26 अप्रैल 2008

नजरिया : डॉ. विनायक सेन का मुकदमा पर्दे के पीछे क्यों


भारत के आदिवासी इलाकों की कहानी लूट और ध्वंस की शर्मनाक दास्तान है। राज्य सरकारों ने कंपनियों के साथ मिलकर आदिवासियों को बदलने के नाम पर इस पैमाने पर अपनी जगहों से बेदखल किया है, उसका जोड़ मिलना मुश्किल होगा, पिछले दो दशक तो और भी मुश्किल रहे हैं, क्योंकि विदेशी और देशी कंपनियों की निगाहें खनिज संपदा से भरपूर इनके इलाकों पर गड़ गई हैं। ताज्जुब नहीं कि आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखंड से लेकर केरल तक के आदिवासी बहुल क्षेत्रों में सबसे ज्यादा अशांति है। वहां सरकार की मदद से कंपनियां आदिवासियों और अन्य ग्रामीणों को बेदखल करने की कोशिश में लगी हैं और उन्हें प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा है। चूंकि संसदीय प्रणाली में काम करने वाले लगभग सभी दलों ने विकास के इस रास्ते पर कोई गंभीर सवाल नहीं खड़ा किया है, लूटी जा रही जनता के पास शायद हिंसक भाषा के अलावा और कोई चारा छोड़ा नहीं गया है। माआ॓वादी राजनीति के इन इलाकों में जड़ जमाने की यह बड़ी वजह है।
डॉक्टर विनायक सेन ने यह भी देखा कि सरकार माआ॓वाद से लड़ने के नाम पर संविधान द्वारा नागरिकों को दिए सारे अधिकारों का उल्लंघन कर रही है। मुठभेड़ों के नाम पर हत्या, फर्जी मामलों में फंसा कर लोगों को जेल में डालना, लोगों को पुलिस से घेर कर कागजों पर जबरन उनके दस्तखत लेकर उनकी बेदखली छत्तीसगढ़ के लिए आम बात थी। डॉ. सेन ने एक सच्चे जनता के डॉक्टर की तरह इनकी सचाई बताना शुरू किया। वे मानवाधिकार कार्यकर्ता के रूप में पहचाने जाने लगे। उन्होंने यह भी कहा कि जिन नक्सलवादियों या माआ॓वादियों को गिरफ्तार किया जाता है, उनके संवैधानिक अधिकार स्थगित नहीं हो जाते। उन्हें इंसाफ की प्रक्रिया में पूरे अधिकार के साथ शामिल होने का हक है, इसलिए बूढ़े माआ॓वादी नेता नारायण सान्याल की गिरफ्तारी के दौरान डॉ. सेन ने उनकी सेहत की देखभाल का जिम्मा अपने ऊपर लिया।
महाराष्ट्र के खैरलांजी में 2006 में दलित परिवार की हत्या की जांच भी उन्होंने की। इसके लिए वे नागपुर गए। पुलिस ने अदालत को बताया कि डॉ. सेन दरअसल, वहां माआ॓वादियों के प्रशिक्षण के लिए गए थे। उच्चतम न्यायालय में केंद्र सरकार के वकील ने डॉ. सेन की जमानत की अर्जी नामंजूर करने के लिए दलील देते हुए उन्हें माआ॓वादी दल निकाय का सदस्य बताया, जो सफेद झूठ था। जो लोग यह बहस सुन रहे थे, इस झूठ पर हैरान रह गए। अदालत ने भी यह जरूरी नहीं समझा कि एक बार कागजात की ही जांच कर ली जाए। नतीजा यह है कि डॉ. सेन की जिंदगी का एक साल जेल के पीछे गुजर गया।
डॉ. सेन का मुकदमा भारतीय लोकतंत्र के लिए अहम है। क्या हम उसे उतना ही महत्व दे रहे हैं? क्या खुद उच्चतम न्यायालय को उनके मामले को दुबारा सुनना नहीं चाहिए, जब अभी खुद उसने यह कहा है कि सरकार सलवा जुडूम के नाम पर लोगों को हथियारबंद करके हत्या के लिए उकसावा नहीं दे सकती? क्या यही बात डॉ. सेन पिछले कुछ बरसों से नहीं कह रहे हैं, जिसके चलते उन पर राजद्रोही होने का आरोप लगाया गया है?
यह एक और पुरस्कार है, जिसके लिए प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को पुरस्कृत व्यक्ति को फोन करना चाहिए और राष्ट्र की तरफ से उन्हें शुक्रिया और बधाई देनी चाहिए। लेकिन ऐसा करने के लिए उन्हें रायपुर जेल में फोन मिलाना होगा, क्योंकि डॉक्टर बिनायक सेन पिछले एक साल से राष्ट्र विरोधी गतिविधियों में संलग्न होने और राज्य के विरूद्ध युद्ध छेड़ने के आरोप में इस जेल में बंद हैं। डॉक्टर बिनायक सेन को 2008 का अंतरराष्ट्रीय जोनाथन मान पुरस्कार दिया गया है। यह पुरस्कार एक सौ चालीस देशों में जन स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने वाली संस्थाओं और पेशेवर लोगों की सबसे बड़ी अंतरराष्ट्रीय संस्था 'ग्लोबल हेल्थ काउंसिल' की आ॓र से दिया गया है और डॉक्टर सेन पहले दक्षिण एशियाई हैं, जिन्हें यह सम्मान मिला है। काउंसिल ने पुरस्कार की घोषणा में कहा है कि यह सम्मान डॉक्टर सेन को भारत के आदिवासियों और गरीबों की बरसों की सेवा को ध्यान में रखते हुए दिया जा रहा है, क्योंकि उन्होंने ऐसे इलाकों में स्वास्थ्य सेवाएं स्थापित करने का काम किया, जहां कुछ भी नहीं था।

डॉक्टर सेन का चुनाव एक अंतरराष्ट्रीय जूरी ने किया है, लेकिन छत्तीसगढ़ सरकार का मानना तो यह है कि डॉक्टर सेन डॉक्टर हैं ही नहीं और वे डॉक्टरी का कोई काम करते हैं, ऐसा कोई प्रमाण उनके घर से बेचारी छत्तीसगढ़ की पुलिस को नहीं मिल पाया है! यह बात डॉक्टर सेन को पिछले साल चौदह मई को गिरफ्तार करने के बाद राज्य की पुलिस की आ॓र से उनके खिलाफ दायर आरोप पत्र में कही गई। इस तथ्य का न तो पुलिस के लिए और अदालत के लिए कोई अर्थ था कि वे पिछले तीन दशकों से दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविघालय की अपनी नौकरी छोड़ कर छत्तीसगढ़ के ढल्ली राजहरा, धमतरी इलाके में आदिवासियों और ग्रामीणों के स्वास्थ्य के लिए काम करते रहे हैं। उन्होंने कोई नर्सिंग होम नहीं बनाया और न डॉक्टरी की फीस वसूल कर कोई कोठी बनाई, जो भारत जैसे गरीबों के मुल्क में ही डॉक्टरों के लिए संभव है।
डॉ. सेन जब आदिवासियों की जिंदगी में शामिल हुए, तो उन्होंने जाना कि इनकी बीमारी स्थाई है क्योंकि उसकी जड़ें इनकी गरीबी में छिपी है। गांव-गांव घूम कर इलाज करने के दौरान उन्होंने यह भी समझा कि इनकी गरीबी इनके पिछड़ेपन के कारण नहीं, बल्कि इस वजह से है कि अपने आपको सभ्य कहने वाले समाज ने इनके पारंपरिक संसाधनों पर कब्जा करना और उसे हड़पना शुरू कर दिया है। आदिवासियों के जंगल में रहने के हक, वहां के प्राकृतिक संसाधनों पर उनके अधिकार के मसलों को अलग करके उनके स्वास्थ्य की गारंटी करना मुमकिन नहीं। इसलिए डॉ. सेन ने इस मुद्दों पर बात करना शुरू किया।
वर्ल्ड हैल्थ काउंसिल ने प्रधानमंत्री को खत लिख कर कहा है कि पूरा संसार डॉ. सेन के मुकदमे को गौर से देख रहा है। यह भी देखा जा रहा है कि ट्रायल कोर्ट ने एक अजीबोगरीब हुक्म जारी किया है कि डॉ. सेन के मुकदमे को सबके लिए खुला नहीं रखा जाएगा। उनके प्रतिनिधि को एक हफ्ता पहले अपना नाम देना होगा और वही अदालत में खड़ा हो सकेगा।
न्याय-प्रक्रिया की बुनियाद है- पारदर्शिता। अगर माआ॓वाद का आतंक खड़ा करके सरकार इसका भी उल्लंघन करेगी, तो जनता के लिए वे यह संदेश दे रही होगी कि इंसाफ का हर रास्ता बंद है।
अपूर्वानंद