20 अप्रैल 2008
नक्सलवाद से लड़ने का अमानवीय तरीका
नक्सल्वाद समस्या है या समाधान इस पर एक लंबी बहस हो सकती है और हो भी रही है. पर सलवा जुडुम ने बस्तर यानी दांतेवाडा में जो किया है वह जगजाहिर है. उस पर कई रिपोर्टे आ चुकी हैं. हमें इस प्रश्न को व्यवस्था से जोड्कर देखना होगा कि तथाकथित स्व्तंत्रता के बाद आया यह लोक्तंत्र कितना सफल रहा है और किसके लिये. यह देखा जा सकता है कि शेयर बाजार उछल रहा है, रिलायन्स ने ग्लोबल बना दिया है भारत को,अति उत्पादन इतना हो गया है कि खपत के रोज नये तरीके ढूडे जा रहे हैं पर क्या १९४७ में हो रही किसान हत्या आज के मुकाबिले ......,या फिर आम आदमी का जीवन ....लोक्संस्क्रिति ....साथ में एक बडे समुदाय का जीवन जो जंगलो में रहता था उसको इस लोकतंत्र ने क्या दिया है .......विस्थापन, भूख से मरने के लिये मल्टीनेसनल कम्पनियों के सहारे किसान आत्म हत्या ऐसे में सवाल उठता है कि वह प्रतिरोध क्यों न करे तो फिर प्रतिरोध कैसा हो शान्तिपूर्ण जैसा मेधापाटेकर कर रही है. उसका क्या हस्र हो रहा है .....या फिर जो एन जी ओ कर रहे है. इसके अलावा यदि कोई प्रतिरोध उठता है तो वह नक्सली है चाहे वह ननंदीग्राम का किसान आंदोलन ही क्यों न हो. इस स्थिति में रास्ता क्या बचता है, फिर एक सवाल जो बार बार उठता है हिंसक रास्ता तो क्या नक्सली सिर्फ हिंसा ही कर रहे है? हमें देखना होगा सी वेनेजा जो की आन्ध्रा की वरिष्ठ पत्रकार है उनकी बस्तर पर एक रिपोर्ट आयी थी. जिसे पढ कर समझा सकता है कि नक्सली कैसा समाज बनाना चाहते है खैर अभी हाल में कोर्ट फैसले के बाद सलवा जुडुम पर श्रीलता मेनन की ये रिपोर्ट ...
सलवा जुडूम मसले पर 3 साल की खामोशी के बाद कम से कम 2 एजेंसियों ने इसके खिलाफ अपना स्वर मुखर किया है।
नक्सलियों से लड़ने के लिए छत्तीसगढ़ सरकार के इस कदम को अमानवीय रणनीति करार दिया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट के अलावा एडमिनिस्ट्रेटिव रिफॉम्स कमिशन (प्रशासनिक सुधार आयोग) ने भी कहा है कि लोगों को कानून हाथ में लेने के लिए खुला छोड़ देने और नागरिकों के साथ युध्द छेड़ने का कोई हक नहीं है।
कुछ महीने पहले हमारे अखबार ने छत्तीसगढ़ के डीजीपी विश्व रंजन से पूछा था कि सरकार ने सलवा जुडूम का समर्थन करने का फैसला क्यों किया? इस पर उनका कहना था कि सरकार गांव वालों को नक्सली हमलों से सुरक्षा मुहैया करा रही थी, लेकिन उसके लिए यह काफी महंगा सौदा था। इसके मद्देनजर सरकार ने सलवा जुडूम के समर्थन का फैसला किया। ये लोग शुरू में बीजापुर जिले में नक्सली हमलों के खिलाफ लड़ रहे थे। बाद में इसका विस्तार अन्य जिलों में भी किया गया।
बस्तर इलाके के नक्सलवाद प्रभावित 5 में 2 जिलों को सलवा जुडूम के संरक्षण के दायरे में लाया गया। सलवा जुडूम के तहत काम करने वालों को नक्सलियों से सुरक्षा की जरूरत थी और इस बाबत उन्हें खास कैंपों में शिफ्ट किया गया। हालांकि इन कैंपों की सुरक्षा में भी काफी पैसे खर्च हो रहे थे, लिहाजा पुलिस ने सलवा जुडूम में शामिल नहीं होने वाले लोगों को पकड़ने के लिए स्पेशल पुलिस ऑफिसर (एसपीओ) के रूप में स्थानीय नौजवानों की भर्ती शुरू की। यह काफी सस्ता और आसान उपाय था।
लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या सिर्फ सरकारी खर्च बचाने के लिए ऐसा कुछ किया जा सकता है, जिससे असहाय गांववासियों की जान खतरे में पड़ जाए? कहने का मतलब यह है कि जो लोग सलवा जूडूम का हिस्सा नहीं होंगे, उन्हें कानूनी सुरक्षा नहीं मुहैया कराई जाएगी। हालांकि विश्व रंजन यह नहीं कहते हैं कि जब से सरकार ने सलवा जुडूम को स्पेशल पुलिस ऑफिसरों और हथियारों के जरिये मदद देनी शुरू की, नक्सल प्रभावित इलाके पूरी तरह से 2 गुटों में बंट चुके हैं।
पहले गुट में वैसे लोग हैं, जो सलवा जुडूम की मदद कर रहे हैं और दूसरे वे हैं, जो इसकी मदद नहीं कर रहे हैं। उन्होंने यह भी नहीं बताया कि जिन लोगों ने सलवा जुडूम के कैंपों की रक्षा के लिए पुलिस फोर्स जॉइन की है, उनके लिए अपने गांव लौटना कभी भी मुमकिन नहीं होगा। अगर वे अपने गांव जाते भी हैं, तो नक्सली या फिर अपनी जमीन के लिए संघर्ष कर रहे जंगलों में छिपे गांव वाले उनकी हत्या कर देंगे।
जंगलों में शरण लेने वाले किसानों को लूटने में सलवा जुडूम ने कोई कोताही नहीं की है और इस काम में इस संगठन को पुलिस का समर्थन भी हासिल है। हाल में छत्तीसगढ़ ईमेल नेटवर्क की चंपारण नामक गांव में बैठक हुई थी, जिसमें पड़ोसी राज्य आंध्र प्रदेश से कुछ लोगों ने हिस्सा लिया था। इनमें औरतें, बच्चे और पुरुष शामिल थे।
सलवा जुडूम ने इन लोगों के परिवार के सदस्यों की हत्या कर दी थी और इस वजह से उन्हें अपनी जान बचाने के लिए दंतेवाड़ा छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा था। ये लोग डर के मारे एक छोटे से कमरे में छुपे हुए थे। उन्हें डर था कि सलवा जुडूम के मुखबिर या पुलिस द्वारा उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाएगा।
इन घटनाओं से साफ है कि सलवा जुडूम के जरिये पुलिस ने सिर्फ एक चीज हासिल की है- इसने आम लोगों को खुद से दूर कर लिया है और इस वजह से पुलिस के लिए वास्तविक अपराधियों को पकड़ना काफी मुश्किल हो गया है। सरकार यह बात भी स्वीकार करती है कि नक्सल प्रभावित गांवों में कोई भी कल्याणकारी परियोजनाएं नहीं चल रही हैं।
इसके बजाय वह सलवा जुडूम और एसपीओ के माध्यम से जनजातीय समुदाय के लोगों से जीने का हक छीन रही है। बिनायक सेन जैसे कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी सरकार के पलायनवादी रवैये को दर्शाती है। इससे साफ है कि असली अपराधियों को पकड़ने में नाकाम रहने की वजह से सरकार ऐसे लोगों को निशाना बना रही है, जो दोषी नहीं हैं।
छत्तीसगढ़ सरकार ने संभावित आलोचकों (खासकर स्थानीय मीडिया) का भी मुंह बंद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। साथ ही सरकार के इस कदम के खिलाफ आंदोलनों पर भी अंकुश लगा दिया गया है। दरअसल, सितंबर 2006 में राज्य ने छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा कानून लागू कर दिया।
इसके तहत मीडिया को कोई भी ऐसी रिपोर्टिंग करने पर पाबंदी लगा दी गई है, जिसे 'गैरकानूनी गतिवधि' माना जाता है। राज्य सरकार पीयूसीएल जैसे मानवाधिकार संगठनों को गैरकानूनी करार देकर इस संस्था के कार्यकर्ताओं को निशाना बनाने में जुटी है।
अब जब प्रशासनिक सुधार आयोग और सुप्रीम कोर्ट ने इस समस्या से निपटने के लिए मानवीय तरीका अख्तियार करने की जरूरत पर बल दिया है, क्या छत्तीसगढ़ सरकार अपने तौर-तरीकों पर फिर से गौर करने की जहमत उठाएगी?