र के उच्चारण के वैज्ञानिक फायदे अब बाबाओं द्वारा बताये जाने लगे हैं. बाबाओं की और धर्म की सत्ता बगैर झूठी वैज्ञानिक पुष्टि के कम स्वीकार्य हुई है. हमारे देश में बाबाओं के लबादे में एक बड़ा व्यापार, राजसत्ता की राजनीति और दंगों की चीख छुपी हुई है. अकर्मण्यता और अनुत्पादकता के बावजूद कुकर्मों की एक लम्बी फेहरिस्त इनके साथ जुड़ी हुई है. यह बेहद जरूरी है की बाबा और बाबा पंथ से देश को मुक्ति मिले. आस्थाओं के तहत अनुयाईयों को यदि मौतें अस्वीकार्य हों तो भले ही उन्हें चिरनिद्रा मान लिया जाए.
सत्य सांई के मरने के बाद आंध्र प्रदेश में ४ दिनों का राजकीय शोक घोषित कर दिया गया है. बिलखते लोग और गमगीन आवाजों में उनसे मुलाकातों को बताते हमारे देश के राजनेता, खिलाड़ी और अभिनेता अपने आंसू बहा रहे हैं. प्रधानमंत्री व अन्य देश के राजनेताओं द्वारा बाबा के दर्शन के लिए जाना इसे और भी वैध बनाना है. संवैधानिक तौर पर देश की धर्मनिरपेक्षता के साथ यह एक बेतुका खिलवाड़ है. आखिर इस राजकीय शोक घोषणा को किस रूप में लिया जाना चाहिए. एक सनातनी बाबा के मौत पर राजसत्ता का शोकाकुल होना राजसत्ता के किसी महत्वपूर्ण व्यक्तित्व के खोने पर शोकाकुल होने जैसा है. जबकि प्रत्यक्ष तौर पर सत्य सांई राजसत्ता से नहीं जुड़े रहे हैं, जबकि यह देश संविधान में सनातनी परंपराओं और व्यवस्थाओं के विरुद्ध होने की घोषणा करता है जिसकी मुखालफत साईं करते रहे हैं. लिहाजा हिन्दू सनातनी बाबा के मौत पर घोषित शोक को वापस लिया जाना चाहिए. सम्पर्क:- 09890987458, chandrika.media@gmail.com

25 अप्रैल 2011

मिलिये मौलाना बिनायक सेन से


महताब आलम
पिछले शुक्रवार को, सर्वोच्य न्यायलय ने देशद्रोह के आरोप में सजा काट रहे मशहूर नागरिक अधिकार कार्यकर्ता एवं चिकित्सक, डॉक्टर बिनायक सेन को ज़मानत पर रिहा करने का आदेश सुनाया है और वो सोमवार को रिहा भी हो गए हैं. उन पर आरोप है कि उन्होंने देश की सत्ता और संप्रभुता के खिलाफ माओवादियों के साथ मिलकर षडयंत्र रचा और राष्ट्र द्रोही गतिविधिओं में शामिल रहें. इन्ही सब आरापो के आधार पर, गत दिसंबर में छत्तीसगढ़ की एक निचली अदालत ने उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी.
बीते तीन-चार वर्षो में डॉक्टर बिनायक सेन के बारे में बहुत कुछ लिखा और कहा गया है-- सकारात्मक और नकारात्मक दोनों. 2007 के मई महीने में पहली बार गिरफ़्तारी के बाद मीडिया में, विशेष कर 'मुख्य- धारा' में जो चीज़े आई वो ज़्यादातर नकारात्मक ही थी. लेकिन धीरे- धीरे ये सिलसिला रुका और सकारात्मक रूप लेने लगा. हाँ, ये और बात है कि छत्तीसगढ़ की मीडिया बिनायक को आज भी 'नक्सली डाकिया' ही मानती और लिखती है. बिनायक के बारे में जो कुछ भी लिखा या कहा गया है उससे ये बात सामने उभर कर आती है कि डॉक्टर बिनायक सेन के काम और उनकी सोच, छत्तीसगढ़ या अभिवाजित मध्य प्रदेश और आदिवासी समुदाय तक सीमित है. जो कि सरासर ग़लत है. ये सही हैं कि बिनायक छत्तीसगढ़ और वहां आदवासी समुदाय से प्रत्यक्ष रूप से जुड़े रहे हैं लेकिन उन्हें फ़िक्र सारी दुनिया की रहती थी खास तौर पर शोषित और अल्पसंख्यक वर्गों की.
बिनायक सेन पर आई एक नयी किताब," डॉक्टर टु डीफेंड: दी स्टोरी आफ बिनायक" में इसका प्रमाण भी मिलता है. इस किताब में ऐसी कई घटनाओं का ज़िक्र मिलता है जिस से सिर्फ उनके राष्ट्रीय और अन्तराष्ट्रीय व्यक्तित्व का पता चलता है बल्कि उनके व्यक्तिगत जीवन के कई अनकहे और अनसुने पहलू मालूम पड़ते हैं, जो बुनयादी तौर उनकी छोटी से छोटी चीज़ के लिए संवेदन शीलता एवं प्रतिबद्धता को दिखाते हैं. ये महज़ इत्तेफाक नहीं था कि बिनायक स्वास्थ्य का काम करते -करते मानवाधिकार का काम करने लगे, बल्कि ये उन्होंने सोच समझ कर किया था. और इस समझ का कारण वो ये बताते हैं कि बहुत कम उम्र में ही उनको पता चल गया था कि सवास्थ्य की एक पॉलिटिकल इकॉनोमी भी होती है और उसको संबोधित किये बिना स्वास्थ्य के मसलों को हल नहीं किया जा सकता.
यही नहीं, उनके दाढ़ी बढाने और कुरता पजामा पहने का भी खास कारण था. उनके मित्र डॉक्टर योगेश जैन बताते हैं कि एक बार वे बिनायक के साथ पुरुलिया जा रहे थे, दोनों सेकंड क्लास डब्बे में सफ़र कर रहे थे, तभी एक सज्जन ने आकर बिनायक से पूछा-- "मौलाना साहब, क्या टाइम हुआ है ?" डॉक्टर योगेश आगे कहते हैं, ’बाद में जब मैंने उन से पूछा कि आप ने ये हुलिया क्यूँ बनाया हुआ है, कि लोग आप को मुसलमान समझते हैं तो उनका जवाब था, ’दरअसल मैं मुसलमान की तरह इसलिए दिखना चाहता हूँ ताकि समझ सकूं कि हमारे अपने देश में अल्पसंख्यक होने का मर्म क्या होता है.
अभी हाल की एक मुलाकात में, उनकी पत्नी प्रोफेसर इलीना सेन मुझे बताया कि, ’जब बाबरी मस्जिद- राम जन्मभूमि का मामला जोरो पर था तो हम -परिवार अयोध्या गए थे. वहां पहुँचने पर जब हमने अन्दर जाना चाह तो सब को जाने दिया गया लेकिन बिनायक को रोक दिया. जब हमने पूछा कि वो ऐसा क्यूँ कर रहे हैं, तो उनका जवाब था हम बेहतर जानते हैं कि किनको अन्दर जाने देना है और किनको नहीं. मतलब ये था कि बिनायक अन्दर इसलिए नहीं जा सकते हैं क्यूँ कि वो 'मुसलमान' हैं!
किताब में इस बात का भी उल्लेख है कि पिछली बार जब वो जेल में थे और ग़ाज़ा में निहत्थे फिलिस्तीनियों के मारे जाने की खबर रेडियो पर सुनते थे, तो वहां के हालात को छत्तीसगढ़ के हालात से जोड़ कर देखते थे. मुझे ऐसा लगता है, जब वो इस बार जेल में थे और अरब देशो में हो रहे परिवर्तन के बारे में जब उनको खबर मिलती रही होगी तो वे ज़रूर इस पर सोच रहे होंगे कि इसके सकारात्मक असर दक्षिण - एशिया पर क्या और कैसे पड़ेंगे? मुझे याद है कि पिछले वर्ष अगस्त के महीने जब मेरी उनसे राउरकेला में एक कार्यकम में मुलाकात हुयी तो बहुत देर तक झारखण्ड के हालात के बारे में मालूम करते रहे. वो वहां के हालात को लेकर खासे चिंतित थे.
इस सोमवार, जेल से रिहाई के बाद अपनी पहली प्रेस कॉन्फ़्रेंस में भी बिनायक उन्होंने ’शांति और न्याय’ के लिए लोगों को आगे आने का आह्वान किया. जेल से छूटते ही उनका पहला वाक्य था, “खुली हवा में सांस लेना अच्छा लग रहा है.” साथ ही उन्होंने यह भी आगाह किया कि भले ही ’राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय अभियानों और लोगों के सक्रिय समर्थन से वे रिहा हो गए हैं, लेकिन अभी भी छत्तीसगढ़ और देश के अन्य दूसरे हिस्सों में सैकड़ों-हज़ारों लोग उनकी ही तरह के फ़िल्मी और बेबुनियाद आरोपों के आधार पर क़ैद हैं, और हमें उन सभी लोगों की रिहाई के लिए इस अभियान के दायरे को बढ़ाना होगा.’
उपरोक्त तथ्य बिनायक की चिंताओं से रू-ब-रू तो कराते ही हैं, ये छत्तीसगढ़ सरकार के ’देशद्रोह’ के तुच्छ, वैमनस्य भरे, और आपराधिक आरोपों की कलई भी खोलते हैं. जब बिनायक कहते हैं कि ’मैं अपने दिल से जानता हूं कि मैंने इस देश और देश की जनता के साथ कोई गद्दारी नहीं की’ तो उनकी इस बात पर अविश्वास करने के रत्ती भर भी कोई कारण नहीं है. अगर कोई सरकारों की ’आधिकारिक लाइन’ और उसके समर्थन में दी जाने वाली हास्यास्पद दलीलों का अलमबरदार हो तो तब की बात कुछ और है.
(महताब आलम मानवाधिकार कार्यकर्ता एवं स्वतंत्र पत्रकार हैं. उनसे activist.journalist@ gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.)