22 मार्च 2011

विकास का राजनीतिक पहलू

- दिलीप खान
विकास परियोजनाओं से होने वाले विस्थापनों पर जब सवाल उठता है तो उसकी राजनीतिक दिशा को लेकर संसदीय राजनीतिक दल एक विचित्र पसोपेश में होते हैं. कुछ राज्यों के चुनावी प्रतिस्पर्धा में जब जातिगत समीकरण को विकास के चेहरे तले ढंक दिया गया तो यह स्थापना भी जाहिर हुई कि चुनावी रणनीति में विकास एक मजबूत हथियार है. इसलिए विकास के नाम पर अब राजनीतिक होड़ पहले से अधिक तेज होने की उम्मीद है. जातिगत गुणा-गणित पृष्ठभूमि में फलेंगे-फूलेंगे लेकिन मुख्य चेहरा के तौर पर विकास को प्रस्तुत किया जाएगा. लेकिन, समस्या यह है कि विकास के जिन तरीकों को देश में अपनाया जा रहा है और जिसे विकास बताया जा रहा है, उसके विरोध में आबादी का एक बड़ा तबका खड़ा है. उनका प्रश्न रोजगार, ज़मीन अधिग्रहण और विस्थापन जैसे मुद्दों के साथ जुड़ा है. इसलिए, संसदीय पार्टियां विकास परियोजनाओं के नाम पर विस्थापित होने वाले समूहों को मतदान पेटी के भीतर लाने के लिए विकास के लोकप्रिय प्रतिमानों का सहारा भी नहीं ले सकतीं. परियोजनाओं के लिए ज़मीन अधिग्रहण से अधिकांश जगहों पर स्थानीय जनता में रोष व्याप्त है और उन्होंने इसे खारिज किया है. हाल-फ़िलहाल ऐसे क्षेत्रों में भी प्रदर्शन हुए हैं जो अब तक जनप्रतिरोधों को लेकर नक्शे में नहीं पहचाने जाते थे. ऐसे प्रदर्शन अब बंगाल और नर्मदा घाटी से निकलकर देश के शेष भागों में फैल रहे हैं तो सवाल वापस विकास मॉडल पर आकर टिक जाता है.
मौजूदा मॉडल के जरिए विकास हासिल करने की प्रक्रिया में बड़ी आबादी को दरकिनार किया जाना इसके चरित्र का हिस्सा है. इसलिए बड़ी कंपनियों द्वारा लगाए गए कारखानों और सेज़ों के विरोध में देश के कुछ हिस्सों में लंबे समय तक संगठित आंदोलन चले. बंगाल से टाटा को जाना पड़ा तो नियामगिरी में वेदांता ने काम पर स्थगन का आदेश पाया. यह उदार जनोन्मुखी सरकारी फ़ैसला नहीं था बल्कि यह लोगों का दबाव था. बंगाल, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ और झारखंड की स्थानीय जनता ऐसी परियोजनाओं के ख़िलाफ़ सालों से आंदोलन कर रहे हैं. लेकिन ऐसे उदाहरणों से यदि सरकार यह उम्मीद पाले कि विरोध को एक ख़ास जोन की परिघटना बनाकर उससे निपट लिया जाएगा तो विरोध की चेतना का उनका यह मापन अंततः दोषपूर्ण साबित होगा. असल में, राज्य अपनी नीतियों के जरिए ही विरोध की राजनीतिक ज़मीन तैयार कर रहा है. ’कल्याणकारी राज्य’ की संकल्पना के साथ तो राज्य जनता के बीच उपस्थित है लेकिन अधिकांश मौकों पर वह जन-आकांक्षाओं के विरुद्ध चला जाता है. जनता की इच्छाओं और राज्य की इच्छाओं के बीच जो फ़र्क़ है उसी को मिटाने के लिए जनता सड़क पर उतरती है अथवा राज्य जनता को समझाईश देता है. यह फ़ांक जितनी बड़ी होगी विरोध उतना अधिक होगा. और राज्य के कल्याणकारी होने की स्थापना भी उतनी ही अधिक दरकेगी. हाल-फ़िलहाल देश में चल रहे विरोध-प्रदर्शनों के आईने से इसे देखने पर ऐसा मालूम पड़ता है कि जनता और सरकारी नीतियों के बीच का धागा बेहद तन गया है.
अब तक ऐसा बताया जाता था कि देश के कुछ अन्य हिस्सों के साथ-साथ पूर्वी महाराष्ट्र में भी विरोध का पूरा अभियान वामपंथी अतिवादियों द्वारा संचालित है और वे अपनी राजनीतिक लाभ के लिए स्थानीय मुद्दों को इसमें जोड़ रहे हैं. इसके साथ इससे भी प्रमुखता से यह बताया जाता था कि राज्य के दूसरे हिस्सों में विकास के प्रति लोगों का रुख राज्य की नीतियों से मेल खाता है और वही लोग विरोध में खड़े हैं जो माओवादियों के भड़काने से भटक गए हैं. लेकिन अब यह स्पष्ट हो रहा है कि ज़मीन की लड़ाई का मोटा राजनीतिक विभाजन ग़लत है. पश्चिमी महाराष्ट्र के कई हिस्सों में ऐसी विकास परियोजनाओं को लेकर स्थानीय लोग सड़क पर उतरे हैं, जिनमें उनकी ज़मीने छीनने की कवायदें चालू है. ये ऐसे क्षेत्र हैं जहां माओवादियों की भूमिका होने से सरकार भी इन्कार कर रही है. जैतापुर से लेकर लवासा तक में बड़े प्रदर्शन हुए. जैतापुर के संबंध में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ने कहा कि वे अधिकतम भुगतान करने को तैयार हैं लेकिन लोग मान ही नहीं रहे. लोगों के इस मनोभाव को किन संदर्भों में देखा जाना चाहिए?
सवाल सिर्फ़ औद्योगिक विकास और औद्योगिक पिछड़ापन तक ही सीमित नहीं है बल्कि स्थानीय लोगों के लिए यह सांस्कृतिक ज़मीन को बचाने की जद्दोजेहद है. शहरी रिहाईशों के मुकाबले दूर-दराज में रहने वाली इन ग्रामीण आबादियों ने लंबे समय में अपनी एक सामाजिकता तैयार की है. सवाल इसी सामाजिकता को बचाने का है और इसलिए देश में अब विस्थापन का सवाल अधिकतम हर्जाने के पार जा रहा है. सामाजिक-सांस्कृतिक पूंजी और आर्थिक पूंजी में से राज्य द्वारा अर्थ को प्राथमिकता देने का जो आग्रह जाहिर हो रहा है, वह उन तमाम ग़रीब जनताओं के लिए जुगुप्सा पैदा करने वाला है जो सिर्फ़ सामाजिक-सांस्कृतिक पूंजी के बदौलत जीवन जी रहे हैं. राज्य द्वारा दोहरे स्तर पर ऐसे प्रयास हो रहे हैं. पहले कि ऐसी व्यवस्था को राज्य ने अपनाया जिसमें पूंजी की वैश्विक तरलता को विकास के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है. दूसरे कि इसी व्यवस्था को वास्तविक संस्कृति बताई जा रही है. इसलिए सांस्कृतिक-सामाजिक विकास के अन्य प्रश्नों को दबाया जा रहा है. विकास के नाम पर जब ज़मीन का अधिग्रहण होता है तो इसी मनोभाव के तहत लोगों से राज्य यह कहता है कि वह उसका हर्जाना देंने को तैयार है तो विस्थापित होने में लोगों को दिक्कत नहीं महसूस करनी चाहिए. इस प्रयास में समूची ऐतिहासिक बसावट के सवाल को विकास के नारों तले दबा दिया जाता है. अधिक कचोटने वाली बात यह है कि नीतिगत तौर पर कमोबेश सभी संसदीय दलों ने इस व्यवस्था को मान्यता दे रखा है.
आर्थिक विकास की नीतियों के संदर्भ में पारंपरिक तौर पर दो विरोधी राजनीतिक दलों के बीच जिस हद तक समानता है, उसे उन दलों की राजनीतिक विचारधारा से बाहर निकलकर देखने की जरूरत है. विकास अपने-आप में एक राजनीति है. इसलिए विकास योजनाओं को लेकर इन राजनीतिक दलों के बीच की फांक मिटी हुई है. इस राजनीतिक मसले को समझने के लिए नागपुर के बहुचर्चित मिहान परियोजना का उदाहरण लें. कांग्रेस सरकार द्वारा शुरू की गई इस योजना की बारीकियां समझाने के लिए महाराष्ट्र के तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी ने नागपुर के मैदान में घंटों यह बताया कि कैसे विदर्भ की उस पूरी पट्टी का मिहान के जरिए कायाकल्प हो जाएगा! इसमें विस्थापित पचास हज़ार लोग विपक्षी राजनीतिक दल के लिए सरकार को घेरने का मुद्दा नहीं बन पाया? राजनीतिक दांव-पेंच में जबकि हरेक मुद्दे पर एक-दूसरे को नीचा करने की कोशिशों में ये दल लगे रहते हैं, ऐसे में सत्तासीन दल की योजना का विपक्षी दल द्वारा गुणगान करना विकास की राजनीति की नई परतें खोलता है.
संसदीय राजनीतिक संरचना में ज़मीन-अधिग्रहण और विस्थापन को प्रमुख राजनीतिक दलों द्वारा घेराव का मुद्दा नहीं बनाया जा सकता. देश में सरकार बनाने और सरकारी नीतियों को संचालित करने से ऊपर की जो राजनीति है और जो अमूमन सतह पर नहीं दिखती, वह अधिक महत्त्वपूर्ण और शक्तिशाली है. अर्थव्यवस्था को किन उत्पादन प्रणाली के जरिए विकसित मुकाम दिया जाए, यह दीर्घकालीन राजनीतिक कार्यक्रम है. और इसे पांच-साला सरकार परिवर्तन की राजनीतिक संघर्ष को नियंत्रित करने वाली राजनीति के तौर पर देखा जाना चाहिए. उत्पादन प्रणालियों को हर पांच साल में नहीं बदला जा सकता, इसलिए उसी संरचना में अधिकतम विकास हासिल करने की होड़ राजनीतिक एजेंडा बनता है, जो प्रचलित है. विकासशील से विकसित बनने की नीति पर चलते देश ने एक ख़ास समय सीमा निर्धारित कर रखा है जहां तक पहुंचते-पहुंचते इसे विकसित हो जाना है. इस बात को भारतीय जनमानस के भीतर पैबस्त कराने के लिए भरसक प्रयत्न हुए हैं. अब कोई भी राजनीतिक दल यदि इस समय-सीमा को आगे बढ़ाने की घोषणा करेगा अथवा विकास की जो तस्वीर उसमें पेश की गई है उसके मुतल्लिक यह कहेगा कि वहां पहुंचने का दूसरा रास्ता अधिक महफ़ूज है तो वोट की गोलबंदी में वह पीछे रह जाएगा. ऐसा इसलिए होगा क्योंकि विकास की लोकप्रिय परिभाषा के तौर पर मध्यमवर्ग के सामने पिछले कुछ दशकों में जो खांका तैयार किया गया है वह गणितीय तौर पर समस्याओं का समाधान करता दिखता है. इसलिए सत्ता में आते ही प्रत्येक दल की यह कोशिश होती है कि वह विपक्षी दलों की घोषणाओं से अधिक तेज अपने को दर्शा दे. इस प्रतिस्पर्धा में विकास का मौजूदा प्रतिमान और अधिक ठोस हो जाता है.
विकास की इस एकांगी परिभाषा के उलट भी कभी-कभार तस्वीरें दिखतीं हैं. विस्थापन को राजनीतिक दलों द्वारा मुद्दा भी बनाया जाता है. लेकिन यह तब होता है जब एक बड़ा जनसमूह उस विषय पर एकमत होकर डट जाते हैं. ऐसे में कोई भी राजनीतिक दल उस क्षेत्र विशेष में जनता की आवाज़ बनने की कोशिश कर सकता है लेकिन वह इसे स्थाई एजेंडा नहीं बना सकता, क्योंकि विकास की प्रचलित परिभाषा पर उसका सैद्धांतिक तौर पर समर्थन है. यह एक मजबूरी के तहत उठाया गया कदम भर होता है.
इस विषय पर विभिन्न दलों के बीच ठोस समानता साफ़-साफ़ जाहिर है. देश में ऐसे मुद्दों के संदर्भ में की गई राजनीतिक बयानबाजी आड़ी-तिरछी लकीरें खींचती मालूम पड़ती हैं. लवासा को लेकर जिस समय पर्यावरण मंत्रालय ने काम स्थगित करने की बात कही थी तो कुछ राजनेताओं का कहना था कि यह मेधा पाटेकर के दबाव में आकर लिया गया फ़ैसला है. जैतापुर के संबंध में नारायण राणे ने यह कहा कि यहां बाहरी लोगों द्वारा प्रदर्शन हो रहे हैं, स्थानीय लोग तो चुप बैठे हैं. शुरुआती दौर में जब नियामगिरी में स्थानीय लोग आंदोलन कर रहे थे तो उसे नज़रअंदाज किया जा रहा था. सिंगूर और लालगढ़ में जब बड़े आंदोलन हुए तो यह कहा गया कि यह अतिवादी शक्तियों के बड़े राजनीतिक कार्यक्रम को साधने का जरिया है. ऐसे में सही और आदर्श मानदंडों पर आधारित विरोध कैसे हों यह जनता को बताया जाना चाहिए! राजनेता इसका भरोसा दे कि वे अमुक रास्ते पर होने वाले विरोध को संजीदगी से लेंगे.
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