28 दिसंबर 2010

लोकतंत्र को उम्रकैद :- प्रणय कृष्ण

25 दिसम्बर, 2010 ये मातम की भी घडी है और इंसाफ की एक बडी लडाई छेडने की भी। मातम इस देश में बचे-खुचे लोकतंत्र का गला घोंटने पर और लडाई - न पाए गए इंसाफ के लिए जो यहां के हर नागरिक का अधिकार है। छत्तीसगढ की निचली अदालत ने विख्यात मानवाधिकारवादी, जन-चिकित्सक और एक खूबसूरत इंसान डा। बिनायक सेन को भारतीय दंड संहिता की धारा 120-बी और धारा 124-ए, छत्तीसगढ विशेष जन सुरक्षा कानून की धारा 8(1),(2),(3) और (5) तथा गैर-कानूनी गतिविधि निरोधक कानून की धारा 39(2) के तहत राजद्रोह और राज्य के खिलाफ युद्ध छेडने की साज़िश करने के आरोप में 24 दिसम्बर के दिन उम्रकैद की सज़ा सुना दी। यहां कहने का अवकाश नहीं कि कैसे ये सारे कानून ही कानून की बुनियाद के खिलाफ हैं. डा. सेन को इन आरोपों में 24 मई, 2007 को गिरफ्तार किया गया और सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप से पूरे दो साल साधारण कैदियों से भी कुछ मामलों में बदतर स्थितिओं में जेल में रहने के बाद, उन्हें ज़मानत दी गई. मुकादमा उनपर सितम्बर 2008 से चलना शुरु हुआ. सर्वोच्च न्यायालय ने यदि उन्हें ज़मानत देते हुए यह न कहा होता कि इस मुकदमे का निपटारा जनवरी 2011 तक कर दिया जाए, तो छत्तीसगढ सरकार की योजना थी कि मुकदमा दसियों साल चलता रहे और जेल में ही बिनायक सेन बगैर किसी सज़ा के दसियों साल काट दें. बहरहाल जब यह सज़िश नाकाम हुई और मजबूरन मुकदमें की जल्दी-जल्दी सुनवाई में सरकार को पेश होना पडा, तो उसने पूरा दम लगाकर उनके खिलाफ फर्ज़ी साक्ष्य जुटाने शुरु किए. डा. बिनायक पर आरोप था कि वे माओंवादी नेता नारायण सान्याल से जेल में 33 बार 26 मई से 30 जून, 2007 के बीच मिले. सुनवाई के दौरान साफ हुआ कि नारायण सान्याल के इलाज के सिलसिले में ये मुलाकातें जेल अधिकारियों की अनुमति से , जेलर की उपस्थिति में हुईं. डा. सेन पर मुख्य आरोप यह था कि उन्होंने नारायण सान्याल से चिट्ठियां लेकर उनके माओंवादी साथियों तक उन्हें पहुंचाने में मदद की. पुलिस ने कहा कि ये चिट्ठियां उसे पीयुष गुहा नामक एक कलकत्ता के व्यापारी से मिलीं जिसतक उसे डा. सेन ने पहुंचाया था. गुहा को पुलिस ने 6 मई,2007 को रायपुर में गिरफ्तार किया. गुहा ने अदालत में बताया कि वह 1 मई को गिरफ्तार हुए. बहरहाल ये पत्र कथित रूप से गुहा से ही मिले, इसकी तस्दीक महज एक आदमी अ़निल सिंह ने की जो कि एक कपडा व्यापारी है और पुलिस के गवाह के बतौर उसने कहा कि गुहा की गिरफ्तरी के समय वह मौजूद था. इन चिट्ठियों पर न कोई नाम है, न तारीख, न हस्ताक्षर , न ही इनमें लिखी किसी बात से डा. सेन से इनके सम्बंधों पर कोई प्रकाश पडता है. पुलिस आजतक भी गुहा और डा़ सेन के बीच किसी पत्र-व्यवहार, किसी फ़ोन-काल,किसी मुलाकात का कोई प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर पाई. एक के बाद एक पुलिस के गवाह जिरह के दौरान टूटते गए. पुलिस ने डा.सेन के घर से मार्क्सवादी साहित्य और तमाम कम्यूनिस्ट पार्टियों के दस्तावेज़ , मानवाधिकार रिपोर्टें, सी.डी़ तथा उनके कम्प्यूटर से तमाम फाइलें बरामद कीं. इनमें से कोई चीज़ ऐसी न थी जो किसी भी सामान्य पढे लिखे, जागरूक आदमी को प्राप्त नहीं हो सकतीं. घबराहट में पुलिस ने भाकपा (माओंवादी) की केंद्रीय कमेटी का एक पत्र पेश किया जो उसके अनुसार डा. सेन के घर से मिला था. मज़े की बात है कि इस पत्र पर भी भेजने वाले के दस्तखत नहीं हैं. दूसरे, पुलिस ने इस पत्र का ज़िक्र उनके घर से प्राप्त वस्तुओं की लिस्ट में न तो चार्जशीट में किया था, न ”सर्च मेमों” में. घर से प्राप्त हर चीज़ पर पुलिस द्वारा डा. बिनायक के हस्ताक्षर लिए गए थे. लेकिन इस पत्र पर उनके दस्तखत भी नहीं हैं. ज़ाहिर है कि यह पत्र फर्ज़ी है. साक्ष्य के अभाव में पुलिस की बौखलाहट तब और हास्यास्पद हो उठी जब उसने पिछली 19 तारीख को डा.सेन की पत्नी इलिना सेन द्वारा वाल्टर फर्नांडीज़, पूर्व निदेशक, इंडियन सोशल इंस्टीट्यूट ( आई.एस. आई.),को लिखे एक ई-मेल को पकिस्तानी आई.एस. आई. से जोडकर खुद को हंसी का पात्र बनाया. मुनव्वर राना का शेर याद आता है-“बस इतनी बात पर उसने हमें बलवाई लिक्खा हैहमारे घर के बरतन पे आई.एस.आई लिक्खा है”इस ई-मेल में लिखे एक जुमले ”चिम्पांज़ी इन द वाइटहाउस” की पुलिसिया व्याख्या में उसे कोडवर्ड बताया गया.( आखिर मेरे सहित तमाम लोग इतने दिनॉं से मानते ही रहे हैं कि ओंबामा से पहले वाइट हाउस में एक बडा चिंम्पांज़ी ही रहा करता था.) पुलिस की दयनीयता इस बात से भी ज़ाहिर है कि डा.सेन के घर से मिले एक दस्तावेज़ के आधार पर उन्हें शहरों में माओंवादी नेटवर्क फैलाने वाला बताया गया. यह दस्तावेज़ सर्वसुलभ है. यह दस्तावेज़ सुदीप चक्रवर्ती की पुस्तक, ”रेड सन- ट्रैवेल्स इन नक्सलाइट कंट्री” में परिशिष्ट के रूप में मौजूद है. कोई भी चाहे इसे देख सकता है. कुल मिलाकर अदालत में और बाहर भी पुलिस के एक एक झूठ का पर्दाफाश होता गया. लेकिन नतीजा क्या हुआ? अदालत में नतीजा वही हुआ जो आजकल आम बात है. भोपाल गैस कांड् पर अदालती फैसले को याद कीजिए. याद कीजिए अयोध्या पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को .क्या कारण हे कि बहुतेरे लोगों को तब बिलकुल आश्चर्य नहीं होता जब इस देश के सारे भ्रश्टाचारी, गुंडे, बदमाश , बलात्कारी टी.वी. पर यह कहते पाए जाते हैं कि वे न्यायपालिका का बहुत सम्मान करते हैं?याद ये भी करना चाहिए कि भारतीय दंड संहिता में राजद्रोह की धाराएं कब की हैं. राजद्रोह की धारा 124 -ए जिसमें डा. सेन को दोषी करार दिया गया है 1870 में लाई गई जिसके तहत सरकार के खिलाफ ”घृणा फैलाना”, ” अवमानना करना” और ” असंतोष पैदा”करना राजद्रोह है. क्या ऐसी सरकारें घृणित नहीं है जिनके अधीन 80 फीसदी हिंदुस्तानी 20 रुपए रोज़ पर गुज़ारा करते हैं? क्या ऐसी सरकारें अवमानना के काबिल नहीं जिनके मंत्रिमंडल राडिया, टाटा, अम्बानी, वीर संघवी, बर्खा दत्त और प्रभु चावला की बातचीत से निर्धारित होते हैं ? क्या ऐसी सरकारों के प्रति हम और आप असंतोष नहीं रखते जो आदिवसियों के खिलाफ ”सलवा जुडूम” चलाती हैं, बहुराश्ट्रीय कम्पनियों और अमरीका के हाथ इस देश की सम्पदा को दुहे जाने का रास्ता प्रशस्त करती हैं. अगर यही राजद्रोह की परिभाशा है जिसे गोरे अंग्रेजों ने बनाया था और काले अंग्रेजों ने कायम रखा, तो हममे से कम ही ऐसे बचेंगे जो राजद्रोही न हों . याद रहे कि इसी धारा के तहत अंग्रेजों ने लम्बे समय तक बाल गंगाधर तिलक को कैद रखा.डा. बिनायक और उनकी शरीके-हयात इलीना सेन देश के उच्चतम शिक्षा संस्थानॉं से पढकर आज के छत्तीसगढ में आदिवसियों के जीवन में रच बस गए. बिनायक ने पी.यू.सी.एल के सचिव के बतौर छत्तीसगढ सरकार को फर्ज़ी मुठभेड़ों पर बेनकाब किया, सलवा-जुडूम की ज़्यादतियों पर घेरा, उन्होंने सवाल उठाया कि जो इलाके नक्सल प्रभावित नहीं हैं, वहां क्यों इतनी गरीबी,बेकारी, कुपोषण और भुखमरी है?. एक बच्चों के डाक्टर को इससे बडी तक्लीफ क्या हो सकती है कि वह अपने सामने नौनिहालों को तडपकर मरते देखे? इस तक्लीफकुन बात के बीच एक रोचक बात यह है कि साक्ष्य न मिलने की हताशा में पुलिस ने डा.सेन के घर से कथित रूप से बरामद माओंवादियों की चिट्ठी में उन्हें ”कामरेड” संबोधित किए जाने पर कहा कि ”कामरेड उसी को कहा जाता है, जो माओंवादी होता है ”. तो आप में से जो भी कामरेड संबोधित किए जाते हों ( हों भले ही न), सावधान रहिए. कभी गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने कबीर के सौ पदों का अनुवाद किया था. कबीर की पंक्ति थी, ”निसिदिन खेलत रही सखियन संग”. गुरुदेव ने अनुवाद किया, ”Day and night, I played with my comrades' मुझे इंतज़ार है कि कामरेड शब्द के इस्तेमाल के लिए गुरुदेव या कबीर पर कब मुकदमा चलाया जाएगा?अकारण नहीं है कि जिस छत्तीसगढ में कामरेड शंकर गुहा नियोगी के हत्यारे कानून के दायरे से महफूज़ रहे, उसी छत्तीसगढ में नियोगी के ही एक देशभक्त, मानवतावादी, प्यारे और निर्दोष चिकित्सक शिष्य को उम्र कैद दी गई है. 1948 में शंकर शैलेंद्र ने लिखा था,
“भगतसिंह ! इस बार न लेना काया भारतवासी की,देशभक्ति के लिए आज भी सजा मिलेगी फाँसी की !
यदि जनता की बात करोगे, तुम गद्दार कहाओगे--बंब संब की छोड़ो, भाशण दिया कि पकड़े जाओगे !निकला है कानून नया, चुटकी बजते बँध जाओगे,न्याय अदालत की मत पूछो, सीधे मुक्ति पाओगे,कांग्रेस का हुक्म; जरूरत क्या वारंट तलाशी की ! “
ऊपर की पंक्तियों में ब़स कांग्रेस के साथ भाजपा और जोड़ लीजिए.आश्चर्य है कि साक्ष्य होने पर भी कश्मीर में शोंपिया बलात्कार और हत्याकांड के दोषी, निर्दोष नौजवानॉं को आतंकवादी बताकर मार देने के दोषी सैनिक अधिकारी खुले घूम रहे हैं और अदालत उनका कुछ नहीं कर सकती क्योंकि वे ए.एफ.एस. पी.ए. नामक कानून से संरक्षित हैं, जबकि साक्ष्य न होने पर भी डा. बिनायक को उम्र कैद मिलती है. - मित्रों मैं यही चाहता हूं कि जहां जिस किस्म से हो , जितनी दूर तक हो हम डा. बिनायक सेन जैसे मानवरत्न के लिए आवाज़ उठाएं ताकि इस देश में लोग उस दूसरी गुलामी से सचेत हों जिसके खिलाफ नई आज़ादी के एक योद्धा हैं डा. बिनायक सेन.

25 दिसंबर 2010

ये युद्ध है और हम इसमें शामिल हैं


-आवेश तिवारी


घोटालों ,भ्रष्ठाचार , आतंक और राजनैतिक वितंडावाद से जूझ रहे इस देश में अदालतों का चेहरा भी बदल गया है ,ये अदालतें अब आम आदमी की अदालत नहीं रही गयी हैं ,न्याय की देवी की आँखों में बन्दे काले पट्टे ने समूची न्यायिक प्रणाली को काला कर दिया है ,जज राजा है ,वकील दरबारी और हम आप वो फरियादी हैं जिन्हें फैसलों के लिए आसमान की और देखने की आदत पड़ चुकी है |बिनायक सेन को उम्र कैद की सजा हिंदुस्तान की न्याय प्रक्रिया का वो काला पन्ना है जो ये बताता है कि अब भी देश में न्याय का चरित्र अंग्रेजियत भरा है जो अन्याय ,असमानता और राज्य उत्प्रेरित जनविरोधी और मानवताविरोधी परिस्थितियों के साए में लोकतंत्र को जिन्दा रखने की दलीलें दे रहा है |सिर्फ बिनायक सेन ही क्यूँ देश के उन लाखों आदिवासियों को भी इस न्याय प्रक्रिया से सिर्फ निराशा हाँथ लगी हैं जिन्होंने अपने जंगल अपनी जमीन के लिए इन अदालतों में अपनी दुहाई लगाई |खुलेआम देश को गरियाने वाले और सशस्त्र क्रान्ति का समर्थन करने वाले खुलेआम देश- विदेश घूम घूम कर हिंदुस्तान के खिलाफ विषवमन करते हैं ,और संवेदनशील एवं न्याय आधारित व्यवस्था का समर्थन करने वालों को सलाखों में ठूंस दिया जाता है |
बिनायक सेन की सजा के आधार बनने वाले जो सबूत छत्तीसगढ़ पुलिस ने प्रस्तुत किये ,वो अपने आप में कम हास्यास्पद नहीं है ,पुलिस द्वारा मदन लाल बनर्जी का लिखा एक पत्र प्रस्तुत किया गया जिसमे बिनायक सेन को कामरेड बिनायक सेन कह कर संबोधित किया गया है ,एक और पत्र है जिसका शीर्षक है कि " कैसे अमेरिकी साम्राज्यवाद के विरोध में फ्रंट बनाये ",इनके अलवा कुछ लेख कुछ पत्र जिन पर बकायदे जेल प्रशासन की मुहर है सबूत के तौर पर प्रस्तुत की गयी |भगत सिंह और सुभाष चद्र बोस जिंदाबाद के नारे लिखे कुछ पर्चे भी इनमे शामिल हैं अदालत ने अपने फैसले में सजा का आधार जिन चीजों को माना है वो छत्तीसगढ़ ,झारखण्ड ,ओड़िसा और उत्तर प्रदेश के किसी भी पत्रकार समाजसेवी के झोले की चीजें हो सकती हैं |बिनायक चिकित्सक हैं नहीं तो पुलिस एक कट्टा ,कारतूस या फिर एके -४७ दिखाकर और कुछ एक हत्याओं में वांछित दिखाकर उन्हें फांसी पर चढवा देती |देश में माओवाद के नाम पर जिनती भी गिरफ्तारियां या हत्याएं हो रही हैं चाहे वो सीमा आजाद की गिरफ्तारी हो या हेमचंद की हत्या सबमे छल ,कपट और सत्ता की साजिशें मौजूद थी |साजिशों के बदौलत सत्ता हासिल करने और
फिर साजिश करके उस सत्ता को कायम रखने का ये शगल अब नंगा हो चुका है |माओवादियों के द्वारा की जाने वाली हत्याएं जितनी निंदनीय हैं उनसे ज्यादा निंदनीय फर्जी मुठभेड़ें और बेकसूरों की गिरफ्तारियां हैं क्यूंकि इनमे साजिशें और घात भी शामिल हैं |
बिनायक सेन एक चिकित्सक हैं वो भी बच्चों के चिकित्सक ,देश में पूरी तरह से जीर्ण शीर्ण हो चुकी बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं को पुनर्स्थापित करने को लेकर उनके जो उन्होंने कभी नक्सली हिंसा का सर्थन नहीं किया पर हाँ ,वो राज्य समर्थित हिंसा के भी हमेशा खिलाफ रहे ,चाहे वो सलवा जुडूम हो या फिर छतीसगढ़ के जंगलों में चलाया जा रहा अघोषित युद्ध |बिनायक खुद कहते हैं "माओवादियों और राज्य ने खुद को अलग अलग कोनों पर खड़ा कर दिया है ,बीच में वो लाखों जनता हैं जिसकी जिंदगी दोजख बन चुकी है ,ऐसे में एक चिक्तिसक होने के नाते मुझे गुस्सा आता है जब इन दो चक्कियों के बीच फंसा कोई बच्चा कुपोषित होता है या किसी माँ का बेटा उसके गर्भ में ही दम तोड़ देता है ,क्या ऐसे में जरुरी नहीं है कि हिंसा चाहे इधर की हो या उधर की रोक दी जाए,और एक सुन्दर और सबकी दुनिया ,सबका गाँव सबका समाज बनाया जाए "


कम से कम एक मुद्दा ऐसा है जिस पर देश के सभी राजनैतिक दल एकमत हैं वो है नक्सली उन्मूलन के नाम पर वन ,वनवासियों और आम आदमी के विरुद्ध छेड़ा गया युद्ध ,भाजपा और कांग्रेस जो अब किसी राजनैतिक दल से ज्यादा कार्पोरेट फर्म नजर आते हैं निस्संदेह इसकी आड़ में बड़े औद्योगिक घरानों के लिए लाबिंग कर रही हैं ,वहीँ वामपंथी दलों के लिए उनके हाशिये पर चले जाने का एक दशक पुराना खतरा अब नहीं तब तब उनके अंतिम संस्कार का रूप लेता नजर आ रहा है |मगर ये पार्टियाँ भूल जा रही है कि देश में बड़े पैमाने पर एक गृह युद्ध की शुरुआत हो चुकी है भले ही वो वैचारिक स्तर पर क्यूँ न लड़ा जा रहा हो ,विश्वविद्यालों की कक्षाओं से लेकर ,कपडा लत्ता बेचकर चलाये जाने वाले अख़बारों ,पत्रिकाओं और इंटरनेट पर ही नहीं निपढ निरीह आदिवासी गरीब ,शोषित जनता के जागते सोते देखे जाने वाले सपनों में भी ये युद्ध लड़ा जा रहा है ,हम बार बार गिरते हैं और फिर उठ खड़े होते हैं |हाँ ,ये सच है , विनायक सेन जैसों के साथ लोकतंत्र की अदालतों का इस किस्म का गैर लोकतान्त्रिक फैसला रगों में दौड़ते खून की रफ़्तार को बढ़ा देता हैं ,ये युद्ध आजादी के पहले भी जारी थी और आज भी है |

13 दिसंबर 2010

लवासा नेतृत्व हीनता में बंद पड़ी लड़ाई

चन्द्रिका
लवासा पुणे और मुंबई के पास वरसगांव बांध (वरसगांव बांध एवं जलाशय) के पीछे बाजी पासलकर जलाशय के किनारे, पश्चिमी घाट में स्थित है. यह शहर दीर्घीभूत वरसगांव बांध जलाशय को चारों तरफ से घेरने वाली आठ बड़ी-बड़ी पहाड़ियों की गोद में स्थित है. इस परियोजना में लगभग २५,००० एकड़s (१०० कि.मी.२) भूमि शामिल है. लवासा पुणे (लगभग 50 किमी) से 80 मिनट और मुंबई (लगभग 180 किमी) से 3 घंटे की दूरी पर स्थित है.
पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने लवासा को नोटिस भेजकर बड़े पैमाने पर चल रहे पेड़ों की कटाई और पहाड़ियों के उत्खनन को स्थगित कर दिया है जिस पर कोई फैसला आने तक मुंबई हाई कोर्ट ने भी मुहर लगा दी है. शरद पवार नाराज हैं कि आखिर नोटिस क्यों भेजी गयीं. लवासा के साथ शरद पवार के खड़े होने की वजह है. वजह है कि उनकी पारिवारिक रकम इस योजना में बड़ी मात्रा में लगी है और हिन्दुस्तान कंस्ट्रक्सन कम्पनी के मालिक अजीत गुलाबचंद पवार के करीबी माने जाते हैं. बहरहाल सरकार और कार्पोरेट के करीबीपन का रिस्ता किसी भी रिस्ते से अधिक नजदीकी होता है. पवार की नाराजगी इसी मिलीजुली दायित्वबोध की अदायगी है. यह कम्पनी का अजीत पवार के प्रति महज प्रेम नहीं है कि महाराष्ट्र का उपमुख्यमंत्री बनने के बाद लवासा में उनके बधाईयों के बड़े-बड़े बैनर-पोस्टर टांग दिये गये हैं. यह लवासा की विवादित परियोजना में महाराष्ट्र सरकार की अनिष्टकारी दखलंदाजी न होने की अपील है जो शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले द्वारा अपने भाई से की जा रही है. इसे पारिवारिक सम्पत्ति की राजनैतिक हिफाजत के रूप में देखा जाना उचित होगा.लवासा पुणे और मुम्बई के स्थित पहाड़ियों में योजनाबद्ध तरीके से बनाया जाने वाला देश का पहला शहर है जिसका नाम मराठी में अलंकृत कर दिया गया है. शायद यह राजठाकरे का भय हो कि इस योजनाबद्ध शहर को मराठी शब्दों से नामित कर दिया गया हो. २५ हजार एकड़ भूमि में बन रहे इस शहर में मुम्बई और पुणे की ऊब से निकलकर धनाड्य वर्ग लवासा में सुकून पा सके यह एक दूरगामी मकसद है. देश के धनाढ्य वर्ग को शहर और सुकून के साथ प्राकृतिक सौंदर्य से भरापुरा गाँव भी चाहिये, सब कुछ एक साथ. लिहाजा बड़े शहरों के आसपास की सुंदरता को इनके लिये संरक्षित कर दिया जा रहा है जिसकी कीमत वहाँ के मूलवासियों को अपने घरों से उजड़ कर देनी पड़ रही है. हजारों अपार्टमेंट्स और विलाओं के साथ यह योजना चार चरणों में पूरी की जायेगी जिसकी अनुमानित लागत २० हजार करोड़ रूपये से अधिक आंकी गयी है. जिसे देश के विकसित होने का स्वप्न वर्ष विजन २०-२० के एक साल बाद पूरी तरह से निर्मित देखा जा सकेगा. लेकिन इस परियोजना के कई और भी पेंच हैं जो कार्पोरेट और सरकार के मधुर सम्बन्धों को बयां करती है. जिसके तहत हिन्दुस्तान कंस्ट्रक्सन कम्पनी ने कई आदिवासी गाँवों की जमीने औने-पौने दामों पर ले रखी हैं. जिस जगह यह परियोजना निर्मित की जा रही है और जिन आदिवासियों के गाँवों को उजाड़ कर लवासा बनाया जा रहा है वहाँ के मूलनिवासियों को अभी तक सरकार विजली, पानी, स्कूल पहुंचाने में अक्षम रही है. जबकि दुनिया की सर्व सुविधा सम्पन्न निर्माणाधीन इस नगरी को कई अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है वहीं आसपास के गांवों में एक अनुमान के मुताबिक बिजली पहुंचाने का खर्च ३ करोड़ रूपये ही लगेगा पर वह अभी तक नहीं पहुंचाई जा सकी. महज कुछ वर्षों में ही २० हजार करोड़ से अधिक लागत की इस परियोजना को चालू कर दिया गया. दरअसल यह सरकार का आदिवासियों के प्रति उपेक्षा का दृष्टिकोण है. उन्हें मूलभूत सुविधाओं से वंचित रखे जाने और उनके विद्रोह की प्रतिक्षा करने की परम्परा विकसित हो गयी है. मुंबई और पुणे के बीच यहाँ का आदिवासी उसी जीवन स्तर के साथ जीता है जैसा कि बस्तर और गड़चिरौली में. शहरों से दूर स्थित आदिवासी क्षेत्रों में सरकार विकास न कर पाने, स्कूलों की अव्यवस्था का तर्क इस तौर पर देती रही है कि माओवादी इसे बाधित करते हैं जबकि माओवादी आंदोलन से कोसों दूर बसे इन आदिवासियों की दयनीय स्थिति के लिये सरकार के पास आखिर क्या जवाब हो सकता है. लिहाजा यह एक संरचनात्मक समस्या है जिसमे आदिवासी अपने को संरक्षित नहीं पाता और इसके विरुद्ध खड़ा होता है. जिसके पश्चात भी सरकार कोई कार्यक्रम आदिवासियों के उत्थान के लिये बनाने के बजाय इनके दमन के लिये ही कार्यक्रम बनाती रही है. पूरे देश में आदिवासियों के बीच चल रहे माओवादी आंदोलन का स्वरूप और प्रक्रिया यही रही है. उन्हें सुविधाओं और अधिकारों से वंचित रखा गया और जब सुविधाभोगी शहरों की जमीने खोखली हो गयी तो आदिवासियों द्वारा प्राकृतिक रूप से संरक्षित पहाड़ों और जंगलों को कार्पोरेट जगत के हांथों देकर हथियाने का काम किया गया जिसमे सरकार आदिवासियों का विस्थापन करने में मदद करती रही. अभी देश में प्राकृतिक सम्पदायें वहीं सुरक्षित बच पाई हैं, जहाँ आदिवासी निवास कर रहे हैं.पर्यावरण मंत्रालय द्वारा लवासा को जो नोटिस भेजी गई है वह अन्ना हजारे और मेधा पाटेकर जैसे सामाजिक कार्यकर्ताओं का दबाव ही है पर इसके कोई दूरगामी परिणाम नहीं निकलने वाले क्योंकि सरकार ने विस्थापन की जो नीतियां बनाई हैं राज्यों के लिये उसमे कुछ ऐसे रास्ते छोड़ दिये गये हैं जहाँ से वे मनमानी कर सकें. इन गाँवों के आदिवासी शायद अपनी जमीने बचा लेते यदि इनके साथ कोई बड़ा आंदोलन खड़ा हो पाता पर यह सम्भव इसलिये भी नहीं है कि देश के जिन हिस्सों में आदिवासियों ने अपने विस्थापन के खिलाफ बड़े आंदोलन खड़े किये हैं और सफल रहे हैं उनमें माओवादियों का जुझारू नेतृत्व ही रहा है जबकि इस क्षेत्र में माओवादीयों की कोई खास पैठ नहीं है लिहाजा सरकार और संविधान से आगे की संगठित लड़ाई लड़नी मुमकिन नहीं दिखती.

10 दिसंबर 2010

गोपनीयता बरतने का अमेरिकी करतब



- देवाशीष प्रसून
ख़िरकार विकिलिक्स के संस्थापक जूलियन असांज को गिरफ़्तार कर ही लिया गया। उन पर यौन उत्पीड़न के आरोप हैं। सवाल यह है कि क्या सच में यह मामला यौन-उत्पीड़न का है या विकिलिक्स द्वारा किए गए पर्दाफ़ाशों से संयुक्त राज्य अमरीका ही नहीं उसके तमाम पिट्ठू देश सकते में आ गए हैं? इस बात में कोई शक नहीं है कि जूलियन को इसलिए निशाना बनाया जा रहा है, क्योंकि उसने दुनिया की सबसे बड़ी सत्ता की गोपनीयता की धज्जियाँ उड़ा दी हैं। वर्ना, देखने वाली बात है कि दुनिया भर में यौन मामलों में अंतरराष्ट्रीय पुलिस और न्याय व्यवस्था की हरकत देखने को कितनी बार मिली है? आस्ट्रेलियाई नागरिक जूलियन को ब्रिटिश पुलिस ने लंडन में हिरासत में लिया है और उन पर न्यायिक मामला स्वीडन में लंबित है। गौरतलब है कि दुनिया भर में अपना रुतबा रखने वाले फ़िल्मकार केन लोच और पत्रकार जॉन पिल्जर जैसे विश्व विख्यात शख्सियतों के कुल एक लाख अस्सी हज़ार डॉलर के मुचलके पर भी जूलियन को जमानत पर नहीं छोड़ा जा रहा है। यौन-मामलों में इस तरह की सजगता क़ाबिल-ए-तारीफ़ है। पर सोचने वाली बात है कि क्या सचमुच जूलियन पर न्यायिक कार्रवाई यौन अपराधों के मद्देनज़र हो रही है? जाहिर सी बात है कि विकिलिक्स ने खोजी पत्रकारिता का जो इतिहास रचा है, इसके लिए जूलियन को अमरीकी सत्ता अपने काबू में नहीं ले सकती थी, तो उन्हें दूसरे बहाने से कब्ज़े में लिया गया।

हालाँकि माहौल तो यह भी बनाया गया कि अल क़ायदा की तर्ज पर विकिलिक्स को भी आधिकारिक तौर पर एक आतंकवादी संगठन घोषित कर दिया जाए, पर अब तक यह हो नहीं सका है। इस बाबत द हाऊस होमलैंड सुरक्षा समिति के अध्यक्ष पीटर किंग ने इसके लिए बहुत प्रयास किए। किंग ने अमरीका की राज्य सेकरेटरी हिलेरी क्लिंटन को एक आधिकारिक ख़त में लिखा था कि विकिलिक्स से देश की सुरक्षा को ख़तरा है, इसलिए विकिलिक्स को आतंकवादी संगठन घोषित कर देना चाहिए। दरअसल गोपणीय सूचनाओं के पर्दाफ़ाश के बाद अमरीका की स्थिति दुनिया भर में किसी को मुँह दिखाने लायक नहीं बची है। यह जाहिर हो गया है कि अमरीकी सरकार अन्य देशों और उसके प्रमुख के बारे में कितनी ओछी सोच रखती है। अब यह बात भी खुल-ए-आम हो गई है अमरीका की विदेश नीति किस तरह से अंतरराष्ट्रीय सौहार्द्य को ठेंगे पर रखती है और कैसे-कैसे उसने इराक को युद्ध में नेस्तोनाबूद कर दिया। विकिलिक्स ने अमरीका के अंतरराष्ट्रीय साख को धुँआ कर दिया है। अब इसके बाद मारे शर्म और जिल्लत के अमरीका और उसकी दुनिया भर फैली एजेंसियाँ जवाबी कार्रवाई कर विकिलिक्स को सबक सिखाना चाहती हैं। जब कूटनीतिक तरीकों से विकिलिक्स दवाब में नहीं आया तो इस सिलसिले में इन ताक़तों ने विकिलिक्स के वेबसाइट पर तकनीकी हमलों का बौछार कर दिया। इंटरनेट के क़ानूनों और नैतिकताओं को ताक पर रख कर विकिलिक्स पर बड़े जोरदार तरीके से वाइरसों के हमले हुए। इससे भी मामला क़ाबू में नहीं आया तो विकिलिक्स को वेबसाइट चलाने की सेवा जो कंपनी दे रही थी, उसे खोपचे में लेते हुए विकिलिक्स के कामकाज को ठप्प किया गया। बेचारी कंपनी ने बहाना यह बनाया कि विकिलिक्स पर होने वाले वाइरस हमले इतने तीव्र हैं कि अगर उसे बंद न किया जाता हो पूरी इंटरनेट व्यवस्था ही मटियामेट हो जाती। इसे कहते हैं, मना करने पर भी कोई आपकी बात न मानें तो उसे मज़बूर कर देना कि वह चाह कर भी कुछ कर न सके। और अमरीका इसमें माहिर है।

और याद होगा कि किस तरह से पहली बार जब विकिलिक्स ने कई आँखें खोलने वाली सूचनाओं की गोपनीयता को खत्म किया था तो स्वीडन की सत्ता उसे पहले ही तमाम तरह की धमकियाँ दे चुकी थी। लेकिन विकिलिक्स बिना किसी दवाब में आए गुप्त सूचनाओं का पर्दाफ़ाश करते रहा। दरअसल गौर करें तो अमरीका हमेशा से ही सूचनाओं की गोपनीयता को लेकर संवेदनशील रहा है। सन चौरासी की बात है कि अमरीका ने इसी तरह से यूनेस्को पर भी यों कूटनीतिक हमला किया था। यूनेस्को के साथ अमरीका के तू तू-मैं मैं का सबब मैकब्राइड समिति के सुझावों के तहत बनाए जाने वाली नई विश्व सूचना व संचार व्यवस्था को तवज्जो देना था। तब आलम यह था कि सूचना व्यवस्था के लोकतंत्रीकरण से अमरीका इतना बौखला गया कि उसने यूनेस्को के अपने सारे संबंध तोड़ लिए। विश्व सामंजस्य की लफ़्फ़ाजी करने वाला अमरीका इतना ज़िद्दी है कि वह अंतरराष्ट्रीय शिक्षा, विज्ञान और संस्कृति को समर्पित संयुक्त राष्ट्र के इस उपांग से उन्नीस साल तक मुँह फैलाए रहा, जब तक कि यूनेस्को ने अपनी संचार नीतियों में अमूलचूल बदलाव नहीं लाए।

अमरीका ही नहीं, दुनिया में मौज़ूद तमाम साम्राज्यवादी ताक़तों के इस फ़ितरत पर गौर करें। वह गोपनीयता को लेकर बड़े संवेदनशील रहे हैं। भारत में भी देखिए मीडिया और सियासत के बंदरबाट से जुड़े बड़े-बड़े खलीफ़ाओं की गद्दियाँ नीरा राडिया के टेप्स के बेपर्द होने से हिल गईं हैं। सीधे-सीधे यह मामला सत्ता पर क़ाबिज़ लोगों के भ्रष्टाचार और गोरखधंधा को उन लोगों से छुपा के रखने का है, जो उन्हें इन सत्ता के सिंहासन पर बैठाते हैं और इस तरह के खुलासे सत्तासीनों के अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा कर देते हैं।
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संप्रति: पत्रकार व मीडिया स्टडीज़ ग्रुप, नई दिल्ली व जर्नलिस्ट यूनियन फ़ॉर सिविल सोसायटी के लिए सक्रिय
दूरभाष: 09555053370 -मेल: prasoonjee@gmail.com

05 दिसंबर 2010

संसदीय राजनीति एक नाटकघर है


दिलीप खान

टू जी घोटाले को लेकर चल रहे संसदीय गतिरोध पर प्रणब मुखर्जी ने यह टिप्पणी की कि भाजपा को भ्रष्टाचार पर बोलने का अधिकार नहीं है। उन्होंने तहलका कांड का उदाहरण देते हुए कहा कि उसमें भाजपा अध्यक्ष सीधे-सीधे कैमरे के सामने रिश्वत लेते हुए पकड़े गए थे. मुखर्जी के बोलने का कुल लब्बोलुआब यह है कि एक ऐसी पार्टी जो खुद कभी रिश्वत लेने के आरोप में राष्ट्रीय सुर्खियां बटोर चुकी है वह कैसे उसी मुद्दे पर दूसरी पार्टी को घेर सकती है? अगर इस बात को केंद्रीय भाव मानकर देश की संसद चले तो शायद किसी भी पार्टी के पास भ्रष्टाचार पर बोलने का अधिकार न हो और संसद में घोटाले का कोई मामला ही ना बने! कर्नाटक में भूमि आबंटन में हुई अनियमितता के प्रश्न पर विपक्षी जनता दल (से.) ने जब येदियुरप्पा सरकार को घेरा तो मामला राष्ट्रीय स्तर पर तूल पकड़ने लगा. राज्य में भाजपा के भीतर का भी एक धड़ा मौजूदा मुख्यमंत्री की ख़िलाफ़त करके नेतृत्व परिवर्तन पर ज़ोर दे रहा था. इन विरोधों के बीच जब उनके के इस्तीफ़े/बर्खास्तगी की मांग जोरों से चल रही थी, येदियुरप्पा ने आत्मविश्वास से लबरेज होकर कहा कि वे मुख्यमंत्री पद पर बने रहेंगे. येदियुरप्पा के आत्मविश्वास का स्रोत प्रणब मुखर्जी के सुझाए रास्ते से ही जाकर मिल जाता है.



जिगनी में दो एकड़ ज़मीन येदियुरप्पा के बेटे राघवेंद्र् और विजयेंद्र के नाम आबंटित की गई थी. विपक्षी दलों के विरोध प्रदर्शनों के बीच येदियुरप्पा ने कहा कि ये ज़मीन उसी तर्ज पर मेरे बेटों को आबंटित की गई है जैसे पूर्व काँग्रेस अध्यक्ष आर वी देशपांडे के बेटे प्रसाद देशपांडे, पूर्व जनता दल मुख्यमंत्री जे एच पटेल के बेटे महिमा पटेल और पूर्व मुख्यमंत्री एच डी कुमारास्वामी के भाई बालकृष्णा गौड़ा को आबंटित की गई थी. उनके कहने का भी मुख्य भाव यही था कि उन नेताओं से संबंद्ध पार्टी भूमि आबंटन के मुद्दे पर कैसे किसी को इतने अधिकार भाव से घेर सकती है? संसदीय राजनीति में एक ही सप्ताह में दो धुर विरोधी पार्टियां अपने बचाव में एक ही तर्क का सहारा लेती है और इस तर्क पर टिप्पणी करने के बजाए प्रत्येक दूसरी पार्टी यह उम्मीद बांधे खड़ी नज़र आती है कि वे भी किसी मौजूं समय पर इस अचूक तर्क का सहारा लेंगी. और इस तरह रस्सा-कस्सी का यह दिलचस्प खेल लंबा चलेगा.



येदियुरप्पा ने यह भी घोषणा की कि वे पिछले सोलह सालों में आबंटित ज़मीन की जांच करवाएंगे. इन अवधियों में ज़्यादातर उन्हीं दलों की सरकार सत्ता में रही है जो इस समय विपक्ष में बैठे हैं. विपक्षियों पर खेला गया यह ऐसा दांव था कि अचानक से पूरा परिदृश्य बदल गया. येदियुरप्पा मामले के अध्याय की लंबाई घट कर खात्मे के कगार पर पहुंचती दिखने लगी. कर्नाटक पिछले कई महीनों के उथल-पुथल के बीच थोड़ा स्थिर लगने लगा है.



घोटालों और भ्रष्टाचारों को लेकर संसदीय राजनीतिक दलों के तमाम विरोध प्रदर्शन की कवायद संसद और जंतर-मंतर सरीखे स्थाई विरोध अड्डे तक ही सीमित है. नजारा बेहद दिलचस्प था जब एक ही दिन दो अलग-अलग जगहों पर दो अलग-अलग पार्टियां एक ही विषय को लेकर धरने पर बैठी थी. नारा भी एक ही था कि वे पारदर्शिता की मांग कर रहे हैं. इन राजनीतिक दलों में इतना नैतिक साहस नहीं है कि वे इन मुद्दों को लेकर जनता के बीच जाए. इनका विरोध दिल्ली और विधानसभाओं तक ही सीमित है. अभी-अभी बिहार विधानसभा चुनाव में पटखनी खाने के बाद प्रेस काँफ़्रेंस में रामविलास पासवान कह रहे थे कि नीतिश सरकार पर कैग की रिपोर्ट से स्पष्ट हुई अनियमितताओं को वे जनता के बीच मुद्दा नहीं बना पाए. वे कह रहे थे कि बिहार में विकास का हौव्वा खड़ा किया गया, जिसके सहारे नीतिश ने सियासी कुर्सी हासिल की. कैग की रिपोर्ट से जाहिर हुई अनियमितता हज़ारों करोड़ रुपए की थी. लेकिन प्रश्न यही है कि विपक्षी दल इसे मुद्दा क्यों नहीं बना पाए? मुख्य विपक्षी दल राजद के नाम चारा घोटाले का एक बड़ा-सा बिल्ला चस्पां है. वे जानते हैं कि घोटाले का विरोध करने पर प्रति-प्रश्न के तौर पर उसके सामने उसी का गोटा फेंका जाएगा और उसके वजन से वे उबर नहीं पाएंगे.



हमारे सामने भ्रष्टाचार की एक अंतहीन परंपरा विकसित की जा रही है. राष्ट्रमंडल, आदर्श सोसाइटी, कर्नाटक, बिहार, टू जी स्पेक्ट्रम के मुद्दे कुछ महीनों में ही एक- दूसरे को ओवरलैप करते दिखते हैं. सबसे तात्कालिक कौन है यह स्पष्ट करना मुशिक्ल हो गया है. साथ ही, यह तय करना भी मुश्किल हो गया है कि आरोपी कौन है और आरोपित कौन? समय-स्थान के साथ आरोप का पद बदलता रहता है. संसद की चहारदीवारियों के भीतर भ्रष्टाचार की अनुगूंज में प्रत्येक राजनीतिक दलों के नेता लंबे-लंबे लबादा ओढ़ कर आते हैं और घोटाले के इस महानाटक में अपनी भूमिका को बेहद सफाई से निभाने का हर संभव प्रयत्न करते हैं. जनता इस नाटक का मज़बूर प्रतिबद्ध दर्शक है.


(लेखक स्वतंत्र पत्रकार है)

संपर्क: मो. - +91 9555045077

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27 नवंबर 2010

दलित उत्पीड़न में निरुत्तर प्रदेश

चन्द्रिका
अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष पी.एल. पुनिया ने उत्तर प्रदेश में बढ़ रहे दलित उत्पीड़न के मामले पर जो चिंता जताई और राज्य सरकार पर दलित उत्पीड़न की अनदेखी के जो आरोप लगाये हैं वह अहम इसलिये हो जाते है कि मायावती के मुख्यमंत्री बनने का आधार, प्रदेश का यही वर्ग रहा है और बहुजन समाज पार्टी की पूरी सियासत इसी पर टिकी हुई है. राज्य के २१ प्रतिशत दलितों में से अधिकांस अपने उत्थान की आस्था मायावती सरकार से लगाये हुए हैं. जबकि अब यह समीकरण थोड़ा बदल गया है और सियासत करने के जिस फार्मूले को सोसल इंजीनियरिंग के नाम से प्रचारित किया गया वह उत्तर प्रदेश में इससे पहले तक काबिज बर्चस्वशाली सवर्ण वर्गों का सिस्टम में अपने पुर्जे फिर से फिट करने का अवसर देना था. सोसल इंजिनीयरिंग ने एक बार फिर से साबित किया कि इस व्यवस्था में विचारधारा और झंडे उतनी अहमियत नहीं रखते, अहमियत जगह और ताकत की है. बहुजन समाज पार्टी के नारे और उनके साथ विम्बित होते विचार भी बदलते गये. कांशीराम के समय जिस वर्ग को वह जूते मार कर ठीक करने की बात करती थी अब उन्ही को इंजीनियरों से ठीक करवा रही है.
पी.एल. पुनिया ने दलितों के उत्पीड़न से जुड़े कुछ तथ्य प्रस्तुत किये तो मायावती सरकार ने पी.एल. पुनिया के आरोपों को खारिज करते हुए भी कुछ तथ्य रखे. अनुसूचित जाति आयोग झूठा हो सकता है, तो राज्य सरकार भी झूठी हो सकती है और वे आंकड़े जो राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो द्वारा प्रस्तुत किये जाते हैं वे भी झूठे हो सकते है. इस संरचना में इन सबकी सम्भावनायें मौजूद हैं. बावजूद इसके राज्य सरकार को खुद के द्वारा एकत्रित किये हुए आंकड़ों में यकीन होना ही चाहिये जो हर साल बढ़ोत्तरी के साथ सामने आ रहे हैं. यदि दलित महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनायें ही देखी जायें तो २००६ में जहाँ २४० थी, वहीं २००७ में ३१८ और २००८ में ३७५ के आंकड़े के साथ बढ़ी हुई हैं. ये वे आंकड़े हैं जिन्हें दर्ज कर लिया गया है सम्भव है यह घटनाओं का न्यून प्रतिशत ही हो.
इसके पहले भी अनुसूचित जाति आयोग की सदस्य व उत्तरप्रदेश प्रभारी सत्या बहन यह जाहिर कर चुकी हैं कि दलित उत्पीड़न के मामले में उत्तर प्रदेश सबसे आगे है यहाँ तक कि बहुजन समाज पार्टी के नेताओं के ऊपर भी दलित महिलाओं के साथ बलात्कार के आरोप लगे हैं. सिर्फ दलित महिलाओं के साथ ही नहीं बल्कि दलित वर्ग के प्रति उत्पीड़न का जो स्वरूप था वह भी अपने पुराने रूप में ही मौजूद है इटावा में सफाईकर्मी राजेन्द्र बाल्मीक के सिर को मुड़वाकर चौराहा बनाना या फिर हमीरपुर के मझोली गाँव में ५ साल की दलित बच्ची के साथ बलात्कार किये जाने की घटनायें भले ही पुरानी पड़ गयी हों पर पुनिया के बयान से ठीक पहले ही आजमगढ़ के कुरहंस गाव में १८ अक्टूबर को संगीता नाम की एक दलित लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार राज्य सरकार द्वारा दी जाने वाली सफाई पर पानी जरूर डाल देती है. जबकि थाने में शिकायत दर्ज करने के लिये पीड़ित पक्ष को बड़ी मसक्कत से एक पूर्व आइ.पी.एस. आधिकारी से सिफारिस करवानी पड़ी. यह एक सच्चाई है कि मायावती के पास कोई ऐसा तरीका नहीं है जिससे ऐसी घटनायें तत्काल संज्ञान में आ सकें और शिकायत दर्ज करने या आरोपियों पर कार्यवाई करने में हस्तकक्षेप कर सकें जबकि जिले व थाने में बैठे जो अधिकारी हैं वे अपनी सवर्ण और महिला विरोधी मानसिकता के तहत ही काम करते हैं. बसपा की सरकार ने दलित समाज निश्चिततौर पर आर्थिक व सुविधाओं के लिहाज से कुछ मोहलतें जरूर दी हैं पर उसके दूसरे आयाम भी हैं जिसका बन्दोबस्त अभी तक नहीं किया जा सका है. अब तक सुविधाओं और दलितों के श्रम को भोगने वाला सवर्ण जब दलितों को उस तौर पर जीहुजूरी करता नहीं पाता जिस तौर पर वे कुछ वर्ष पहले किया करते थे, दलितों के घरों के ईंट और अपने दीवारों के रंग एक होता देखता है तो उसके पास दलितों को अपमानित करने का यही तरीका बचता है जिसमे वह महिलाओं के साथ दुस्कर्म करके सामाजिक रूप से दलित समाज को अवनत करता है.
भौतिक आधार पर राज्य के दलितों में जो उन्नति हुई है उसके बरक्स सरकार के पास कोई ऐसा कार्यक्रम होना चाहिये था जिससे वह समाज में जातीय भेद को कम कर सके. इस तरह के सांस्कृतिक कार्यक्रम नहीं बनाये गये जिससे इस संक्रमण काल को सवर्ण पचा सकें या फिर दलित चेतना इतनी प्रतिरोधी हो सके कि वह मौन या तंत्र के संस्थानों से अलग इन तत्वों से लड़ सके. बसपा. से यह सम्भव इसलिये भी नहीं हो सका क्योंकि वह दलित समाज को चेतनशील करना भी नहीं चाहती सिवाय इसके कि इस समाज के अंदर भी एक छोटा मध्यम वर्ग पनप आये. लिहाजा जब तक सांस्कृतिक तौर पर सामाजिक रूप से वर्चस्वशाली बने आये वर्ग के साथ संघर्ष नहीं किया जायेगा उत्पीड़न के स्वरूप बदलाव के साथ मौजूद रहेंगे. यह बसपा या संसद की संरचना से अलग हटकर ही सम्भव है जिसमे वोट की लालच किये बगैर सामाजिक परिवर्तन के लिये सांस्कृतिक आंदोलन चलाने पड़ेंगे.

14 नवंबर 2010

लवासा का सच


-दिलीप ख़ान

मुंबई और पुणे जैसे चमक-दमक वाले दो बड़े शहरों के बीच छोटी पहाड़ियों और जंगलों से घिरा एक बड़ा भूभाग है, जो प्राकृतिक और जैव विविधता के लिए मशहूर पश्चिमी घाट का हिस्सा है. इस क्षेत्रफल के बीच टुकड़ों में कई छोटे-छोटे गांव बसे हैं. इन्हें किसी शहरीकरण की नियोजित नीति के तहत नहीं बसाया गया हैं. मुंबई और पुणे के मानिंद इन गांवों का भी अपना एक लंबा इतिहास है. लेकिन, इनमें से कई गांव अब वहां के नक्शे से ग़ायब हो गए हैं. कई अपने अस्तित्व बचाने के लिए भीषण जद्दोजहद कर रहे हैं. ऐसे ही 25 गांवों को हटाकर इस इलाके में एक ’हिल सिटी’ लवासा बन रहा है. यदि सब कुछ ’ठीक’ रहा तो साल के अंत में इस परियोजना का पहला चरण बनकर तैयार हो जाएगा, जिसमें एक हज़ार बड़े अट्टालिकाओं और 500 अपार्टमेंट के साथ इसकी संपूर्ण रूप-रेखा की पहली झलकी प्रस्तुत की जाएगी. चार चरणों में इसे विकसित करने वाले मॉडल के अनुसार 2021 में यह अंतिम रूप से बनकर तैयार हो जाएगा. इस तरह इस परियोजना की परास दूरदर्शिता के मामले में विज़न 2020 से भी अधिक आगे तक जाती है!


लवासा परियोजना कोई देसी दिमाग की उपज नहीं हैं. हिंदुस्तान कंस्ट्रक्शन कंपनी की इस परियोजना की मूल रूप-रेखा अमेरिका में खींची गई थी और इस परियोजना की सहूलियत और सफ़लता को परखने के लिए अमेरिका की ही एक सर्वे एजेंसी ए. सी. निल्सन को उत्तरदायित्व सौंपा गया. ध्यान देने वाली बात यह है कि ए सी निल्सन, वास्तव में एक मार्केटिंग रिसर्च फर्म है जो विभिन्न व्यवसायों और बाजार के मौजूदा व्यवहार की जानकारी देने के लिए प्रसिद्ध है. 100 वर्ग किमी में फैले इस पूरे इलाके को इस सर्वे फर्म ने संबंधित परियोजना शुरू करने के लिए उपयुक्त करार दिया. महाराष्ट्र सरकार ने आनन- फानन में इसके लिए बिल पास कर दिया, गोया किसी निज़ी व्यावसायिक कंपनी की मार्केटिंग के लिए लोगों को विस्थापित करने को सरकार बेचैन हो. बाद में इस बेचैनी का कारण अधिक स्पष्ट हुआ जब इसमें शामिल लोगों की जुगलबंदियां साफ़ दिखने लगी. राष्ट्रवादी काँग्रेस पार्टी की भागीदारी वाली सरकार निविदा के नियम-क़ायदों के कारण होने वाली देरी को कम करने के लिए इस व्यवस्था को ही लांघ गई. इस कंपनी के पंजीकरण के दो साल बाद सुप्रिया सुले को इसमें बारह फ़ीसदी शेयर का मालिकाना हक़ हासिल हुआ. इसमें सुप्रिया के पति की हिस्सेदारी अलग है. आरोप यह भी लग रहे हैं कि इसी एवज में कंपनी के पंजीकरण को मंजूरी दी गई थी. इस विवादास्पद बिल के मंजूरी के बाद राजनीतिक हलके में हल्के शोर के अलावा अब तक कोई ठोस दबाव भरा कदम नहीं उठाया गया है. ऐसे में स्थानीय जनता के पास क्या विकल्प बचता है?


परियोजना के सामने कई समस्याएं हैं और उनसे निपटने के लिए राज्य सरकार हरेक मंजूरी देने को तैयार दिखती है. मसलन, लवासा को जिस वारसगांव बांध के पानी के भरोसे विकसित किया जा रहा है, उसके पानी से पुणे के लोग अपनी दिनचर्या का निर्वाह करते हैं और पिछले कुछ वर्षों से पुणे खुद पानी की कमी का संकट झेल रहा है, फिर भी वारसगांव बांध के पानी को लवासा की ओर मोड़ने की अनुमति दे दी गई. लेकिन 11.5 टीएमसी क्षमता वाले इस पूरे वारसगांव के पानी से भी लवासा की ज़रूरत पूरी नहीं होने वाली थी, तो कृष्णा घाटी में बिना किसी ठोस पर्यावरणीय जांच के जल संग्रहण और नए बांध बनाने पर भी सरकार ने सहमति दे दी. यह सहमति जिस समय दी गई उस समय अजीत पवार महाराष्ट्र कृष्णा घाटी विकास निगम के अध्यक्ष थे. अजीत पवार रिश्ते में शरद पवार के भतीजे हैं और सुप्रिया सुले बेटी. इस तरह आपस में वे दोनों चचेरे भाई- बहन हैं. भाई-बहन की घरेलू सांठ-गांठ राजनीतिक फ़ैसले में परिवर्तित हो गई. महाराष्ट्र के राजनीतिक परिदृश्य में हालिया नेतृत्व परिवर्तन के बाद अजीत पवार अब प्रदेश के उपमुख्यमंत्री हो गए हैं. दिलचस्प यह है कि यह नेतृत्व परिवर्तन जिस तात्कालिक मुद्दे को संज्ञान में लेकर किया गया वह आदर्श सोसाइटी का मसला है, जिसमें कई पर्यावरणीय तथा वित्तीय अनियमितताओं के मामले उजागर हुए हैं. आदर्श सोसाइटी सैनिकों के लिए रिहाइशी मकानों की परियोजना है. लवासा भी बड़े अट्टालिकाओं और रिहाइशी मकानों की परियोजना है.



लवासा परियोजना को सफ़ल बनाने के लिए स्थानीय लोगों पर लगातार विस्थापन आरोपित किया गया है. उस पूरी पट्टी में लोग क्रमिक रूप से विस्थापित हो रहे हैं. 1974 में वारसगांव बांध बनाने के लिए जिस ज़मीन का अधिग्रहण किया गया था उसका एक हिस्सा अभी तक पड़ती पड़ा हुआ था, जिसे लवासा पर खरचा जा रहा है. देश में बांध परियोजनाओं के नाम पर अधिग्रहीत की गई ज़मीन की एक लंबी सूची है जिसे किसी दूसरे निज़ी कंपनियों को सौंप दिया गया. नर्मदा बचाओ आंदोलन के मुताबिक नर्मदा घाटी में अधिग्रहीत की गई ज़मीन का लगभग 40 फ़ीसदी पड़ती पड़ा है और उसके कुछ टुकड़ों को किराए पर निज़ी कंपनियों को सौंप दिया गया है. ’कल्याणकारी राज्य’ में स्थानीय जनता की रत्ती भर परवाह किए बग़ैर सरकार ने जिस तरह निज़ी कंपनियों को ज़मीन सौंपा है वह लोकतंत्र की नई परिभाषा गढ रहा है. लोगों को जबरन खाली करा कर ज़मीन अधिग्रहीत करने का एक नतीजा यह है कि पिछले 60 वर्षों में सिर्फ़ बांध के नाम पर 15 करोड़ से अधिक लोगों को देश के नक्शे के भीतर इधर-उधर खदेड़ा गया है.



इन विस्थापनों और अनियमितताओं को अपने भविष्यगत योजानाओं तले ढंकते हुए, योजनाकारों ने लवासा को लेकर बेहद सुनहरी तस्वीर खींच रखा है. यह सही मायनों में ग्लोबल होगी. यहां पर्यटक आएंगे तो डॉलर-यूरो की चरमराहट पहाड़ों में गूजेगी. यहां यूरोप के फुटबॉल क्लबों से लेकर दुनिया के विभिन्न हिस्सों से संबद्ध प्रबंधन विश्वविद्यालयों के शाखाएं खोली जाएगी. यह सच है. सच यह भी है कि यहां के रसोईघर से लेकर संडास तक को अंतरराष्ट्रीय स्तर का बनाया जा रहा है. ठीक कॉमनवेल्थ के खेल गांव की तरह. सच यह भी है कि यह वाकई स्वतंत्र भारत का पहला नियोजित हिल शहर है वैसे ही जैसे नागपुर का मिहान पहला कारगो और हवाई अड्डे का हब है. नागपुर की तरह यहाँ भी 25 गांवों को उजाड़ा गया और यह भी उतना ही बड़ा सच है.



(लेखक स्वतंत्र पत्रकार और मीडिया शोधार्थी है.)



मो. - +91 9555045077


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10 नवंबर 2010

उत्तराखंड में आयोजित "जनता पर युद्ध" के खिलाफ कन्वेंशन




उत्तराखंड (अल्मोड़ा)से हर्ष पाण्डेय द्वारा "जनता पर युद्ध" के खिलाफ कन्वेंशन की भेजी गयी इस लम्बी रिपोर्ट कों बिना काट-छाँट के यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है।

विभिन्न संगठनों की ओर से आयोजित जनता पर युद्ध के खिलाफ कन्वेशन की शुरूआत करते हुए नैनीताल समाचार के सम्पादक राजीव लोचन साह ने सभी अतिथियों का परिचय कराया। अपने सम्बोधन में उन्होंने कहा कि यहा अघोषित आपातकाल की स्थिति बन गई है। जहां जुल्म के खिलाफ आवाज उठाना जुर्म बन गया है और शांतिपूर्वक आन्दोलन कर रहे आन्दोलनकारियों पर बर्बरता की जा रही है। इन्कलाबी मजदूर केन्द्र के खीमानन्द ने कहा कि प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर आदिवासियों को अपना दुश्मन मानकर सरकार उन पर युद्ध थोप रही है तथा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के साथ मिलकर उन्हें उनके अधिकारों से बेदखल कर रही है। देश में जिस तरह से समाजवाद तथा कम्युनिस्ट शब्द को बदनाम कर दिया गया है उससे इसके पीछे का रचा जा रहा षडयन्त्र अब साफ हो रहा है। यह युद्ध केवल आदिवासी इलाकों की क्रान्तिकारी शक्तियों का ही दमन नहीं है अपितु यह पूरे भारत में काम कर रही क्रान्तिकारी शक्तियों का दमन है। इसके खिलाफ एकजुट होकर जन कार्यवाही करने की जरूरत है। जिस तरह से पूंजीवाद संकट की ओर जा रहा है उसका प्रतिवादी होना अपरिहार्य है। इस स्थिति में जनता का दमन बढ़ेगा। जिसके लिये हमें तैयार रहना होगा तथा जनवादी संगठनों, न्याय पसंद लोगों एवं वुद्धिजीवियों को इसका विरोध करना होगा। क्रांति मजदूर वर्ग के नेतृत्व मे होती है और हमें मजदूर वर्ग को संगठित करके देश में व्यवस्था परिवर्तन के संघर्ष को मुकाम तक पहुॅंचाना होगा। राजनैतिक बंदी रिहाई कमेटी के एड0 दीवान धपोला ने कहा कि ग्रीन हंट, सलवा जुडूम का विरोध करने वाले एवं जन सरोकारों से सम्बन्ध रखने वाले लोगांे के प्रति सरकार तथा विपक्ष जो कार्यवाही कर रहा है उसके खिलाफ यह कार्यक्रम एक आवश्यकता है। आज इस तरह के कन्वेन्शन द्वारा अगला रास्ता तैयार किया जाना अत्यन्त आवश्यक है। इस भूमिका को भी हम लोगांे ने ही निभाना है। आज के हालातों के अनुसार लोग इन परिस्थितियों से जी चुरा रहे हैं। वह पैसिव हो रहे हैं। माना की 60 साल का बुजुर्ग कुछ नहीं कर सकता लेकिन वह अन्याय के खिलाफ लड़ रही युवा पीढ़ी को मोरल सपोर्ट तो दे सकता है। हम अप्रत्यक्ष रूप से नई पीढ़ी की मदद कर सकते हैं। लेकिन नहीं। आज जो समाज के लिये काम करता है उसकी दुगर्ति उसके परिवार तथा उसके दोस्तों से ही शुरू हो जाती है। उत्तराखण्ड राज्य यहां की जनता ने बड़ी मेहनत से प्राप्त किया है। लेकिन विगत दस सालों में यहां पुलिस फोर्स की संख्या बढ़ी है आईएएस की संख्या बढ़ी है। बजट का अधिकांश भाग टीए डीए में ही जा रहा है। पहाड़ों में आईटीबीपी एसएएबी के मुख्यालय बन गये लेकिन जनता को मिलने वाली सुविधायें नहीं बढ़ी। कुछ साल पहले संघर्ष करने वाले लोग भी थे तथा उनके मददगार भी थे। लेकिन आज परिस्थितियां इसके विपरीत हैं। हमें यह सोचना चाहिये कि हम किस तरह से सोसिलिस्टों की मदद के लिये आगे आ सकते हैं। आरडीएफ के प्रदेश महासचिव केसर राना ने कहा कि आज समय जिस दौर में है उस दौर में पूरा भारत एक ज्वालामुखी पर बैठा है। देश मंे उत्पीड़न की सीमायें तेज हो रही है। कॉरपोरेट जगत जो चाह रहा है शासक वर्ग वही कर रहा है। छत्तीसगढ़ तथा झारखण्ड इसके जीते जागते उदाहरण हैं। इन इलाकों में वेदान्ता तथा पास्को जैसी कम्पनियों ने आदिवासियों का जीना दूभर कर दिया है। कमीशन पाने के लिये शासक वर्ग कॉरपोरेट जगत की सेवा कर रहा है। यह खनिज प्रदेशों में खास तौर से देखा जा सकता है। जो उनके खिलाफ बोल रहा है उसे देशद्रोही बताया जा रहा है। अभी कुछ दिनों पूर्व कश्मीर मुद्दे पर अरून्धती रॉय ने अपना वकत्व्य जारी किया और तमाम शासक वर्ग के आंखों की किरकिरी बन गई। जो लोग कश्मीर या माओवादियों के समर्थन में बोल रहे हैं उनका रास्ता जेलों की ओर जा रहा है। देश में बेरोजगारी, युवाओं के सवालों को अनदेखा किया जा रहा है। जो लोग बंगाल, छत्तीसगढ़ या झारखण्ड में लड़ रहे हैं उन्होंने लड़ाई को ही जारी नहीं बल्कि लड़ाई के पैमाने को भी बदला है। आज विचारों को भी सेंसर किया जा रहा है। यदि कोई मार्क्स, लेनिन, लोहिया, जेपी, माओ के विचारों को मानता है तो हर किसी को किसी भी विचार को मानने की आजादी होनी चाहिये।
उत्तराखण्ड परिवर्तन पार्टी के गोविन्द लाल वर्मा ने कहा कि मैं तो यह समझता हूॅं कि इस देश की सत्ता गोरी चमड़ी की जगह काली चमड़ी वालों के हाथ में आ गई है। हमें केवल राजनैतिक आजादी मिली सामाजिक नहीं। तमाम लोग मताधिकार का प्रयोग करके शासन तो बनाते हैं लेकिन शासक नहीं हो पाते। वास्तव में सत्ताधारी वह हैं जो अपनी पत्नी को 10 करोड़ की कोठी उपहार में दे सकते हैं या अपने बच्चे के जन्मदिन पर हवाई जहाज खरीद सकते हैं। जिसके दिन में तड़पन आती है वहीं अपना आक्रोश प्रकट कर सकता है। जब जनता के हक हकूकों की बात कहो तो शासक वर्ग कुचलने के लिये आ जाता है। जिस बात के लिये मध्य भारत तथा उत्तर पूर्वी भारत के लोग लड़ रहे हैं वो दमन से और भी अधिक बढे़गा। सोमानाथ सांस्कृतिक संगठन के मोहन सनवाल ने अपनी बात को इस गीत के माध्यम से व्यक्त किया।

भारत देश में घुस गये रे बेईमान, नौजवानों जागो होनौजवानों जागो हो,
बुद्धिमानों जागो होभारत देश में घुस गये रे बेईमान, नौजवानों जागो
झारखण्ड और उड़ीसा, सीआरपीएफ दमन करे लूटती पुलिसा
घर-घर कर दिये तबाह नौजवानों जागो हो
देश में घुस गये रे बेईमान, नौजवान जागो
जंगल की जो बात करेगा, पुलिस फौज के हाथ मरेगा
जनता हो गई परेशान, नौजवान जागो हो
भारत देश में घुस गये रे बेईमान नौजवान जागो
रोजगार, खाना नहीं मिलता, घर घर जा जनता को लूटते
लूट मची है आज, नौजवान जागो हो
भारत देश में घुस गये रे जवान नौजवान जागो हो।
निर्दोषों को पकड़ ले जाते, मुठभेड़ बताकर खुद मार के आते
कुचक्र चलना है आज, नौजवान जागो हो
भारत देश में घुस गये रे बेईमान, नौजवान जागो हो।
खून ए जिगर से धरती के लालों, धरती को लाल बनाने वालों
ले लो लाल सलाम, नौजवान जागो हो
भारत देश में घुस गये रे बेईमान, नौजवान जागो हो।

परिवर्तनकामी छात्र संगठन के कमलेश ने कहा कि जनता के खिलाफ सरकार पिछले कई सालों से सरकार आदिवासी इलाकों में चला रही है। सरकार के लिये यह विकास के लिये आवश्यक कत्लेआम है। पूंजीपतियों को फर्क नहीं पड़ता कि उनके लिये कितना कत्लेआम हो रहा है। यह उनके लिये कोई अनोखी चीज नहीं है। हम लोगों को समझना होगा कि यह झारखण्ड, उड़ीसा या छत्तीसगढ़ नहीं बल्कि पूरे भारत की मेहनतकश जनता पर थोपा गया युद्ध है। सरकारों ने यह साफ कर दिया है कि वह अमेरिका में बैठे अपने रिश्तेदारों के लिये किसी भी हद तक जा सकते हैं। लेकिन इसका व्यापक प्रतिरोध नहीं हो रहा है। अगर इस बडे़ युद्ध को रोकना है तो श्रम को संगठित करना होगा। तभी हम विकास के उस मॉडल की ओर बढ़ पायेंगे जहां मजदूर विकास का प्रणेता होगा। रचनात्मक शिक्षक मण्डल की केन्द्रीय कार्यकारिणी के सदस्य डा0 कपिलेश भोज ने कहा कि आज हम जिस दौर में ऑपरेशन ग्रीन हंट की बात कर रहे हैं उसे हमें व्यापक पहलू के स्तर तक समझना होगा। उन्होंने कहा कि 1947 में सत्ता हस्तान्तरण के बाद लूट का नया आयोजन हुआ। हम 1947 को पूंजीवाद के नये चरण के रूप में देख सकते हैं। लेकिन दुनिया में कभी ऐसा नहीं हुआ है कि श्रमिकों के दमन का विकल्प न सोचा गया हो। सर्वप्रथम कार्लमार्क्स ने बताया कि पूंजीवाद का उपचार क्या है। दुनिया में कोई आदमी ऐसा नहीं है जो अच्छी जिन्दगी न चाहता हो लेकिन ऐसा नहीं होता। पूंजीवाद का जो विश्लेषण कार्लमार्क्स ने किया वह आपने आप में एक विज्ञान है। वो मुक्तिदायी सिद्धान्त है जो लेनिन ने रूस में और माओ ने चीन में लागू किया। हिन्दुस्तान का जो वर्ग तकलीफों से जूझ रहा है वो अपने अन्तरविरोधों से भी जूझ रहा है। हमें यह देखना होगा कि जनता की बात करने वाली क्या कोई पार्टी मजबूत हो रही है या नहीं। किसी भी देश में जब दमन या उत्पीड़न होता है तो शासक वर्ग जनता की चेतना को शून्य करने का काम करता है। वही हिन्दुस्तान का शासक वर्ग भी कर रहा है। वर्तमान शिक्षा का ढांचा विद्यार्थियों को व्यक्तिवादी तथा भयग्रस्त बना रहा है। नशाखोरी से युवा वर्ग को नशेड़ी बनाया जा रहा है। जहां भी बदलाव आता है सबसे पहले वहां के शिक्षक, विद्यार्थी तथा वुद्धिजीवी अग्रणी भूमिका में होते हैं। वरिष्ठ कवि नीलाभ ने कहा कि जिस तरह की घटनायें हो रही हैं उनमें शान्त रह पाना असम्भव है। उन्होंने कहा कि मैं देश नहीं जानता, मैं लगातार सोचता हूॅं की देश क्या है। चंडीदास ने कहा है कि अगर कोई सत्य है तो वह मानुष सत्य है। लेकिन आज मानव ही मानव का दमन कर रहा है। कोई भी जनता अपना हक चाहती है। जनता जिस तरह से जीना चाहती है वह उसका अधिकार है। कश्मीर की जनता यदि चाहती है कि वह अपने ढंग से जिये तो ये अधिकार उसे क्यों नहीं मिलता ये सोच के परेशानी होती है। क्या आप लोगों ने उत्तराखण्ड इसलिये बनाया कि बिल्डर यहां आकर इसे लूटें। क्या हमने हत्यायें करने वाले लोग तैयार करने के लिये उत्तराखण्ड बनाया। अभी हम 94 किमी0 की यात्रा करके यहां पहुॅंचे हैं तो हमने देखा की पहाड़ जगह जगह से टूट गया है। जनता पर युद्ध कबसे शुरू हुआ। बिरसा मुण्डा भी जनता के युद्ध में शामिल था, भगत सिंह भी जनता के लिये लड़ा। हमारी दोस्त अरून्धती रॉय कहती है कि जिनका विकास हो रहा है उनसे पूछो। अगर गौर से अपने चारों और दिखेगा तो आपको विस्थापन दिखेगा जो युद्ध की पहली निशानी है। पंजाब, बिहार में धरपकड़ शुरू हुई है अब यहां भी होगी। पूर्वाेत्तर में केरल की फौज, उड़ीसा में पंजाब की फौज तथा झारखण्ड में और कहीं की फौज भेजकर अपने को अपनों के खिलाफ लड़ाया जा रहा है। और यह क्या नाम रखे गये हैं।
चक्कर खनिजों का है झारखण्ड और आसपास के इलाकों में 4 ट्रिलियन बाक्साइट है। जिससे एक टन एल्यूमिनियम बनाने के लिये 1टन पानी, बेशुमार बिजली तथा बिजली के लिये बांध बनाने की आवश्यकता पडे़गी। जिससे बाद में हथियार बनायें जायेंगे। अब हमें तय करना है कि क्या हम सिर्फ हथियारों के लिये यह कीमत चुकायेंगे। भगवान ना करे कल अगर उत्तराखण्ड में भी कोई खनिज निकल आयेगा तो यहां भी यह सब शुरू हो जायेगा। पी चिदम्बरम गृह मंत्री बनने से पहले वेदान्ता का स्लीपिंग डायरेक्टर था। वो साल में केवल दो मीटिंग अटैण्ड करता था जिसके लिये उसे 28 लाख रूपये मिलते थे। गृहमंत्री बनने के बाद उसने इस्तीफा दे दिया। जो लोग सोचते हैं कि जनता को ज्यादा समय तक मूर्ख बनाया जा सकता है तो वे सबसे बडे़ मूर्ख हैं। पंजाब तथा देश के अन्य हरित क्रांति वाले राज्यों में किसानों ने आत्महत्यायें की हैं। चिदम्बरम तो यह भी कहता है कि देश की 85 प्रतिशत जनसंख्या शहरों में आ जाये। अब कोई तुक तर्क ताल नहीं रह गया है। मुझे याद है शराब माफियाओं का विरोध कर रहे पत्रकार उमेश डोबाल की हत्या हुई थी। लेकिन शराब माफिया आज भी सक्रिय है। इलाहाबाद की सामाजिक कार्यकर्ता सीमा काफी समय से रिमांड पर चल रही है। उसे हर 15 दिन की रिमांड समाप्त होने के बाद फिर रिमांड पर ले लिया जाता है। उसका पति विश्व विजय भी गिरफतार कर लिया गया। कॉमरेड आजाद, हेम पांडे की हत्या कर दी गई। इलाहाबाद में अब कोई सीमा का नाम नहीं लेता हो सकता है यहां भी कोई प्रशान्त राही का नाम न लेता हो। अब तो सरकार ने जनता के लिये आन्दोलन करने वालों के खिलाफ प्रचार भी शुरू कर दिया है। वे कहते हैं कि माओवादी हर साल 15 हजार करोड़ रूपये की वसूली कर रहे हैं। तमाम समाचार पत्रों के माध्यम से प्रचार किया जा रहा है। जो विद्रोह कर रहा है वह राजद्रोही बताया जा रहा है। मैं तो कहता हूॅं कि यह राजपत्रित आतंकवाद है। आपको एक वर्दी मिली है एक बंदूक मिली है और बस गोलियां बरसा रहे हैं। आज इंटरनेट से राई रत्ती जान सकते हैं। बीते दिनों होंडा कम्पनी के मजदूरों पर लाठीचार्ज हुआ। अब यह आग फूट रही है लेकिन मजदूर अभी एक सूत्र में नहीं हैं। मित्तल, जिंदल, टाटा सभी आपस में लड़ रहे हैं। लेकिन जब जनता की बात आती है तो ये सब एक हो जाते हैं। तो यह बहुत जरूरी है कि हम भी एक सूत्र में रहे। वो एक दो चार को मार सकते हैं। पचास सौ को बंद करा सकते हैं। लेकिन पूरे देश की आबादी को नहीं। इसलिये अब वे तरह तरह के हथकंडे अपना रहे हैं। युद्ध में सब होता है और यह युद्ध है। लोग अब यह बात जान रहे हैं। वो जानना चाहते हैं ऐसा कौन सा रास्ता है जिससे विकास का रास्ता निकल सकता है।उत्तराखण्ड वन पंचायत सरपंच संगठन के गोविन्द सिंह मेहरा ने अपनी बातों को अपने चुटीले अंदाज में कहते हुए कहा कि हमने लूटतंत्र को लोकतंत्र मान लिया है। सरकार कह रही है हम पानी बचाने के लिये गांव गांव में नदियों पर चैक डैम बना रहे हैं। उसे सरकार की उपलब्धि बताया जा रहा है लेकिन चैक डैम गांव वाले अपने अपने घराट चलाने के लिये कई वर्षाें से बना रहे हैं। सरकार ने हमारी जल संस्कृति को नल संस्कृति तथा वन संस्कृति को धन संस्कृति में बदल दिया है। पेड़ लगाने के नाम पर पैसे लिये जा रहे हैं। हमें यह देखना होगा कि हम इन 10 सालों में कहां पहुॅंच गये हैं। जिन खेतों में कभी गेंहूॅं, धान होते थे आज वो भूमि कंकरीट के जंगल से पटी चुकी है। जल, जंगल और जमीन से जनता के अधिकार समाप्त कर दिये गये हैं।क्रान्तिकारी लोक अधिकार संगठन के पीआर आर्या ने कहा कि भारत का पूंजीपति वर्ग जनता का दमन कर रहा है तथा जनता के लिये लड़ने वाले लोगों को राक्षस तथा अलगाववादी बताकर उन्हें भटका रहा है। अब देश के एक कोने से दूसरे कोने तक यह युद्ध फैल रहा है और पुलिस दमन लगातार बढ़ता जा रहा है। लेकिन हमें यह देखना है कि जो हो रहा है क्या जनता उसका प्रतिकार कर रही है। क्या हमारा नेतृत्व जनता को गोलबंद कर सकता है या नहीं। हम शासक वर्ग को तानाशाह कह सकते हैं गालियां दे सकते हैं लेकिन हमें अपनी कमजोरियां नहीं दिखती। हमारे देश में एक टोकरा भर के क्रान्तिकारी दल हैं लेकिन हम एक दूसरे की बात नहीं सुनते। यह टटपूंजियां संकीर्णता क्यों आती है। क्या यह किसी की निजी ठेकेदारी है। हमें सबसे पहले अपनी कमजोरियां तलाशनी चाहिये। शासक वर्ग इतना बदहवास हो गया है कि वह आन्दोलन कर रही जनता पर बर्बरतापूर्वक लाठीचार्ज करवा रहा है। लेकिन वह यह नहीं जानता कि वह अनजाने में जनता को लाठी उठाना सीखा रहा है। जवाहर लाल नेहरू तथा मनमोहन सिंह को खड़ा कर देखिये। दोनों का बौनापन आपको दिख जायेगा। हमारी देश के जो संचालन केन्द्र हैं व्यापारिक केन्द्र हैं वहां क्रान्तिकारी नहीं हैं। हमें इन केन्द्रों पर भी सक्रियता बढ़ानी होगी। एक सच्चे योद्धा और मेहनतकश के रूप में हमारी जिम्मेदारी क्या है। हमें जनता को एक सूत्र मंे पिरोना होगा। देश में 40 करोड़ मजदूर हैं। जिन्हें हमें एक सूत्र में पिरोना होगा। पंूजीपतियों ने पहला हमला मजदूर पर ही क्यों किया। क्यों कि वे जानते थे कि मजदूर वर्ग संगठित हो सकता है। मजदूरों के बाद दूसरा हमला किसानों पर हुआ। सिंगूर, कलिंगनगर में जनता लड़ रही है। जो नाभि क्षेत्र है जो संचालन केन्द्र हैं वहां हमारी पकड़ कमजोर है। हमें नये नये संचालन केन्द्रों पर अपनी पकड़ मजबूत बनानी होगी। क्यों कि क्रान्तिकारी बरगद की पूजा नहीं करता वह नये भ्रूण को सींचता है।राजनैतिक बंदी रिहाई कमेटी के पान सिंह ने कहा कि समाज के मजदूर वर्ग के बीच काम किये जाने कि जरूरत है। उड़ीसा, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ में दमन किया जा रहा है लेकिन भ्रूण रूप में ही सही जनता की सत्ता का काम चल रहा है। उन्होंने दिखा दिया है कि जनता कभी याचक नहीं होती। लेकिन सरकार की इस भ्रूण को कुचलना चाहती है। उत्तराखण्ड में भी जब जब विकल्प की बात आई है दमन शुरू हुआ है। ग्रीन हंट के खिलाफ जनता की लड़ाई पूरे देश में चल रही है। राज्य में आपदा के समय जनता को देने के लिये जमीन नहीं है लेकिन टाटा, मित्तल को प्रदेश में उद्योग लगाने के लिये आमंत्रित किया जा रहा है। आरडीएफ के केन्द्रीय महासचिव राजकिशोर ने कहा कि आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक व्यवस्था यदि अन्यायपूर्ण है तो वह जनता पर युद्ध है। ब्रिटिशकाल से ही यह ढांचा ऐसा खड़ा किया गया है जो जनता पर युद्ध है। भूमण्डलीकरण उदारीकरण के फलस्वरूप शोषण का विस्तार हो रहा है। भूमि का विकेन्द्रीकरण से केन्द्रीकरण हुआ है। जनता का प्रतिरोध भी बढ़ रहा है। आज नक्सलबाड़ी का आन्दोलन 22 राज्यों में फैल गया है। जो आन्दोलन नक्सलबाड़ी से शुरू हुआ वह माओवाद के रूप में फैल रहा है। जिसे विरोधी शक्तियां आतंकवाद, बलात्कारी कह कर प्रचारित कर रही हैं ताकि जनता उनसे घृणा करे। यह जनता पर मनोवैज्ञानिक हमला है। आज सैकड़ों लोगों को फांसी की सजा सुनाई जा रही है कई लोगों को बिना मुकदमे के गिरफतार किया जा रहा है। जहां पर प्रतिरोध हो रहा है वहां लोगों पर न्यायिक एवं कानूनी हमला किया जा रहा है। आज की तारीख में प्रतिवर्ष दो लाख महिलायें प्रसव के दौरान दम तोड़ देती हैं 5 लाख बच्चे प्रतिवर्ष कुपोषण का शिकार हो रहे हैं। हरित क्रांति का नारा देकर नाटक किया जा रहा है। आज हरित क्रांति वाले राज्यांे में ही किसान आत्महत्यायें कर रहे हैं। हजारों लोग बाढ, सूखे की चपेट में आने से मर रहे हैं। क्या आज किसी भी दफतर में बिना पैसे के काम होते हैं। चुनाव की राजनीति हो रही है। जनता का अधिकार तभी तक है जब तक वह वोट नहीं देती। नक्सलबाड़ी का आन्देालन तब शुरू हुआ जब किसान जमींदारों से भूमि प्राप्त करने के लिये लड़े। 1947 के बाद भी ब्रिटिश सामाजिक, आर्थिक, ढांचा हम पर थोपा गया। नक्सलबाड़ी में जमीन के लिये लड़ाई लड़ी गई। लेकिन आज सरकार फौज के द्वारा हमारी जमीन, जंगल, नदियां बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को सौंप रही है। उसके बाद हमारे खनिजों से माल तैयार कर हमें ही बेचा जा रहा है। सरकार कहती है हम विकास कर रहे हैं। लेकिन असल में माओवादी देश के इतिहास को समझते हैं। माओवादियों पर तोहमत लगाई जाती है कि ये हिंसा करते हैं। लेकिन वेा चाहते हैं उत्पादन प्रक्रिया बदली जाये। लेकिन कभी भी शासक वर्ग इस व्यवस्था को बदलने के लिय तैयार नहीं हुआ। अगर हम विदेशों को समृद्ध बनायेंगे तो खुद कंगाल हो जायेंगे। हम वो माल बना रहे हैं जो अमेरिका को पसंद है। सरकार खेत के विकास का साधन नहीं दे सकी और कहती है विकास कर रहे हैं। हमारा कभी भी स्वतंत्र और आर्थिक विकास नहीं हुआ है। उन्हांेने कहा कि संसदीय धारा में लाल झंडे वाले जो लेाग चले गये हैं वो कभी भी कम्यूनिस्ट नहीं कहलाये जायेंगे। लोकतंत्र का पालन फौज भेजकर नहीं किया जा सकता। किसान मजदूरों की शक्ति प्रबल शक्ति है। हमें शासक वर्ग के खिलाफ असहमति तथा असहमत लोगों को एकजुट करना होगा और विरोध की राजनीति को संगठित करना होगा। जनता को मनोवैज्ञानिक ढंग से गुमराह करने की साजिश के खिलाफ समानान्तर आन्दोलन चलाना होगा। अन्यायपूर्ण नीतियों और संसदीय लूट के खिलाफ अपनी ताकत को एक करना होगा। लालगढ़ के 1200 गांवों में जनता की कमेटी कायम है। वो लोग बैठकर सोचते हैं कि गांवों का विकास कैसे होगा। चाहे सड़क का प्रबंध करना है या स्कूल का प्रबंध करना है या चिकित्सालय का प्रबंध करना है। हमारे देश में खेत में काम करने वालों को अकुशल मजदूर कहा जाता है। आज देश में खेती का विकास नहीं हो रहा है। अगर हम देश का विकास करना चाहते हैं तो हमें उस विकास नीति को अपनाना होगा जो जनता का विकास करे। हमें संसदीय प्रणाली की लूट के खिलाफ एकता पैदा करनी होगी। तब जाकर हम जनता पर जो युद्ध चल रहा है उसे ध्वस्त कर सकते हैं। कन्वेन्शन के मुख्य वक्ता पूर्व आईएएस बीडी शर्मा ने कहा कि माओवाद का जो हव्वा फैलाया जा रहा है वह कुछ भी नहीं है। दरअसल बात वहां के प्राकृतिक संसाधनों को बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को बेचने के लिये रचे जा रहे षडयन्त्र के खिलाफ आन्दोलित माओवादियों का दमन करने की है। बस्तर में आयरन इंडस्ट्री स्थापित करने के लिये मात्र 6 आदिवासी परिवारों को विस्थापित किया गया। जबकि वहां लाखों लोग निवास करते हैं। इसका कारण यह था कि वहां केवल 6 परिवारों के ही मतदाता पहचान पत्र बने थे। प्राकृतिक संसाधन पहले से ही जनता के थे तो इन पर सरकार का हक कैसे हो गया। जो गलती हिटलर ने की वहीं यहां की सरकार भी कर रही है। हिटलर ने अनेक युद्ध जीते पर सोवियत रूस से नहीं जीत सका। क्यों कि वहां उसकी लड़ाई समाज से थी। यहीं गलती यहां भी दोहराई जा रही है। छत्तीसगढ, झारखण्ड, बंगाल, उड़ीसा में सरकार समाज से लड़ रही है। राज्य की शक्ति कभी भी समाज की शक्ति पर हावी नहीं हो सकती। आदिवासी कभी भी अंग्रेजों के गुलाम नहीं रहे। आदिवासी क्षेत्रों में आजादी से पहले जनता का ही अधिकार था। अंग्रेजों के आगमन के बाद धीरे-धीरे राज्य ने उन पर नियंत्रण करने की कोशिश की। आदिवासी सदियों से अपने बारे में खुद तय करते आ रहे हैं। संविधान लागू होने का दिन आदिवासियों के लिये अंधेरी रात था। आदिवासी अपने झगड़े स्वयं निपटाते हैं। पुलिस तक बहुत कम मामले आते हैं। संविधान के लागू होने के बाद हमारे सभी अधिकार छिन लिये गये। मैं तो कहता हूॅं ग्रामीण भारत को जानबूझकर खत्म किया जा रहा है। यहां तक की मनरेगा में तक किसानों को अकुशल मजदूर बताया गया है। वरिष्ठ पत्रकार पीसी जोशी ने सारे वक्ताओं की बातों को विस्तार से रखा। उन्होंने कहा कि युवा पीढ़ी को सरकार द्वारा चलाये जा रहे दमन के खिलाफ आवाज उठानी होगी। हम सभी जनपक्षीय ताकतों को एक होना होगा। उत्तराखण्ड लोकवाहिनी के केन्द्रीय अध्यक्ष डा0 शमशेर सिंह बिष्ट ने कार्यक्रम का समापन करते हुए कहा कि जनता पर तरह तरह के जुल्म ढ़ाये जा रहे हैं। टिहरी बांध का पानी 832 मीटर तक बढ़ा दिया जाता है। यह भी जनता पर थोपा जा रहा एक युद्ध ही है। हमें इसे भी समझना होगा। हमने जनता को एकजुट करना होगा। क्यों कि चिपको आन्दोलन, नशा नहीं रोजगार दो आन्दोलन, वन आन्दोलन सहित सभी आन्दोलनों का नेतृत्व जनता ने किया किसी राजनैतिक दल ने नहीं। उन्होंने इस बात पर जोर देते हुए कहा कि माओवादी सबसे बडे़ देश भक्त हैं और अपनी जिन्दगी अपना कैरियर अपना परिवार को त्याग करते हुए जनता के बीच में जाकर उनका नेतृत्व कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि आज न्यायप्रिय एवं जनवाद पसन्द लोगों को एकमंच पर लाने की जरूरत है।

02 नवंबर 2010

छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा ज़िले में

दिलीप
छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा ज़िले में 40 से अधिक आदिवासियों के पेचिस और कुछ अन्य पेट संबंधी बीमारियों से मारे जाने की ख़बर है.
कुछ महीने पहले इसी ज़िले के तारमेटला नामक जगह पर पच्चीस से अधिक लोग गंदा पानी पीने से उपजी बीमारी का शिकार हुए थे.
गांव में चूंकि एक भी बोरवेल चालू स्थिति में नहीं था सो लोग जगह-जगह जमा हुए गंदा पानी पीकर अपनी प्यास बुझाते थे. दोनों मौकों पर पीड़ित लोगों ने बीमार होने के दो-तीन दिनों के अंदर ही दम तोड़ दिया. चूंकि ज़िले में डॉक्टर की संख्या देश में प्रति व्यक्ति डॉक्टर की उपलब्धता से बेहद कम है और जो डॉक्टर सरकारी अस्पतालों में इलाज करने के लिए मौजूद हैं वे सिर्फ़ शहरी इलाके में ही रहना चाहते हैं, इसलिए बीमार पड़ने पर लोगों को आयुर्वेदिक इलाज के अलावा कोई और मज़बूत विकल्प नज़र नहीं आया. आयुर्वेदिक इलाज तत्काल प्रभाव डालने में असमर्थ साबित हुईं और लोग कालकवलित हो गए. इस पूरी पट्टी में ग्रामीण क्षेत्र के स्वास्थ्य केंद्रों में से अधिकांश या तो जीर्ण-शीर्ण हैं या फ़िर बिना डॉक्टर के ही चल रहे हैं.

पानी जैसे बेहद बुनियादी ज़रूरत को लोगों तक पहुंचाने के बजाए सरकार छत्तीसगढ़ के दक्षिणी हिस्से में विकास के नाम पर बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए चार लेन की सड़क बनाने में और खनन फ़ैक्ट्रियॉ खोलने देने के लिए इन कंपनियों को ज़मीन उपलब्ध करवाने में मशगूल हैं. सरकार इस भूगोल में ’क्षेत्र का विकास’ चाहती है और यहां के लोगों के विकास को वह ’क्षेत्र के विकास’ में समाहित मान रही है. मसलन कारखाना खोलना प्राथमिक है क्योंकि कारखाने से ’क्षेत्र का विकास’ होगा और कारखाना खोलने में अगर कोई परेशानी हो रही है तो सरकार द्वितीयक तौर पर यह तर्क देगी कि इससे नज़दीक के लोगों को रोजगार मिलेगा और अंततः इससे स्थानीय लोगों का ही विकास होगा. यह अर्थशास्त्र के ’ट्रिकल डाऊन थ्येरी’ का छत्तीसगढ़ी प्रयोग है जिसमें कहा गया है कि विकास रिस-रिस कर लोगों तक पहुंच ही जाती है. इसे ऐसे समझा जा सकता है कि अर्थव्यवस्था में एक व्यक्ति के धनी होने से पूरी अर्थव्यवस्था का भला होना तय है, क्योंकि अगर कोई व्यक्ति अमीर होता है तो निश्चित तौर पर वह माली रखेगा, ड्राईवर रखेगा या सेक्रेटरी रखेगा. इस तरह विकास तो अंततः उस अमीर व्यक्ति के जरिए माली और ड्राईवर तक पहुंच ही गया. इसी तरह कारखाना लगने से लोग स्वतः ही विकसित हो जाएंगे. सरगुजा में लौह-अयस्क को पानी के जरिए जापान भेजने के क्रम में वहां का ’विकास’ इस तरह हो रहा है कि स्थानीय लोग पानी की भीषण समस्या की चपेट में आ गए हैं. पानी के ज़्यादातर स्रोत सूख गए हैं और लोग संकट में मज़बूर होकर गंदा पानी पीते हैं. इस प्रक्रिया में उपलब्ध कराए गए रोजगार और पानी के कारण लोगों की मौत की अगर एक साथ तुलना की जाए तो तस्वीर ज़्यादा साफ़ हो जाएगी कि विकास के नाम पर विकसित कौन हो रहा है? मनमोहनी अर्थव्यवस्था में जीडीपी का बढ़ना ही संपूर्ण विकास का परिचायक हो गया है. उदारीकरण के बाद यह प्रत्येक सरकार की नीति में शामिल रहा है कि विकास के नाम पर मोटे आंकड़े में लोगों को उलझा देना है. राजग सरकार में प्रति सप्ताह यह दर्शाया जाता था कि विदेशी मुद्रा भंडार में देश ने कितनी बढोत्तरी की और कितने नए भारतीय करोड़पति की नई सूची में शामिल हुए. इस समय विश्व स्वास्थ्य संगठन के हवाले से यह दावा किया जा रहा है कि देश में 88 फ़ीसदी लोगों को स्वच्छ पेय जल की सुविधा उपलब्ध है. क्या इस आंकड़े पर भरोसा किया जा सकता है जब राजधानी दिल्ली में स्वच्छ पेय जल के लिए आए दिन प्रदर्शन हो रहे हों और जब क्रमिक रूप से मुंबई के सभी इलाके में सप्ताह में एक दिन पानी बंद करने की नीति अपनाई जा रही हो? अगर सरकारी दावे को सच मान लिया जाए जो तस्वीर अधिक विद्रूप हो जाती है . इसका मतलब यह हुआ कि अनेक ऐसी जगह, जहां पानी के कारण लोगों के आए दिन मरने की ख़बर आती रहती है वह बाकी बचे बारह प्रतिशत के दायरे में आती है. और लगातार ऐसी ख़बर आने के बावजूद सरकार इन इलाकों में पेय जल की सुविधा उपलब्ध कराने के प्रति निर्मम रूप से उदासीन है. इस उदासीनता की क्या वजह हो सकती है?

हाल के वर्षों में कई बहुराष्ट्रीय कंपनियों को लेकर छत्तीसगढ़ के इस भाग में माओवादियों के अलावा बड़ी संख्या में अन्य जनसंगठनों ने इसे स्थानीय लोगों के सामाजिक-सांस्कृतिक विकास के हिसाब से अनुपयुक्त दिया और इसका विरोध किया. इस विरोध को मास मीडिया के जरिए सत्ता तंत्र ने विकास विरोधी क़ौम की देश विरोधी हरक़त साबित करने का हरसंभव कोशिश की है. इस प्रचार को तथ्य के रूप में स्थापित करने की मुहिम लगातार जारी है कि माओवादियों के कारण ’अन्य आम लोगों’ का विकास बाधित हो रहा है और माओवादियों की नीति सरकार द्वारा शुरू किए गए किसी भी परियोजना को ध्वस्त करना हैं, इसलिए ’विकास’ वहाँ तक पहुँच नहीं पाता. इस दृष्टिकोण से उठने वाली बात को कि, स्थानीय लोगों की ज़रूरतों के हिसाब से सामाजिक-आर्थिक विकास नहीं होने से ही इस विचारधारा को अधिक विस्तार मिला है, बार-बार यह कह कर ढंकने का प्रयास किया जाता है कि सरकार वहां के लोगों को समाज की ’मुख्यधारा’ से जोड़ने की कोशिश कर रही है. ऐसे क्षेत्रों में अनेक ऑपरेशनों के जरिए माओवादियों के सफ़ाई का अभियान सेना ने चला रखा है. ऐसे ऑपरेशन में माओवादियों को घेरने और आत्मसमर्पण करने के लिए तमाम अमानवीय तरीकों का भी इस्तेमाल किया जाता है जिसमें सरकार का जोर नहीं चल पाता कि ऐसे किसी तरीके से ’आम लोग’ प्रभावित न हो. लालगढ़ में हुए सैन्य ऑपरेशन में इस आशय की ख़बर भी आई थी कि सीआरपीएफ़ के जवानों ने माओवादियों को कमज़ोर करने के लिए पीने के पानी को दूषित कर दिया और कई कुंओं में मलमूत्र तक त्याग कर पानी को ऐसा बना दिया गया कि वह पीने लायक न रह पाए. ऐसी स्थिति में सरकार क्या ऐसे लोगों को, जो माओवादी विचारधारा में यक़ीन नहीं रखते, लेकिन उस क्षेत्र में रहते हैं, स्वच्छ पानी उपलब्ध करवाई थी? तारमेटला में लोग साफ़ पानी नहीं मिलने के कारण मरते गए और सरकार सतर्क नहीं हुई. अब कुछ और लोग मरे हैं तो सरकार से क्या उम्मीद की जाए? जनस्वास्थ्य के प्रति सरकारी चिंता कितनी गंभीर है?
एक तरफ़ जहां यह बताया जा रहा है कि इस इलाके में डॉक्टर नहीं आना चाहते, वहीं आदिवासियों की चिकीत्सकीय सेवा के लिए छत्तीसगढ़ में लंबे समय से सक्रिय डॉ. बिनायक सेन को पुलिस ने माओवादी समर्थक बताकर दो साल तक जेल में बंद रखा. जनता दोनों तरफ़ से पिस रही है. साधारण तौर पर इस क्षेत्र में डॉक्टरों, सरकारी नुमाइंदों और कर्मचारियों के लिए नियमित काम पर न जाने के पक्ष में एक-सा रटा-रटाया जवाब होता है कि माओवादी उपद्रवियों से बचने के लिए वे ऐसा करते है. बचने का मतलब जान बचाने से है. लेकिन अभी तक आंकड़ों के हवाले से इस बात की पुष्टि नहीं हो पाई है कि माओवादी सिविल सरकारी कर्मचारियों और डॉक्टरों को जान से मारते हैं. सरकारी प्रचार तंत्र के जरिए सरकार जो बात लोगों के बीच स्थापित करना चाहती है, डॉक्टरों की ऐसी घोषणाओं से उसे बल मिलता है. अधिकांश मौकों पर समस्याओं पर बात करते समय सरकारी मशीनरी समस्याओं को आंकड़ों के रूप में प्रदर्शित करने की मांग करती है. व्यक्तियों के दुःख-दर्द को वह जीडीपी और आर्थिक वृद्धि दर के आंकड़ों तले दबाकर मानने से इंकार करती रहती है, लेकिन जब बस्तर और इर्द-गिर्द के क्षेत्रों में माओवादियों द्वारा किसी सिविल अधिकारियों के मारे जाने संबंधी आंकड़े प्रदर्शित करने को कहा जाता है तो राजकीय शासन तंत्र कुछ सरकारी कर्मचारियों की ऐसी बातों को ’लोकप्रिय जनभावना’ के तहत देखने का आग्रह इस भाव से करती है गोया आंकड़ा कोई तुच्छ चीज़ हो. इस तरह, डॉक्टरों और कर्मचारियों की बातें सरकारी बातों का नागरिक तर्जुमा बन कर सामने आती है. अब स्थिति ऐसी बनती है कि नागरिकों के अलग-अलग तबके स्थानीय विकास के मुद्दे पर पहले आपस में फ़ैसला कर लें कि आख़िरकार वास्तविक समस्या क्या है? नागरिकों के ऐसे समूह के विचार, जो राज्य के विचार से मेल खाते है, उसे वर्चस्वशाली और प्रमुख बनाकर पूरे समाज के सामने प्रस्तुत किया जाता है.
माओवादियों को कारण बताते हुए सरकार ने यह कहा है कि बस्तर के अधिकांश इलाकों में मौजूदा राउंड की जनगणना नहीं चलाई जा सकती. जनगणना नहीं होने से भूख और पानी से मरने वाले लोगों और कंपनियों के लिए विस्थापित होने वाले लोगों के वास्तविक संख्या की जानकारी भी ठीक-ठीक नहीं हो पाएगी. यह कई दस्तावेजों में दर्ज होने से बच जाएगी और सरकार का विकास काग़ज़ पर फ़र्राटा दौड़ेगा. ’सरकारी लोकतंत्र’ में विकास के लोकप्रिय सूचकांक को उन्नत करने के लिए मौजूदा राज्य सरकार ने अपने पड़ोसी राज्य से पर्यावरण और आदिवासी क्षेत्रों से संबंधित क़ानूनों के उल्लंघन के कारण भगाए गए कुख्यात खनन कंपनी वेदांता को लगभग उतने ही उदार होकर खनन करने की अनुमति प्रदान की है, जितने में उसे ओडिसा से भगाया गया था और जिसके बाद ओडिसा के मुख्यमंत्री का भाव कुछ ऐसा था कि उनके राज्य से स्वयं विकास देवता भाग रहे हो. पिछले दिनों मुख्यमंत्री रमण सिंह पर निशाना साधते हुए पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने वैसे ही सवाल उठाए जिसे आमतौर पर माओवादियों और जनसंगठनों के एरिया का माना जाता है. जोगी ने रमण सिंह पर यह आरोप लगाया कि वह राज्य में कोयला, लौह-अयस्क सहित अन्य खनिज पट्टों के आवंटन में अनियमितता बरत रहे हैं और वे आनन-फ़ानन में कंपनियों के साथ एमओयू साइन कर रहे हैं. जाहिर है ऐसे मुद्दों को उठाने वाले अनेक जनसंगठनों को अलग-अलग राज्यों ने ’विकास विरोधी’ नामक विशेषण दे रखा है. गुजरात में नरेंद्र मोदी ने अपने चुनाव भाषणों में कई बार यह दोहराया था कि लोगों को मेधा पाटेकर चाहिए या विकास? अभी-अभी महिला सशक्तिकरण और पंच-सरपंच सम्मेलन में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री ने नर्मदा बचाओ आंदोलन को विकास विरोधी करार दिया. क्या रमण सिंह कांग्रेस को विकास विरोधी के रूप में प्रचारित कर सकते हैं? जाहिर है संसदीय लोकतंत्र की बड़ी पार्टियां आपस में विरोध को उसी स्तर तक ले जाते हैं जहां तक वे बारी-बारी से सत्ता में आने से उसी काम को अंजाम दे सके जिसके लिए वे एक-दूसरे का विरोध कर रही थीं. नंगा तथ्य यह है कि छत्तीसगढ़ में पानी के कारण लोग उस समय मर रहे हैं जब देश में राष्ट्रकुल खेल के नाम पर पैसों का अश्लील प्रदर्शन किया जा रहा है और जब पानीपत से दिल्ली के लिए 45 मिनट में सुपरफास्ट रेलगाड़ी चलाए जाने की घोषणा हो रही है.
(लेखक पत्रकार हैं)संपर्क: दिलीप, प्रथम तल्ला, C/2 ,पीपल वाला मोहल्ला, बादली एक्सटेंशन, दिल्ली-42, मो. - +91 9555045077, E-mail - dilipk.media@gmail.com

28 अक्टूबर 2010

शोध की राजनीति और शासक की रणनीति

-दिलीप ख़ान
फ़्रांस में जिस दिन सेवानिवृत्ति की न्यूनतम उम्र बढाने के सरकारी फ़ैसले के ख़िलाफ़ लोग सड़क पर उतरे, उससे दो-एक दिन पहले अमेरिका, इंग्लैंड और फ़्रांस सहित अन्य दस यूरोपीय देशों में हुए सर्वे के हवाले से एक शोध पत्र प्रस्तुत हुआ. इस शोध पत्र में बताया गया कि सेवानिवृत्ति के साथ ही लोग मानसिक तौर पर भी ’सेवानिवृत्त’ हो जाते हैं, इसलिए बुजुर्ग, यदि अपने मस्तिष्क को चलायमान रखना चाहते हैं तो उन्हें अधिक उम्र तक काम करना चाहिए. इस शोध रिपोर्ट को यूरोप, और अमेरिका के कई अख़बारों ने प्रमुखता से छापा. ऐसी रिपोर्टों को लेकर अब यह साफ़ होता जा रहा है कि ये राजसत्ता के फ़ैसले को या तो एक मज़बूत पृष्ठभूमि देती हैं या फ़िर उनके फ़ैसले को वैज्ञानिकता का लबादा पहनाती हैं. फ़्रांस के संदर्भ में निकोलस सरकोजी के फ़ैसले को यह अकादमिक और वैज्ञानिक शोध-प्रणाली के जरिए समर्थन दे रही है. सरकोजी सरकार ने सेवामुक्ति के लिए न्यूनतम उम्र को ६० से बढ़ाकर ६२ करने की योजना बनाई है. युवा-वर्ग इसे बेरोजगारी की दर को और बढाने वाला कदम मान विरोध कर रहा है. सरकार का तर्क है कि देश में सक्रिय कामकाजी लोगों के मुक़ाबले सेवानिवृत्तों की संख्या लगातार बढ रही है और इससे देश पर ॠण का भार बढता जा रहा है. १९४५ में जब इस नियम को अपनाया गया था तो उस समय चार कामकाजी लोगों पर एक सेवानिवृत्त का अनुपात था. अब यह घटकर चार के मुक़ाबले डेढ रह गया है. सरकार ने दूसरा तथ्य यह दिया है कि उस समय की तुलना में फ़्रांस का एक औसत नागरिक अब १५ साल अधिक जीता है. इसका मतलब यह हुआ कि फ़्रांस सरकार काम करने की क्षमता के लिए किसी ख़ास उम्र को पैमाना नहीं बना रही है बल्कि यह लोगों के मृत्यु से १० साल या २० साल पहले सेवानिवृत्त होने के दलील को सामने रख रही है. इसीलिए सरकार ने २०१७ तक सेवानिवृत्ति के लिए न्यूनतम उम्र को बढाकर ६७ करने की योजना भी सामने रखी है. इससे पहले एक वैज्ञानिक शोध इस आशय का भी हुआ था कि काम करने की क्षमता उम्र बढने के साथ-साथ घटती जाती है. अब इन दोनों शोध में से लोग किसे ठीक माने, यह एक सवाल है, लेकिन इससे यह तो स्पष्ट होने लगा है कि शोध की भी अपनी एक राजनीति है.
यह राजनीति राज्य की बात को मज़बूती प्रदान करने की है और उसे ऐसी शक्ति प्रदान करने की है जिसके बदौलत सरकार इसके विरोध में उठने वाली आवाज़ को कमज़ोर करने के लिए कोई भी क़दम उठा सके. निकोलस सरकोजी ने मौजूदा प्रदर्शनों को लेकर इस आशय की बात कहीं कि लोकतंत्र में लोगों के पास अपने को अभिव्यक्त करने का पूरा हक़ है लेकिन वे अधिक उत्तेजित और अनियंत्रित नहीं हो सकते...... और यह प्रदर्शन कुछ संख्या में अराजक तत्त्वों के इसमें शामिल होने का नतीजा हैं, उनसे पार पा लिया जाएगा. एक ऐसे समय में, जब दुनिया भर में सत्ता के विरोध में होने वाले प्रदर्शनों को लगातार सीमित किया जा रहा है और ज़्यादातर मौक़ों पर शासनतंत्र उन्हें अनसुना करने की हरसंभव कोशिश करता है, लोग अपने विरोध को एक ’लोकतांत्रिक देश’ में कैसे व्यक्त करे, यह महत्त्वपूर्ण हो जाता है. हर प्रदर्शन को अराजक या फ़िर ’दिक्कत पैदा करने वाले समूह’ के रूप में स्थापित करने की नियोजित कोशिश हो रही है. इनसे पार पाने के लिए राज्य के पास कई तरीके मौजूद हैं. एक तरीका तो इन प्रदर्शनों पर चुप्पी साध लेना है. ’कुछ नहीं’ करना है. लेकिन अगर प्रदर्शन का दबाव अधिक हो तो यह तरीका कारगर नहीं होता; ऐसे में पार पाने के अन्य तरीकों पर राज्य को विचार करना पड़ता है. पार पाने की प्रक्रिया में राज्य जब उत्तेजित और अनियंत्रित होता है तो वह इसे लोकतंत्र स्थापना के लिए किए गए प्रयास का हिस्सा मानता है. इसका मतलब यह हुआ कि राजसत्ता की मशीनरी की उत्तेजना और प्रदर्शनकारी समूह की उत्तेजना में और उनके अभिव्यक्ति में समानता नहीं है. समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के नारे पर स्थापित हुए फ़्रांस के महान लोकतंत्र में लोकतंत्र की परिभाषा में आ रहे क्रमिक बदलाव का यह अगला चरण है. फ़्रांस में लोकतंत्र स्थिति को बहाल करने के लिए सरकोजी ने दूसरे रास्ते पर भरोसा जताया है. दरअसल पूरी दुनिया में लोकतंत्र अब बहाल करने की वस्तु में परिवर्तित हो गई है. भीतरी लोकतंत्र लगातार खोखला हुआ है. लोकतंत्र बहाली के क्रम में अपनी बातों को सफ़लता से लोगों के बीच ले जाने के लिए राज्य सर्वे, शोध जैसे तमाम हथकंडों का सहारा लेता है. नए तरीके को विकसित करने के लिए आजकल ’क्राइसिस मैनेजमेंट’ जैसे कोर्स को प्रोत्साहित किया जा रहा है. मीडिया अकादमिक में संकटकालीन जनसंपर्क पढ़ाया जा रहा है. यह इस उम्मीद में पढ़ाया जा रहा है कि ऐसे जनसंपर्क सीखने के बाद प्रशिक्षु संकटमोचक में परिवर्तित हो जाए और मुश्किल हालात में किसी सरकारी संस्थान या किसी कॉरपोरेट कंपनी का वह संकट हर लें.
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20 अक्टूबर 2010

गरीब की रपट मे गरीबी

चन्द्रिका
अमेरिका की सरकार को मेलघाट (महाराष्ट्र) के भूख से मर रहे बच्चोँ के बारे मेँ शायद जानकारी न हो और न ही अमेरिका की सरकारी संस्था नेशनल इंटेलीजेंस काउंसिल के बारे मेँ मेलघाट के लोगोँ को कोई जानकारी हो जहाँ देश मे भुखमरी के कारण रोज बडे पैमाने पर लोगोँ की मौत हो रही है और अधिकाँस बच्चे कुपोषण का शिकार हैँ. अमेरिका की इस संस्था ने अभी हाल मेँ “ग्लोबल गवर्नेंस 2025” नाम से एक रिपोर्ट प्रस्तुत की है जिसमे कहा गया है कि भारत दुनियाँ की तीसरी सबसे बडी ताकत है और दुनियाँ की 8 फीसदी ताकत केवल भारत के पास है, इस रिपोर्ट मेँ अमेरिका ने खुद को पहले स्थान पर रखा है और चीन को दूसरे स्थान पर रखा गया है. दुनिया के शक्तिशाली देश अपने शक्ति प्रदर्शन के लिये इस तरह की बौद्धिक कसरत लगातार करते हैँ और वर्चस्वशीलता की रिपोर्टे प्रस्तुत करते रहते है. इस तौर पर कुछ ऐसे आधार बनाकर वे अकादमिक व सरकारी सर्वेक्षण करवाते हैँ जिसमे वे खुद को अव्वल घोषित कर सकेँ और इन सर्वेक्षणोँ को लगातार प्रचारित किया जाता है. अपने शक्तिशाली जनमाध्यमोँ द्वारा दुनिया मेँ इन खबरोँ को पहुँचाना उनके लिये काफी आसान होता है. यही खबरेँ दुनियाँ के लोगोँ मे उस मानसिकता की निर्मिति और विकास करती हैँ जहाँ एक देश के प्रति अन्य देश के लोगोँ और साशको के लिये सबसे बडी ताकत का एहसास व भय लगातार बना रहता है. यह सांसकृतिक साम्राज्य को बनाये रखने का एक तरीका है, हिटलर के प्रचार मंत्री गोयबल्स से आगे का तरीका. दुनियाँ मेँ गरीबी, भुखमरी, जीवन स्तर, राष्ट्रीय शक्ति को लेकर पत्रिकाओँ व सँस्थाओँ के द्वारा प्रति वर्ष सैकडोँ रिपोर्टेँ प्रस्तुत की जाती हैँ. ये राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय दोनोँ तरह की होती हैँ पर आखिर इनके तथ्यात्मक आधार मे इतना अंतराल क्योँ होता है. 2005 से लेकर अब तक भारत मे गरीबी पर कई रिपोर्टे प्रस्तुत की गयी है. चर्चित अर्जुन सेनगुप्ता रिपोर्ट मे देश के गरीबो की तादात 78 प्रतिशत थी, तो सुरेश तेन्दुलकर की रिपोर्ट मे 37.2 प्रतिशत, एन.सी. सक्सेना ने गरीबी का जो आंकडा रखा वह 50 प्रतिशत था और विश्व बैंक ने भारत मे 42 प्रतिशत गरीबो को प्रस्तुत किया जो 26 अफ्रीकी देशो के गरीबो की संख्या से एक करोड ज्यादा था. निश्चित तौर पर ये अंतराल इसलिये आये क्योँकि गरीबी रेखा का जो मानक है सभी ने अलग-अलग रखा है. सरकार ने गरीबी जीवन रेखा का जो पैमाना 1970 मे तय किया था यदि उसके आधार पर कोई रिपोर्ट तैयार की जायेगी तो सेनगुप्ता के 78 प्रतिशत गरीब 30 प्रतिशत भी नहीँ बचेंगे परंतु मूल सवाल जीवन स्तर का है, उस वास्तविकता का जिसे देश को महाशक्ति के रूप मे प्रचारित करते हुए देश की सरकार छुपा लेती है. यू.एन.डी.पी. यूनाइटेड नेशंस डेवलप्मेंट प्रोग्राम ने 2009 मे दुनिया के 184 देशो की एक सूची प्रस्तुत की थी जिसमे यह देखा गया कि भारत के लोगो का जीवन स्तर लगातार गिरता जा रहा है जहाँ 2006 मे दुनिया के देशो मे 126वाँ था वही क्रमशः 2008 मे 128वाँ व 2009 मे 134वाँ हो गया है जो कि हमारे पडोसी और कमजोर कहे जाने वाले देश भूटान, नेपाल, श्रीलंका से भी कम है. हमारे देश मे बडी स्ंख्या है जो खाद्य पूर्ति के आभाव मे मर रही है ऐसे मे जीवन स्तर का घटना स्वाभाविक है. दरअसल लोगो के पास अपने जीवन स्तर ठीक रखने के लिये जिन आर्थिक आधारो की जरूरत है और ये आर्थिक आधार इन्हे रोजगार से मिल सकते है परंतु सरकार ऐसा कोई ठोस मसौदा अभी तक तैयार नही कर पा रही है जिससे बहुसंख्या के लिये जिन क्षेत्रो मे रोजगार उपलब्ध है उन्हे सहूलियत हो. बजाय इसके औद्योगिक क्षेत्रो के लाभ पहुंचाने वाले व रोजगार के अवसर कम करने वाले क्षेत्रो की तरफ ही ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है. भारत का 58 फीसदी रोजगार कृषि से जुडा हुआ है और महज 8 फीसदी रोजगार प्रसाशन, आई.टी. क्षेत्र, चिकित्सा के क्षेत्रो से ऐसे मे कृषि के क्षेत्र मे सरकार की विमुखता देश मे जीवन स्तर के गिरावट का ही संकेत देती है. इसके बावजूद गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वालो या फिर भूमिहीनो जो कि कृषि से सम्बद्ध नही है उनकी स्थिति को सुधारा जा सकता है यदि देश मे खाद्यानो की वितरण प्रणाली को ठीक कर दिया जाय पर न्यायपालिका के आदेश को लेकर अभी विधायिका व अन्य देश के प्रमुख नेताओ ने जिस तरह की टिप्पणि की उससे यही लगता है कि देश की सरकार शक्तिशाली होने का गौरव और देश मे भुखमरी दोनो को साथ मे रखना चाहती है. देश मे 550 टन से लेकर 600 टन के बीच खाद्यान का भण्डारण हो चुका है जिसमे 50 फीसदी हिस्सा दो साल पुराना है. जबकि सरकार के पास भंडारण क्षमता इसकी आधी है इसके बावजूद गरीबो को अनाज न वितरित करना यही सन्देश देता है कि सरकार विकास की एकमुखी तस्वीर से ही देश की तस्वीर बनाना चाहती है. निश्चित तौर पर देश मे गरीबी व गरीबो को लेकर जो रिपोर्ट राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय आधार पर प्रस्तुत की जाती है उसका सम्बन्ध यथार्थ की जमीन पर नही बल्कि एक ऐसे आधार के साथ किया जाता है जिससे निहित स्वार्थो का प्रचार किया जा सके.

17 अक्टूबर 2010

जिलों में नहीं, ज़ेहन में बस रहा माओवाद:

चन्द्रिका

जो आवाजें आ रही हैं पार्श्‍व से वे ’दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र’ के रंगमंच पर खेले जा रहे नाटकों की हैं. उनकी धुने सरकार और कार्पोरेट के पूरे तंत्र ने मिलकर तैयार की हैं जिसमे भय का संगीत सुनायी पड़ता है और पूरा माओवादी आंदोलन महज एक खौफनाक आवाज बनकर हमारे कानों तक पहुंच रहा है. आतंकी गतिविधियों और आदोलनों के फर्क को मिटा दिया गया है. जबकि संसदीय लोकतंत्र के इस नाटक के खिलाफ हर बोलने वाला माओवादी है तो क्या हर चुप रहने वाला सरकारी? लोकतंत्र जैसी व्यवस्था में ऐसा नहीं होना था पर यह हो रहा है क्या हमे लोकतंत्र की परिभाषायें फिर से नहीं तलासनी चाहिये एक ऐसी संरचना की तलास हमे कर ही लेनी चाहिये जिस पर आने वाली पीढ़ीयां जिंदा रह सके विभेद के साथ नहीं बल्कि समता-समानता के लोकतांत्रिक मूल्य के साथ. असली आज़ादी का फल चखने के लिये एक पौधा हमे रोप देना चाहिये. लिहाजा सवाल अब भी वहीं नहीं ठहरे हैं जहाँ सत्तर के दशक में नक्सलवाड़ी आंदोलन थे, वे आगे बढ़ चुके हैं. सरकारी आंकड़ों से कहीं भिन्न, माओवादी अब जिलों में नहीं लोगों के ज़ेहन में बसते हैं. मैंने प्रधानमंत्री को कई बार माओवादी होते देखा है तारीखें याद नहीं पर उनकी उक्तियों पर गौर करें जब उन्होंने विक्तोर ह्यूगो के एक कथन को उदारीकरण के संदर्भ में कहा था कि
कोई भी ताकत उस विचार को आने से नहीं रोक सकती जिसका वक्त आ गया हो. दरअसल, यदि इसी बात को आज माओवाद के संदर्भ में कहा जाय तो वे यकीन नहीं करेंगे क्योंकि राजनीति आस्था विहीन नहीं हो सकती मनमोहन सिंह का जितना यकीन संसदीय लोकतंत्र में है, आदिवासी व दमित समाज जो सशस्त्र संघर्ष कर रहे हैं उन्हें भी उतना ही यकीन है माओवाद में. शायद वे माओ से बेहतर रूप में परिचित न हो, शायद रूसी क्रांति के बारे में कोई पोथी उन्होंने न पढ़ी हो, मार्क्स उनके लिये एक दाढ़ी वाले बाबा की तरह हो सकते हैं और लेनिन महज फोटो में बना एक उद्दीप्यमान चेहरा जो पार्टी के वरिष्ट पदाधिकारियों द्वारा किसी अवसर पर शहर से जंगल में उन्हें मिल जाती हो, पर अपने हक की लड़ाई में वे इनके विचारों का ही विस्तार हैं. भले ही देश का नाम बदल गया हो पर विचार किसी देश के गुलाम नहीं होते परिस्थितियां उन्हें हवाओं में बिखेर देती हैं और उन लोगों की सांसों में बस जाते हैं जो जीने के लिये सांस लेने की जरूरत महसूस करते हैं और जिनके लिये वादियों में साजिस और जहर की घुटन भरी होती है. अपने हक की लड़ाई लड़ते हुए वे संरचना को बदलने के ख्वाब बुनते हैं अखबार उनके लिये रोज-बरोज लिखे जाने वाले झूठ का दस्तावेज बन जाता है जिससे शहरों का मध्यम वर्ग अपने बच्चों की गंदगी साफ करता है. देश की सुरक्षा के लिये तैनात पुलिस उन्हें असुरक्षित बना देती है और फिर जमीन उनकी, लोग उनके, पर देश नाम की चिड़िया दिल्ली के सुवरबाड़े में बैठे सफेद पोश देश द्रोहीयों की होती है. बस देश के मायने थोड़ा उलट कर समझिये, देश का मतलब नक्शे में टंगी सीमा रेखा से नहीं वहाँ की जनता, वहाँ के लोंगों से आंकिये. सिलीगुड़ी का नक्सलवाड़ी गाँव, गाँव न रह कर एक विचार और एक आंदोलन बन गया और आज देश में उसी का विस्तार ही माओवादी आंदोलन की जमीन है. यह संसदीय लोकतंत्र के संरचना की कमजोर होती कार्यप्रणाली का परिणाम था.

तंत्र की विखण्डित संरचना

जिस देश में लोकतंत्र लागू हुए ६० साल बीत चुके हैं उसे अब तक लोकतांत्रिक हो जाना था या फिर लोकतांत्रिक होने के वे रास्ते दिखने ही थे जिस पर चलते हुए समता युक्त समाज का निर्माण किया जा सके. संसदीय लोकतंत्र के सामने आज यह बड़ा संकट है कि वह अपनी संरचना के साथ लोकतांत्रिक मूल्यों को कैसे स्थापित करे जबकि धर्मों का श्रेष्ठताबोध, रंगभेद, जातियाँ कम-ओ-बेस उसी रूप में मौजूद हैं. भारत जैसे देश में धर्म और जातियाँ संसदीय लोकतंत्र के पहिये के रूप में काम कर रही हैं. समय-समय पर समाज को चलाने के लिये जो तंत्र विकसित किये गये उस तंत्र की संरचना ने अपने अंतर्गत मूल्यों का विकास किया मसलन राजशाही ने राजाज्ञा को ही सबसे बड़ा मूल्य माना, लोकतंत्र के मूल्य समता, समानता और बंधुत्व के रूप में विकसित हुए पर पुरानी संरचनाओं (जाति, धर्म, विभेद) के न टूटने से ये महज़ सुंदर शब्द बनकर रह गये. क्या संविधान की पुस्तकों में धर्मनिरपेक्ष लिखने से कोई संरचना मुक्त हो सकती है जबकि इन विभेदों को समाप्त करने के लिये और लोकतांत्रिक मूल्यों को स्थापित करने के लिये संसदीय लोकतंत्र लागू होने के बाद किसी तरह की कोई सांस्कृतिक परियोजना नहीं चलायी जाय. उसका कोई स्वरूप सत्ता ने अभी तक निर्मित नहीं किया और ऐसा भी नहीं कि उनके निर्मिति का विचार पीछे छूट गया बल्कि यह तंत्र के एजेंडे मे ही शामिल नहीं है. जनचेतना में जो विभेद स्थापित थे, रचे बसे हुए थे यह तंत्र उसी में जोड़तोड़ करते हुए उनका ही इश्तेमाल करता रहा लिहाजा यह उन्हें बचाने के लिये प्रतिबद्ध और जिम्मेदार भी हुआ. इस स्थिति को माओवादीयों ने बेहतर तौर पर समझा और आज वे जिन क्षेत्रों में जिस ढांचागत स्वरूप के साथ काम कर रहे हैं सास्कृतिक रूप से इन विभेदों के खिलाफ संघर्ष भी साथ में चला रहे हैं.

संसदीय लोकतंत्र को अपनाने वाले किसी भी देश में यह बात अहमियत रखती है कि वह किन प्रक्रियाओं के तहत स्थापित हुआ है. एक तंत्र से दूसरे तंत्र की स्थापना के बीच किस तरह के संघर्ष रहे हैं. भारत में संसदीय लोकतंत्र एक आयातित तंत्र के रूप में रहा है जो व्यापक जन संघर्षों से नहीं बल्कि सत्तासीन वर्ग के हितों के टकराव से पैदा हुआ. अतः सामंती मूल्यों और लोकतंत्र की संरचना के साथ आये मूल्यों (जो कि व्यापारी वर्ग के हित में थे) के मिश्रण के रूप में यह भारतीय समाज में स्थापित हुआ. जिस मिश्रण को भारतीय लोकतंत्र अभी तक ढो रहा है. पिछड़े मूल्यों का बोध लोगों के भीतर इस तौर पर जुड़ा हुआ है कि संरचना के संस्थान लोकतांत्रिक कार्यपद्धति नहीं अपना सकते. संसद से लेकर न्यायपालिका तक जो लोग कार्यरत है, जब वे इस धर्म, जाति के आधार पर विभेदीकृत समाज से संस्थान में जाते हैं तो वह क्या है जो उन्हें उनकी कुर्सीयों पर निरपेक्ष बना देगा. शायद निरपेक्षता तंत्र का सबसे बड़ा और कोरा झूठ है जो संविधान की मोटी पुस्तक में दर्ज कर दिया गया और पूरा तंत्र सापेक्षता के साथ कार्य करता रहा. किसी भी तरह के बोध का निर्माण सामाजिक और मनोवैज्ञानिक आधार पर होता है लिहाजा जातीय बोध और धर्म बोध से तबतक छुटकारा नहीं पाया जा सकता जबतक जाति और धर्म विहीन समाज के निर्माण की प्रक्रिया न अपनायी जाय, उसके लिये सांस्कृतिक तौर पर लोगों के चेतना का विकास न किया जाय. इसके लिये कोई ठोस कार्य नीति नहीं अपनायी गयी. यह पिछड़े मूल्यों से ग्रस्त समाज में ऐसी किसी भी पार्टी से संभव नहीं था जो संसद तक पहुंचना या उसमे बने रहना चाहती थी क्योंकि यह रूढिगत समाज के भावनाओं के खिलाफ था, भले ही वह अलोकतांत्रिक था और वोट की राजनीति इन्हीं भावनाओं के आधार पर होनी थी. यह समाज में व्यक्तियों के मूल्यों के साथ का संघर्ष था जिसे उनके भविष्य हितों और समाज की बेहतरी के लिये किया जाना था, जिन्हें लोकतंत्र के उन मूल्यों के लिये किया जाना था जो २३० वर्ष पूर्व फ्रांसीसी क्रांति का नारा बन दुनिया में जगह बना रहे थे. एक हद तक वामपंथी पार्टियों ने यह कार्य करने का प्रयास किया भी जो बाद में संसद तक पहुंची. अंततः माओवादियों ने ही इस संघर्ष को चलाया भले ही वह सीमित क्षेत्रों में रहा हो.

वह एक तारीख थी १९४७ की, महज एक तारीख जिसे आज़ादी दिवस के रूप में घोषित किया गया और यहीं से शुरू होनी थी देश के लोकतांत्रीकरण की प्रक्रिया. अपने शुरुआती वर्षों से ही यह प्रक्रिया टूटने लगी जब उत्तर-पूर्व में राष्ट्रीयता की आवाज मुखर होनी शुरू हुई. १९५८ में ही मणिपुर में आफ्सपा लगा दिया गया और समय के साथ इसके क्षेत्र का विस्तार होता गया यानि लोकतांत्रीकरण के बजाय कानूनी व संरचना के स्तर पर अलोकतांत्रीकरण की यह पहली प्रक्रिया थी जहाँ देश के भीतर एक ऐसे अलोकतांत्रिक कानून की जरूरत पड़ गयी कि संदेह के आधार पर सरकार ने अपनी ही जनता पर गोली चलाने का अधिकार सेना को दे दिया, जो बाद के वर्षों में और भी कठोर हुआ और आज इनकी स्थितियाँ हमारे सामने है राष्ट्रीयता की वह आवाज और भी बृहद व मुखर हुई संगठनों ने अपने दायरे व संख्या दोनों में बृद्धि कर ली और वह एक से बढ़कर तीस से ऊपर हो चुके हैं.

जब देश का मतलब उत्तर प्रदेश व बिहार हो जाय या हिन्दी भाषी राज्य ही देश देश के निर्माण व उजाड़ की प्रक्रिया को तय करने लगें तो यह एक ऐसे राष्ट्र के लिये मुश्किल होता है जहाँ भाषा, संस्कृति व कई राष्ट्रीयताओं की मौजूदगी हों. जहाँ हिन्दी प्रदेश के प्रतिनिधियों द्वारा बनायी गयी योजनायें और कानूनों को उन सबको ढोना पड़े, और अन्य उपेक्षाओं के साथ उत्तर-पूर्व सिर्फ सहयोग करे. यह ढोना उत्तर-पूर्व का सत्ता धारी वर्ग तो कर सकता था और उसने अभी तक किया भी पर वहाँ के लोग इसके लिये तैयार नहीं थे उन्होंने विकल्प के रूप में अलग राष्ट्रीयता की मांग शुरु की जो कि आज़ादी की पूर्व स्थितियों में अलग राष्ट्र के रूप में था भी. यह सांस्कृतिक, व देश के नक्शे में स्थानीय परिस्थितियों के आधार पर उठनी शुरु हुई जो संवेग के साथ अभी जारी है.

नर्मदा बचाओ आंदोलन से लेकर इरोम शर्मीला के लम्बे आमरण अनशन के परिणामों ने यह सिद्ध कर दिया कि संसदीय लोकतंत्र में गांधी का रास्ता चुक गया है. उसके असर फिल्मी पर्दों पर तो दिख सकते हैं पर वास्तविक जिंदगी में नहीं, भारतीय सत्ता फिल्मी दुनिया का अभिनय नहीं कर रही है बल्कि वह एक तंत्र है और तंत्र की एक विचारधारा भी होती है. यदि इरोम शर्मीला का रास्ता कारगर साबित होता तो शायद मणिपुर में माओवादी अपना हस्तक्षेप न कर पाते जो कि उन्होंने सशस्त्र संगठन पीपुल्स लिब्रेशन आर्मी के साथ मिलकर किया और आज मणिपुर में उनकी स्थिति मजबूत हुई है.

देश के जो अन्य हिस्से थे उनकी अलग समस्यायें थी वे देश के नक्शे में ऐसी जगह पर स्थित थे जहाँ उनके लिये अलग राष्ट्र की मांग करना मुश्किल था पर सवाल अलग राष्ट्र का था भी नहीं सवाल था व्यवस्था के लोकतांत्रीकरण का जो व्यक्ति को व्यापक आज़ादी समता-समानता के साथ दे सके. इस व्यवस्था में एक बड़ा वर्ग था जो वंचना का शिकार होने वाला था इस बात का आंकलन वामपंथी ताकतों ने किया और वे ही कर सकते थे क्योंकि संरचना का एक विकल्प उनके पास मौजूद था जिसे देश के मुताबिक ढालना था. आज़ादी के बीस वर्षों बाद जिसकी शुरुआत ही हुई, और सिलीगुड़ी के एक गाँव की घटना लोगों के जेहन में विकल्प के विचार की तरह आ गयी तमाम खामियों के बावजूद माओवादी आज उसी का एक विस्तृत रूप हैं.

भारतीय राजनीति में मायावती, लालू या अन्य दलित नेताओं का आना एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत अलोकतांत्रिक मूल्यों के आधार पर हुआ जहाँ दमित जातीयों की बहुसंख्या ने जातीय आधार पर एकजुटता बनायी पर इसने जातीय विभेद को और बढ़ाया ही है पुराने समाजों के जातीय बटवारे का यह महज एक समीकरण था जो बाद में और भी विद्रूप हुआ जब ब्रहमणवादी शक्तियों के साथ इनके गठजोड़ हुए. माओवादियों के साथ दलित और आदिवासियों का आना उस रूप में नहीं रहा कि पंडित संख बजायेगा, हांथी सूढ़ उठायेगा बल्कि उनके साथ दलित व आदिवासियों के आने का आधार वर्गीय और लोकतांत्रिक था जिसमे जमीन उसकी जो जोते का स्वर था. यह जातीय आधार पर गोलबंदी नहीं बल्कि वर्गीय आधार पर दमित अस्मिताओं को खड़ा करना था. दलित और आदिवासियों की आबादी भूमिहीनों की आबादी थी जो निःसंदेह उनके वर्ग मित्र बने. बिहार जैसे राज्यों में यह लड़ाई इसी आधार पर एक हद तक जातीय रूप में दिखायी पड़ी जहाँ भुमिहारों के पास जमीनों का बड़ा हिस्सा था उसके बटवारे के लिये जब दलित वर्ग खड़ा हुआ तो भुमिहारों ने इसे जातीय रुख में बदलने का प्रयास रणवीर सेनायें बनाकर की. पर यह एक वर्गीय लड़ाई के रूप में ही रही. यह दमित वर्ग के द्वारा लड़ा जाने वाला एक भूमिसुधार आंदोलन भी रहा, जो संसदीय राजनीति (पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों को एक हद तक छोड़ दिया जाय तो) करने में असफल रही और माओवादीयों ने अपनी लड़ाई का आधार ही यही बनाया जिसमे उन्होंने पन्द्रह सालों में ही अपनी सीमित शक्ति के बल पर ३ लाख एकड़ से ज्यादा जंगल की जमीनों को भूमिहीनों में बांटा. यह सशत्र संघर्ष के बगैर संभव नहीं था. आदिवासी क्षेत्रों में आदिवासियों के तेंदू पत्तों के मूल्य दर में ३३ गुने से ज्यादा बृद्धि करवायी. यह संसद जाने का रास्ता नहीं था बल्कि आदिवासी और दलितों के रोजमर्रा के जीवन और श्रम के शोषण से जुड़ा मसला था जिसे किसी संसदीय पार्टी ने नहीं उठाया.

सोनिया गांधी ने जिस ग्राम अदालत के लिये १४०० करोण रूपये देने की घोषणा की है ताकि देश की अदालतों में लम्बित पड़े २.५ करोड़ मामले निपटाये जा सकें उसके स्वरूप और कार्यपद्धति को माओवादी अपने शुरुआती दिनों से ही वहाँ लागू कर रहे हैं जिन क्षेत्रों में उनकी सक्रिय उपस्थिति रही है, पर फर्क यह है कि सोनिया गांधी इन हजारो करोड़ रूपयों का उपयोग मामले को निपटाने के लिये कर रही हैं और माओवादी इसे अपने कार्यपद्धति और क्षेत्र का एक हिस्सा मानते रहे हैं. इस रूप में देखा जाय तो कई ऐसे कार्य हैं जिन्हें संरचना के लोकतांत्रीकरण के लिये सरकार को करना चाहिये था पर उसने नहीं किया और शायद माओवादीयों से सीख लेकर अब सरकार उनमे से कुछ योजनायों के पीछे घिसटने को तैयार भी है, पर जनविरोधी नौकरशाही के ढांचे का उसके पास कोई विकल्प मौजूद नहीं है. जातीय उत्पीड़न से लेकर महिला उत्पीड़न जैसी कई प्रवृत्तियाँ ऐसी रही हैं जो उन क्षेत्रों में कम हुई जहाँ माओवादियों का हस्तक्षेप बढ़ा. आज सरकार का जो भय है निश्चित तौर पर वह हथियार बंद लड़ाकूओं से नहीं है बल्कि उस संरचना के भ्रूण से है जो जन संघर्षों के साथ निर्मित हो रहा है.

माओवादी और आदिवासी

जब भी यह कहा जाता है कि आदिवासी मारे जा रहे हैं तो मानवाधिकार कार्यकर्ता व अन्य सामाजिक संगठनों के लोगों की आवाजें सरकार के खिलाफ निश्चित तौर पर बुलंद हो जाती है और आम जनमानस की भी यही धारणा बन चुकी है पर माओवादियों का मारा जाना सहज है, मीडिया के लिये भी, मानवाधिकार व सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिये भी और उन लोगों के लिये भी जो इन जंगलों से दूर हैं यानि हम सबके लिये. दरअसल इस पूरी प्रक्रिया में माओवादी अछूत की तरह हैं. बीते जमाने के वे अछूत जिन पर किसी तरह की प्रताड़ना, प्रताड़ना के दायरे से बाहर थी. जवानों का मारा जाना दुखद है, आदिवासियों का मारा जाना भी दुखद है पर अगर आदिवासी ही माओवादी हों तो, जो कि है भी आदिवासियों का सशस्त्रीकरण व राजनीतिकरण ही उनका माओवादी होना है, पर माओवादियों पर जब भी बात होती है तो वह इस रूप में कि वे देश के भूभाग से कहीं बाहर की कोई प्रजाति हैं, जबकि ग्रीनहंट में मारे गये व पिछले कुछ वर्षों में चलाये गये तमाम अभियानों में जिन माओवादियों को निशाना बनाया गया है उनमे अधिकांस आदिवासी ही हैं. तो क्या अन्ततः आदिवासियों का ही कत्लेआम हो रहा है? यह एक कठिन सवाल है जिसके उत्तर एक घटना को केन्द्र में रखकर नहीं तलाशे जा सकते बल्कि पिछले ६० वर्षों के इतिहास का पन्ना हमे पलटना ही पड़ेगा यदि इतना पीछे न भी जायें तो १९९० के बाद जो आर्थिक सुधार हुए उन सुधारों की खामियां हमे जरूर पहचानना पड़ेगा. अब सवाल आदिवासियों के मारे जाने का नहीं, माओवादियों के मारे जाने का नहीं बल्कि आदिवासियों के माओवादी बनने की प्रक्रिया का है. क्योंकि माओवादियों का मारा जाना उन आदिवासियों का मारा जाना है जिन्होंने शस्त्र उठा लिये हैं, जिन्होंने अपने क्षेत्र में अपनी सरकारें बना ली हैं, भारत सरकार से अलग, जिन्हें उन लाखों आदिवासियों का समर्थन प्राप्त है जो जंगलों में रहते है और मूलभूत सुविधाओं से वंचित रह गये हैं. यह अलग सरकार का चुनाव, अलग संरचना का निर्माण, ठीक वैसा ही है जैसा कि हम संसद को चुनते हैं, जैसा हमारे सांसदों को हमारा समर्थन प्राप्त है, दोनों की प्रणालियां कार्य करने के तरीके में फर्क हो सकता है पर शायद इसमे कोई फर्क नहीं दिखता कि सरकार वही चला रहा है जिसका जनता समर्थन कर रही है, दन्डकारण्य में भी और दिल्ली में भी बावजूद इसके कि सरकार चलाने के तौर तरीके अलग-अलग हैं, मसलन पानी पीने के लिये वे तालाब खोदते हैं, कुंए खोदते हैं, तो हमारी सरकार एक और बोतलबंद पानी की कम्पनी खोल देती है.

ऐसे में समस्या एक सम्प्रभु राष्ट्र में दो समानांतर सरकारों के होने का है, जो एक दूसरे को अमान्य घोषित कर रही हैं और शायद संघर्ष भी इसी बात का है. यह राज्य के वैद्यता की लड़ाई बन गयी है वहाँ के आदिवासी भारत सरकार को वैद्य मानने से इनकार कर रहे हैं और भारत सरकार उनके द्वारा बनाई जनताना सरकार को और खतरा इसी बात का है जिसे सरकार सबसे बड़ा मान रही है कि यदि यही भ्रूण अलग-अलग हिस्सों में निर्मित होता गया, लोग सरकार से असंतुष्ट हो अपनी सरकारें बनाते गये, अपनी संरचना बनाते गये तो यह भारत राष्ट्र और संसदीय लोकतंत्र के अस्तित्व के लिये खतरा होगा. संसदीय लोकतंत्र के लिये माओवादियों के शस्त्र उठाने से ज्यादा खतरा उस संरचना से है जो वे निर्मित करते जा रहे हैं या जिसे उन्होंने मुक्त क्षेत्र में निर्मित कर रखा है.

१९८० से लेकर अब तक भारत सरकार द्वारा अलग-अलग तरीके से कई प्रयास किये जा चुके हैं, विकास की योजनायें चलाकर, सैन्य अभियान चलाकर, शांति अभियान सलवा-जुडुम के जरिये और अब ग्रीन हंट आपरेशन. ये अभियान एक तरफ तो विफल हुए हैं, दूसरी तरफ आदिवासी और भी सशस्त्रीकृत हुए हैं. भारतीय सेना जितने विकसित तकनीक के शस्त्रों का प्रयोग करती है उनसे छीनकर ये भी अपने को समृद्ध बनाते गये हैं. आखिर इन अभियानों की विफलताओं के क्या कारण रहे हैं, क्या नये अभियान चलाने से पूर्व, इन विफल अभियानों का ठीक-ठीक मूल्यांकन किया गया, शायद नहीं यदि किया गया होता तो आदिवासियों का सशस्त्रीकरण और न बढ़ता जो सलवा जुड़ुम जैसे बर्बर अभियानों के बाद और भी बढ़ा. इन कार्यवाहियों ने आदिवासियों को और भी असुरक्षित बनाया व सुरक्षित होने के लिये और भी ज्यादा शस्त्रीकृत होने पर मजबूर किया. उन पर की गयी क्रूरताओं ने उनमे और भी ज्यादा असंतोष पैदा किये, अपने ऊपर हुए जुल्मों से वे और भी उग्र हुए. इसी उग्रता को सरकार ने उग्रवादी करार दिया. क्या उनका उग्र होना नाजायज था, जबकि उन्होंने किसी माओवादी को खाना खिलाया हो, रास्ता बताया हो, इसके लिये उन्हें पीटा जाय और उनके घर जलाये जाय. यही वे कार्यपद्धतियाँ रही हैं जिन्होंने आदिवासियों के मन में सरकार के प्रति असंतोष पैदा किये और माओवादियों से उनकी निकटता बनती गयी. क्योंकि माओवादी उनके जीन की मूलभूत चीजों, रोजगार और तेंदू पत्ता की कीमतों, उनके खेती की जमीनों व अन्य संसाधनों को मुहैया कराने व व्यवस्थित रूप से चलाने के लिये एक संरचना, संघर्ष के साथ विकसित करते गये. उनके लिये एक अलग ढांचा विकसित किया जो सरकार के ढांचे से अलग जंगल की परिस्थितियों के अनुकूल था. न्यायिक व्यवस्था, सुरक्षा समिति, कृषक समिति आदि. इस ढांचे ने आदिवासियों में माओवादियों के प्रति विश्वास पैदा किया, माओवादी और आदिवासी पानी में मछली इसी तरह हुए, जिसे वे स्वीकार करते हैं. जिसमे सरकार विफल रही क्योंकि सरकार जिस तरह का विकास चाहती थी उसके पैमाने अलग थे और आदिवासियों को उनकी परिस्थिति के मुताबिक अस्वीकर थे. टाटा और एस्सार के लिये लाखों आदिवासियों को अपने घर से विस्थापित होना अस्वीकार था और सरकार विकास के नाम पर यही कर रही थी. आदिवासी समाज का विकास निश्चित तौर पर इन कम्पनियों की स्थापना से नहीं होना है, बल्कि यह उनके शोषण की एक और कुंजी ही बनेगी, उनके जिंदगी में और भी खलल बढ़ेगा. वर्षों पूर्व की उनकी संस्कृति को यह नष्टित ही करेगी और इन सबके लिये आदिवासी समाज तैयार नहीं है.

आदिवासियों का विश्वास जीतने के बजाय उन पर क्रूर कार्यवाहियां की जा रही हैं, जिस दिन दांतेवाड़ा में ७६ जवानों को मारा गया उसके एक दिन पहले ही दांतेवाड़ा के अंतर्गत स्थित तोंगपाल थाना के सिदुरवाड़ा गांव में २६ आदिवासी महिलाओं को जगदल पुर से आये कोबरा बटालियन के २०० जवानों द्वारा पीटा गया, जिसमे महिलाओं के हाथ तक टूट गये, जबकि इन महिलाओं का दोष यह था कि जब कुछ ग्रामीड़ों को नक्सली समर्थक बताकर जवान ले जाने लगे तो इसका इन महिलाओं ने विरोध किया.क्या इन कार्यप्रणालियों से सरकार आदिवासियों में विश्वास पैदा कर सकती है, दमित बनाकर वह उन पर शासन जरूर कर सकती है पर यह गैरलोकतांत्रिक संरचन का ही हिस्सा होगा बल्कि यह आदिवासियों को सरकार के खिलाफ ही खड़ा करेगा. वहीं दूसरी तरफ माओवादी आदिवासियों में इस विश्वास को इस हद तक अर्जित किये कि उन्होंने जिस मुक्त क्षेत्र का निर्माण किया उसकी सुरक्षा के लिये आदिवासी शस्त्र लेकर अवैतनिक कार्य करने लगे जैसे यह उनके अपने राज्य उनके अपने जमीन व जमीन की रक्षा का मसला हो निश्चित तौर पर यह एक सामुदायिक चेतना के तहत ही संभव था भारत सरकार रक्षा बजट पर सार्वाधिक खर्च करती है और आज भी यह स्थिति नहीं है कि वह अवैतनिक सेवा देश की जनता से ले सके कारण कि जनता को यह महसूस होना ही चाहिये कि देश उसका अपना उतना ही है जितना किसी नेता का जितना प्रधानमंत्री का जितना व्यवसायियों का पर क्या उन्हें यह महसूस हो पाता है, क्या न्यायिक व्यवस्था में उन्हें बराबरी का न्याय मिल पता है. शायद नहीं, लिहाजा यह मामला सरकार की कार्यपद्धति के साथ उसकी संरचना से निर्मित हो रहा है जहाँ सरकार एक बड़े वर्ग को बेहतर संरचना देने में असफल हुई है.

ग्रीनहंट जैसे ऑपरेशन या वायुसेना का प्रयोग से इस समस्या का समाधान सम्भव नहीं दिखता सिवाय इसके कि बड़ी और बड़ी संख्या में आदिवासियों का कत्लेआम ही होगा, और प्रतिरोध के तौर पर सेना के जवानों के भी क्षत-विक्षत होने की संभावना बनती है. इस तरह की दमनपूर्ण कार्यवाहियों के बजाय सरकार को आदिवासियों की मूल समस्या को उनकी जमीनी हकीकत के मुताबिक चिन्हित करना होगा और वहाँ पर विकास की उन योजनाओं को चलाना होगा जो आदिवासियों के जीवन से सीधे तौर पर जुड़ी हुई हैं मसलन वहाँ की स्वास्थ सेवाओं को बहाल करना होगा, स्कूल को सेना का कैम्प बनाने के बजाय वहाँ शिक्षकों की नियुक्ति कर शिक्षा का बेहतर प्रबन्ध करना होगा ताकि वह विश्वास आदिवासियों में अर्जित किया जा सके जो कि माओवादियों ने अर्जित किया है.

अतिवाद का कुप्रचार

परिवर्तन सबसे पहले स्वप्न में आता है. रात की नींद के सपनों में नहीं, जीवन के बेहतरी की लालसा के स्वप्न में, और कहीं अपने भीतर एक बना बनाया ढांचा टूटता है, अपने समय के मूल्य ढहते हुए दिखते हैं. यह ढांचा पहले आदमी के विचार से टूटता है फिर व्यवहार से फिर वह आदमी के दायरे को ही तोड़कर, संरचना के दायरे को तोड़ने की प्रक्रिया में शामिल हो जाता है. वे हर बार आतिवादी ठहरा दिये गये होंगे जिन्होंने समय के मूल्यों को तोड़ा होगा क्योंकि किसी भी समय में व्यवस्था के संरचना की एक सीमा रही है, उसके एक मूल्य रहे हैं उसी के भीतर सोचने की इजाजत होती है, पर दुनिया में हर बार संरचना और सत्ता के बाहर की सोच पैदा हुई. यह परिस्थिति की देन मात्र नहीं थी बल्कि चिंतन की व्यापकता थी जो व्यापक आज़ादी के लिये हर समय विद्रोह करती रही और अपने समय में समय के आगे का विचार पैदा होते रहे. किसी भी समय का अतिवाद यही होता है जो समय की संरचना से विद्रोह करता है, एक नये संरचना की तलाश करता है लिहाज़ा हर दौर में नये समाज बनाने के सपने रहे हैं और हर समय में वे लोग जो अपने समय की संरचना को नकारने का साहस रखते हों. जबकि इतिहास से वे नयी संरचना को बिम्बित करने में असफल भी होते हैं फिर भी उम्मीद और मूल्यों ने उनके विचारों को आगे बाढ़ाया और भविष्य के समाज उन्हीं के विचारों की निर्मिति रहे हैं. शायद दुनिया का अंत किसी प्रलय या दैवीय शक्ति से नहीं, बल्कि उस दिन होगा जब ये नकार के साहस ख़त्म हो जायेंगे. जो जैसा है उसी रूप में स्वीकार्य होगा तो बदलाव की प्रक्रियायें रुक जायेंगी और दुनिया की सारी घड़ियां और कलेंडर अर्थ विहीन हो जायेंगे. समय का ठहराव यही होगा कि नये चिंतनकर्म समाप्त हो जायें और सब सत्ता के आगे नतमस्तक दिखेंगे, पर मानवीय प्रवृत्तियां इन्हें अस्वीकार करती रही हैं कि इंसान है तो सोचना जारी रहेगा.

राजशाही जब खारिज की गयी, जो कि एक समय तक ईश्वर प्रदत्त मानी जाती थी, तो यह तय हुआ कि अब राजाओं को जनता चुनेगी तो संसदीय लोकतंत्र की स्थापना, सैद्धांतिक तौर पर लोगों द्वारा ईश्वर के लिये खारिजनामा ही था, क्योंकि राजा उसके प्रतिनिधि होते थे और राजा को खा़रिज करना इश्वर को खारिज करने से कहीं कम न था बल्कि वह एक प्रत्यक्ष भय था. इस नयी व्यवस्था के बारे में प्रस्फुटित होने वाले विचार जरूरी नहीं कि वे केवल लिंकन के ही रहे हों पर ये विचार राजशाही के लिये अतिवादी ही थे. राजशाही के समय का यही अतिवाद आज हमारे समय के लोकतंत्र में परिणित हुआ. अतिवाद हमेशा समय सापेक्ष रहा है पर वह भविष्य की संरचना के निर्माण का भ्रूण विचार भी रहा जिसे ऐतिहासिक अवलोकन से समझा जा सकता है.

ज्योतिबाफुले, सावित्रीबाई फुले, या भगतसिंह जैसे कितने नाम हैं जो लोग अपने समय के अतिवादी ही थे. इन्हें आज का माओवादी भी कह सकते हैं चूंकि ये संरचना प्रक्रिया में विद्रोह कर रहे थे एक दमनकारी व शोषणयुक्त प्रथा का अंत करने में जुटे थे. भविष्य में जब समाज के मूल्यबोध बदले तो इन्हें सम्मानित किया गया, क्या नेपाल में ऐसा नहीं हुआ. सत्तावर्ग ने इन शब्दों के मायने ही आरक्षित कर लिये हैं. किसी भी समय का अतिवाद, उस समय के सत्तावर्ग के लिये अपराधी और भविष्य के समाज का निर्माता होता है बशर्ते वह उन मूल्यों के लिये हो जो मानवीयता और आज़ादी के दायरे को व्यापक बनाये.

उन्हें उग्रवादी घोषित कर दिया जायेगा, आसानी से अराजक कह दिया जायेगा जो आवाज़ उठाते हैं कि घोषित करने वालों की बनी बनायी व्यवस्थायें, भले ही वह एक व्यापक समुदाय के लिये निर्मम और अमानवीय हो पर उनके लिये सुविधा भोगी है, के खिलाफ आवाज़ उठाना, उनकी व्यवस्थित जिंदगी व उनके जैसे भविष्य में आने वालों की जिंदगी में खलल पैदा करती है. मसलन आप असन्तुष्ट रहें पर इसे व्यक्त न करें, व्यक्त भी करें तो उसकी भी एक सीमा हो, उसके तौर-तरीके उन्होंने बना रखें हैं. इसके बाहर यदि आप उग्र हुए, गुस्सा आया तो यह उग्रवादी होना है. इस प्रवृत्ति को आपसी बात-चीत, छोटे संस्थानों से लेकर देश की बड़ी व्यवस्थाओं तक देखा जा सकता है जहाँ असंतुष्ट होना, असहमति उनके बने बनाये ढांचे से बाहर दर्ज करना, अराजक और उग्रवादी होना है और इन शब्दों के बोध जनमानस में अपराधिकृत कर दिये गये हैं.

अभिषेक मुखर्जी जिसकी बंगाल पुलिस द्वारा हाल में ही हत्या कर दी गयी क्या यह सोचने पर विवश नहीं करता कि आखिर वे क्या कारण हैं कि १३ भाषाओं का जानकार और जादवपुर विश्वविद्यालय का एक प्रखर छात्र देश की उच्च पदाधिकारी बनने की सीढ़ीयां चढ़ते-चढ़ते लौट आता है और लालगढ़ के जंगलों में आदिवासियों की लड़ाई लड़ने चला जाता है, क्या यह सचमुच युवाओं का भटकाव है जो गुमराह हो रहे हैं, जिसे सरकार बार-बार दोहराती रहती है या व्यवस्था की कमजोरी और सीमा की पहचान कर विकल्प की तलाश. अनुराधा गांधी, कोबाद गांधी, साकेत राजन, तपस चक्रवर्ती, शायद देश और दुनिया के बड़े नौकरशाह बन सकते थे, पर वर्षों बरस तक लगातार जंगलों की उस लड़ाई का हिस्सा बने रहे जिसे सरकार अतिवाद की लड़ाई मानती है और ये उसे अधिकार की. शायद समाज में जब तक अतिवाद और अतिवादि रहेंगे, स्वभाव में जब तक उग्रता बची रहेगी तमाम दुष्प्रचारों के बावजूद नये समाज निर्माण की उम्मीदें कायम रहेंगी.