06 अगस्त 2007
रोजगार पर ओ0 ई0 सी0 डी0 रिर्पोट का सच :
रोजगार का सवाल एक अहम मुद्दा बनता जा रहा है, निजीकरण के बढ़ावे के साथ पूजी का केन्द्रीकदण बढ़ रहा है,फलस्वरूप अधिकाधिक मुनाफे के लिए रोजगार कम किये जा रहे हैं। 1990 के दशक में आर्थिक उदारीकरण की नीति लागू होनें के बाद रोजगार बढ़ने की बात की जा रही थी, लेकिन वह संसदवादी पार्टीयों द्वारा हमेशा की तरह दिये जाने वाले खोखले नारों जैसी ही साबित हो रही है और सत्ता इसे जनसंख्या वृfद्ध के कारण सम्पूर्ण रोजगार न उपलब्ध करा पाने की मजबूरी बता रही है। एवज में रोजगार गारंटी योजना, स्वत: रोजगार योजना जैसे कसीदे युवा वर्ग के सामने पेश किये जा रहे हैं। हाल में यू0 एन0 ओ0 की सस्था ओ0 ई0 सी0 डी0 के एक सर्वेक्षण में यह बताया गया कि अन्य देशों की अपेक्षा भारत में रोजगार बढ़ रहे है, इस सर्वेक्षण के बाद मीडिया में इस पर गर्मागरम बहसे हुई, आखिर इस बढ़ते रोजगार का सच क्या है? और स्थिति कहा¡ है? पूंजी, सत्ता,शिक्षा, व रोजगार एक दूसरे से जुड़े हुए है और इनका सीधा संबध है शिक्षाकी बात करे जिसे रोजगार पाने के लिए जरूरी माना जाता है भले ही वह दो कौड़ी की हो और पाठ्यक्रम भी कचड़े व साम्प्रदायिक हो और यह भी मान लिया जाए की बिना शिक्षा के रोजगार संभव नही है तो देखना जरूरी लगता है कि शिक्षा किसको मिल रही है। निजिकरण के इस दौर मे शिक्षा संस्थानों में शिक्षा को खरीद.फरोख्त की वस्तु बना दिया गया है जिसके करण ऐसी स्थिति है कि शिक्षा एक विशेष वर्ग के हाँथों में आज भी सीमित है जिसके पास पूंजी है उसके पास शिक्षा है और उसी के पास रोजगार भी, यानी पूंजी प्रधान इस युग में शिक्षा व रोजगार उन्ही के लिये है जो पैसे से सक्षम हो। यद्यपि प्रायमरी स्तर तक शिक्षा को निःशुल्क किया गया है पर इसके पीछे सत्ता की साजिसे साफ झलकती है। उन प्रायमरी विद्यालयों में कहीं अघ्यापक नहीं तो कहीं छत नहीं , किताबों की तो बात ही छोड़ दी जाये। क्या इन सरकारी संस्थानों के बच्चें कान्वेंट स्कूल की बराबरी आगे कर पायेगें? हा¡ इतना जरूर होगा कि ये शिक्षित होने के बजाय साक्षर हो जायें और सरकारी साक्षरता के आंकड़े को कुछ प्रतिशत और बढ़ा दे, पर रोजगार के लिये जिन महंगी तकनीकी शिक्षा की जरूरत हैं , उसमें ये लोग अशिक्षित मजदूर, या बेरोजगार ही पड़े रहेंगे।
कारण वस इन अशिक्षितो को अपने हक ,अधिकार , हो रहे शोषण, देश के गर्भगृह में चल रहे युद्ध , व सत्ता व सत्ताधारीयों की साजिशों की न तो उन्हें सच्चाई पता हेागी और न ही असलियत।स्थिति यह है कि देश में एक खाई सी बन गयी है एक तरफ साक्षर अशिक्षित व बहुसंख्यक मजदूर जनता का अंसगठित क्षेत्रों में विदेशी कंपनियों या देश की निजी कम्पनियों के द्वारा श्रम अधिकार का शोषण हो रहा है तो दूसरी तरफ शिक्षित जन है जो चंद लोगों के लिये इनके श्रम के शोषण में मध्यस्थ या दलालल की भूमिका अदा कर रहे है। इन सबके आवजूद भी करोड़ों युवा बेरोजगार पड़े है , देश के कई राज्यों में रोजगार गारंटी योजनायें शुरू की गयी है जिसमें रोजगार की गारंटी जैसे कसीदे गढ़े गये है और मीडिया के द्वारा इनका खूब प्रचार.प्रसार करवाया जा रहा है वर्ष में सौ दिन की रोजी पक्की अथवा बेरोजगारी भत्ता की बात कही जा रही है यह उन युवाओं के लिये है जो स्नातक कर चुके है। देश में मात्र 4 प्रतिशत से कुछ ज्यादा युवा ही ऐसे है जो स्नातक कर पाते है , इसके बाद बेरोजगार होने पर उन्हे 500रू0 प्रति माह की दर से बेरोजगारी भत्ता मिल ही जाये (कितनों की पहुच है , कितनों को भत्ता मिल पाता है , इन बातों को छोड़ दिया जाय) तो महंगाई के इस दौर में 500 रू0 में महीने भर गुजारा किया जा सकता हे क्या? दरअसल सत्ता की यह चालबाजी कुछ.कुछ एन0 जी0 ओ0 के सिद्धांतों से मिलती.जुलती लगती है। जिसमें देश का सबसे बड़ा युवा वर्ग जो अमूमन 54 करोड़ की संख्या में है , के आक्रोश को शांत करने का प्रयास है ताकि वे इसी बात में फसें रहे और वर्तमान व्यवस्था से विद्रोह न करें।
जनसंख्या वृfद्ध को पूर्ण रोजगार न दे पाने की मजबूरी बताना , व्यवस्था की खामियों को उजागर करता है।अमर्त्य सेन के शब्दों में कहें तो मानव एक उदर के साथ दो हाथ व एक मस्तिस्क लेकर पैदा होता है और यह सत्ता व व्यवस्था की सफलता , असफलता , होती है कि वह उसका किस तरह से प्रयोग कराती है या तो उसके हाथ व मस्तिस्क से मानव समाज के विकास की ओर बढ़ा जा सकता है और व्यवस्था को सुद्रण किया जा सकता है अन्थया वह इसे व्यस्था परिवर्तन के हथियार के रूप में प्रयोग करेगा जहां उसे सम्पूर्ण रोजगार,सम्पूर्ण सुविधायें , व समानता की उम्मीद होगी।
इन परिस्थितियों के बावजूद , स्वत: रोजगार जैसे टूल्स इन बेरोजगार युवाओं को झासें में रखने के लिये प्रयुक्त किये जा रहे है और भविष्य में युवाओं की बढ़ती तादात व आक्रोश को दबाने के लिये आगे भी इस तरह की कई प्रयोग किये जायेंगे। पर क्या समानता , पूर्णरोजगार , पूर्णशिक्षा, स्वास्थ , व अन्य विभेद विहिन समाज की मौजूदगी इस व्यवस्था में दिखती है। शायद नहीं , जगह.जगह बढ़ते जन आक्रोश और दमन में संघर्ष और बदलाव ही एक रास्ता दिखता है और इनकी एक जरूरत।
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