20 अक्तूबर 2010

गरीब की रपट मे गरीबी

चन्द्रिका
अमेरिका की सरकार को मेलघाट (महाराष्ट्र) के भूख से मर रहे बच्चोँ के बारे मेँ शायद जानकारी न हो और न ही अमेरिका की सरकारी संस्था नेशनल इंटेलीजेंस काउंसिल के बारे मेँ मेलघाट के लोगोँ को कोई जानकारी हो जहाँ देश मे भुखमरी के कारण रोज बडे पैमाने पर लोगोँ की मौत हो रही है और अधिकाँस बच्चे कुपोषण का शिकार हैँ. अमेरिका की इस संस्था ने अभी हाल मेँ “ग्लोबल गवर्नेंस 2025” नाम से एक रिपोर्ट प्रस्तुत की है जिसमे कहा गया है कि भारत दुनियाँ की तीसरी सबसे बडी ताकत है और दुनियाँ की 8 फीसदी ताकत केवल भारत के पास है, इस रिपोर्ट मेँ अमेरिका ने खुद को पहले स्थान पर रखा है और चीन को दूसरे स्थान पर रखा गया है. दुनिया के शक्तिशाली देश अपने शक्ति प्रदर्शन के लिये इस तरह की बौद्धिक कसरत लगातार करते हैँ और वर्चस्वशीलता की रिपोर्टे प्रस्तुत करते रहते है. इस तौर पर कुछ ऐसे आधार बनाकर वे अकादमिक व सरकारी सर्वेक्षण करवाते हैँ जिसमे वे खुद को अव्वल घोषित कर सकेँ और इन सर्वेक्षणोँ को लगातार प्रचारित किया जाता है. अपने शक्तिशाली जनमाध्यमोँ द्वारा दुनिया मेँ इन खबरोँ को पहुँचाना उनके लिये काफी आसान होता है. यही खबरेँ दुनियाँ के लोगोँ मे उस मानसिकता की निर्मिति और विकास करती हैँ जहाँ एक देश के प्रति अन्य देश के लोगोँ और साशको के लिये सबसे बडी ताकत का एहसास व भय लगातार बना रहता है. यह सांसकृतिक साम्राज्य को बनाये रखने का एक तरीका है, हिटलर के प्रचार मंत्री गोयबल्स से आगे का तरीका. दुनियाँ मेँ गरीबी, भुखमरी, जीवन स्तर, राष्ट्रीय शक्ति को लेकर पत्रिकाओँ व सँस्थाओँ के द्वारा प्रति वर्ष सैकडोँ रिपोर्टेँ प्रस्तुत की जाती हैँ. ये राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय दोनोँ तरह की होती हैँ पर आखिर इनके तथ्यात्मक आधार मे इतना अंतराल क्योँ होता है. 2005 से लेकर अब तक भारत मे गरीबी पर कई रिपोर्टे प्रस्तुत की गयी है. चर्चित अर्जुन सेनगुप्ता रिपोर्ट मे देश के गरीबो की तादात 78 प्रतिशत थी, तो सुरेश तेन्दुलकर की रिपोर्ट मे 37.2 प्रतिशत, एन.सी. सक्सेना ने गरीबी का जो आंकडा रखा वह 50 प्रतिशत था और विश्व बैंक ने भारत मे 42 प्रतिशत गरीबो को प्रस्तुत किया जो 26 अफ्रीकी देशो के गरीबो की संख्या से एक करोड ज्यादा था. निश्चित तौर पर ये अंतराल इसलिये आये क्योँकि गरीबी रेखा का जो मानक है सभी ने अलग-अलग रखा है. सरकार ने गरीबी जीवन रेखा का जो पैमाना 1970 मे तय किया था यदि उसके आधार पर कोई रिपोर्ट तैयार की जायेगी तो सेनगुप्ता के 78 प्रतिशत गरीब 30 प्रतिशत भी नहीँ बचेंगे परंतु मूल सवाल जीवन स्तर का है, उस वास्तविकता का जिसे देश को महाशक्ति के रूप मे प्रचारित करते हुए देश की सरकार छुपा लेती है. यू.एन.डी.पी. यूनाइटेड नेशंस डेवलप्मेंट प्रोग्राम ने 2009 मे दुनिया के 184 देशो की एक सूची प्रस्तुत की थी जिसमे यह देखा गया कि भारत के लोगो का जीवन स्तर लगातार गिरता जा रहा है जहाँ 2006 मे दुनिया के देशो मे 126वाँ था वही क्रमशः 2008 मे 128वाँ व 2009 मे 134वाँ हो गया है जो कि हमारे पडोसी और कमजोर कहे जाने वाले देश भूटान, नेपाल, श्रीलंका से भी कम है. हमारे देश मे बडी स्ंख्या है जो खाद्य पूर्ति के आभाव मे मर रही है ऐसे मे जीवन स्तर का घटना स्वाभाविक है. दरअसल लोगो के पास अपने जीवन स्तर ठीक रखने के लिये जिन आर्थिक आधारो की जरूरत है और ये आर्थिक आधार इन्हे रोजगार से मिल सकते है परंतु सरकार ऐसा कोई ठोस मसौदा अभी तक तैयार नही कर पा रही है जिससे बहुसंख्या के लिये जिन क्षेत्रो मे रोजगार उपलब्ध है उन्हे सहूलियत हो. बजाय इसके औद्योगिक क्षेत्रो के लाभ पहुंचाने वाले व रोजगार के अवसर कम करने वाले क्षेत्रो की तरफ ही ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है. भारत का 58 फीसदी रोजगार कृषि से जुडा हुआ है और महज 8 फीसदी रोजगार प्रसाशन, आई.टी. क्षेत्र, चिकित्सा के क्षेत्रो से ऐसे मे कृषि के क्षेत्र मे सरकार की विमुखता देश मे जीवन स्तर के गिरावट का ही संकेत देती है. इसके बावजूद गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वालो या फिर भूमिहीनो जो कि कृषि से सम्बद्ध नही है उनकी स्थिति को सुधारा जा सकता है यदि देश मे खाद्यानो की वितरण प्रणाली को ठीक कर दिया जाय पर न्यायपालिका के आदेश को लेकर अभी विधायिका व अन्य देश के प्रमुख नेताओ ने जिस तरह की टिप्पणि की उससे यही लगता है कि देश की सरकार शक्तिशाली होने का गौरव और देश मे भुखमरी दोनो को साथ मे रखना चाहती है. देश मे 550 टन से लेकर 600 टन के बीच खाद्यान का भण्डारण हो चुका है जिसमे 50 फीसदी हिस्सा दो साल पुराना है. जबकि सरकार के पास भंडारण क्षमता इसकी आधी है इसके बावजूद गरीबो को अनाज न वितरित करना यही सन्देश देता है कि सरकार विकास की एकमुखी तस्वीर से ही देश की तस्वीर बनाना चाहती है. निश्चित तौर पर देश मे गरीबी व गरीबो को लेकर जो रिपोर्ट राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय आधार पर प्रस्तुत की जाती है उसका सम्बन्ध यथार्थ की जमीन पर नही बल्कि एक ऐसे आधार के साथ किया जाता है जिससे निहित स्वार्थो का प्रचार किया जा सके.

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