12 अप्रैल 2008

जानवर बनने के लिये सब्र की जरूरत होती है ?

जन कवि धूमिल महज एक अनूभूति, भाव या शब्दों को तोड मरोड कर पेश करने वाले कवि ही नही है बल्कि वे विचार शीलता के कवि है उनकी कविताओंं के रूपक बडी दूर तक हमे लेकर चले जाते है और सोचने के लिये एक व्योम में छोड देते है । किसी एक लम्बे गहरे कुऎ मे झाकने जैसे ,किसी सूनसान सड्क पर अकेले में चलने जैसे, कही बारिस के अन्धेरे मे घिरने जैसे। वे सवाल उठाते है खुद से, पाठक से, जनता से, अपने कवि मन से .............आखिर मै क्या करू? आपै जबाब दो/तितली के पंखो मे /पटाखा बाधकर भाषा के हल्के मे कौन सा गुल खिला दूं / जब ढेर सारे दोस्तो का गुस्सा / हाशिये पर चुट्कुला बन रहा है / क्या मै व्याकरण की नाक पर रूमाल बाधकर /निष्ठा का तुक विष्ठा में मिला दूं॥ हम धूमिल की पुस्तक संसद से सड्क तक से ये कुछ कवितायें प्रकाशित कर रहे है बिना किसी अनुमति के साभार देते हुए यदि प्रकाशक को आपत्ति हो तो सूचित करें। व्यक्तिगत रूप से मेरा मानना है कि ग्यान एक सामाजिक सम्पत्ति होती है उसे किसी के द्वारा प्रतिबन्धित नही किया जाना चाहिये वह कही से उठाकर कही स उद्देश्य छापी जानी चाहिये बस॥


कविता:-




उसे मालूम है कि शब्दों के पीछे
कितने चेहरे नंगे हो चुके है
और हत्या अब लोगों की रुचि नहीं-
आदत बन चुकी है
वह किसी ग¡वार आदमी की ऊब से
पैदा हुई थी और
एक पढे़-लिखे आदमी के साथ
शहर में चली गयी

एक सम्पूर्ण स्त्री होने के पहले ही
गर्भाधान की क्रिया से गुजरते हुए
उसने जाना कि प्यार
घनी आबादीवाली बस्तियों में
मकान की तलाष है
लगातार बारिस में भीगते हुए
उसने जाना कि हर लड़्की
तीसरे गर्भपात के बाद
धर्मशाला हो जाती है और कविता
हर तीसरे पाठ के बाद
नहीं-अब वहा¡ कोई अर्थ खोजना व्यर्थ है
पेशेवर भाषा के तस्कर-संकेतों
और बैलमुत्ती इबारतों में
अर्थ खोजना व्यर्थ है
हा¡, हो सके तो बगल सेे गुजरते हुए आदमी से कहो-
लो, यह रहा तुम्हारा चेहरा,
यह जुलूस के पीछे गिर पड़ा था

इस वक्त इतना ही काफी है

वह बहुत पहले की बात है
जब कहीं किसी निर्जन में
आदिम पशुता चीखती थी और
सारा नगर चौक पड़्ता था
मगर अब-
अब उसे मालूम है कि कविता
घेराव में
किसी बौखलाये हुए आदमी का
संक्षिप्त एकालाप है।।


बीस साल बाद:-



बीस साल बाद
मेरे चेहरे में
वे आ¡खें वापस लौट आयी हैं
जिनसे मैंने पहली बार जंगल देखा है :
हरे रंग का एक ठोस सैलाब जिसमें सभी पेड़ डूब गये हैं।

और जहा¡ हर चेतावनी
खतरे को टालने के बाद
एक हरी आ¡ख बन कर रह गयी है।
बीस साल बाद
मैं अपने-आप से एक सवाल करता ह¡ू
जानवर बनने के लिये कितने सब्र की जरूरत होती है ?
और बिना किसी उत्तर के चुपचाप
आगे बढ़ जाता हू
क्योंकि आजकल मौसम का मिजाज यू¡ है
कि खून में उड़्ने वाली पत्तियों का पीछा करना
लगभग बेमानी है।

दोपहर हो चुकी है
हर तरफ ताले लटक रहे हैं
दीवारों से चिपके गोली के छरोंZ
और सड़्कों पर बिखरे जूतों की भाषा में
एक दुघZटना लिखी गयी है
हवा से फड़्फड़ाते हुए हिन्दुस्तान के नक्षे पर
गाय ने गोबर कर दिया है।

मगर यह वक्त घबराये हुए लोगों की शर्म
आ¡कने का नहीं
और न यह पूछने का-
कि सन्त और सिपाही में

देश का सबसे बड़ा दुभाZग्य कौन है !
आह्! वापस लौटकर
छूटे हुए जूतों में पैर डालने का वक्त यह नहीं है
बीस साल बाद और इस शरीर में
सुनसान गलियों से चोरों की तरह गुजरते हुए
अपने-आप से सवाल करता ह¡ू-
क्या आजादी सिर्फ तीन थके हुए रंगों का नाम है
जिन्हे एक पहिया ढोता है
या इसका कोई खास मतलब होता है ?

और बिना किसी उत्तर के आगे बढ़ जाता हू¡
चुपचाप ।


जनतन्त्र के सूर्योदय मे:-






रक्त्पात-
कहीं नहीं होगा
सिर्फ एक पत्ती टूटेगी !
एक कन्धा झुक जायेगा!
फड़कती भुजाओं और
सिसकती हुई आ¡खों को
एक साथ लाल फीतों में लपेट्कर
वे रख देंगे
काले दराजों से निस्चल एकान्त में
जहा¡ रात में
संविधान की धाराए¡
नाराज आदमी की परछाईं को
देश के नक्शे में
बदल देती हैं

पूरे आकाश को
दो हिस्सों में काटती हुई
एक गूंगी परछाईं गुजरेगी
दीवारों पर खड़्खड़ाते रहेंगें
हवाई हमलों से सुरक्षा के इष्तहार

या

या

को
रा
स्ता
देती हुई जलती रहेगी
चौरस्तों की बत्तिया¡

सड़्क के पिछले हिस्से में
छाया रहेगा
पीला अन्धकार
शहर की समूची
पशुता के खिलाफ
गलियों में नंगी घूमती हुई
पागल औरत के ßगाभिन पेटÞ की तरह
सड़्क के पिछले हिस्से में
छाया रहेगा पीला अंधकार
और तुम
महसूसते रहोगे कि जरूरतों के
हर मोचेZ पर
तुम्हारा शक
एक की नींद और
दूसरे की नफरत से
लड़ रहा है
अपराधियों के झुंड में शरीक होकर
अपनी आवाज का चेहरा ट्टोलने के लिये
कविता में
अब कोई शब्द छोटा नहीं पड़ रहा है :
लेकिन तुम चुप रहोगे
तुम चुप रहोगे और लज्जा के
उस निरर्थ ग¡ूगेपन-से सहोगे-
यह जानकर कि तुम्हारी मातृभाषा
उस महरी की तरह है
जो महाजन के साथ रात-भर
सोने के लिये
एक साड़ी पर राजी है
सिर कटे मुर्ग की तरह फड़कते हुए
जनतन्त्र में
सुबह-
सिर्फ, चमकते हुए रंगों की चालबाजी है
और यह जानकर भी, तुम चुप रहोगे
या शायद, वापसी के लिये पहल करने वाले-
आदमी की तलाश मे
एक बार फिर
तुम लौट्जाना चाहोगे मुर्दा इतिहास में
मगर तभी-
यादों पर पर्दा डालती हुई सबेरे की
फिरंगी हवा बहने लगेगी
अखबारों की धूप और
वनस्पतियों के हरे मुहावरे
तुम्हे तसल्ली देंगे
और जलते हुए जनतन्त्र के सूयोZदय में
शरीक होने के लिये
तुम, चुपचाप, अपनी दिनचर्या का
पिछला दरवाजा खोलकर
बाहर आ जाओगे
जहा¡ घास की नोक पर
थरथराती हुई ओस की बू¡द
झड़ पड्ने के लिये
तुम्हारी सहमति का इन्तजार
कर रही है।।




अकाल दर्शन :-





भूख कौन उपजाता है :
वह इरादा जो तरह देता है
या वह घृणा जो आ¡खों पर पट्टी बा¡धकर
हमें घास की सट्टी में छोड़ आती है ?

उस चालाक आदमी ने मेरी बात का
उत्तर नही दिया।
उसने गलियों और सड़्कों और घरों में
बाढ़ की तरह फैले बच्चों की ओर इषारा किया
और ह¡सने लगा।

मैनें उसका हाथ पकड़्ते हुए कहा-
ßबच्चे तो बेकारी के दिनों की बरकत हैंÞ
इससे वे भी सहमत हैं
जो हमारी हालत पर तरस खाकर, खाने के लिये
रसद देते हैं।
उनका कहना है कि बच्चे
हमें बसन्त बुनने में मदद देते हैं

लेकिन यही वे भूलते हैं
दरअस्ल, पेड़ो पर बच्चे नहीं
हमारे अपराध फूलते हैं
मगर उस चालाक आदमी ने मेरी किसी बात का उत्तर
नहीं दिया और ह¡सता रहा-ह¡सता रहा-ह¡सता रहा
फिर जल्दी से हाथ छुड़ाकर ßजनता के हित मेंÞ स्थानान्तरित
हो गया।

मैने खुद को समझाया-यार !
उस जगह खाली हाथ जाने से इस तरह
क्यों िझझकते हो ?
क्या तुम्हें किसी का सामना करना है ?
तुम वहा¡ कुवा¡ झा¡कते आदमी की
सिर्फ पीठ देख सकते हो।
और सहसा मैने पाया कि मैं खुद अपने सवालों के
सामने खड़ा हू¡ और
उस मुहावरे को समझ गया हू¡
जो आजादी और गांधी के नाम पर चल रहा है
जिससे न भूख मिट रही है, न मौसम
बदल रहा है।
लोग बिलबिला रहे हैं (पेड़ों को नंगा करते हुए )
पत्ते और छाल
खा रहे हैं
मर रहे हैं, दान
कर रहे हैं।
जलसों जूलूसों में भीड़ की पूरी ईमानदारी से
हिस्साले रहे हैं और
अकाल को सोहर की तरह गा रहे हैं।
झुलसे हुए चेहरों पर कोई चेतावनी नहीं है।
मैंने जब भी उनसे कहा है देश शासन और राशन ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्
उन्होंने मुझे टोक दिया है।
अक्सर, वे मुझे अपराध के असली मुकाम पर
अ¡गुली रखने से मना करते हैं।
जिनका आधे से ज्यादा शरीर
भेिड़यों ने खा लिया है
वे इस जंगल की सराहना करते हैं-
कि भारतवर्ष नदियों का देश है।

बेशक, यह खयाल ही उनका हत्यारा है।
यह दूसरी बात है कि इस बार
उन्हें पानी ने मारा है।

मगर वे हैं कि असलियत नहीं समझते
अनाज में छिपे ßउस आदमीÞ की नियत
नही समझते
जो पूरे समुदाय से
अपनी गिजा वसूल करता है-
कभी गाय से
कभी हाय से
ßयह सब कैसे होता हैÞ मैं उन्हे समझाता ह¡ू
मैं उन्हें समझाता हू¡-
वह कौन सा प्रजातािन्त्रक नुस्खा है
कि जिस उम्र में
मेरी म¡ा का चेहरा
झुरिZयों की झोली बन गया है
उसी उम्र की मेरी पड़ोस की महिला
के चेहरे पर
मेरी प्रेमिका के चेहरे-सा
लोच है।

वे चुपचाप सुनते है।
उनकी आ¡खों में विरक्ति है
पछतावा है
संकोच है
या क्या है कुछ पता नही चलता।
वे इस कदर पस्त हैं :
कि तटस्थ है।
और मैं सोचने लगता हू¡ कि इस देश में
एकता युद्ध की और दया
अकाल की पू¡जी है।
क्रान्ति-
यहा¡ के असंग लोगों के लिये
किसी अबोध बच्चे के-
हाथों की जूजी है।



वसन्त :-




इधर मैं कई दिनों से प्रतीक्षा
कर रहा हू¡ : कुर्सी में
टिमटिमाते हुए आदमी आ¡खों में
ऊब है और पड़ोसी के लिये
ल़म्बी यातना के बाद
किसी तीखे शब्द का आशय
अप्रत्याषित ध्वनियों के समानान्तर
एक खोखला मैदान है
और मासिक धर्म में डूबे हुए लत्ते सा
खड़खड़ाता हुआ दिन
जाडे़ की रात में
जले हुए कुत्ते का घाव
सूखने लगा है
मेरे आस-पास
एक अजीब-सा स्वाद-भरा रूखापन है
उधार देनेवाले बनिये के
नमस्कार की तरह
जिसे मैं मात्र इसलिये सहता हू¡
कि इसी के चलते मौज से
रहता हू¡
मेरे लिये अब कितना आसान हो गया है
नामों और आकारों के बीच से
चीजों को टटोलकर निकालना
अपने लिये तैयार करना-
और फिर उस तनाव से होकर-
गुजर जाना
जिसमें जिम्मेदारिया¡
आदमी को खोखला करती हैं
मेरे लिये बसन्त
बिलों के भुगतान का मौसम है
और यह वक्त है कि मैं भी वसूल करू¡-
टूट्ती हुई पत्तियों की उम्र
जाडे़़ की रात जले कुत्ते का दुस्साहस
वारण्ट के साथ आये जमीन की उतावली
और पड़ोसियों का तिरस्कार
या फिर
उन तमाम लोगों का प्यार
जिनके बीच
मैं अपनी उमीद के लिये
अपराधी ह¡ू
यह वक्त है कि मैं
तमाम झुकी हुई गरदनों को
उस पेड़ की ओर घुमा दू¡
जहा¡ बसन्त
दिमाग से निकले हुए पाषणकालीन पत्थर की तरह
डाल से लट्का हुआ है
यह वक्त है कि हम
कहीं न कहीं सहमत होुं
बसन्त
मेरे उत्साहित हाथों में एक
जरूरत है
जिसके सन्दर्भ में समझदार लोग
चीजों को
घटी हुई दरों में कूतते हैं
और कहते हैं : सौन्दर्य में स्वाद का मेल
जब नही मिलता
कुत्ते महुवे के फूल पर
मूतते है।।



एकान्त-कथा:-





मेरे पास उत्तेजित होने के लिये
कुछ भी नहीं है
न कोकशास्त्र की किताबें
न युद्ध की बात
न गÌेदार बिस्तर
न टा¡गे, न रात
चा¡दनी
कुछ भी नहीं
बलात्कार के बाद की आत्मीयता
मुझे शोक से भर गयी है
मेरी शालीनता-मेरी जरूरत है
जो अक्सर मुझे नंगा कर गयी है
जब कभी
जहा¡ कहीं जाता हू¡
अचूक उदन्ड्ता के साथ देहों को
छयाओं की ओर सरकते हुए पाता ह¡ू
भट्ठिया¡ सब जगह हैं
सभी जगह लोग सेंकते हैं शील
उम्र की रपट्ती ढलानों पर
ठोकते हैं जगह-जगह कील-
कि अनुभव ठहर सके
अक्सर लोग आपस में बुनते हैं
गहरा तनाव
वह शायद इसलिये कि थोड़ी देर ही सही
मृत्यु से उबर सकें
मेरी दृष्टि जब भी कभी
जिन्दगी के काले कोनों मे पड़ी है
मैंने वहा¡ देखी है-
एक अन्èाी ढलान
बैलगािड़यों को पीठ पर लादकर
खड़ी है
(जिनमें व्यक्तित्व के सूखे कंकाल हैं)
वैसे यह सच है-
जब
सड़्कों में होता हू¡
बहसों में होता हू¡¡
रह-रह चहकता हू¡
लेकिन हर बार वापस घर लौट्कर
कमरे के अपने एकान्त में
जूते से निकाले गये पा¡व-सा
महकता ह¡ू।।



शान्ति पाठ :-अखबारों की सुिर्खया¡ मिटाकर दुनिया के नक्षे पर







अन्धकार की एक नई रेखा खींच रहा ह¡ू
मैं अपने भविष्य के पठार पर आत्महीनता का दलदल
उलीच रहा ह¡ू।
मेरा डर मुझे चर रहा है।
मेरा अस्तित्व पड़ोस की नफरत की बगल से उभर रहा है।
अपने दिमाग के आत्मघाती एकान्त में
खुद को निहत्था साबित करने के लिये
मैनें गा¡धी के तीनों बन्दरों की हत्या की है।
देश-प्रेम की भट्ठी जलाकर
मैं अपनी ठ्ण्डी मांसपेसियों को विदेषी मुद्रा में
ढाल रहा हू¡।
फूट पड़्ने के पहले,अणुबम के मसौदे को बहसों की प्याली में
उबाल रहा ह¡ू।
जरायमपेषा औरतों की सावधानी और संकट कालीन क्रूरता
मेरी रक्षा कर रही है।
गर्भ-गद्गद औरतों में अजवाईन का सत्त और मिस्सी
बा¡ट रहा हू¡।
युवकों को आत्महत्या के लिये रोजगार दफ्तर भेजकर
पंचवषीZय योजनाओं की सख्त चट्टान को
कागज से काट रहा हू¡।
बूढ़ो को बीते हुए का दर्प और बच्चों को विरोधी
चमडे़ का मुहावरा सिखा रहा हू¡।
गिद्धों की आ¡खों के खूनी कोलाहल और ठन्डे लोगों की
आत्मीयता से बचकर
मैकमोहन रेखा एक मुर्दे के बगल में सो रही है
और मैं दुनिया के शान्ति दूतों और जूतों को
परम्परा की पालिश से चमका रहा ह¡ू
अपनी आ¡खों में सभ्यता के गभाZषय की दीवारों का
सूरमा लगा रहा हू¡।
मैं देख रहा हू¡ एशिया में दायें हाथों की मक्कारी ने
बिस्फोट्क सुरंगे बिछा दी हैं।
उत्तर-दक्षिण-पूरब-पश्चिम-कोरिया, वियतनाम
पाकिस्तान, इजराइल और कई नाम
उसके चारों कोनों पर खूनी धब्बे चमक रहे है।
मगर मैं अपनी भूखी अ¡तणिया¡ हवा में फैलाकर
पूरी नैतिकता के साथ अपने सडे़ हुए अंगो को सह रहा हू¡।
भेिड़़ये को भाई कह रहा हू¡।
कबूतर का पर लगाकर
विदेशी युद्ध प्रेक्षकों ने
आजादी की बिगड़ी हुई मशीन को
ठीक कर दिया है।
वह फिर हवा देने लगी है।
न मै कमन्द हू
न कवच हू¡
न छन्द ह¡ू
मैं बीचो बीच से दब गया हू¡।
मैं चारो तरफ से बन्द हू¡।
मैं जानता हू¡ कि इससे न तो कुर्सी बन सकती है
और न बैसाखी
मेरा गुस्सा-
जनमत की चढ़ी हुई नदी में
एक सड़ा हुआ काठ है।
लन्दन और न्युयार्क के घुण्डीदार तसमों में
डमरू की तरह बजता हुआ मेरा चरित्र
अग्रेंजी का 8 है।

फोटो पंकज दीछित के कविता पोस्टर से

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