बाबासाहेब आंबेडकर की क्रांतिकारी रचना एनाइहिलेशन ऑफ कास्ट पर अरुंधति रॉय द्वारा लिखी गई हालिया प्रस्तावना द डॉक्टर एंड द सेंट के बारे में छिड़े विवाद पर यह सबसे तर्कसंगत, सटीक और रचनात्मक हस्तक्षेप है, जिसमें आनंद तेलतुंबड़े ने
न सिर्फ जातियों के खात्मे के सवाल को केंद्र में रखते हुए पूरे विवाद का
विश्लेषण किया है, बल्कि उन्होंने आंबेडकर को एकांगी और सरलीकृत प्रतीक के
रूप में पेश किए जाने की राजनीति और इसके खतरों को भी सामने रखा था.
अनुवाद: रेयाज उल हक
आउटलुक (10 मार्च 2014) में छपे अपने एक साक्षात्कार में अरुंधति रॉय ने कहा, ‘हमें अंबेडकर की जरूरत है-अभी और तुरंत’. यह बात उन्होंने नई दिल्ली के एक प्रकाशक नवयाना से बाबासाहेब आंबेडकर की रचना एनाइहिलेशन ऑफ कास्ट के एक नए, व्याख्यात्मक टिप्पणियों वाले संस्करण के प्रकाशन के सिलसिले में कही. अरुंधति ने ‘द डॉक्टर एंड द सेंट’ के नाम से एक 164 पन्नों का निबंध इस किताब की प्रस्तावना के रूप में लिखा है. इस तरह करीब 100 पन्नों की मूल रचना अब प्रस्तावना और टिप्पणियों समेत 415 पन्नों की मोटी किताब के रूप में हमारे सामने है.
इस शोरगुल की जो भी वजह हो, यकीनन यह अनुचित था. सोशल मीडिया पर घटिया फिकरों की बाढ़ को नजरअंदाज कर दें तो इस रचना को लेकर तर्कसंगत स्तर की जो मुख्य आपत्तियां रहीं उनमें ये थीं कि उन्होंने आंबेडकर से परिचय कराने में गांधी को अनुचित रूप से ज्यादा जगह दी है. या यह कहा गया कि क्या इस काम के लायक काबिलियत उनमें थी. या फिर यह कि उनकी प्रस्तावना किताब में शामिल मूल रचना की प्रस्तावना नहीं है. अगर कोई इन नजरियों को जायज मान भी ले तो यह मानना मुश्किल है कि उनको ऐसी शिद्दत के साथ और खारिज कर देने के लहजे में जाहिर करना जरूरी था. वास्तविकता ये है कि अरुंधति के भीतर के सृजनात्मक लेखक ने पारंपरिक अर्थों में मूल रचना को नहीं बल्कि मूल पाठ पर गांधी की पत्रिका हरिजन में छपी गांधी की प्रतिक्रिया के संदर्भ में आंबेडकर और गांधी के बीच विवाद को चुना. उन्होंने सोचा कि नीरस, मशीनी तरीके से विषय को उठाने के बजाए अगर वे आंबेडकर और गांधी के बीच विरोधाभास की मदद लेंगी तो वे जातियों की समस्या को कहीं ज्यादा कारगर तरीके से पेश कर पाएंगी क्योंकि गांधी उदार हिंदू समाज का बेहतर प्रतिनिधित्व करते हैं. जहां तक काबिलियत का सवाल है, हालांकि अरुंधति जिस किसी भी विषय के बारे में लिखती हैं, उसे समझने के लिए काफी मेहनत करती हैं, लेकिन उनके लेख में उनकी शैली की मांग के मुताबिक, आमफहम समझदारी से परे जाकर किसी विशेषज्ञता की तड़क-भड़क नहीं दिखाई देती है. और शायद इसीलिए, उनका निबंध आम लोगों को ज्यादा आकर्षित करता है बजाए तथाकथित बुद्धिजीवियों के.
हालांकि यह अजीब विरोधाभास है कि सबसे दिलचस्प दलील दलितों की तरफ से नहीं बल्कि एक ऊंची जाति के पत्रकार की तरफ से लाइव मिंट के 18 मार्च 2014 अंक में आई ('बीआर आंबेडकर, अरुंधति रॉय एंड द पॉलिटिक्स ऑफ एप्रोप्रिएशन', जी संपत) जिसमें अरुंधति को यह चुनौती दी गई कि अगर वे नियमगिरी पहाड़ियों के नीचे मौजूद बॉक्साइट को आदिवासियों के पास छोड़ देने की मांग करती हैं, तो क्यों नहीं उन्हें आंबेडकर को दलितों के लिए छोड़ देना चाहिए, जो दलितों की अकेली संपत्ति हैं. यह दलील दिलचस्प भले ही हो, इसको लागू किया जाना खतरनाक है क्योंकि जातियों के आधार पर ‘अन्य’ बता दिए गए लोगों की किसी भी भागीदारी या संवाद को अनुचित बता कर खारिज किया जा सकता है. आंबेडकर दलितों सांस्कृतिक हितों के प्रतीक हो सकते हैं, लेकिन तब भी सिर्फ दलितों के लिए उनकी घेरेबंदी कर दिए जाने का मतलब उनकी तौहीन करना और दलितों के हितों को बेहिसाब नुकसान पहुंचाना होगा. नियमगिरी को आदिवासियों के लिए छोड़ दिया जाना विकास की प्रचलित अवधारणा को एक प्रगतिशील चुनौती है, जबकि आंबेडकर को सिर्फ दलितों तक सीमित कर देने का मतलब होगा बाबासाहेब आंबेडकर के जातियों के खात्मे के मकसद को पीछे की ओर ले जानेवाली प्रतिक्रांति.
आंबेडकर की स्वीकार्यता बढ़ रही है तो इससे लाजिमी तौर पर यह नहीं मान लिया जाना चाहिए कि आंबेडकर जो चाहते थे, ऐसा जाति-विरोधी सदाचार भी बढ़ रहा है. आज आंबेडकर आम स्वीकार्यता के मामले में किसी भी दूसरे नेता से यकीनन कहीं आगे निकल गए हैं. कोई भी दूसरा नेता प्रतिमाओं, तस्वीरों, सभाओं, किताबों, शोध, संगठनों, गीतों या लोकप्रियता की दूसरी सभी निशानियों के मामले में आंबेडकर का मुकाबला नहीं कर सकता. दिलचस्प बात यह है कि फिल्मों और टीवी धारावाहिकों तक में उनकी तस्वीर स्थायी जगह पाने लगी है. हालांकि जातीय भेदभाव, जातीय उत्पीड़न, जातीय संगठनों और जातीय विमर्श आदि से जो बात साफ होती है, ये है कि आंबेडकर की स्वीकार्यता के समांतर जातिवाद का हमला भी बढ़ता गया है. इस अजीब रूप से विरोधाभासी परिघटना को केवल तभी समझा जा सकता है, जब वास्तविक आंबेडकर को अवास्तविक आंबेडकर से जुदा किया जाए. उस अवास्तविक आंबेडकर को, जिसे निहित स्वार्थों ने प्रतीकों में बदल दिया है, ताकि दलित जनता में पैदा होने वाली क्रांतिकारी बदलाव की चेतना को कुंद किया जा सके. ये प्रतीक वास्तविक और गूढ़ आंबेडकर को एक सरलीकृत प्रतीक में बदल देते हैं: संविधान का निर्माता, महान राष्ट्रवादी, आरक्षण का जन्मदाता, एक कट्टर कम्युनिस्ट विरोधी, एक उदारवादी जनवादी, संसदीय व्यवस्था का एक महान हिमायती, दलितों का मसीहा, एक बोधिसत्व आदि. एक हानिरहित, यथास्थितिवादी आंबेडकर के ये प्रतीक हर जगह छा गए हैं और इन्होंने वास्तविक आंबेडकर को क्रांतिकारी तरीके से देखने की संभावनाओं की राह में रुकावट खड़ी कर दी है.
इस धरती पर जब तक जाति का वायरस मंडराता रहेगा, आंबेडकर की जरूरत यकीनी तौर पर बनी रहेगी. लेकिन यह आंबेडकर उस पुराने आंबेडकर का फिर से अवतार भर नहीं होंगे, जिनकी ज्यादातर दलित भावुकता के साथ कल्पना करते हैं. वैसे भी नहीं जैसे अरुंधति उन्हें अभी और तुरंत बुलाना चाहेंगी. आंबेडकर को यकीनन ही तब की तुलना में आज के समाज में जातियों की कहीं अधिक जटिल और बिखरी हुई समस्या का सामना करने के लिए फिर से गढ़ा जाना जरूरी होगा.
आउटलुक (10 मार्च 2014) में छपे अपने एक साक्षात्कार में अरुंधति रॉय ने कहा, ‘हमें अंबेडकर की जरूरत है-अभी और तुरंत’. यह बात उन्होंने नई दिल्ली के एक प्रकाशक नवयाना से बाबासाहेब आंबेडकर की रचना एनाइहिलेशन ऑफ कास्ट के एक नए, व्याख्यात्मक टिप्पणियों वाले संस्करण के प्रकाशन के सिलसिले में कही. अरुंधति ने ‘द डॉक्टर एंड द सेंट’ के नाम से एक 164 पन्नों का निबंध इस किताब की प्रस्तावना के रूप में लिखा है. इस तरह करीब 100 पन्नों की मूल रचना अब प्रस्तावना और टिप्पणियों समेत 415 पन्नों की मोटी किताब के रूप में हमारे सामने है.
एक अनुचित विवाद
अरुंधति की प्रस्तावना ने दलित हलकों में एक अनुचित विवाद पैदा किया है. इसने 1970 के दशक में शुरुआती दलित साहित्य के दौर में चली बहस की याद दिला दी, कि कौन दलित साहित्य लिख सकता है. दलितों के पक्ष में दलील देनेवालों का जोर इसपर था कि दलित साहित्य लिखने के लिए जन्म से दलित होना जरूरी है. मौजूदा विवाद में भी पहचान को लेकर ऐसी ही सनक की झलक दिखी है, कि आंबेडकर या उनकी किसी रचना की प्रस्तावना लिखने के लिए या उनसे परिचित कराने के लिए अनुसूचित जाति का प्रमाण पत्र पेश करना जरूरी है. हालांकि यह बात उलझन में डालने वाली है कि जब अनगिनत गैर दलित पहले ही आंबेडकर और उनके लेखन पर लिख चुके हैं, ऐसा विवाद सिर्फ अरुंधति के मामले में ही क्यों पैदा हुआ? क्या यह उनकी नामी-गिरामी हैसियत की वजह से है या मध्य वर्गीय दलितों की नजर में उनके माओवादी समर्थक होने की बदनामी की वजह से? इस दूसरी बात की गुंजाइश ज्यादा है, और यह उनकी प्रतिक्रिया की मूल वजह हो सकती है. क्योंकि उनके लिए कम्युनिज्म से दूर दूर से भी किसी चीज का जुड़ा होना उससे दूर भागने और उसे खारिज कर देने के लिए काफी है.इस शोरगुल की जो भी वजह हो, यकीनन यह अनुचित था. सोशल मीडिया पर घटिया फिकरों की बाढ़ को नजरअंदाज कर दें तो इस रचना को लेकर तर्कसंगत स्तर की जो मुख्य आपत्तियां रहीं उनमें ये थीं कि उन्होंने आंबेडकर से परिचय कराने में गांधी को अनुचित रूप से ज्यादा जगह दी है. या यह कहा गया कि क्या इस काम के लायक काबिलियत उनमें थी. या फिर यह कि उनकी प्रस्तावना किताब में शामिल मूल रचना की प्रस्तावना नहीं है. अगर कोई इन नजरियों को जायज मान भी ले तो यह मानना मुश्किल है कि उनको ऐसी शिद्दत के साथ और खारिज कर देने के लहजे में जाहिर करना जरूरी था. वास्तविकता ये है कि अरुंधति के भीतर के सृजनात्मक लेखक ने पारंपरिक अर्थों में मूल रचना को नहीं बल्कि मूल पाठ पर गांधी की पत्रिका हरिजन में छपी गांधी की प्रतिक्रिया के संदर्भ में आंबेडकर और गांधी के बीच विवाद को चुना. उन्होंने सोचा कि नीरस, मशीनी तरीके से विषय को उठाने के बजाए अगर वे आंबेडकर और गांधी के बीच विरोधाभास की मदद लेंगी तो वे जातियों की समस्या को कहीं ज्यादा कारगर तरीके से पेश कर पाएंगी क्योंकि गांधी उदार हिंदू समाज का बेहतर प्रतिनिधित्व करते हैं. जहां तक काबिलियत का सवाल है, हालांकि अरुंधति जिस किसी भी विषय के बारे में लिखती हैं, उसे समझने के लिए काफी मेहनत करती हैं, लेकिन उनके लेख में उनकी शैली की मांग के मुताबिक, आमफहम समझदारी से परे जाकर किसी विशेषज्ञता की तड़क-भड़क नहीं दिखाई देती है. और शायद इसीलिए, उनका निबंध आम लोगों को ज्यादा आकर्षित करता है बजाए तथाकथित बुद्धिजीवियों के.
हालांकि यह अजीब विरोधाभास है कि सबसे दिलचस्प दलील दलितों की तरफ से नहीं बल्कि एक ऊंची जाति के पत्रकार की तरफ से लाइव मिंट के 18 मार्च 2014 अंक में आई ('बीआर आंबेडकर, अरुंधति रॉय एंड द पॉलिटिक्स ऑफ एप्रोप्रिएशन', जी संपत) जिसमें अरुंधति को यह चुनौती दी गई कि अगर वे नियमगिरी पहाड़ियों के नीचे मौजूद बॉक्साइट को आदिवासियों के पास छोड़ देने की मांग करती हैं, तो क्यों नहीं उन्हें आंबेडकर को दलितों के लिए छोड़ देना चाहिए, जो दलितों की अकेली संपत्ति हैं. यह दलील दिलचस्प भले ही हो, इसको लागू किया जाना खतरनाक है क्योंकि जातियों के आधार पर ‘अन्य’ बता दिए गए लोगों की किसी भी भागीदारी या संवाद को अनुचित बता कर खारिज किया जा सकता है. आंबेडकर दलितों सांस्कृतिक हितों के प्रतीक हो सकते हैं, लेकिन तब भी सिर्फ दलितों के लिए उनकी घेरेबंदी कर दिए जाने का मतलब उनकी तौहीन करना और दलितों के हितों को बेहिसाब नुकसान पहुंचाना होगा. नियमगिरी को आदिवासियों के लिए छोड़ दिया जाना विकास की प्रचलित अवधारणा को एक प्रगतिशील चुनौती है, जबकि आंबेडकर को सिर्फ दलितों तक सीमित कर देने का मतलब होगा बाबासाहेब आंबेडकर के जातियों के खात्मे के मकसद को पीछे की ओर ले जानेवाली प्रतिक्रांति.
आंबेडकर: वास्तविक और अवास्तविक
हैरानी की बात यह है कि पूरी बहस ने मुख्य मुद्दे को पीछे धकेल दिया है, वो यह है कि अरुंधति से किताब की प्रस्तावना लिखवाने के पीछे बुनियादी वजह प्रकाशक का कारोबारी हिसाब-किताब था. एक बुकर पुरस्कार प्राप्त लेखिका होने के रुतबे के कारण, जिसमें बाद में विभिन्न मौकों पर विभिन्न मुद्दों पर जनता की हिमायत में निडरता से खड़े होने से और भी बढ़ोतरी हुई है, किताब को मशहूरियत मिलनी ही थी. इससे भी आगे बढ़कर, यह कल्पना भी की जा सकती थी कि उनके लेखन से विवाद भी जरूर पैदा होगा जैसा कि सचमुच हुआ भी. किसी भी प्रकाशक के लिए यह किताब की बिक्री के लिहाज से मुंहमांगी मुराद है. भले ही नवयाना ने सचेत रूप से इसके बारे में सोचा हो या नहीं, लेकिन कोई व्यक्ति एक प्रकाशक की उत्पाद संबंधी स्थापित रणनीतियों के बारे में कोई शिकायत नहीं कर सकता, क्योंकि जो भी हो उसे इस कारोबार के तौर तरीकों पर ही चलना होता है. खुद को ‘जाति विरोधी’ बताने के बावजूद नवयाना में इधर गिरावट के रुझान भी दिखे हैं. आंबेडकर को लेकर बेहद प्रशंसा और भक्तिभाव से भरा साहित्य प्रकाशित करना और जातियों के उन्मूलन को समर्थन देना एक ही बात नहीं है. कुछ लोगों द्वारा शुरू किया गया यह विवाद एक बार ठंडा पड़ जाए तो दलितों की व्यापक बहुसंख्या इस पर गर्व करेगी कि अरुंधति रॉय जैसी शख्सियत तक उनके देवता की पूजा में शामिल हो गई हैं. आंबेडकर के प्रति ऐसा भक्तिभाव असल में जातीय पहचान को मजबूत करता आया है और जातियों के खात्मे की परियोजना को और भी दूर धकेलता आया है.आंबेडकर की स्वीकार्यता बढ़ रही है तो इससे लाजिमी तौर पर यह नहीं मान लिया जाना चाहिए कि आंबेडकर जो चाहते थे, ऐसा जाति-विरोधी सदाचार भी बढ़ रहा है. आज आंबेडकर आम स्वीकार्यता के मामले में किसी भी दूसरे नेता से यकीनन कहीं आगे निकल गए हैं. कोई भी दूसरा नेता प्रतिमाओं, तस्वीरों, सभाओं, किताबों, शोध, संगठनों, गीतों या लोकप्रियता की दूसरी सभी निशानियों के मामले में आंबेडकर का मुकाबला नहीं कर सकता. दिलचस्प बात यह है कि फिल्मों और टीवी धारावाहिकों तक में उनकी तस्वीर स्थायी जगह पाने लगी है. हालांकि जातीय भेदभाव, जातीय उत्पीड़न, जातीय संगठनों और जातीय विमर्श आदि से जो बात साफ होती है, ये है कि आंबेडकर की स्वीकार्यता के समांतर जातिवाद का हमला भी बढ़ता गया है. इस अजीब रूप से विरोधाभासी परिघटना को केवल तभी समझा जा सकता है, जब वास्तविक आंबेडकर को अवास्तविक आंबेडकर से जुदा किया जाए. उस अवास्तविक आंबेडकर को, जिसे निहित स्वार्थों ने प्रतीकों में बदल दिया है, ताकि दलित जनता में पैदा होने वाली क्रांतिकारी बदलाव की चेतना को कुंद किया जा सके. ये प्रतीक वास्तविक और गूढ़ आंबेडकर को एक सरलीकृत प्रतीक में बदल देते हैं: संविधान का निर्माता, महान राष्ट्रवादी, आरक्षण का जन्मदाता, एक कट्टर कम्युनिस्ट विरोधी, एक उदारवादी जनवादी, संसदीय व्यवस्था का एक महान हिमायती, दलितों का मसीहा, एक बोधिसत्व आदि. एक हानिरहित, यथास्थितिवादी आंबेडकर के ये प्रतीक हर जगह छा गए हैं और इन्होंने वास्तविक आंबेडकर को क्रांतिकारी तरीके से देखने की संभावनाओं की राह में रुकावट खड़ी कर दी है.
कौन से आंबेडकर
राज्य के सक्रिय समर्थन के साथ निहित स्वार्थों द्वारा ऐसे प्रतीकों को बढ़ावा दिए जाने के पीछे की साजिशें जो भी हों, आंबेडकर द्वारा जिंदगीभर अपने नजरिए को विकसित करते रहने, और किसी विचारधारा विशेष में उलझे बगैर व्याहारिक प्रयोगों पर जोर देने के कारण आंबेडकर को समझना बेहद मुश्किल हो जाता है. युवा आंबेडकर ने जातियों को एक घेरे में बंद वर्गों के रूप में देखा, जिस घेरेबंदी को अंतर्विवाह और बहिर्विवाह की व्यवस्था के जरिए कायम रखा जाता है. उन्होंने उम्मीद की कि व्यापक हिंदू समाज जागेगा और अंतर्जातीय विवाह जैसे सामाजिक सुधारों को अपनाएगा ताकि जातियों को वर्गों के रूप में खोला जा सके. उनकी यह राय यकीनन ही महाड के बाद के आंबेडकर के उलट है, जिनका सवर्ण हिंदुओं की उन्माद से भरी प्रतिक्रिया के कारण मोहभंग हो गया था और अब उन्होंने अपने मकसद को पूरा करने के लिए राजनीति का रुख कर लिया था. क्या उनकी इस्लाम धर्म कबूल कर लेने की धमकी दलितों की अलग राजनीतिक पहचान हासिल करने के लिए थी या सवर्ण हिंदुओं को सामाजिक सुधारों के बारे में विचार करने पर मजबूर करने के लिए थी? 1930 के दशक के आंबेडकर एक जातिविहीन मजदूर वर्गों के दायरे में जगह बनाने को उत्सुक दिखते हैं, जिन्होंने इंडियन लेबर पार्टी की स्थापना की. यह तर्कसंगत रूप से भारत की पहली वामपंथी पार्टी थी. तब वे कम्युनिस्टों के साथ भी कुछ दूर तक गए लेकिन तभी उन्होंने जातियों से पीछा छुड़ाने के लिए किसी दूसरे धर्म को अपनाने का एलान भी किया. 1940 के दशक के आंबेडकर, जो जातियों की तरफ फिर से लौटे, आईएलपी को भंग किया और शिड्यूल्ड कास्ट्स फेडरेशन की स्थापना की. उन्होंने सड़क पर आकर प्रतिरोध करने की राजनीति को छोड़ा और श्रम मंत्री के रूप में औपनिवेशिक सरकार में शामिल हुए. या वे आंबेडकर जिन्होंने स्टेट्स एंड माइनॉरिटीज लिखी, जिसमें आजाद भारत के प्रस्तावित संविधान में एक स्थायी बुनियादी चरित्र के रूप में राजकीय समाजवाद की हिमायत की गई. कांग्रेस के सख्त विरोधी आंबेडकर या वे आंबेडकर जिन्होंने सर्वदलीय सरकार में शामिल होते हुए कांग्रेस के साथ सहयोग किया और संविधान सभा में शामिल होने के लिए जिनका समर्थन हासिल किया. वे आंबेडकर जिन्होंने प्रतिनिधित्व के तर्क को विकसित किया जो आखिरकार आरक्षण के रूप में सामने आया, जिन्होंने उम्मीद की थी कि दलितों के बीच के कुछ आगे बढ़े हुए तत्व पूरे समुदाय की तरक्की में मदद करेंगे या फिर वे आंबेडकर जिन्होंने इस पर सार्वजनिक रूप से अफसोस जाहिर किया कि उन्हें पढ़े लिखे दलितों ने धोखा दिया है. वे आंबेडकर जिन्होंने संविधान की रचना की और दलितों को सलाह दी कि अपनी समस्याओं के समाधान के लिए सिर्फ संवैधानिक पद्धतियों को ही अपनाएं या वे आंबेडकर जिन्होंने संभवत: सबसे कड़े शब्दों में इस संविधान को नकार दिया और कहा कि इसे जलाने वाले वे पहले इंसान होंगे. वे आंबेडकर जो एक तरह से अपने फैसलों की कसौटी के रूप में बार बार मार्क्स का जिक्र करते हैं या वे आंबेडकर जिन्होंने बौद्ध धर्म को अपनाया और, आंबेडकर के विशेषज्ञों में से एक एलियानॉर जेलियट के शब्दों में कहें तो, भारत में कम्युनिज्म के खिलाफ एक किलेबंदी खड़ी कर दी, या वे आंबेडकर जिन्होंने दुनिया को अलविदा कहने के कुछ ही दिन पहले बुद्ध और मार्क्स की सराहना के लहजे में तुलना करते हुए कहा कि इनका मकसद तो एक ही था, लेकिन उसे हासिल करने के तरीके अलग थे. उनके मुताबिक इसमें बुद्ध का रास्ता मार्क्स से बेहतर था. ये महज कुछ ऐसी मिसालें हैं, जो आंबेडकर को एकतरफा तरीके से पेश करने को चुनौती देती हैं. अगर कोई थोड़ी और गहराई में जाए उसका सामना कुछ और भी गंभीर समस्याओं से होगा.इस धरती पर जब तक जाति का वायरस मंडराता रहेगा, आंबेडकर की जरूरत यकीनी तौर पर बनी रहेगी. लेकिन यह आंबेडकर उस पुराने आंबेडकर का फिर से अवतार भर नहीं होंगे, जिनकी ज्यादातर दलित भावुकता के साथ कल्पना करते हैं. वैसे भी नहीं जैसे अरुंधति उन्हें अभी और तुरंत बुलाना चाहेंगी. आंबेडकर को यकीनन ही तब की तुलना में आज के समाज में जातियों की कहीं अधिक जटिल और बिखरी हुई समस्या का सामना करने के लिए फिर से गढ़ा जाना जरूरी होगा.
आनंद तेलतुम्बडे शायद भूल रहे है कि गैर-दलितों/सवर्णों को दलित मुद्दों पर लिखने से रोका नहीं गया है. वे पहले भी लिखते रहे हैं और आगे भी लिखते रहेंगे. लेकिन अंबेडकर की एक महत्वपूर्ण किताब की भूमिका लिखना और उसके साथ इन्साफ ना करना एक बिलकुल ही अलग चीज है!
जवाब देंहटाएंविवाद के पीछे अरुंधती का माओवादी समर्थक होना उतनी बड़ी वजह नहीं है जितना कि उनका सवर्ण पृष्ठभूमि से होना और उसे स्वीकार ना करना. उनका दावा है कि वह जाति-विहीन है! सवाल यह भी है कि अरुंधती का जाति के मुद्दे से जुड़ने का अनुभव रहा है या नहीं? सवाल यह भी है कि अरुंधती ने जो लिखा है उसमें जाति की वजह से सवर्णों को मिलने वाले फायदे पर चुप्पी क्यों है? दलित कैमरा को लिखे अपने जवाबी पत्र में भी अरुंधती अपनी पोजीशन को स्वीकार नहीं करना चाहती. वह स्वीकार नहीं करना चाहती कि उन्हें एक दलित से अधिक अवसर क्यूँ दिये जा रहे हैं? किताब पर आउटलुक और दूसरी जगह आये लेखों में 'अनाईलेशन ऑफ़ कास्ट' की बात नहीं हो रही, बल्कि 'द डॉक्टर एंड द सेंट' कि बात हो रही है! अंबेडकर को इस्तेमाल किया गया है और इसके खिलाफ विरोध के स्वर तो उठेंगे ही...
अनुवादक का यह कहना कि आनंद का लेख "सबसे तर्कसंगत, सटीक और रचनात्मक हस्तक्षेप है" यह दर्शाता है कि अनुवादक या तो राउंडटेबल इंडिया के लेखों और दलित कैमरा का अरुंधती को लिखा पत्र नहीं पढ़ा है या फिर वह जानबूझकर एक ख़ास विचारधारा को हम पर थोप रहे हैं!