24 मार्च 2011

नक्सली के नाम पर ग्रामीणों की हत्या


बीती १४ तारीख को छत्तीसगढ़ के दान्तेवाड़ा में कोबरा बटालियन के जवानों ने तकरीबन ३०० घर जलाये और ५ महिलाओं के साथ बलात्कार किया कई ग्रामीणों को पीटा और कईयों को मार डाला. यह सब माओवादी होने के नाम पर किया गया आज जब वहाँ के जिला प्रसाशन द्वारा ग्रामीणों को ट्रक से राहत सामाग्री भेजी जा रही थी तो उसे वहाँ के एस.एस.पी. कल्लूरी के आदेश पर ले जाने से रोक दिया गया. यह सब हमारे देश के एक हिस्से में घटित हो रहा है जब हम लीबिया और मिश्र की चर्चायें कर रहे हैं और भारत को लकतांत्रिक कहे जाने का दंभ भर रहे हैं अनिल मिश्र ने एक अन्य मसले को उठाया है जिसे हम आपके साथ साझा कर रहे हैं.
अनिल मिश्र
पश्चिम बंगाल के लालगढ़ इलाके के नेताई गांव में पिछले महीने सत्ताधारी राजनीतिक दल के सशस्त्र कैडरों ने बारह ग्रामीणों की गोली मार कर हत्या कर दी थी. उच्चतम न्यायालय की एक खंडपीठ ने इस मामले की याचिका पर इस बुधवार सुनवाई करते हुये जो टिप्पणी की है वह बहुत महत्त्वपूर्ण है. प. बंगाल सरकार के पब्लिक प्रॉस्क्यूटर ने कहा कि मारे गए सभीनक्सलीथे. उच्चतम न्यायालय ने इस पर प.बंगाल सरकार को कड़ी फटकार लगाते हुए कहा कि हम इस तथ्य से वाक़िफ़ हैं कि सुविधा संपन्न लोग सुविधाविहीन लोगों की मांगों को अवैधानिक ठहराने के लिएनक्सलीब्रांड का इस्तेमाल करते हैं.सुको ने आगे कहा कि देश के आधे से अधिक हिस्सों में क़ानून विहीनता (लॉ लेसनेस) है. नक्सलीशब्द का ऐसे ढील-ढाल इस्तेमाल कर ऐसी हत्याओं को उचित नहीं ठहराया जा सकता.
उच्चतम न्यायालय की यह टिप्पणी ऐसे वक़्त में और भी अहमियत रखती है क्योंकि सरकारें लगातार कॉर्पोरेट तंत्र के दबाव में झुकती चली जा रही हैं, और एक से बढ़कर एक जनविरोधी क़दम उठा रही हैं. मौलिक अधिकारों की जो गारंटी संविधान में प्रदान की गई है उसकी रक्षा कर पाने में सरकारे पूरी तरह विफल साबित हो रही हैं. उदारीकरण के वर्तमान, तीसरे, चरण में विकासके नाम पर सत्ताधारी वर्ग की असहुष्णता अब एक सनक का शक्ल अख़्तियार कर चुकी है. इसके पहले, उच्चतम न्यायालय ने विकासके बारे में जो टिप्पणी की थी उसका भी आशय कुछ इस तरह का था कि ग़रीबों की आजीविका, मकान और पर्यावरण को तहस नहस करने वाला कोई विकास अपेक्षित नहीं है. निश्चित ही,विदेशी पूंजी के खेल के आगे नतमस्तक हमारे राजनीतिक नेतृत्व के लिए यह टिप्पणी किरकिरी जैसी लगी होगी.
हाल ही में, ओडिशा के मानवाधिकार आयोग ने अपनी एक स्वतंत्र जांच रिपोर्ट में कहा गया है कि २००८ में कोरापुट जिले में पुलिस ने जिन दो लोगों को नक्सलीकहकर मारा था वे ग्रामीण थे जो अपने पशुओं को घर से बाहर बाड़े में बांधने निकले थे. मानवाधिकार आयोग ने मृतकों के परिजनों को मुआवज़ा देने की भी सिफ़ारिश की है. मानवाधिकार आयोग की जांच के मुताबिक़ जिला पुलिस के नेतृत्व में सीआरपीएफ़ के गश्ती दल ने इस फ़ायरिंग की जो कहानी गढ़ी थी वह परस्पर अंतर्विरोधी और बेबुनियाद दिखती है. पुलिस दल के प्रभारी थानाध्यक्ष के मुताबिक़ उन्हेंविश्वस्तसूचना मिली थी कि इलाक़े में कुछ माओवादी नक्सलीतत्व आए हैं. गश्त के दौरान रात के अंधेरे में जब उन्होंने नाइट विज़नयंत्र से देखा कि कुछ लोगों का समूह उनकी ओर बढ़ा चला आ रहा है और गोलियां चला रहा है तो पुलिस ने जवाबी कारवाई में दो नक्सलियोंको मार गिराया. मानवाधिकार आयोग की जांच कहती है कि गांव के ये दो नौजवान ग्रामीण अपने पशुओं को खोजने घर से बाहर निकले थे क्योंकि उनके बैल रस्सी तुड़ाकर भाग गए थे. पुलिस दल ने उन पर अंधाधुंध फ़ायरिंग की जिसमें दो युवकों की मौत हो गई और कई बैलों ने घटनास्थल पर ही दम तोड़ दिया. एक ग्रामीण इस हमले मे बुरी तरह घायल हुआ था जिसने किसी तरह परिवार वालों को घटना की ख़बर दी.
पश्चिम बंगाल सरकार के बारे में उच्चतम न्यायालय की इस टिप्पणी कैसे बिल्कुल खरी है कि कि देश के आधे से भी अधिक हिस्सों में क़ानून विहीनता है.आगे का सच यह है कि देश के अधिकांश हिस्सों में या तो कोई क़ायदे-क़ानून नहीं हैं या फिर ऐसे नियम क़ानून हैं जिनके आधार पर सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी को भी अगर कभी देशद्रोहीक़रार दिया जाए तो कोई ख़ास हैरानी नहीं होनी चाहिए. छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा अधिनियमएक ऐसा ही अंधा क़ानून है जिसमें (नक्सली जैसे) शब्दों के झोलदार इस्तेमाल द्वारा किसी भी तरह के अपराध करने की आधिकारिक छूट हासिल की गई है

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