17 अक्तूबर 2010

जिलों में नहीं, ज़ेहन में बस रहा माओवाद:

चन्द्रिका

जो आवाजें आ रही हैं पार्श्‍व से वे ’दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र’ के रंगमंच पर खेले जा रहे नाटकों की हैं. उनकी धुने सरकार और कार्पोरेट के पूरे तंत्र ने मिलकर तैयार की हैं जिसमे भय का संगीत सुनायी पड़ता है और पूरा माओवादी आंदोलन महज एक खौफनाक आवाज बनकर हमारे कानों तक पहुंच रहा है. आतंकी गतिविधियों और आदोलनों के फर्क को मिटा दिया गया है. जबकि संसदीय लोकतंत्र के इस नाटक के खिलाफ हर बोलने वाला माओवादी है तो क्या हर चुप रहने वाला सरकारी? लोकतंत्र जैसी व्यवस्था में ऐसा नहीं होना था पर यह हो रहा है क्या हमे लोकतंत्र की परिभाषायें फिर से नहीं तलासनी चाहिये एक ऐसी संरचना की तलास हमे कर ही लेनी चाहिये जिस पर आने वाली पीढ़ीयां जिंदा रह सके विभेद के साथ नहीं बल्कि समता-समानता के लोकतांत्रिक मूल्य के साथ. असली आज़ादी का फल चखने के लिये एक पौधा हमे रोप देना चाहिये. लिहाजा सवाल अब भी वहीं नहीं ठहरे हैं जहाँ सत्तर के दशक में नक्सलवाड़ी आंदोलन थे, वे आगे बढ़ चुके हैं. सरकारी आंकड़ों से कहीं भिन्न, माओवादी अब जिलों में नहीं लोगों के ज़ेहन में बसते हैं. मैंने प्रधानमंत्री को कई बार माओवादी होते देखा है तारीखें याद नहीं पर उनकी उक्तियों पर गौर करें जब उन्होंने विक्तोर ह्यूगो के एक कथन को उदारीकरण के संदर्भ में कहा था कि
कोई भी ताकत उस विचार को आने से नहीं रोक सकती जिसका वक्त आ गया हो. दरअसल, यदि इसी बात को आज माओवाद के संदर्भ में कहा जाय तो वे यकीन नहीं करेंगे क्योंकि राजनीति आस्था विहीन नहीं हो सकती मनमोहन सिंह का जितना यकीन संसदीय लोकतंत्र में है, आदिवासी व दमित समाज जो सशस्त्र संघर्ष कर रहे हैं उन्हें भी उतना ही यकीन है माओवाद में. शायद वे माओ से बेहतर रूप में परिचित न हो, शायद रूसी क्रांति के बारे में कोई पोथी उन्होंने न पढ़ी हो, मार्क्स उनके लिये एक दाढ़ी वाले बाबा की तरह हो सकते हैं और लेनिन महज फोटो में बना एक उद्दीप्यमान चेहरा जो पार्टी के वरिष्ट पदाधिकारियों द्वारा किसी अवसर पर शहर से जंगल में उन्हें मिल जाती हो, पर अपने हक की लड़ाई में वे इनके विचारों का ही विस्तार हैं. भले ही देश का नाम बदल गया हो पर विचार किसी देश के गुलाम नहीं होते परिस्थितियां उन्हें हवाओं में बिखेर देती हैं और उन लोगों की सांसों में बस जाते हैं जो जीने के लिये सांस लेने की जरूरत महसूस करते हैं और जिनके लिये वादियों में साजिस और जहर की घुटन भरी होती है. अपने हक की लड़ाई लड़ते हुए वे संरचना को बदलने के ख्वाब बुनते हैं अखबार उनके लिये रोज-बरोज लिखे जाने वाले झूठ का दस्तावेज बन जाता है जिससे शहरों का मध्यम वर्ग अपने बच्चों की गंदगी साफ करता है. देश की सुरक्षा के लिये तैनात पुलिस उन्हें असुरक्षित बना देती है और फिर जमीन उनकी, लोग उनके, पर देश नाम की चिड़िया दिल्ली के सुवरबाड़े में बैठे सफेद पोश देश द्रोहीयों की होती है. बस देश के मायने थोड़ा उलट कर समझिये, देश का मतलब नक्शे में टंगी सीमा रेखा से नहीं वहाँ की जनता, वहाँ के लोंगों से आंकिये. सिलीगुड़ी का नक्सलवाड़ी गाँव, गाँव न रह कर एक विचार और एक आंदोलन बन गया और आज देश में उसी का विस्तार ही माओवादी आंदोलन की जमीन है. यह संसदीय लोकतंत्र के संरचना की कमजोर होती कार्यप्रणाली का परिणाम था.

तंत्र की विखण्डित संरचना

जिस देश में लोकतंत्र लागू हुए ६० साल बीत चुके हैं उसे अब तक लोकतांत्रिक हो जाना था या फिर लोकतांत्रिक होने के वे रास्ते दिखने ही थे जिस पर चलते हुए समता युक्त समाज का निर्माण किया जा सके. संसदीय लोकतंत्र के सामने आज यह बड़ा संकट है कि वह अपनी संरचना के साथ लोकतांत्रिक मूल्यों को कैसे स्थापित करे जबकि धर्मों का श्रेष्ठताबोध, रंगभेद, जातियाँ कम-ओ-बेस उसी रूप में मौजूद हैं. भारत जैसे देश में धर्म और जातियाँ संसदीय लोकतंत्र के पहिये के रूप में काम कर रही हैं. समय-समय पर समाज को चलाने के लिये जो तंत्र विकसित किये गये उस तंत्र की संरचना ने अपने अंतर्गत मूल्यों का विकास किया मसलन राजशाही ने राजाज्ञा को ही सबसे बड़ा मूल्य माना, लोकतंत्र के मूल्य समता, समानता और बंधुत्व के रूप में विकसित हुए पर पुरानी संरचनाओं (जाति, धर्म, विभेद) के न टूटने से ये महज़ सुंदर शब्द बनकर रह गये. क्या संविधान की पुस्तकों में धर्मनिरपेक्ष लिखने से कोई संरचना मुक्त हो सकती है जबकि इन विभेदों को समाप्त करने के लिये और लोकतांत्रिक मूल्यों को स्थापित करने के लिये संसदीय लोकतंत्र लागू होने के बाद किसी तरह की कोई सांस्कृतिक परियोजना नहीं चलायी जाय. उसका कोई स्वरूप सत्ता ने अभी तक निर्मित नहीं किया और ऐसा भी नहीं कि उनके निर्मिति का विचार पीछे छूट गया बल्कि यह तंत्र के एजेंडे मे ही शामिल नहीं है. जनचेतना में जो विभेद स्थापित थे, रचे बसे हुए थे यह तंत्र उसी में जोड़तोड़ करते हुए उनका ही इश्तेमाल करता रहा लिहाजा यह उन्हें बचाने के लिये प्रतिबद्ध और जिम्मेदार भी हुआ. इस स्थिति को माओवादीयों ने बेहतर तौर पर समझा और आज वे जिन क्षेत्रों में जिस ढांचागत स्वरूप के साथ काम कर रहे हैं सास्कृतिक रूप से इन विभेदों के खिलाफ संघर्ष भी साथ में चला रहे हैं.

संसदीय लोकतंत्र को अपनाने वाले किसी भी देश में यह बात अहमियत रखती है कि वह किन प्रक्रियाओं के तहत स्थापित हुआ है. एक तंत्र से दूसरे तंत्र की स्थापना के बीच किस तरह के संघर्ष रहे हैं. भारत में संसदीय लोकतंत्र एक आयातित तंत्र के रूप में रहा है जो व्यापक जन संघर्षों से नहीं बल्कि सत्तासीन वर्ग के हितों के टकराव से पैदा हुआ. अतः सामंती मूल्यों और लोकतंत्र की संरचना के साथ आये मूल्यों (जो कि व्यापारी वर्ग के हित में थे) के मिश्रण के रूप में यह भारतीय समाज में स्थापित हुआ. जिस मिश्रण को भारतीय लोकतंत्र अभी तक ढो रहा है. पिछड़े मूल्यों का बोध लोगों के भीतर इस तौर पर जुड़ा हुआ है कि संरचना के संस्थान लोकतांत्रिक कार्यपद्धति नहीं अपना सकते. संसद से लेकर न्यायपालिका तक जो लोग कार्यरत है, जब वे इस धर्म, जाति के आधार पर विभेदीकृत समाज से संस्थान में जाते हैं तो वह क्या है जो उन्हें उनकी कुर्सीयों पर निरपेक्ष बना देगा. शायद निरपेक्षता तंत्र का सबसे बड़ा और कोरा झूठ है जो संविधान की मोटी पुस्तक में दर्ज कर दिया गया और पूरा तंत्र सापेक्षता के साथ कार्य करता रहा. किसी भी तरह के बोध का निर्माण सामाजिक और मनोवैज्ञानिक आधार पर होता है लिहाजा जातीय बोध और धर्म बोध से तबतक छुटकारा नहीं पाया जा सकता जबतक जाति और धर्म विहीन समाज के निर्माण की प्रक्रिया न अपनायी जाय, उसके लिये सांस्कृतिक तौर पर लोगों के चेतना का विकास न किया जाय. इसके लिये कोई ठोस कार्य नीति नहीं अपनायी गयी. यह पिछड़े मूल्यों से ग्रस्त समाज में ऐसी किसी भी पार्टी से संभव नहीं था जो संसद तक पहुंचना या उसमे बने रहना चाहती थी क्योंकि यह रूढिगत समाज के भावनाओं के खिलाफ था, भले ही वह अलोकतांत्रिक था और वोट की राजनीति इन्हीं भावनाओं के आधार पर होनी थी. यह समाज में व्यक्तियों के मूल्यों के साथ का संघर्ष था जिसे उनके भविष्य हितों और समाज की बेहतरी के लिये किया जाना था, जिन्हें लोकतंत्र के उन मूल्यों के लिये किया जाना था जो २३० वर्ष पूर्व फ्रांसीसी क्रांति का नारा बन दुनिया में जगह बना रहे थे. एक हद तक वामपंथी पार्टियों ने यह कार्य करने का प्रयास किया भी जो बाद में संसद तक पहुंची. अंततः माओवादियों ने ही इस संघर्ष को चलाया भले ही वह सीमित क्षेत्रों में रहा हो.

वह एक तारीख थी १९४७ की, महज एक तारीख जिसे आज़ादी दिवस के रूप में घोषित किया गया और यहीं से शुरू होनी थी देश के लोकतांत्रीकरण की प्रक्रिया. अपने शुरुआती वर्षों से ही यह प्रक्रिया टूटने लगी जब उत्तर-पूर्व में राष्ट्रीयता की आवाज मुखर होनी शुरू हुई. १९५८ में ही मणिपुर में आफ्सपा लगा दिया गया और समय के साथ इसके क्षेत्र का विस्तार होता गया यानि लोकतांत्रीकरण के बजाय कानूनी व संरचना के स्तर पर अलोकतांत्रीकरण की यह पहली प्रक्रिया थी जहाँ देश के भीतर एक ऐसे अलोकतांत्रिक कानून की जरूरत पड़ गयी कि संदेह के आधार पर सरकार ने अपनी ही जनता पर गोली चलाने का अधिकार सेना को दे दिया, जो बाद के वर्षों में और भी कठोर हुआ और आज इनकी स्थितियाँ हमारे सामने है राष्ट्रीयता की वह आवाज और भी बृहद व मुखर हुई संगठनों ने अपने दायरे व संख्या दोनों में बृद्धि कर ली और वह एक से बढ़कर तीस से ऊपर हो चुके हैं.

जब देश का मतलब उत्तर प्रदेश व बिहार हो जाय या हिन्दी भाषी राज्य ही देश देश के निर्माण व उजाड़ की प्रक्रिया को तय करने लगें तो यह एक ऐसे राष्ट्र के लिये मुश्किल होता है जहाँ भाषा, संस्कृति व कई राष्ट्रीयताओं की मौजूदगी हों. जहाँ हिन्दी प्रदेश के प्रतिनिधियों द्वारा बनायी गयी योजनायें और कानूनों को उन सबको ढोना पड़े, और अन्य उपेक्षाओं के साथ उत्तर-पूर्व सिर्फ सहयोग करे. यह ढोना उत्तर-पूर्व का सत्ता धारी वर्ग तो कर सकता था और उसने अभी तक किया भी पर वहाँ के लोग इसके लिये तैयार नहीं थे उन्होंने विकल्प के रूप में अलग राष्ट्रीयता की मांग शुरु की जो कि आज़ादी की पूर्व स्थितियों में अलग राष्ट्र के रूप में था भी. यह सांस्कृतिक, व देश के नक्शे में स्थानीय परिस्थितियों के आधार पर उठनी शुरु हुई जो संवेग के साथ अभी जारी है.

नर्मदा बचाओ आंदोलन से लेकर इरोम शर्मीला के लम्बे आमरण अनशन के परिणामों ने यह सिद्ध कर दिया कि संसदीय लोकतंत्र में गांधी का रास्ता चुक गया है. उसके असर फिल्मी पर्दों पर तो दिख सकते हैं पर वास्तविक जिंदगी में नहीं, भारतीय सत्ता फिल्मी दुनिया का अभिनय नहीं कर रही है बल्कि वह एक तंत्र है और तंत्र की एक विचारधारा भी होती है. यदि इरोम शर्मीला का रास्ता कारगर साबित होता तो शायद मणिपुर में माओवादी अपना हस्तक्षेप न कर पाते जो कि उन्होंने सशस्त्र संगठन पीपुल्स लिब्रेशन आर्मी के साथ मिलकर किया और आज मणिपुर में उनकी स्थिति मजबूत हुई है.

देश के जो अन्य हिस्से थे उनकी अलग समस्यायें थी वे देश के नक्शे में ऐसी जगह पर स्थित थे जहाँ उनके लिये अलग राष्ट्र की मांग करना मुश्किल था पर सवाल अलग राष्ट्र का था भी नहीं सवाल था व्यवस्था के लोकतांत्रीकरण का जो व्यक्ति को व्यापक आज़ादी समता-समानता के साथ दे सके. इस व्यवस्था में एक बड़ा वर्ग था जो वंचना का शिकार होने वाला था इस बात का आंकलन वामपंथी ताकतों ने किया और वे ही कर सकते थे क्योंकि संरचना का एक विकल्प उनके पास मौजूद था जिसे देश के मुताबिक ढालना था. आज़ादी के बीस वर्षों बाद जिसकी शुरुआत ही हुई, और सिलीगुड़ी के एक गाँव की घटना लोगों के जेहन में विकल्प के विचार की तरह आ गयी तमाम खामियों के बावजूद माओवादी आज उसी का एक विस्तृत रूप हैं.

भारतीय राजनीति में मायावती, लालू या अन्य दलित नेताओं का आना एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत अलोकतांत्रिक मूल्यों के आधार पर हुआ जहाँ दमित जातीयों की बहुसंख्या ने जातीय आधार पर एकजुटता बनायी पर इसने जातीय विभेद को और बढ़ाया ही है पुराने समाजों के जातीय बटवारे का यह महज एक समीकरण था जो बाद में और भी विद्रूप हुआ जब ब्रहमणवादी शक्तियों के साथ इनके गठजोड़ हुए. माओवादियों के साथ दलित और आदिवासियों का आना उस रूप में नहीं रहा कि पंडित संख बजायेगा, हांथी सूढ़ उठायेगा बल्कि उनके साथ दलित व आदिवासियों के आने का आधार वर्गीय और लोकतांत्रिक था जिसमे जमीन उसकी जो जोते का स्वर था. यह जातीय आधार पर गोलबंदी नहीं बल्कि वर्गीय आधार पर दमित अस्मिताओं को खड़ा करना था. दलित और आदिवासियों की आबादी भूमिहीनों की आबादी थी जो निःसंदेह उनके वर्ग मित्र बने. बिहार जैसे राज्यों में यह लड़ाई इसी आधार पर एक हद तक जातीय रूप में दिखायी पड़ी जहाँ भुमिहारों के पास जमीनों का बड़ा हिस्सा था उसके बटवारे के लिये जब दलित वर्ग खड़ा हुआ तो भुमिहारों ने इसे जातीय रुख में बदलने का प्रयास रणवीर सेनायें बनाकर की. पर यह एक वर्गीय लड़ाई के रूप में ही रही. यह दमित वर्ग के द्वारा लड़ा जाने वाला एक भूमिसुधार आंदोलन भी रहा, जो संसदीय राजनीति (पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों को एक हद तक छोड़ दिया जाय तो) करने में असफल रही और माओवादीयों ने अपनी लड़ाई का आधार ही यही बनाया जिसमे उन्होंने पन्द्रह सालों में ही अपनी सीमित शक्ति के बल पर ३ लाख एकड़ से ज्यादा जंगल की जमीनों को भूमिहीनों में बांटा. यह सशत्र संघर्ष के बगैर संभव नहीं था. आदिवासी क्षेत्रों में आदिवासियों के तेंदू पत्तों के मूल्य दर में ३३ गुने से ज्यादा बृद्धि करवायी. यह संसद जाने का रास्ता नहीं था बल्कि आदिवासी और दलितों के रोजमर्रा के जीवन और श्रम के शोषण से जुड़ा मसला था जिसे किसी संसदीय पार्टी ने नहीं उठाया.

सोनिया गांधी ने जिस ग्राम अदालत के लिये १४०० करोण रूपये देने की घोषणा की है ताकि देश की अदालतों में लम्बित पड़े २.५ करोड़ मामले निपटाये जा सकें उसके स्वरूप और कार्यपद्धति को माओवादी अपने शुरुआती दिनों से ही वहाँ लागू कर रहे हैं जिन क्षेत्रों में उनकी सक्रिय उपस्थिति रही है, पर फर्क यह है कि सोनिया गांधी इन हजारो करोड़ रूपयों का उपयोग मामले को निपटाने के लिये कर रही हैं और माओवादी इसे अपने कार्यपद्धति और क्षेत्र का एक हिस्सा मानते रहे हैं. इस रूप में देखा जाय तो कई ऐसे कार्य हैं जिन्हें संरचना के लोकतांत्रीकरण के लिये सरकार को करना चाहिये था पर उसने नहीं किया और शायद माओवादीयों से सीख लेकर अब सरकार उनमे से कुछ योजनायों के पीछे घिसटने को तैयार भी है, पर जनविरोधी नौकरशाही के ढांचे का उसके पास कोई विकल्प मौजूद नहीं है. जातीय उत्पीड़न से लेकर महिला उत्पीड़न जैसी कई प्रवृत्तियाँ ऐसी रही हैं जो उन क्षेत्रों में कम हुई जहाँ माओवादियों का हस्तक्षेप बढ़ा. आज सरकार का जो भय है निश्चित तौर पर वह हथियार बंद लड़ाकूओं से नहीं है बल्कि उस संरचना के भ्रूण से है जो जन संघर्षों के साथ निर्मित हो रहा है.

माओवादी और आदिवासी

जब भी यह कहा जाता है कि आदिवासी मारे जा रहे हैं तो मानवाधिकार कार्यकर्ता व अन्य सामाजिक संगठनों के लोगों की आवाजें सरकार के खिलाफ निश्चित तौर पर बुलंद हो जाती है और आम जनमानस की भी यही धारणा बन चुकी है पर माओवादियों का मारा जाना सहज है, मीडिया के लिये भी, मानवाधिकार व सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिये भी और उन लोगों के लिये भी जो इन जंगलों से दूर हैं यानि हम सबके लिये. दरअसल इस पूरी प्रक्रिया में माओवादी अछूत की तरह हैं. बीते जमाने के वे अछूत जिन पर किसी तरह की प्रताड़ना, प्रताड़ना के दायरे से बाहर थी. जवानों का मारा जाना दुखद है, आदिवासियों का मारा जाना भी दुखद है पर अगर आदिवासी ही माओवादी हों तो, जो कि है भी आदिवासियों का सशस्त्रीकरण व राजनीतिकरण ही उनका माओवादी होना है, पर माओवादियों पर जब भी बात होती है तो वह इस रूप में कि वे देश के भूभाग से कहीं बाहर की कोई प्रजाति हैं, जबकि ग्रीनहंट में मारे गये व पिछले कुछ वर्षों में चलाये गये तमाम अभियानों में जिन माओवादियों को निशाना बनाया गया है उनमे अधिकांस आदिवासी ही हैं. तो क्या अन्ततः आदिवासियों का ही कत्लेआम हो रहा है? यह एक कठिन सवाल है जिसके उत्तर एक घटना को केन्द्र में रखकर नहीं तलाशे जा सकते बल्कि पिछले ६० वर्षों के इतिहास का पन्ना हमे पलटना ही पड़ेगा यदि इतना पीछे न भी जायें तो १९९० के बाद जो आर्थिक सुधार हुए उन सुधारों की खामियां हमे जरूर पहचानना पड़ेगा. अब सवाल आदिवासियों के मारे जाने का नहीं, माओवादियों के मारे जाने का नहीं बल्कि आदिवासियों के माओवादी बनने की प्रक्रिया का है. क्योंकि माओवादियों का मारा जाना उन आदिवासियों का मारा जाना है जिन्होंने शस्त्र उठा लिये हैं, जिन्होंने अपने क्षेत्र में अपनी सरकारें बना ली हैं, भारत सरकार से अलग, जिन्हें उन लाखों आदिवासियों का समर्थन प्राप्त है जो जंगलों में रहते है और मूलभूत सुविधाओं से वंचित रह गये हैं. यह अलग सरकार का चुनाव, अलग संरचना का निर्माण, ठीक वैसा ही है जैसा कि हम संसद को चुनते हैं, जैसा हमारे सांसदों को हमारा समर्थन प्राप्त है, दोनों की प्रणालियां कार्य करने के तरीके में फर्क हो सकता है पर शायद इसमे कोई फर्क नहीं दिखता कि सरकार वही चला रहा है जिसका जनता समर्थन कर रही है, दन्डकारण्य में भी और दिल्ली में भी बावजूद इसके कि सरकार चलाने के तौर तरीके अलग-अलग हैं, मसलन पानी पीने के लिये वे तालाब खोदते हैं, कुंए खोदते हैं, तो हमारी सरकार एक और बोतलबंद पानी की कम्पनी खोल देती है.

ऐसे में समस्या एक सम्प्रभु राष्ट्र में दो समानांतर सरकारों के होने का है, जो एक दूसरे को अमान्य घोषित कर रही हैं और शायद संघर्ष भी इसी बात का है. यह राज्य के वैद्यता की लड़ाई बन गयी है वहाँ के आदिवासी भारत सरकार को वैद्य मानने से इनकार कर रहे हैं और भारत सरकार उनके द्वारा बनाई जनताना सरकार को और खतरा इसी बात का है जिसे सरकार सबसे बड़ा मान रही है कि यदि यही भ्रूण अलग-अलग हिस्सों में निर्मित होता गया, लोग सरकार से असंतुष्ट हो अपनी सरकारें बनाते गये, अपनी संरचना बनाते गये तो यह भारत राष्ट्र और संसदीय लोकतंत्र के अस्तित्व के लिये खतरा होगा. संसदीय लोकतंत्र के लिये माओवादियों के शस्त्र उठाने से ज्यादा खतरा उस संरचना से है जो वे निर्मित करते जा रहे हैं या जिसे उन्होंने मुक्त क्षेत्र में निर्मित कर रखा है.

१९८० से लेकर अब तक भारत सरकार द्वारा अलग-अलग तरीके से कई प्रयास किये जा चुके हैं, विकास की योजनायें चलाकर, सैन्य अभियान चलाकर, शांति अभियान सलवा-जुडुम के जरिये और अब ग्रीन हंट आपरेशन. ये अभियान एक तरफ तो विफल हुए हैं, दूसरी तरफ आदिवासी और भी सशस्त्रीकृत हुए हैं. भारतीय सेना जितने विकसित तकनीक के शस्त्रों का प्रयोग करती है उनसे छीनकर ये भी अपने को समृद्ध बनाते गये हैं. आखिर इन अभियानों की विफलताओं के क्या कारण रहे हैं, क्या नये अभियान चलाने से पूर्व, इन विफल अभियानों का ठीक-ठीक मूल्यांकन किया गया, शायद नहीं यदि किया गया होता तो आदिवासियों का सशस्त्रीकरण और न बढ़ता जो सलवा जुड़ुम जैसे बर्बर अभियानों के बाद और भी बढ़ा. इन कार्यवाहियों ने आदिवासियों को और भी असुरक्षित बनाया व सुरक्षित होने के लिये और भी ज्यादा शस्त्रीकृत होने पर मजबूर किया. उन पर की गयी क्रूरताओं ने उनमे और भी ज्यादा असंतोष पैदा किये, अपने ऊपर हुए जुल्मों से वे और भी उग्र हुए. इसी उग्रता को सरकार ने उग्रवादी करार दिया. क्या उनका उग्र होना नाजायज था, जबकि उन्होंने किसी माओवादी को खाना खिलाया हो, रास्ता बताया हो, इसके लिये उन्हें पीटा जाय और उनके घर जलाये जाय. यही वे कार्यपद्धतियाँ रही हैं जिन्होंने आदिवासियों के मन में सरकार के प्रति असंतोष पैदा किये और माओवादियों से उनकी निकटता बनती गयी. क्योंकि माओवादी उनके जीन की मूलभूत चीजों, रोजगार और तेंदू पत्ता की कीमतों, उनके खेती की जमीनों व अन्य संसाधनों को मुहैया कराने व व्यवस्थित रूप से चलाने के लिये एक संरचना, संघर्ष के साथ विकसित करते गये. उनके लिये एक अलग ढांचा विकसित किया जो सरकार के ढांचे से अलग जंगल की परिस्थितियों के अनुकूल था. न्यायिक व्यवस्था, सुरक्षा समिति, कृषक समिति आदि. इस ढांचे ने आदिवासियों में माओवादियों के प्रति विश्वास पैदा किया, माओवादी और आदिवासी पानी में मछली इसी तरह हुए, जिसे वे स्वीकार करते हैं. जिसमे सरकार विफल रही क्योंकि सरकार जिस तरह का विकास चाहती थी उसके पैमाने अलग थे और आदिवासियों को उनकी परिस्थिति के मुताबिक अस्वीकर थे. टाटा और एस्सार के लिये लाखों आदिवासियों को अपने घर से विस्थापित होना अस्वीकार था और सरकार विकास के नाम पर यही कर रही थी. आदिवासी समाज का विकास निश्चित तौर पर इन कम्पनियों की स्थापना से नहीं होना है, बल्कि यह उनके शोषण की एक और कुंजी ही बनेगी, उनके जिंदगी में और भी खलल बढ़ेगा. वर्षों पूर्व की उनकी संस्कृति को यह नष्टित ही करेगी और इन सबके लिये आदिवासी समाज तैयार नहीं है.

आदिवासियों का विश्वास जीतने के बजाय उन पर क्रूर कार्यवाहियां की जा रही हैं, जिस दिन दांतेवाड़ा में ७६ जवानों को मारा गया उसके एक दिन पहले ही दांतेवाड़ा के अंतर्गत स्थित तोंगपाल थाना के सिदुरवाड़ा गांव में २६ आदिवासी महिलाओं को जगदल पुर से आये कोबरा बटालियन के २०० जवानों द्वारा पीटा गया, जिसमे महिलाओं के हाथ तक टूट गये, जबकि इन महिलाओं का दोष यह था कि जब कुछ ग्रामीड़ों को नक्सली समर्थक बताकर जवान ले जाने लगे तो इसका इन महिलाओं ने विरोध किया.क्या इन कार्यप्रणालियों से सरकार आदिवासियों में विश्वास पैदा कर सकती है, दमित बनाकर वह उन पर शासन जरूर कर सकती है पर यह गैरलोकतांत्रिक संरचन का ही हिस्सा होगा बल्कि यह आदिवासियों को सरकार के खिलाफ ही खड़ा करेगा. वहीं दूसरी तरफ माओवादी आदिवासियों में इस विश्वास को इस हद तक अर्जित किये कि उन्होंने जिस मुक्त क्षेत्र का निर्माण किया उसकी सुरक्षा के लिये आदिवासी शस्त्र लेकर अवैतनिक कार्य करने लगे जैसे यह उनके अपने राज्य उनके अपने जमीन व जमीन की रक्षा का मसला हो निश्चित तौर पर यह एक सामुदायिक चेतना के तहत ही संभव था भारत सरकार रक्षा बजट पर सार्वाधिक खर्च करती है और आज भी यह स्थिति नहीं है कि वह अवैतनिक सेवा देश की जनता से ले सके कारण कि जनता को यह महसूस होना ही चाहिये कि देश उसका अपना उतना ही है जितना किसी नेता का जितना प्रधानमंत्री का जितना व्यवसायियों का पर क्या उन्हें यह महसूस हो पाता है, क्या न्यायिक व्यवस्था में उन्हें बराबरी का न्याय मिल पता है. शायद नहीं, लिहाजा यह मामला सरकार की कार्यपद्धति के साथ उसकी संरचना से निर्मित हो रहा है जहाँ सरकार एक बड़े वर्ग को बेहतर संरचना देने में असफल हुई है.

ग्रीनहंट जैसे ऑपरेशन या वायुसेना का प्रयोग से इस समस्या का समाधान सम्भव नहीं दिखता सिवाय इसके कि बड़ी और बड़ी संख्या में आदिवासियों का कत्लेआम ही होगा, और प्रतिरोध के तौर पर सेना के जवानों के भी क्षत-विक्षत होने की संभावना बनती है. इस तरह की दमनपूर्ण कार्यवाहियों के बजाय सरकार को आदिवासियों की मूल समस्या को उनकी जमीनी हकीकत के मुताबिक चिन्हित करना होगा और वहाँ पर विकास की उन योजनाओं को चलाना होगा जो आदिवासियों के जीवन से सीधे तौर पर जुड़ी हुई हैं मसलन वहाँ की स्वास्थ सेवाओं को बहाल करना होगा, स्कूल को सेना का कैम्प बनाने के बजाय वहाँ शिक्षकों की नियुक्ति कर शिक्षा का बेहतर प्रबन्ध करना होगा ताकि वह विश्वास आदिवासियों में अर्जित किया जा सके जो कि माओवादियों ने अर्जित किया है.

अतिवाद का कुप्रचार

परिवर्तन सबसे पहले स्वप्न में आता है. रात की नींद के सपनों में नहीं, जीवन के बेहतरी की लालसा के स्वप्न में, और कहीं अपने भीतर एक बना बनाया ढांचा टूटता है, अपने समय के मूल्य ढहते हुए दिखते हैं. यह ढांचा पहले आदमी के विचार से टूटता है फिर व्यवहार से फिर वह आदमी के दायरे को ही तोड़कर, संरचना के दायरे को तोड़ने की प्रक्रिया में शामिल हो जाता है. वे हर बार आतिवादी ठहरा दिये गये होंगे जिन्होंने समय के मूल्यों को तोड़ा होगा क्योंकि किसी भी समय में व्यवस्था के संरचना की एक सीमा रही है, उसके एक मूल्य रहे हैं उसी के भीतर सोचने की इजाजत होती है, पर दुनिया में हर बार संरचना और सत्ता के बाहर की सोच पैदा हुई. यह परिस्थिति की देन मात्र नहीं थी बल्कि चिंतन की व्यापकता थी जो व्यापक आज़ादी के लिये हर समय विद्रोह करती रही और अपने समय में समय के आगे का विचार पैदा होते रहे. किसी भी समय का अतिवाद यही होता है जो समय की संरचना से विद्रोह करता है, एक नये संरचना की तलाश करता है लिहाज़ा हर दौर में नये समाज बनाने के सपने रहे हैं और हर समय में वे लोग जो अपने समय की संरचना को नकारने का साहस रखते हों. जबकि इतिहास से वे नयी संरचना को बिम्बित करने में असफल भी होते हैं फिर भी उम्मीद और मूल्यों ने उनके विचारों को आगे बाढ़ाया और भविष्य के समाज उन्हीं के विचारों की निर्मिति रहे हैं. शायद दुनिया का अंत किसी प्रलय या दैवीय शक्ति से नहीं, बल्कि उस दिन होगा जब ये नकार के साहस ख़त्म हो जायेंगे. जो जैसा है उसी रूप में स्वीकार्य होगा तो बदलाव की प्रक्रियायें रुक जायेंगी और दुनिया की सारी घड़ियां और कलेंडर अर्थ विहीन हो जायेंगे. समय का ठहराव यही होगा कि नये चिंतनकर्म समाप्त हो जायें और सब सत्ता के आगे नतमस्तक दिखेंगे, पर मानवीय प्रवृत्तियां इन्हें अस्वीकार करती रही हैं कि इंसान है तो सोचना जारी रहेगा.

राजशाही जब खारिज की गयी, जो कि एक समय तक ईश्वर प्रदत्त मानी जाती थी, तो यह तय हुआ कि अब राजाओं को जनता चुनेगी तो संसदीय लोकतंत्र की स्थापना, सैद्धांतिक तौर पर लोगों द्वारा ईश्वर के लिये खारिजनामा ही था, क्योंकि राजा उसके प्रतिनिधि होते थे और राजा को खा़रिज करना इश्वर को खारिज करने से कहीं कम न था बल्कि वह एक प्रत्यक्ष भय था. इस नयी व्यवस्था के बारे में प्रस्फुटित होने वाले विचार जरूरी नहीं कि वे केवल लिंकन के ही रहे हों पर ये विचार राजशाही के लिये अतिवादी ही थे. राजशाही के समय का यही अतिवाद आज हमारे समय के लोकतंत्र में परिणित हुआ. अतिवाद हमेशा समय सापेक्ष रहा है पर वह भविष्य की संरचना के निर्माण का भ्रूण विचार भी रहा जिसे ऐतिहासिक अवलोकन से समझा जा सकता है.

ज्योतिबाफुले, सावित्रीबाई फुले, या भगतसिंह जैसे कितने नाम हैं जो लोग अपने समय के अतिवादी ही थे. इन्हें आज का माओवादी भी कह सकते हैं चूंकि ये संरचना प्रक्रिया में विद्रोह कर रहे थे एक दमनकारी व शोषणयुक्त प्रथा का अंत करने में जुटे थे. भविष्य में जब समाज के मूल्यबोध बदले तो इन्हें सम्मानित किया गया, क्या नेपाल में ऐसा नहीं हुआ. सत्तावर्ग ने इन शब्दों के मायने ही आरक्षित कर लिये हैं. किसी भी समय का अतिवाद, उस समय के सत्तावर्ग के लिये अपराधी और भविष्य के समाज का निर्माता होता है बशर्ते वह उन मूल्यों के लिये हो जो मानवीयता और आज़ादी के दायरे को व्यापक बनाये.

उन्हें उग्रवादी घोषित कर दिया जायेगा, आसानी से अराजक कह दिया जायेगा जो आवाज़ उठाते हैं कि घोषित करने वालों की बनी बनायी व्यवस्थायें, भले ही वह एक व्यापक समुदाय के लिये निर्मम और अमानवीय हो पर उनके लिये सुविधा भोगी है, के खिलाफ आवाज़ उठाना, उनकी व्यवस्थित जिंदगी व उनके जैसे भविष्य में आने वालों की जिंदगी में खलल पैदा करती है. मसलन आप असन्तुष्ट रहें पर इसे व्यक्त न करें, व्यक्त भी करें तो उसकी भी एक सीमा हो, उसके तौर-तरीके उन्होंने बना रखें हैं. इसके बाहर यदि आप उग्र हुए, गुस्सा आया तो यह उग्रवादी होना है. इस प्रवृत्ति को आपसी बात-चीत, छोटे संस्थानों से लेकर देश की बड़ी व्यवस्थाओं तक देखा जा सकता है जहाँ असंतुष्ट होना, असहमति उनके बने बनाये ढांचे से बाहर दर्ज करना, अराजक और उग्रवादी होना है और इन शब्दों के बोध जनमानस में अपराधिकृत कर दिये गये हैं.

अभिषेक मुखर्जी जिसकी बंगाल पुलिस द्वारा हाल में ही हत्या कर दी गयी क्या यह सोचने पर विवश नहीं करता कि आखिर वे क्या कारण हैं कि १३ भाषाओं का जानकार और जादवपुर विश्वविद्यालय का एक प्रखर छात्र देश की उच्च पदाधिकारी बनने की सीढ़ीयां चढ़ते-चढ़ते लौट आता है और लालगढ़ के जंगलों में आदिवासियों की लड़ाई लड़ने चला जाता है, क्या यह सचमुच युवाओं का भटकाव है जो गुमराह हो रहे हैं, जिसे सरकार बार-बार दोहराती रहती है या व्यवस्था की कमजोरी और सीमा की पहचान कर विकल्प की तलाश. अनुराधा गांधी, कोबाद गांधी, साकेत राजन, तपस चक्रवर्ती, शायद देश और दुनिया के बड़े नौकरशाह बन सकते थे, पर वर्षों बरस तक लगातार जंगलों की उस लड़ाई का हिस्सा बने रहे जिसे सरकार अतिवाद की लड़ाई मानती है और ये उसे अधिकार की. शायद समाज में जब तक अतिवाद और अतिवादि रहेंगे, स्वभाव में जब तक उग्रता बची रहेगी तमाम दुष्प्रचारों के बावजूद नये समाज निर्माण की उम्मीदें कायम रहेंगी.

1 टिप्पणी:

  1. लम्बी पोस्ट है. आती हूं बाद में पढने.
    विजयादशमी की अनन्त शुभकामनायें.

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