27 नवंबर 2010

दलित उत्पीड़न में निरुत्तर प्रदेश

चन्द्रिका
अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष पी.एल. पुनिया ने उत्तर प्रदेश में बढ़ रहे दलित उत्पीड़न के मामले पर जो चिंता जताई और राज्य सरकार पर दलित उत्पीड़न की अनदेखी के जो आरोप लगाये हैं वह अहम इसलिये हो जाते है कि मायावती के मुख्यमंत्री बनने का आधार, प्रदेश का यही वर्ग रहा है और बहुजन समाज पार्टी की पूरी सियासत इसी पर टिकी हुई है. राज्य के २१ प्रतिशत दलितों में से अधिकांस अपने उत्थान की आस्था मायावती सरकार से लगाये हुए हैं. जबकि अब यह समीकरण थोड़ा बदल गया है और सियासत करने के जिस फार्मूले को सोसल इंजीनियरिंग के नाम से प्रचारित किया गया वह उत्तर प्रदेश में इससे पहले तक काबिज बर्चस्वशाली सवर्ण वर्गों का सिस्टम में अपने पुर्जे फिर से फिट करने का अवसर देना था. सोसल इंजिनीयरिंग ने एक बार फिर से साबित किया कि इस व्यवस्था में विचारधारा और झंडे उतनी अहमियत नहीं रखते, अहमियत जगह और ताकत की है. बहुजन समाज पार्टी के नारे और उनके साथ विम्बित होते विचार भी बदलते गये. कांशीराम के समय जिस वर्ग को वह जूते मार कर ठीक करने की बात करती थी अब उन्ही को इंजीनियरों से ठीक करवा रही है.
पी.एल. पुनिया ने दलितों के उत्पीड़न से जुड़े कुछ तथ्य प्रस्तुत किये तो मायावती सरकार ने पी.एल. पुनिया के आरोपों को खारिज करते हुए भी कुछ तथ्य रखे. अनुसूचित जाति आयोग झूठा हो सकता है, तो राज्य सरकार भी झूठी हो सकती है और वे आंकड़े जो राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो द्वारा प्रस्तुत किये जाते हैं वे भी झूठे हो सकते है. इस संरचना में इन सबकी सम्भावनायें मौजूद हैं. बावजूद इसके राज्य सरकार को खुद के द्वारा एकत्रित किये हुए आंकड़ों में यकीन होना ही चाहिये जो हर साल बढ़ोत्तरी के साथ सामने आ रहे हैं. यदि दलित महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनायें ही देखी जायें तो २००६ में जहाँ २४० थी, वहीं २००७ में ३१८ और २००८ में ३७५ के आंकड़े के साथ बढ़ी हुई हैं. ये वे आंकड़े हैं जिन्हें दर्ज कर लिया गया है सम्भव है यह घटनाओं का न्यून प्रतिशत ही हो.
इसके पहले भी अनुसूचित जाति आयोग की सदस्य व उत्तरप्रदेश प्रभारी सत्या बहन यह जाहिर कर चुकी हैं कि दलित उत्पीड़न के मामले में उत्तर प्रदेश सबसे आगे है यहाँ तक कि बहुजन समाज पार्टी के नेताओं के ऊपर भी दलित महिलाओं के साथ बलात्कार के आरोप लगे हैं. सिर्फ दलित महिलाओं के साथ ही नहीं बल्कि दलित वर्ग के प्रति उत्पीड़न का जो स्वरूप था वह भी अपने पुराने रूप में ही मौजूद है इटावा में सफाईकर्मी राजेन्द्र बाल्मीक के सिर को मुड़वाकर चौराहा बनाना या फिर हमीरपुर के मझोली गाँव में ५ साल की दलित बच्ची के साथ बलात्कार किये जाने की घटनायें भले ही पुरानी पड़ गयी हों पर पुनिया के बयान से ठीक पहले ही आजमगढ़ के कुरहंस गाव में १८ अक्टूबर को संगीता नाम की एक दलित लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार राज्य सरकार द्वारा दी जाने वाली सफाई पर पानी जरूर डाल देती है. जबकि थाने में शिकायत दर्ज करने के लिये पीड़ित पक्ष को बड़ी मसक्कत से एक पूर्व आइ.पी.एस. आधिकारी से सिफारिस करवानी पड़ी. यह एक सच्चाई है कि मायावती के पास कोई ऐसा तरीका नहीं है जिससे ऐसी घटनायें तत्काल संज्ञान में आ सकें और शिकायत दर्ज करने या आरोपियों पर कार्यवाई करने में हस्तकक्षेप कर सकें जबकि जिले व थाने में बैठे जो अधिकारी हैं वे अपनी सवर्ण और महिला विरोधी मानसिकता के तहत ही काम करते हैं. बसपा की सरकार ने दलित समाज निश्चिततौर पर आर्थिक व सुविधाओं के लिहाज से कुछ मोहलतें जरूर दी हैं पर उसके दूसरे आयाम भी हैं जिसका बन्दोबस्त अभी तक नहीं किया जा सका है. अब तक सुविधाओं और दलितों के श्रम को भोगने वाला सवर्ण जब दलितों को उस तौर पर जीहुजूरी करता नहीं पाता जिस तौर पर वे कुछ वर्ष पहले किया करते थे, दलितों के घरों के ईंट और अपने दीवारों के रंग एक होता देखता है तो उसके पास दलितों को अपमानित करने का यही तरीका बचता है जिसमे वह महिलाओं के साथ दुस्कर्म करके सामाजिक रूप से दलित समाज को अवनत करता है.
भौतिक आधार पर राज्य के दलितों में जो उन्नति हुई है उसके बरक्स सरकार के पास कोई ऐसा कार्यक्रम होना चाहिये था जिससे वह समाज में जातीय भेद को कम कर सके. इस तरह के सांस्कृतिक कार्यक्रम नहीं बनाये गये जिससे इस संक्रमण काल को सवर्ण पचा सकें या फिर दलित चेतना इतनी प्रतिरोधी हो सके कि वह मौन या तंत्र के संस्थानों से अलग इन तत्वों से लड़ सके. बसपा. से यह सम्भव इसलिये भी नहीं हो सका क्योंकि वह दलित समाज को चेतनशील करना भी नहीं चाहती सिवाय इसके कि इस समाज के अंदर भी एक छोटा मध्यम वर्ग पनप आये. लिहाजा जब तक सांस्कृतिक तौर पर सामाजिक रूप से वर्चस्वशाली बने आये वर्ग के साथ संघर्ष नहीं किया जायेगा उत्पीड़न के स्वरूप बदलाव के साथ मौजूद रहेंगे. यह बसपा या संसद की संरचना से अलग हटकर ही सम्भव है जिसमे वोट की लालच किये बगैर सामाजिक परिवर्तन के लिये सांस्कृतिक आंदोलन चलाने पड़ेंगे.

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