10 दिसंबर 2010

गोपनीयता बरतने का अमेरिकी करतब



- देवाशीष प्रसून
ख़िरकार विकिलिक्स के संस्थापक जूलियन असांज को गिरफ़्तार कर ही लिया गया। उन पर यौन उत्पीड़न के आरोप हैं। सवाल यह है कि क्या सच में यह मामला यौन-उत्पीड़न का है या विकिलिक्स द्वारा किए गए पर्दाफ़ाशों से संयुक्त राज्य अमरीका ही नहीं उसके तमाम पिट्ठू देश सकते में आ गए हैं? इस बात में कोई शक नहीं है कि जूलियन को इसलिए निशाना बनाया जा रहा है, क्योंकि उसने दुनिया की सबसे बड़ी सत्ता की गोपनीयता की धज्जियाँ उड़ा दी हैं। वर्ना, देखने वाली बात है कि दुनिया भर में यौन मामलों में अंतरराष्ट्रीय पुलिस और न्याय व्यवस्था की हरकत देखने को कितनी बार मिली है? आस्ट्रेलियाई नागरिक जूलियन को ब्रिटिश पुलिस ने लंडन में हिरासत में लिया है और उन पर न्यायिक मामला स्वीडन में लंबित है। गौरतलब है कि दुनिया भर में अपना रुतबा रखने वाले फ़िल्मकार केन लोच और पत्रकार जॉन पिल्जर जैसे विश्व विख्यात शख्सियतों के कुल एक लाख अस्सी हज़ार डॉलर के मुचलके पर भी जूलियन को जमानत पर नहीं छोड़ा जा रहा है। यौन-मामलों में इस तरह की सजगता क़ाबिल-ए-तारीफ़ है। पर सोचने वाली बात है कि क्या सचमुच जूलियन पर न्यायिक कार्रवाई यौन अपराधों के मद्देनज़र हो रही है? जाहिर सी बात है कि विकिलिक्स ने खोजी पत्रकारिता का जो इतिहास रचा है, इसके लिए जूलियन को अमरीकी सत्ता अपने काबू में नहीं ले सकती थी, तो उन्हें दूसरे बहाने से कब्ज़े में लिया गया।

हालाँकि माहौल तो यह भी बनाया गया कि अल क़ायदा की तर्ज पर विकिलिक्स को भी आधिकारिक तौर पर एक आतंकवादी संगठन घोषित कर दिया जाए, पर अब तक यह हो नहीं सका है। इस बाबत द हाऊस होमलैंड सुरक्षा समिति के अध्यक्ष पीटर किंग ने इसके लिए बहुत प्रयास किए। किंग ने अमरीका की राज्य सेकरेटरी हिलेरी क्लिंटन को एक आधिकारिक ख़त में लिखा था कि विकिलिक्स से देश की सुरक्षा को ख़तरा है, इसलिए विकिलिक्स को आतंकवादी संगठन घोषित कर देना चाहिए। दरअसल गोपणीय सूचनाओं के पर्दाफ़ाश के बाद अमरीका की स्थिति दुनिया भर में किसी को मुँह दिखाने लायक नहीं बची है। यह जाहिर हो गया है कि अमरीकी सरकार अन्य देशों और उसके प्रमुख के बारे में कितनी ओछी सोच रखती है। अब यह बात भी खुल-ए-आम हो गई है अमरीका की विदेश नीति किस तरह से अंतरराष्ट्रीय सौहार्द्य को ठेंगे पर रखती है और कैसे-कैसे उसने इराक को युद्ध में नेस्तोनाबूद कर दिया। विकिलिक्स ने अमरीका के अंतरराष्ट्रीय साख को धुँआ कर दिया है। अब इसके बाद मारे शर्म और जिल्लत के अमरीका और उसकी दुनिया भर फैली एजेंसियाँ जवाबी कार्रवाई कर विकिलिक्स को सबक सिखाना चाहती हैं। जब कूटनीतिक तरीकों से विकिलिक्स दवाब में नहीं आया तो इस सिलसिले में इन ताक़तों ने विकिलिक्स के वेबसाइट पर तकनीकी हमलों का बौछार कर दिया। इंटरनेट के क़ानूनों और नैतिकताओं को ताक पर रख कर विकिलिक्स पर बड़े जोरदार तरीके से वाइरसों के हमले हुए। इससे भी मामला क़ाबू में नहीं आया तो विकिलिक्स को वेबसाइट चलाने की सेवा जो कंपनी दे रही थी, उसे खोपचे में लेते हुए विकिलिक्स के कामकाज को ठप्प किया गया। बेचारी कंपनी ने बहाना यह बनाया कि विकिलिक्स पर होने वाले वाइरस हमले इतने तीव्र हैं कि अगर उसे बंद न किया जाता हो पूरी इंटरनेट व्यवस्था ही मटियामेट हो जाती। इसे कहते हैं, मना करने पर भी कोई आपकी बात न मानें तो उसे मज़बूर कर देना कि वह चाह कर भी कुछ कर न सके। और अमरीका इसमें माहिर है।

और याद होगा कि किस तरह से पहली बार जब विकिलिक्स ने कई आँखें खोलने वाली सूचनाओं की गोपनीयता को खत्म किया था तो स्वीडन की सत्ता उसे पहले ही तमाम तरह की धमकियाँ दे चुकी थी। लेकिन विकिलिक्स बिना किसी दवाब में आए गुप्त सूचनाओं का पर्दाफ़ाश करते रहा। दरअसल गौर करें तो अमरीका हमेशा से ही सूचनाओं की गोपनीयता को लेकर संवेदनशील रहा है। सन चौरासी की बात है कि अमरीका ने इसी तरह से यूनेस्को पर भी यों कूटनीतिक हमला किया था। यूनेस्को के साथ अमरीका के तू तू-मैं मैं का सबब मैकब्राइड समिति के सुझावों के तहत बनाए जाने वाली नई विश्व सूचना व संचार व्यवस्था को तवज्जो देना था। तब आलम यह था कि सूचना व्यवस्था के लोकतंत्रीकरण से अमरीका इतना बौखला गया कि उसने यूनेस्को के अपने सारे संबंध तोड़ लिए। विश्व सामंजस्य की लफ़्फ़ाजी करने वाला अमरीका इतना ज़िद्दी है कि वह अंतरराष्ट्रीय शिक्षा, विज्ञान और संस्कृति को समर्पित संयुक्त राष्ट्र के इस उपांग से उन्नीस साल तक मुँह फैलाए रहा, जब तक कि यूनेस्को ने अपनी संचार नीतियों में अमूलचूल बदलाव नहीं लाए।

अमरीका ही नहीं, दुनिया में मौज़ूद तमाम साम्राज्यवादी ताक़तों के इस फ़ितरत पर गौर करें। वह गोपनीयता को लेकर बड़े संवेदनशील रहे हैं। भारत में भी देखिए मीडिया और सियासत के बंदरबाट से जुड़े बड़े-बड़े खलीफ़ाओं की गद्दियाँ नीरा राडिया के टेप्स के बेपर्द होने से हिल गईं हैं। सीधे-सीधे यह मामला सत्ता पर क़ाबिज़ लोगों के भ्रष्टाचार और गोरखधंधा को उन लोगों से छुपा के रखने का है, जो उन्हें इन सत्ता के सिंहासन पर बैठाते हैं और इस तरह के खुलासे सत्तासीनों के अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा कर देते हैं।
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संप्रति: पत्रकार व मीडिया स्टडीज़ ग्रुप, नई दिल्ली व जर्नलिस्ट यूनियन फ़ॉर सिविल सोसायटी के लिए सक्रिय
दूरभाष: 09555053370 -मेल: prasoonjee@gmail.com

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