01 अप्रैल 2014

बर्बरों का इंतज़ार: कोस्तांतिन कवाफी


राजाजी का सियासी कारोबार ‘बर्बरों’ का डर दिखा कर ही चलता है: ‘वे नहीं चाहते कि हम आगे बढ़ें’, ‘वे नहीं चाहते कि हम तरक्की करें’ ‘वे जलते हैं हमारे विकास से’ वगैरह वगैरह. उन्होंने सभ्यता और संस्कृति की अपनी मनुवादी लकीरें और चमका ली हैं और इन लकीरों के बाहर सारे लोग ‘वे’ हैं-यानी बर्बर. बर्बर सरहद पार भी हैं और इस देश की हर बस्ती और शहर में खींच दी गई सरहदों के पार भी. यह नाकारा निजाम सारी समस्याओं की जिम्मेदारी ‘बर्बरों’ पर थोपकर ‘गणमान्य सभ्यों’ की सेवा में लग जाता है. ऐसे में याद आती कोस्तांतिन कवाफी की 1904 में लिखी यह कविता. अनुवाद सत्यम का है.

किस बात का इंतज़ार कर रहे हैं हम
यहां इस सभागृह में एकत्र होकर?
बर्बर आज आने वाले हैं।

सीनेट में क्यों है ऐसी निष्क्रियता?
सीनेटर क्यों बैठे हैं हाथों पर हाथ धरे, बनाते नहीं कानून?
क्योंकि बर्बर आज आने वाले हैं।
सीनेटर भला अब क्या कानून बनाएंगे?
जब बर्बर आयेंगे तो वे ही बनायेंगे कानून।

क्यों आज हमारा सम्राट उठकर इतनी जल्दी,
बैठा है नगर के विशालतम द्वार पर,
सिंहासन पर, मुकुट धारण किए, गुरुगंभीर?

क्योंकि बर्बर आज आने वाले हैं।
और सम्राट उनके सरदार की अगवानी के लिए
प्रतिक्षारत हैं। उनके लिए तैयार है एक सम्मानपत्र भी
जिस पर अंकित हैं अनेक उपाधियां और सादर सूचक संबोधन।

हमारे दोनों कौंसुल और न्यायाधिकारी आज क्यों आये हैं
पहनकर अपने लाल, कढ़ाईदार चोंगे;
क्यों पहने हैं वे नीलम-जड़े बाजूबंद
और चमकदार, दिप-दिप करते पन्नों से जड़ी अंगूठियां
क्यों हैं उनके हाथों में कीमती राजदंड
जिन पर है अद्भुत नक्काशी सोने और चांदी की?

क्योंकि बर्बर आज आने वाले हैं;
और ऐसी चीजें बर्बरों को चमत्कृत करती हैं।

उद्भट वक्ता क्यों नहीं आते हमेशा की तरह
अपने भाषण देने, अपनी लच्छेदार भाषा सुनाने?

क्योंकि बर्बर आज आने वाले हैं;
और वक्तृत्ताओं और भाषणों से उन्हें ऊब होती है।

अचानक क्यों यह खलबली और यह हलचल?
(कितने गंभीर हो गये हैं सबके चेहरे)
क्यों खाली होती जा रही हैं सड़कें और चौराहे तेजी से
और लौट रहे हैं सब घरों को, ऐसे सोच में डूबे हुए?

क्योंकि रात आ गई है पर बर्बर नहीं आये।
और कुछ लोग आये हैं सीमाओं से
और कहते हैं कि नहीं है वहां कोई भी बर्बर।

और अब क्या होगा हमारा बर्बरों के बगैर?
वे किसी तरह का समाधान तो थे।

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