-दिलीप ख़ान
फ़्रांस में जिस दिन सेवानिवृत्ति की न्यूनतम उम्र बढाने के सरकारी फ़ैसले के ख़िलाफ़ लोग सड़क पर उतरे, उससे दो-एक दिन पहले अमेरिका, इंग्लैंड और फ़्रांस सहित अन्य दस यूरोपीय देशों में हुए सर्वे के हवाले से एक शोध पत्र प्रस्तुत हुआ. इस शोध पत्र में बताया गया कि सेवानिवृत्ति के साथ ही लोग मानसिक तौर पर भी ’सेवानिवृत्त’ हो जाते हैं, इसलिए बुजुर्ग, यदि अपने मस्तिष्क को चलायमान रखना चाहते हैं तो उन्हें अधिक उम्र तक काम करना चाहिए. इस शोध रिपोर्ट को यूरोप, और अमेरिका के कई अख़बारों ने प्रमुखता से छापा. ऐसी रिपोर्टों को लेकर अब यह साफ़ होता जा रहा है कि ये राजसत्ता के फ़ैसले को या तो एक मज़बूत पृष्ठभूमि देती हैं या फ़िर उनके फ़ैसले को वैज्ञानिकता का लबादा पहनाती हैं. फ़्रांस के संदर्भ में निकोलस सरकोजी के फ़ैसले को यह अकादमिक और वैज्ञानिक शोध-प्रणाली के जरिए समर्थन दे रही है. सरकोजी सरकार ने सेवामुक्ति के लिए न्यूनतम उम्र को ६० से बढ़ाकर ६२ करने की योजना बनाई है. युवा-वर्ग इसे बेरोजगारी की दर को और बढाने वाला कदम मान विरोध कर रहा है. सरकार का तर्क है कि देश में सक्रिय कामकाजी लोगों के मुक़ाबले सेवानिवृत्तों की संख्या लगातार बढ रही है और इससे देश पर ॠण का भार बढता जा रहा है. १९४५ में जब इस नियम को अपनाया गया था तो उस समय चार कामकाजी लोगों पर एक सेवानिवृत्त का अनुपात था. अब यह घटकर चार के मुक़ाबले डेढ रह गया है. सरकार ने दूसरा तथ्य यह दिया है कि उस समय की तुलना में फ़्रांस का एक औसत नागरिक अब १५ साल अधिक जीता है. इसका मतलब यह हुआ कि फ़्रांस सरकार काम करने की क्षमता के लिए किसी ख़ास उम्र को पैमाना नहीं बना रही है बल्कि यह लोगों के मृत्यु से १० साल या २० साल पहले सेवानिवृत्त होने के दलील को सामने रख रही है. इसीलिए सरकार ने २०१७ तक सेवानिवृत्ति के लिए न्यूनतम उम्र को बढाकर ६७ करने की योजना भी सामने रखी है. इससे पहले एक वैज्ञानिक शोध इस आशय का भी हुआ था कि काम करने की क्षमता उम्र बढने के साथ-साथ घटती जाती है. अब इन दोनों शोध में से लोग किसे ठीक माने, यह एक सवाल है, लेकिन इससे यह तो स्पष्ट होने लगा है कि शोध की भी अपनी एक राजनीति है.
यह राजनीति राज्य की बात को मज़बूती प्रदान करने की है और उसे ऐसी शक्ति प्रदान करने की है जिसके बदौलत सरकार इसके विरोध में उठने वाली आवाज़ को कमज़ोर करने के लिए कोई भी क़दम उठा सके. निकोलस सरकोजी ने मौजूदा प्रदर्शनों को लेकर इस आशय की बात कहीं कि लोकतंत्र में लोगों के पास अपने को अभिव्यक्त करने का पूरा हक़ है लेकिन वे अधिक उत्तेजित और अनियंत्रित नहीं हो सकते...... और यह प्रदर्शन कुछ संख्या में अराजक तत्त्वों के इसमें शामिल होने का नतीजा हैं, उनसे पार पा लिया जाएगा. एक ऐसे समय में, जब दुनिया भर में सत्ता के विरोध में होने वाले प्रदर्शनों को लगातार सीमित किया जा रहा है और ज़्यादातर मौक़ों पर शासनतंत्र उन्हें अनसुना करने की हरसंभव कोशिश करता है, लोग अपने विरोध को एक ’लोकतांत्रिक देश’ में कैसे व्यक्त करे, यह महत्त्वपूर्ण हो जाता है. हर प्रदर्शन को अराजक या फ़िर ’दिक्कत पैदा करने वाले समूह’ के रूप में स्थापित करने की नियोजित कोशिश हो रही है. इनसे पार पाने के लिए राज्य के पास कई तरीके मौजूद हैं. एक तरीका तो इन प्रदर्शनों पर चुप्पी साध लेना है. ’कुछ नहीं’ करना है. लेकिन अगर प्रदर्शन का दबाव अधिक हो तो यह तरीका कारगर नहीं होता; ऐसे में पार पाने के अन्य तरीकों पर राज्य को विचार करना पड़ता है. पार पाने की प्रक्रिया में राज्य जब उत्तेजित और अनियंत्रित होता है तो वह इसे लोकतंत्र स्थापना के लिए किए गए प्रयास का हिस्सा मानता है. इसका मतलब यह हुआ कि राजसत्ता की मशीनरी की उत्तेजना और प्रदर्शनकारी समूह की उत्तेजना में और उनके अभिव्यक्ति में समानता नहीं है. समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के नारे पर स्थापित हुए फ़्रांस के महान लोकतंत्र में लोकतंत्र की परिभाषा में आ रहे क्रमिक बदलाव का यह अगला चरण है. फ़्रांस में लोकतंत्र स्थिति को बहाल करने के लिए सरकोजी ने दूसरे रास्ते पर भरोसा जताया है. दरअसल पूरी दुनिया में लोकतंत्र अब बहाल करने की वस्तु में परिवर्तित हो गई है. भीतरी लोकतंत्र लगातार खोखला हुआ है. लोकतंत्र बहाली के क्रम में अपनी बातों को सफ़लता से लोगों के बीच ले जाने के लिए राज्य सर्वे, शोध जैसे तमाम हथकंडों का सहारा लेता है. नए तरीके को विकसित करने के लिए आजकल ’क्राइसिस मैनेजमेंट’ जैसे कोर्स को प्रोत्साहित किया जा रहा है. मीडिया अकादमिक में संकटकालीन जनसंपर्क पढ़ाया जा रहा है. यह इस उम्मीद में पढ़ाया जा रहा है कि ऐसे जनसंपर्क सीखने के बाद प्रशिक्षु संकटमोचक में परिवर्तित हो जाए और मुश्किल हालात में किसी सरकारी संस्थान या किसी कॉरपोरेट कंपनी का वह संकट हर लें.
संपर्क: दिलीप, प्रथम तल्ला, C/2 ,पीपल वाला मोहल्ला, बादली एक्सटेंशन, दिल्ली-४२, मो. - +91 9555045077
E-mail - dilipk.media@gmail.com
फ़्रांस में जिस दिन सेवानिवृत्ति की न्यूनतम उम्र बढाने के सरकारी फ़ैसले के ख़िलाफ़ लोग सड़क पर उतरे, उससे दो-एक दिन पहले अमेरिका, इंग्लैंड और फ़्रांस सहित अन्य दस यूरोपीय देशों में हुए सर्वे के हवाले से एक शोध पत्र प्रस्तुत हुआ. इस शोध पत्र में बताया गया कि सेवानिवृत्ति के साथ ही लोग मानसिक तौर पर भी ’सेवानिवृत्त’ हो जाते हैं, इसलिए बुजुर्ग, यदि अपने मस्तिष्क को चलायमान रखना चाहते हैं तो उन्हें अधिक उम्र तक काम करना चाहिए. इस शोध रिपोर्ट को यूरोप, और अमेरिका के कई अख़बारों ने प्रमुखता से छापा. ऐसी रिपोर्टों को लेकर अब यह साफ़ होता जा रहा है कि ये राजसत्ता के फ़ैसले को या तो एक मज़बूत पृष्ठभूमि देती हैं या फ़िर उनके फ़ैसले को वैज्ञानिकता का लबादा पहनाती हैं. फ़्रांस के संदर्भ में निकोलस सरकोजी के फ़ैसले को यह अकादमिक और वैज्ञानिक शोध-प्रणाली के जरिए समर्थन दे रही है. सरकोजी सरकार ने सेवामुक्ति के लिए न्यूनतम उम्र को ६० से बढ़ाकर ६२ करने की योजना बनाई है. युवा-वर्ग इसे बेरोजगारी की दर को और बढाने वाला कदम मान विरोध कर रहा है. सरकार का तर्क है कि देश में सक्रिय कामकाजी लोगों के मुक़ाबले सेवानिवृत्तों की संख्या लगातार बढ रही है और इससे देश पर ॠण का भार बढता जा रहा है. १९४५ में जब इस नियम को अपनाया गया था तो उस समय चार कामकाजी लोगों पर एक सेवानिवृत्त का अनुपात था. अब यह घटकर चार के मुक़ाबले डेढ रह गया है. सरकार ने दूसरा तथ्य यह दिया है कि उस समय की तुलना में फ़्रांस का एक औसत नागरिक अब १५ साल अधिक जीता है. इसका मतलब यह हुआ कि फ़्रांस सरकार काम करने की क्षमता के लिए किसी ख़ास उम्र को पैमाना नहीं बना रही है बल्कि यह लोगों के मृत्यु से १० साल या २० साल पहले सेवानिवृत्त होने के दलील को सामने रख रही है. इसीलिए सरकार ने २०१७ तक सेवानिवृत्ति के लिए न्यूनतम उम्र को बढाकर ६७ करने की योजना भी सामने रखी है. इससे पहले एक वैज्ञानिक शोध इस आशय का भी हुआ था कि काम करने की क्षमता उम्र बढने के साथ-साथ घटती जाती है. अब इन दोनों शोध में से लोग किसे ठीक माने, यह एक सवाल है, लेकिन इससे यह तो स्पष्ट होने लगा है कि शोध की भी अपनी एक राजनीति है.
यह राजनीति राज्य की बात को मज़बूती प्रदान करने की है और उसे ऐसी शक्ति प्रदान करने की है जिसके बदौलत सरकार इसके विरोध में उठने वाली आवाज़ को कमज़ोर करने के लिए कोई भी क़दम उठा सके. निकोलस सरकोजी ने मौजूदा प्रदर्शनों को लेकर इस आशय की बात कहीं कि लोकतंत्र में लोगों के पास अपने को अभिव्यक्त करने का पूरा हक़ है लेकिन वे अधिक उत्तेजित और अनियंत्रित नहीं हो सकते...... और यह प्रदर्शन कुछ संख्या में अराजक तत्त्वों के इसमें शामिल होने का नतीजा हैं, उनसे पार पा लिया जाएगा. एक ऐसे समय में, जब दुनिया भर में सत्ता के विरोध में होने वाले प्रदर्शनों को लगातार सीमित किया जा रहा है और ज़्यादातर मौक़ों पर शासनतंत्र उन्हें अनसुना करने की हरसंभव कोशिश करता है, लोग अपने विरोध को एक ’लोकतांत्रिक देश’ में कैसे व्यक्त करे, यह महत्त्वपूर्ण हो जाता है. हर प्रदर्शन को अराजक या फ़िर ’दिक्कत पैदा करने वाले समूह’ के रूप में स्थापित करने की नियोजित कोशिश हो रही है. इनसे पार पाने के लिए राज्य के पास कई तरीके मौजूद हैं. एक तरीका तो इन प्रदर्शनों पर चुप्पी साध लेना है. ’कुछ नहीं’ करना है. लेकिन अगर प्रदर्शन का दबाव अधिक हो तो यह तरीका कारगर नहीं होता; ऐसे में पार पाने के अन्य तरीकों पर राज्य को विचार करना पड़ता है. पार पाने की प्रक्रिया में राज्य जब उत्तेजित और अनियंत्रित होता है तो वह इसे लोकतंत्र स्थापना के लिए किए गए प्रयास का हिस्सा मानता है. इसका मतलब यह हुआ कि राजसत्ता की मशीनरी की उत्तेजना और प्रदर्शनकारी समूह की उत्तेजना में और उनके अभिव्यक्ति में समानता नहीं है. समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के नारे पर स्थापित हुए फ़्रांस के महान लोकतंत्र में लोकतंत्र की परिभाषा में आ रहे क्रमिक बदलाव का यह अगला चरण है. फ़्रांस में लोकतंत्र स्थिति को बहाल करने के लिए सरकोजी ने दूसरे रास्ते पर भरोसा जताया है. दरअसल पूरी दुनिया में लोकतंत्र अब बहाल करने की वस्तु में परिवर्तित हो गई है. भीतरी लोकतंत्र लगातार खोखला हुआ है. लोकतंत्र बहाली के क्रम में अपनी बातों को सफ़लता से लोगों के बीच ले जाने के लिए राज्य सर्वे, शोध जैसे तमाम हथकंडों का सहारा लेता है. नए तरीके को विकसित करने के लिए आजकल ’क्राइसिस मैनेजमेंट’ जैसे कोर्स को प्रोत्साहित किया जा रहा है. मीडिया अकादमिक में संकटकालीन जनसंपर्क पढ़ाया जा रहा है. यह इस उम्मीद में पढ़ाया जा रहा है कि ऐसे जनसंपर्क सीखने के बाद प्रशिक्षु संकटमोचक में परिवर्तित हो जाए और मुश्किल हालात में किसी सरकारी संस्थान या किसी कॉरपोरेट कंपनी का वह संकट हर लें.
संपर्क: दिलीप, प्रथम तल्ला, C/2 ,पीपल वाला मोहल्ला, बादली एक्सटेंशन, दिल्ली-४२, मो. - +91 9555045077
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