13 अगस्त 2007
ताजीरात-ए-हिन्द तथा विशेष कानून बनाम दमन-:
मिथिलेश जी महत्मा गांधी अंतरराष्टीय विश्वविद्यालय के छात्र है देश के संविधान में इन्हें अस्पष्टता झलकती है देश मे विशेष कानून तथा उसके आड़ में चल रहा जन-दमन,साथ में लोकतांत्रिकता का ढोंग उजागर करने का प्रयास किया है-
ब्रिटिश हुकूमत ने अपनी साम्राज्यवादी नीतियों के विस्तार एवं औपनिवेशिक जनता पर नियंत्रण के लिए कई फासीवादी नियम कानून बनाये थे। इन्हीं कानूनों के सहारे जनता के असंतोस एवं विद्रोह को कुचला जाता था। सन् 1857 की ऐतिहासिक क्रांति के बाद जनता के बीच उभर रहे प्रतिरोध की संस्कृति को दबाने के लिए अंग्रेजों ने 1860 ई0 में कई नए कठोर कानून बनाकर उसे अपना प्रमुख हथियार बनाया। जन दमन की शुरूआत यहीं से हुई जो भारतीय दंड संहिता के सुविधानुसार उपयोग के बदौलत अब तक चल रही है।
आज सिर्फ कहने के लिए ही मिल्कियत हमारी है। संपत्तिवादी और सत्तावादी व्यक्तियों के गठजोड़ ने ब्रिटिश हुकुमत की नीतियों को फिर से देश में लागू कर दिया है। उसी नक्शेकदम पर चलते हुए भारतीय शासन व्यवस्था ने उन तमाम हथियारों और हथकंड़ों को अपना लिया है जो मनमाने शासन के लिए आवश्यक होते है। अपनी तुगलकी योजनाओं , फैसलों और आदेशों की रक्षा के लिए जहाशासन ने अंग्रजों के समय सन् 1860 में बनी दंड संहिता को अपनी सुविधानुसार थोड़े फेरबदल के साथ हुबहु अपना लिया है, वहीं राज्य सरकारों द्वारा राज्य विशेष में नए.नए कानूनों को भी पारित करवाया जा रहा है।
तात्पर्य यह कि आजाद भारत की सरकार ने अपनी और अंग्रजों की शासनगत नीतियों में किसी प्रकार का कोई र्फक नहीं समझा है। जिस लाठी से कभी अंग्रेज भारतीय आमजन को हा¡का करते थे , वही लाठी वर्तमान शासन व्यवस्था देश को संचालित करने के लिए इस्तेमाल कर रही है।
आज भारतीय दंड संहिता अर्थात ताजीरात.ए.हिंद के मनमाफिक इस्तेमाल से सरकार अपनी राह में रोड़े बनने वालों को आसानी से चूर कर दे रही है। इसकी कई धाराओं का धड़ल्ले से दुरूपयोग हो रहा है। पूरी दंड संहिता में कई जगह `प्रयास करना,सहायता पहु¡चाना, जैसे अस्पष्ट शब्द भरे पड़े हैं। इन्हें व्याख्यायित नहीं किया गया है। इनकी आड़ लेकर किसी भी व्यक्ति को गिरफतार किया जा सकता है। उसपर मनमाने आरोप लगाये जा सकते हैं। उदाहरणस्वरूप ,भारतीय दंडसंहिता की धारा 402 पुलिस को इसी तरह की मनमानी करने की छूट देती है। यह धा� �ा डकैती की योजना बनाने और उसके इरादे से इकट्ठे होने के संबंध में है। जाहिर है , अस्पष्ट शब्द और पुलिस की अपनी इच्छा किसी भी व्यक्ति को जेल की राह दिखला सकती है।
तुर्रा यह कि भारतीय दंड संहिता के बाद भी संपत्ति और सुरक्षा का हवाला देकर केन्द्र और राज्य सरकारें समय.समय पर नए-नए विशेष कानून पारित करती रहती हैं। कभी आतंकवाद तो कभी नक्सलवाद के बहाने पारित इन विशेष कानूनों से सत्ता को अपने विरोधियों से निपटने में सहायता मिलती है। ये विशेष कानून अपने चरित्र ब्रिटिष शासनकालीन कानूनों से भी अधिक दमनकारी , अलोकतांत्रिक एवं अधिनायकवादी होते है। मसलन `मध्य प्रदेश विशेष क्षे़त्र सुरक्षा अधिनियम 2000 ´तथा इसी तर्ज पर बनी `छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा अधिनियम 2005´ नक्सलियों पर काबू पाने के लिए विशेष कानून तो परित होते ही पूरे प्रदेश पर लागू हो गया है। विडम्बना यह कि कानून को उन हिस्सों में भी पूरी कठोरता के साथ लागू किया गया है जो नक्सल प्रभावित इलाकों में नहीं 'श|मिल हैं।
छत्तीसगढ़ सरकार इन कानूनों के सहारे किसी भी आम या खास नागरिक को बड़ी सहजता से अपनी पकड में ले सकती है। इसका हालिया उदाहरण पेशे से चिकित्सक डा0 विनायक सेन की गिरफ्तारी है। छत्तीसगढ़ पीपुल्स यूनियन सिविल लिबर्टी (पी0 यू0 सि0 एल0) के उपाध्यक्ष डा0 विनायक सेन केश छत्तीसगढ़ सरकार ने छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा अधिनियम 2005´ और `अनलॉफुल एfक्टविटीज (प्रिवेंशन) एक्ट 1967´ के तहत गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया है। उन पर नक्सलियों से संबंध होने का मिथ्या आरोप लगाया गया है। डा0 सेन पिछले कई वर्षों से सरकार प्रायोजित अभियान सलवा जुडुम और मनगढंत मुठभेड़ों के मामलों को उठाते रहे हैं। व्यवस्था की काली करतूतों को उजागर करने और मानवाधिकारों की रक्षा में लगे ऐसे कार्यकर्ताओ कों सरकार बेहद आसानी से अपने विशेष कानूनों के दायरे में लपेट रही है। हालांकि डा0 सेन की गिरफ्तारी से छ0 ग0 सरकार के इस निंदनीय कदम की देश भर में जबर्दस्त आलोचना हुई है। विदेशों से इस पर दर्ज की जा रही आपfत्तयों से केन्द्र की भी फजीहत हुई है। अमेंरिकी चिन्तक नोम्स चोमस्की ने भी डा0 विनायक सेन को अविलंब रिहा करने एवं सभी मुकदमें वापस लेने के मांग पत्र पर हस्ताक्षर किया है।
आतंकवाद को मुद्दा बनाकर ऐसा ही एक क्रूर और अप्रजातांत्रिक कानून `आर्मड फोर्स स्पेशल पावर्स एक्ट 1958 ´(आफस्पा) कई सालों से उत्तर पूर्व और कश्मीर में लागू है। लोकतांत्रिक व्यवस्था का दम भरने वाले हमारे देश का बड़ा हिस्सा आफस्पा की वजह से आज भी अघोसित आपातकाल से पीडि़त है। इस कानून के अनुसार राज्य का गर्वनर अथवा किसी भी क्षेत्र को अशांत घोषित कर सकता है। केवल शक के आधार पर किसी को भी गोली मारी जा सकती है। अथवा इतना बल प्रयोग किया जा सकता है कि जिससे उसकी मौत हो जाए। यदि सैन्य बलों को केवल यह आशंका हो जाए कि `अमुक´ चीज को बतौर हथियार इस्तेमाल किया जा सकता है तो उस चीज को प्रतिबंधित बताकर धारक को गिरफ्तार किया जा सकता है। भले ही वे चीजे कृषि औजार , खुरपी , कुदाल क्यों न हो? मात्र शक और आशंका के आधार पर किसी ईमारत को तोड़ दिया जा सकता है , उसकी तलासी ली जा सकती है। हद तो यह है कि सैन्य बलों द्वारा यदि मानवाधिकार का उल्लंघन होता है तो उसके खिलाफ कार्यवाई केन्द्र सरकार की अनुमती के बिना नही की जा सकती है।
आफस्पा के अलावे कुछ अन्य कानूनों ने भी आम नागरीकों को हदसा कर रखा है। पहले टाडा , फिर पोटा और अब यू0ए0पी0ए0....... जनता को आतंकित कर दबाये रखने के लिए सत्ता द्वारा इन क्रूर कानूनों को हमेशा अस्तित्व में रखा जाता है। ऐसा नही कि इन भयानक दमनकारी कानूनों के विरोध में लोग सड़कों पर नही उतरे हैं पर अव्वल तो , सरकार पर इन अहिंसक प्रतिरोधो का असर नहीं पड़ता है (आफस्पा हटायें जाने की मांग को लेकर आसंका शर्मीला की छः वर्षीयभूख हड़ताल) और यदि चौतरफा निंदा और आंदोलनो के बाद यदि सरकार कोई कानून वापस ले भी लेती है तो तुरन्त नाम बदलकर किसी अन्य कानून को लागू कर देती है। कांग्रेस सरकार पोटा का विरोध किया करती थी , जबकि दूसरी ओर उसने महाराष्ट में महाराष्ट प्रिवेंसनट्र ऑफ ऑरगेनाइज्ड क्राइम एक्ट (मकोका) को पारित कर दिया।
इन सारे कानूनों में आतंकवाद , उग्रवाद की परिभाषाए बिल्कुल अस्पष्ट है। लोक प्रगति के लिए खतरा क्या है? या उसे लागू करने के लिए क्या जरूरी है ? या स्थापित कानून की अवज्ञा क्या है? यह सब फैसला सत्ता ही करती है। भारतीय दंड संहिता और दंड प्रक्रिया संहिता में ही जब सारे लोगों के समेट कर कानूनी कार्यवाहिया की जा सकती है तो इन विशेष कानूनों का क्या औचित्य है?
स्वतंत्रता के पश्चात आवश्यकता तो इस बात की थी कि कानूनों की समीक्षा कर उसे बदला जाना चाहिये था, पर इसके बजाए जनता पर नए-नए विशेष कानून थोपे जा रहे है ।इन विशेष कानूनों के अध्ययन एवं इनसे जुड़े तमाम उदाहरणों से कुछ महत्वपूर्ण सवालात खड़े होते है , मसलन. क्या भारत को लेकर ब्रिटिष शासन और वर्तमान सरकार के ध्येय एक रहे है? क्या अंग्रेजी शासन व्यवस्था एवम् वर्तमान व्यवस्था के जुल्म और दमन की परिभाषा में कोई र्फक नही रहा है? क्या आजादी के पूर्व एवं प'चात दोनों कालों में पूंजी एवं सत्ता की ही प्राथमिकता रही है? क्या जनता पहले भी हाशियें पर थी और आज भी हाशियें पर है? क्या इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में लोकतंत्र अपने न्यूनतम सीमा रेखा पर अटका है? ये कुछ विचारणीय प्रश्न है जिनका जवाब बड़ी ईमानदारी से सत्ता पक्ष को ढ़ूढ़ना होगा, अन्यथा जनता इसका जवाब जल्द ही ढूढ़ निकालेगी।
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कानून दमन के औजार हैं.
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