23 अगस्त 2007

चौथे खम्भे की बिजली कहाँ है?


मीडिया को यदि चौथा खम्भा माना जाए तो मैं उसकी बिजली की तलाश में हू। आखिर इसका उजाला किन घरों में पहुच रहा है?यह अवधारणा कि मीडिया,संस्क्रिति, विचार, दर्शन को समृद्ध करती है , कहाँ है? आज मीडिया ने समाज के समूहों संगठनों ,और कलाओं को कितना समृद्ध किया है? लोगों को जागरूक बनाया है या ऐसे चौराहे पर ला कर खड़ा कर दिया है,जहा लोगों के पास भटकने के सिवा कोई रास्ता नही है,बातें यहा से तय होती है कि चौथा खम्भा किसके आंगन में है? पूजी की प्रतिद्वन्दिता के इस युग में मुख्य धारा के माध्यम (खास तौर से इलेक्ट्रानिक माध्यम) जनता का सहयोगी या मार्ग दर्शक बनेगें मेरी नजर में ऐसा मानना बेमानी है। सारी चीजें यहा से तय होती है कि इसकी चाभी किसके हाथ में है , जो इसका मालिक होगा वह तय करेगा कि किस विषय पर क्या परोसा जाय। आध्याfत्मक चौनलों को फ्री टू एयर क्यो किया जाए? कलिंग नगर में आदिवासी गोली से भूने जाए तो उसका रंग कैसे फीका किया जाए? अफजल गुरू को नायक बनाया जाय या खलनायक? यह मीडिया मालिकों के हित और गठजोड़ पर निर्भर करता है। मीडिया ने समाजिक बुनावट को जिस तरह से उधेड़ कर रख दिया है वह एक चिंतनीय विषय है लोक संस्क्रिति,साहित्य विचार यहा तक कि समाचार को भी अपने ढंग से परोस रहा है और दर्शकों के पक्ष को तय करवा रहा है। उसपर से यह हवाला भी दिया जाता है कि यह दर्शकों की माग है,दर्शकों की पसंद है।
एक वाक्य कई प्रश्न खड़ा करता है कि पसंद बनाता कौन है? अचानक से कोई विचार,कोई संस्क्रिति हावी नही होती। हमें उसके लिए मानसिक रूप से तैयार किया जाता है इसके बाद हमें उसका आदी बना दिया जाता है। यह दर्शकों की माग नही बल्कि मीडिया की चकाचौध का नतीजा होता है फिर देखने की बात यह भी है कि मीडिया किन दर्शकों से यह तय करती है कि वे क्या चाहते है?उन टैम मशीन लगी इमारत वाले पाच हजार दर्शकों से जो जूहू चौपाटी व कनाट प्लेस में रहते है। क्या जूहू चौपाटी और कनाट प्लेस के दर्शकों का वर्ग भारत के बीस करोड़ दर्शकों का प्रतिनिधित्व करता है? क्या उनकी वर्गीय मानसिकता, वर्गीय संस्क्रिति, जीने की कला भारत का प्रतिनिधत्व करती है? शायद सारे उत्तर न में मिलें फिर सीरियलों से लेकर फिल्म तक दिखने वाला वह वर्ग जिनके घर की औरतें गहनों से लदी है ,हर दूसरे रोज तलाक हो रहे है , हर व्यक्ति के पास एक आलीसान गाड़ी है , हर घर में एक इन्डस्ट्री है चमचमाती इमारतें है और करोड़ों में चल रही बातें हैं ,भारत का मध्यम वर्ग यदि इन सब को देख कर पचा ले रहा है तो इसका कारण है कि दर्शकों का इस तरह से मानसिक परिस्कय्ण कर दिया गया है। न्यूज चैनलों की बात की जाए तो इनके पास भूख से मर रहें लोग आत्महत्या कर रहें किसानों के सही आंकड़े भले न पता हो पर एश्वर्या राय की मेंहदी, कंगन,बाली,झुमका,भुतहे बंगलों और बिना ड्राइवर की कारों के बारे में सब कुछ पता होता है। बेरोजगारी , भूख , विस्थापन ,अशिक्षा आदि कि समस्या को कुछ चैनल हास्य कवियों से हसा कर दूर करने का प्रयास करते है। शायद सब कुछ भूलने का इलाज हसी है।

4 टिप्‍पणियां:

  1. विचारोत्‍तेजक लेख है बढिया है इसी विषय पर आगे और आपको पढने की इच्‍छा है

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  2. हरिमोहन जी से सहमत!
    अब आज ही लीजिये सुबह छ: बजे से संजू बाबा के समाचारों से सारे चैनल सर दुखा रहे थे, किसी के पास दूसरा समाचार था ही नहीं, मानो एक अपराधी नहीं कोई स्वतंत्रता सेनानी जेल से रिहा हो कर आये हैं।
    ॥दस्तक॥

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  3. टीवी को मीडिया मानकर क्यों चलते हो चंद्रिका बाबू. टीवी मनोरंजन है, मनोरंजन की समीक्षा भी मनोरंजक ही होनी चाहिए. आपने जो रास्ता चुना है वालपेपर पत्राकारिता ऐसे ही रास्ते मीडिया के वास्तविक रास्ते हैं. दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि 21 वीं सदी में पत्रकारिता 17 वी सदी के औजारों के भरोसे जिन्दा रहेगी. लेकिन जिन्दा रहेगी क्योंकि आप जैसे कुछ जिद्दी लोग हैं.

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  4. भैया सबसे पहले तो टीवी वालों को पत्रकार मानना ही एक बहुत बड़ी भूल है, ये लोग सारा दिन तो लोगों के झगड़े सुलझाने (या कहो माखौल उड़ाने) मे लगे रहते है, जो टाइम बचता है उसमे कत्ल,बलात्कार, अपहरण, सांप, तान्त्रिक, सिनेमा, नग्नता(फैशन के नाम पर) जैसे स्तरहीन समाचार दिखाते है कि क्या कहें। समाचार इतने खराब क्वालिटी के होते है कि क्या बताएं, कभी कभी तो जांघिया के विज्ञापन इन समाचारों से बेहतर दिखते है।

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