अनिल मिश्र
सोशल वेबसाइट फ़ेसबुक पर शुक्रवार, यानी बीते कल, की सुबह कल एक दोस्त ने भारत-पाकिस्तान के बीच होने वाले विश्वकप क्रिकेट के सेमीफ़ाइनल मुक़ाबले के बारे में एक तल्ख़ टिप्पणी लिखी. वह दिल्ली के एक विश्वविद्यालय में शोध कर रही हैं. उसका कहना था कि ’वह बुधवार के दिन फ़ेसबुक, टेलीविज़न, रेडियो और जे एन यू के हॉस्टल से उस वक़्त दूर रहेंगी जब बीमारी की हद तक उन्मादी, सांप्रदायिक और सनकी दो देश एक दूसरे के ख़िलाफ़ खेल रहे होंगे. ये दृश्य उसे आक्रांत करते हैं.’ उसने आगे स्पष्ट लहजे में लिखा, “मैं चाहती हूं कि दोनों ही हार जाएं.” इस टिप्पणी से मुझे थोड़ी हैरानी हुई. एकबारगी तो मैंने इसे कोई चुटकुलानुमा वाक्य समझना चाहा. आखिर भारत-पाकिस्तान के बीच क्रिकेट विश्वकप का मुक़ाबला एक लंबे अरसे बाद होने जा रहा है, जिसमें एक बेहतरीन क्रिकेट के साथ साथ दोनों देशों के बीच आपसी भाईचारे को मज़बूत करने की संभावनाएं भी हैं. लेकिन शुक्रवार की शाम होते होते यह स्पष्ट हो गया कि यह ’खेल’ राजनीतिक और कूटनीतिक हलकों के लिए कई गहरे अर्थ रखता है. और इस ’खेल’ के पीछे छिपे मंतव्य के प्रति जागरुक लोगों की चिंता वाजिब है.
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पाकिस्तान के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को मोहाली में क्रिकेट देखने का न्योता दिया है. ज़ाहिर है, इस ’क्रिकेट कूटनीति’ के ज़रिये दोनों देशों के बीच राजनीतिक और कूटनीतिक नूरा-कश्ती के अतिरिक्त कई अन्य निशाने एक साथ साधे जा सकते हैं. बीबीसी ने पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता के हवाले से ख़बर दी है कि मनमोहन सिंह ने अपने ख़त में लिखा है कि ’३० मार्च को होने वाले इस मुक़ाबले को साथ देखना दोनों देश की जनता के लिए ठीक है.’ यहां तक आते आते निश्चित ही क्रिकेट का यह खेल महज एक खेल बनकर नहीं रह जाता. भारत-पाकिस्तान का संदर्भ आते ही इस खेल में कई और आयाम जुड़ जाते हैं. जिसे भुनाकर दोनों देशों का राजनीतिक नेतृत्व असली सवालों से अपने आवाम का ध्यान दूसरी ओर मोड़ने में, कुछ देर के लिए ही सही, सफल हो जाता है.
कुछ उदाहरणों पर ग़ौर करें. १९९९ में कारगिल युद्ध के बाद मुशर्रफ़ पाकिस्तान के नए और ताक़तवर हुक्मरान बनकर उभरे थे. कारगिल के बाद तीन-चार साल साल तक भारत पाकिस्तान के आपसी रिश्ते कटुतापूर्ण रहे. फिर दोनों ओर से वार्ता की शुरूआत के सिलसिले में क्रिकेट को एक बड़ा ज़रिया बनाया गया था. तब मुशर्रफ़ तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी के साथ दिल्ली के फ़िरोजशाह कोटला मैदान में एक मैच देखने आए थे. इसके पहले, १९८७ में जनरल ज़िया उल हक़ और राजीव गांधी ने जयपुर के सवाई मानसिंह स्टेडियम में एक साथ क्रिकेट मैच देखकर इस खेल को एक कूटनीतिक रंग दिया था. तब से लेकर आज तक, भारत पाकिस्तान के बीच क्रिकेट मैच की राजनीतिक हैसियत बढ़ती चली गई.
पिछले दो दशकों में, ’ग्लोबल दुनिया’ हो जाने के तमाम दावों के विपरीत, दोनों देशों के बीच के परंपरागत तनावपूर्ण रिश्ते असामान्य तौर पर कटु होते चले गए. इस बीच क्रिकेट की लोकप्रियता में भी असाधारण बढ़ोत्तरी हुई है. इसके प्रभाव का अनुमान ग्लैमर, बाज़ार, विज्ञापन और अकूत धन आदि के लिहाज़ से सहजता से लगाया जा सकता है. दक्षिण एशिया में क्रिकेट के प्रति जुनून इस क़दर बढ़ता गया कि क्रिकेट को ’धर्म’ और खिलाड़ियों को ’भगवान’ तक के दर्ज़े दिए जाने लगे. यह बात अलग है कि वैश्वीकरण के इस ख़तरनाक, मुनाफ़ाखोर दौर में धर्म और भगवान के नाम पर अवैध कारोबार भी ज़ोरदार ढंग से फले फूले और कई बाबाओं के कर्म-कुकर्मों की कलई खुलती गई
भारत और पाकिस्तान दोनों ने जब इस बेहिसाब धन और अपार लोकप्रियता के खेल में ’राष्ट्रवाद’ का छौंक लगाया तो एक ग़ज़ब का उन्मत्त वर्ग पनप आया. अब क्रिकेट महज़ एक अ-राजनीतिक खेल नहीं रह गया. अब यह राष्ट्रवाद के उन्माद की आज़माइश का मैदान बन गया. याद करें, शिवसेना जैसे दलों ने अपनी प्रासंगिकता साबित करने की सनकी होड़ में पिछले दशक में क्रिकेट की पिचें खोदनी शुरू कर दी थीं. इसी दौर में सुनने में आया कि पाकिस्तान की किसी हार के बाद एक प्रशंसक ने टेलीविज़न स्क्रीन तोड़ दी और ख़ुद को गोली से उड़ा लिया.
भारत में भी राष्ट्रवाद के नशेड़ियों को उनके अपने देश के पड़ोसी मुसलमानों की ’देशभक्ति’ को जांचने-परखने का एक नया पैमाना मिल गया. पिछले पंद्रह-बीस सालों में हिंदुत्ववादियों ने जिन गलीज धारणाओं से मुस्लिम जमात पर शक-शुबहे करने और उनके ख़िलाफ़ दुष्प्रचार करने के जो तरीक़े ईजाद किए हैं उनमें से यह बहुप्रचारित है कि ’अगर भारत-पाकिस्तान के बीच क्रिकेट मैच हो रहा है तो भारत के मुसलमान की सहानुभूति पाकिस्तान के साथ जुड़ती है. वे (मुसलमान) ज़रूर पाकिस्तान के जीतने की मिन्नतें करेंगे.’ मानो क्रिकेट के बुख़ार में भारत पाकिस्तान के मैच ’देशभक्ति’ मापने के थर्मामीटर हो गये हों. दोनों देशों के राजनीतिक नेतृत्व के लिए क्रिकेट के साथ बनैले क़िस्म के, अंध-राष्ट्रवाद का ज़हर फैलाना बेहद आसान हो गया.
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को जो न्योता दिया है, उसके कई मायने हैं. देश के भीतर कई मोर्चों पर यूपीए सरकार के लगातार विफल रहने के एक के बाद एक कारनामे जग-ज़ाहिर हो रहे हैं. विकीलीक्स ने अमेरिकी राजनयिकों के हवाले से भारत की अंदरूनी राजनीति के बारे में जो पर्दे उठाए हैं, वह ख़रीद-फ़रोख़्त, व्यवस्था की तह में निहित और काफ़ी हद तक वैध भ्रष्टाचार, क़ानून-विहीनता और अमेरिकी हथकंडों की बिल्कुल ताज़ा मिसाल हैं. इसके पहले, सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों के बीच भ्रष्टाचार के जो मामले सामने आए हैं उससे इस धारणा को बल मिलता है कि संसदीय दलों की आपसी संरचना, कार्यपद्धति और नीतियों में कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं है. इनकी अंदरूनी तौर पर आपसी मिलीभगत होती है. अब तो इनमें कोई महत्वपूर्ण तत्व बचे हैं जो भारत की अस्सी फ़ीसदी आबादी की ज़िंदगियों को निर्धारित-संचालित करने वाले मुद्दों को संजीदगी से संबोधित करते हों.
दूसरी ओर, पाकिस्तान की राजनीतिक हालात भी ख़स्ता है. देश के अंदरूनी शासन-सत्ता में अमेरिकी हस्तक्षेप दिनों-दिन ऐसे हावी होता जा रहा है कि पाकिस्तान सरकार मूक और बेबस नज़र आती है. इसके लिए एक उदाहरण काफ़ी होगा. पिछले महीने जब अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसी के लिए गुप्त ढंग से काम करने वाले एक शख़्श, रेमंड डेविस, ने पाकिस्तान के दो नागरिकों को दिन दहाड़े गोलियों से भून दिया था तो पाकिस्तान की एक अदालत ने उसे इस्लामी क़ानूनों के तहत ’दियत’ राशि के आधार पर रिहा कर दिया. ’दियत’ वह प्रावधान है जिसके अनुसार हत्यारा मृतक के परिवार को जान की क़ीमत अदा कर बरी हो सकता है. कई विद्वानों मानते हैं कि अमेरिकी धौंस के चलते इस क़ानून को ईजाद किया गया.
मनमोहन सिंह के ताज़ा न्यौते के निम्न निहितार्थ होते हैं. इसमें इसके खुले-छिपे परिणाम भी निहित हैं.
पहला, यह यूपीए सरकार के लिए अपनी विफलताओं और लगातार हो रही आलोचनाओं से देश का ध्यान बंटाने का एक सुनहरा मौक़ा है. यह एक मोहलत तो है, साथ में यूपीए सरकार का उपमहाद्वीपीय ’पब्लिक रिलेशन’ अभियान भी है.
दूसरा, हालांकि अभी पाकिस्तान का जवाब आना बाक़ी है. निमंत्रण स्वीकार करने या न करने के लाभ-हानि के सभी पहलुओं पर विचार कर ही पाकिस्तान कोई निर्णय लेगा. इसमें आपसी संबंध बहाल करने के कूटनीतिक प्रयासों के प्रति रवैये की एक झलक मिल सकेगी. शांति प्रक्रिया और आपसी वार्ता के खटाई में पड़ने पर दोनों देश एक दूसरे पर घिसे पिटे आरोपों-प्रत्यारोपों के आधार पर ख़ुद को जवाबमुक्त रख सकेंगे.
तीसरा, दोनों देशों की हुकूमतें प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तरीक़े से एक ऐसा जनमानस बनाने की पूरी कोशिश करेंगी जिससे संकीर्ण राष्ट्रवाद के तुच्छ आधारों को क़ायम रखा जा सके, जैसा कि परमाणु हथियार के मामलों मे किया गया था, और ज़रूरत पड़ने पर पैना किया जा सके. वार्ता विफल होने की स्थिति में, बड़बोलेपन और आक्रामकता के ज़रिये तनातनी के माहौल को इस क़दर फैलाया जाएगा कि दोनों देशों के ’युद्ध-पिपासु’ एजेंट्स आपस में भिड़ने के लिए तैयार दिखें. छद्म युद्ध का माहौल रचने में यह मदद करेगा.
चौथा, मीडिया में, ख़ासतौर से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में, मौजूद कमज़र्फ़ और ज़ाहिल तत्व मैच के ज़रिये इस छद्म युद्ध को पर्दे पर अंजाम देंगे. इनकी सारी कोशिशें का हलक यह होगा कि मैदान पर मैच नहीं, मानो सीमा पर कोई युद्ध हो रहा है.
स्पष्ट है, इससे दक्षिणपंथी और उन्मादी राजनीति करने वाली ताक़तों को मुफ़्त में एक उन्मत्त माहौल मिलेगा. अहमदाबाद में हुए मैच में नरेंद्र मोदी की मौजूदगी इस आशंका को पुष्ट करती है. ऐसे में अगर कुछ लोग न्यू मीडिया के ज़रिये इस तरह के माहौल का प्रतिवाद कर रहे हैं तो यह अकारण नहीं है. अगर कुछ लोग यह कह रहे हैं कि यह क्रिकेट ब्राह्मणवादी, फ़ासीवादी राष्ट्रवाद का सशक्त औज़ार बन रहा है तो यह तर्कसंगत मालूम जान पड़ता है.
(लेखक, स्वतंत्र पत्रकार हैं और भारत पाकिस्तान की मीडिया पर शोध कर रहे हैं.) संपर्क: anamil.anu@gmail.com
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