21 मार्च 2014

गुजरात का विकास मॉडल : खून और राख में लिपटी विकास की कहानी

नए सन्दर्भ-पुरानी बात  
रेयाज-उल-हक
राज्य की 10 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि दर के बावजूद गुजरात में एक तीखा सांप्रदायिक धु्रवीकरण रहा है. सवाल यह है कि इतने तेज विकास और ऐसी समृद्धि के बावजूद राज्य में बार-बार दंगे क्यों होते रहे हैं? क्यों राज्य के मुख्यमंत्री को झूठी मुठभेडों में हुई हत्याओं पर गर्व होता है? तथा क्यों वे ऐसी और हत्याओं की चेतावनी देते हैं? क्यों गुजरातियों को अचानक उनकी अस्मिता की इस कदर तीव्र जरूरत पड जाती है? सबसे बडी बात तो यह कि क्यों देश का पूरा तंत्र-सभी लोकतांत्रिक संस्थाएं, संसद, न्यायपालिका, प्रेस-इस पूरे घटनाक्रम को तटस्थ भाव से देखते हैं?

नहीं, शायद हम गलती पर हैं. कोई भी तटस्थ नहीं है. ये सभी संस्थाएं संसद, न्यायपालिका, प्रेस- सब मिल कर मुख्यमंत्री को दोबारा सत्ता में आने में मदद करती हैं.एक पूरी तारतम्यता है, पूरा सामंजस्य है. विंग्स के पीछे हम ऑर्केस्ट्रा की पूरी टीम देखते हैं, जिसका हर सदस्य अपने काम पर मुस्तैद है. हां कभी-कभी कोई नौसिखिया किसी गलत बटन को दबा देता है, जिससे संगीत गडबडा जाता है और दर्शक कुछ देर के लिए इस बेसुरेपन का भी मजा उठाते हैं, जायका बदलने के लिए.

केवल गुजरात ही नहीं, पूरे देश भर में जो घटनाएं घट रही हैं, उन सबमें एक जैसी बातें दिखायी देंगी. देश की 9 प्रतिशत आर्थिक वृद्धि दर और तीन दर्जन अरबपतियों के बावजूद असम, सिंगूर-नंदीग्राम, गोहाना, ओडिशा, लोहंडीगुडा, गुर्जर-मीणा विवाद और सिख-सौदा विवाद जैसी घटनाएं क्यों घट रही हैं? इन तेजी से विकसित होते महानगरों, साइबर सिटीज, 16 लेन की विशाल सडकों, सुपर मॉल्स, मल्टीप्लेक्सेज और विशाल औद्योगिक इकाइयों का लाभ आखिरकार कहां जा रहा है? लोगों तक संपन्नता, जैसे कि हमें शुरू में बताया गया था, रिसते हुए भी क्यों नहीं पहुंच रही? लोगों में इतना असुरक्षा बोध क्यों है?

अगर इन सभी घटनाओं में एक समान चीज को ढूंढने की कोशिश करें तो हम पायेंगे कि प्रायः इन सभी जगहों पर भारी पूंजी निवेश हुआ है या होनेवाला है या फिर आर्थिक संकट ने समाज को तोड दिया है, जैसे कि असम. इनमें से अधिकतर जगहों पर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के प्रस्ताव मंजूर किये गये हैं. इनके लिए बडी मात्रा में किसानों से जमीनें ली गयी हैं, ली जा रही हैं. प्रायः सभी जगहों पर उनके मुखर विरोध खडे हुए हैं. प बंगाल और ओडिशा के अलावा दादरी एवं गोवा में हम इसके उदाहरण देख सकते हैं.

मगर साथ ही इनमें से अधिकतर जगहों पर हम एक उद्धत भीड को, हत्यारे गिरोहों को, जनता के ही एक हिस्से को पाते हैं, जो लोगों की हत्याएं करती, बस्तियां और दुकानें जलाती और संपत्तियां लूटती फिरती है. इस भीड को हमेशा ही सत्ता का समर्थन होता है. नंदीग्राम में इस हत्यारी भीड के पीछे सीपीएम होती है और गुजरात में बीजेपी. ओडिशा में इसी भीड को जदयू-बीजेपी का समर्थन होता है तो छत्तीसगढ में कांग्रेस-बीजेपी दोनों का.
ऊपर से एकदम असंबद्ध लगनेवाली वित्तीय पूंजी और इस हत्यारी (दंगाई) भीड के बीच बेहद आत्मीय अंतर्संबंध हैं. मुख्यतः यह संगठित भीड या गिरोह इन जगहों पर किसानों अथवा संघर्षरत समूहों को विभाजित करने की कोशिशों का हिस्सा हैं. ये उनके प्रतिरोध को तोड कर रखे देते हैं और वहां की आबादियों में सरकारी और अधिकतर जनविरोधी नीतियों के प्रति व्यापक आक्रोश को प्रायः धुंधला कर देते हैं.

प बंगाल में नंदीग्राम के ताजा कत्लेआम के ठीक बाद तसलीमा नसरीन के मुे को हवा दी गयी. यह सिर्फ ध्यान बंटाने भर का मामला नहीं था, बल्कि प बंगाल में, विशेष कर नंदीग्राम की मुसलिम आबादी के प्रतिरोध को बांटने की कार्रवाई भी थी. ओडिशा में, जहां पोस्को के खिलाफ आदिवासी संघर्षरत हैं, वहां हिंदू-ईसाई विभाजन को तेज किया जा रहा है. सत्ता प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जनता में से ही ऐसे गिरोह निर्मित करती है, जो कि प्रायः उन समुदायों के खिलाफ हिंसात्मक कार्रवाइयां करते हैं, जो शासन की नीतियों का विरोध कर रहे हों या जिनकी तरफ से ऐसी आशंका हो. छत्तीसगढ में तो इसे और अधिक व्यवस्थित रूप दिया गया है. वहां बहुराष्ट्रीय कंपनियों और निगमों को जमीन देने से मना कर रहे आदिवासियों के खिलाफ उन्हीं के एक हिस्से को खडा कर दिया गया. सलवा जुडूम नाम के इस हत्यारे अभियान के दौरान सैकडों आदिवासी मारे गये और लाखों लोग अपनी जमीनों से उजाड दिये गये. अब वे सडकों के किनारे बनी झोंपडियों में रह रहे हैं. सरकार ने चुपचाप इन राहत शिविरों को राजस्व ग्राम में तबदील कर दिया है. मतलब यह कि वे आदिवासी अब अपनी जमीन पर कभी नहीं लौट पायेंगे. उस जमीन को अब जिंदल, एस्सार आदि कंपनियों के हवाले करने की तैयारियां चल रही हैं.
ठीक यही वह जगह है, जहां हमें भारत में लगातार बढ रही सांप्रदायिक, फासिस्ट (सामाजिक-सांप्रदायिक दोनों) व क्षेत्रीय हिंसा के सूत्र मिलते हैं. गुजरात में पहले से ही छोटे-छोटे उद्योगों की श्रृंखला रही है, जहां प्रायः अकुशल श्रम के जरिये उत्पादन होता रहा है. 1980 के बाद से, जब से पूरे भारत में वित्तीय पूंजी का आगमन शुरू हुआ, गुजरात में सांप्रदायिक दंगों की आवृत्ति में बढोतरी हुई. ज्यादातर अकुशल श्रमिक मुसलमान थे और छोटे उद्योगों में उनकी अच्छी-खासी हिस्सेदारी थी. मगर जब विदेशी पूंजी आने लगी, वह इस अकुशल श्रम को, छोटे-छोटे उद्योगों को बरदाश्त नहीं कर सकती थी. उसे बाजार पर अपने उत्पादों के लिए एकाधिपत्य चाहिए था और अपने उद्योगों के लिए श्रमिक, जो कि इन छोटे उद्योगों में लगे हुए थे. अतः इन छोटे उद्योगों के रहते उसके लिए अपना विस्तार संभव नहीं रह गया था. इनका उन्मूलन जरूरी हो गया.

से में हिंदुत्व बडे काम की चीज साबित हुई. उसके पास न सिर्फ एक पहले से ही ऐसी विचारधारा मौजूद थी जो देश के प्रमुख धार्मिक अल्पसंख्यकों को अपना शत्रु मानती थी, बल्कि देश भर में उसका विशाल संगठन, विभिन्न छोटे-छोटे गिरोह, एक राजनीतिक पार्टी और विभिन्न भूमिकाओं में कार्यरत उसके लाखों कार्यकर्ता मौजूद थे. फिर गुजरात ने अपनी इस तथाकथित आर्थिक विकास की शुरुआत खून और राख से की. गुजरात में पहले से ही एक सांप्रदायिक विभाजन था. 1969 के दंगों ने राज्य के दोनों प्रमुख समुदायों में बडी दरार डाल दी थी. 1981 के दंगे हुए. और फिर छह माह तक चलनेवाले 1985 के कुख्यात दंगे, जिनमें सरकारी तौर पर 275 लोग मारे गये, लाखों बेघर हुए और लगभग 2200 करोड रुपये मूल्य के संपत्ति और व्यापार की क्षति (अनुमानित) हुई. इसके बाद भी 1990, 92, 93 में दंगे होते रहे. 1960 से 1993 के बीच राज्य में 43 सांप्रदायिक दंगे हुए. 1990 के दशक में गुजरात में भारी पैमाने पर छोटे उद्योग बंद हुए. इसके बाद से गुजरात में भाजपा का एकछत्र राज रहा है. साथ ही बीजेपी की नजदीकी बडे व्यापारिक घरानों और कंपनियों से बढी. यहां एक दिलचस्प तथ्य हम यह भी पाते हैं कि गुजरात में हुई अब तक की अंतिम औद्योगिक हडताल ब्रिटिश शासनकाल में, 1941 में हुई थी. इसके बाद इस औद्योगिक राज्य में कोई औद्योगिक हडताल नहीं हुई.
एक पूरे समुदाय को शत्रु के रूप में चिह्नित करने और उसके खिलाफ प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष हिंसा को बढावा देने के पीछे एक और वजह है. वित्तीय पूंजी के लिए अधिक-से-अधिक मुनाफा बटोरने को सुगम बनाने के लिए राज्य को डब्ल्यूटीओ और वर्ल्ड बैंक की साम्राज्यवादी नीतियों को लागू करना जरूरी था. इसके लिए उसे श्रम कानूनों में ढील देनी थी, जिससे मजदूरों के पास कोई अधिकार नहीं रह जाते. उसे बडी मात्रा में जमीनों का अधिग्रहण करना था, जिससे किसान बरबाद होते. राज्य के दूसरे संसाधनों को वित्तीय पूंजी की सेवा में लगाना था, जिससे राज्य के लोग अपने स्वाभाविक संसाधनों से वंचित हो जाते. इन सबका भारी प्रतिरोध होनेवाला था.
इन सबसे निबटने के लिए ऐसी सरकार चाहिए थी जो ऊपर से मजबूत ही न दिखे, उसे पास जनसमूह को जुटा लेने और अपने साथ रखने की काबीलियत भी हो. इसके लिए सरकारों को ऐसे नारे गढने जरूरी थे, जो ऊपर से जनता की आर्थिक जरूरतों को पूरा करते दिखें, हालांकि जनता को उन नारों से कभी कुछ फायदा न हुआ. व्यापक जनसमूह को उसकी जातीय अस्मिता का हवाला देकर अपने साथ एकजुट करना जरूरी था. इन सबकी वजह से प्रतिरोध की संभावनाएं कम हो जातीं और जो प्रतिरोध करने का साहस जुटाते उन पर इस जन समूह को छोडा जा सकता था. वैसे भी गुजरात में ऐसा कोई विकल्प नहीं रहा जो इस प्रतिरोध का नेतृत्व कर सके और उसको रचनात्मक दिशा देकर राज्य को इस दुष्चक्र से छुटकारा दिला सके.

हिंदुत्व ने वित्तीय पूंजी की मदद से उत्पीडक और उत्पीडित वर्गों की पृथक पहचान और चेतना को धुंधला करके सभी को एक साथ खडा किया. चूंकि इसका नेतृत्व शासन में बैठी पार्टी कर रही थी, लोग शासन के साथ एकजुट होते गये. सारे मामले में धर्म का इतना बेहतर उपयोग किया गया कि लोग इस मकडजाल में और अधिक फंसते चले गये. उनमें तीव्र असुरक्षाबोध पैदा करके उनकी सुरक्षा करने के बहाने उन्हीं के तमाम लोकतांत्रिक अधिकारों को खत्म कर दिया. अधिक क्रूर और दमनकारी कानून लाये गये और मानवाधिकारों को हिकारत की वस्तु बना दिया गया. लोग यह अब तक नहीं समझ पाये हैं कि उन्हें डरा कर खुद उनकी सरकार ने उनके नीचे से उनकी जमीन खिसका दी है और वे अंधी खाई में गिरे जा रहे हैं.

गुजरात दंगे स्वतःस्फूर्त नहीं थे और न उनके संदर्भ तात्कालिक थे. हम पाते हैं कि इन दंगों के पहले राज्य की अर्थव्यवस्था 1994 के बाद से गिरावट का शिकार थी. मगर दंगों के बाद 2004 से इसमें बेहतरी आयी है. 2004 में गुजरात में प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद शेष भारत के मुकाबले 20 प्रतिशत अधिक था. इसके अलावा राज्य में प्रति व्यक्ति आय वृद्धि दर, जो कि 1994 के बाद से लगातार घट रही थी, 2004 के बाद पुनः बढने लगी.

हम यहां एक और विरोधाभास पाते हैं. अक्सर यह कहा जाता है कि निवेश के लिए राज्य में शांति और कानून-व्यवस्था बनी रहनी जरूरी है. मगर गुजरात का उदाहरण हमे इसकी एक उलटी बात दिखाता है. वहां विदेशी पूंजी निवेश की शुरुआत ही दंगों के साथ होती है और उनके तीव्र होते जाने के क्रम में ही निवेश में भी उछाल आता गया है. 2002 के दंगों के कुछ ही समय बाद, 2004 में गुजरात ने कुल 12 हजार 437 करोड रुपयों के प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को मंजूरी दी. दरअसल वित्तीय पूंजी क्षेत्र विशेष की आर्थिक, सामाजिक विशिष्टताओं को नजरअंदाज नहीं कर सकती. गुजरात के अकुशल श्रम और कारीगरों को नष्ट किये बगैर उसका मुनाफा संभव नहीं है, तो वह वहां दंगों का आयोजन करवाती है. मगर जहां पहले से ही साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्षरत शक्तियां मौजूद हैं, वहां वह कानून-व्यवस्था और शांति के नाम पर दमनात्मक कानूनों की जगह बनाती है और उन संघर्षों पर सत्ता के जरिये कठोर दमन करती है.

तो हम पृष्ठभूमि में एक ऐसे लोकतंत्र को पाते हैं जो वित्तीय पूंजी के प्रवाह को विकास का पर्याय मानता है, उसके लिए हत्याएं और नरसंहार कराये जाते हैं, हत्यारे गिरोहों और भीड को प्रोत्साहन दिया जाता है और सरकारी नीतियों के खिलाफ प्रतिरोध को कुचलने के लिए समाज को अंधी आस्थाओं से लैस किया जाता है. यह कुल मिला कर समाधान को हमसे और दूर कर देता है.

और ऐसे में हमसे कहा जाता है कि गुजरात को विकास के एक मॉडल के रूप में स्वीकार किया जाये, क्या हुआ जो वहां अब भी एक पूरे समुदाय का आर्थिक बहिष्कार जारी है, क्या हुआ जो वहां अब भी दंगे के शिकार लोगों का पुनर्वास नहीं हुआ, क्या हुआ जो वहां फिल्मों पर अघोषित प्रतिबंध लगा दिये जाते हैं और पेंटिंग्स जलायी जाती हैं. इन सबके बावजूद हमें इस विकास को स्वीकार कर लेना चाहिए, क्योंकि मुख्यमंत्री फिर से चुनाव जीत गये हैं.

चुनाव. विकास. नवउदारवादी शब्दकोश के सबसे खनखनाते शब्द.

मगर एक ऐसी व्यवस्था में, जहां खुद चुनाव और पूरी लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं वित्तीय पूंजी और साम्राज्यवादी संस्थाओं की सेवा में लगी हुई हों, हम लोकतांत्रिक मूल्यों की गारंटी कैसे कर सकते हैं? भारत में लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थाओं की मदद से ही फासीवाद सत्ता पर काबिज हुआ है. क्या 1975 में आपातकाल का अनुमोदन किसी दूसरे देश की संसद ने किया था? क्या 1984 के सिख विरोधी दंगों में शामिल पार्टी विशेष के लोग इसी लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा नहीं थे? क्या बाबरी मसजिद इसी लोकतंत्र और इसके सभी स्तंभों के रहते नहीं तोड दी गयी? गुजरात नरसंहार के समय भी क्या यही लोकतंत्र नहीं था और नंदीग्राम के लोगों को उन्हीं की भाषा में जवाब देने की बात कहनेवाले मुख्यमंत्री इसी लोकतांत्रिक प्रक्रिया से ही नहीं चुने गये हैं?

जहां संसद, न्यायपालिका और प्रेस, पूरा तंत्र ही, वित्त पूंजी के हिरावल दस्ते के रूप में काम करने लगे हों, हम इस बात की गारंटी नहीं कर सकते कि संसद ही जनता का वास्तविक प्रतिनिधित्व कर रही है और जनता के अधिकार भंग नहीं कर दिये गये हैं. अगर ऐसा नहीं होता तो जनता के तमाम प्रतिरोधों के बावजूद संसद सेज प्रस्तावों को मंजूरी कैसे देती और अदालतें हडताल, बंद, आरक्षण और मजदूर विरोधी फैसले कैसे देतीं? अकेले गुजरात का उदाहरण ही इस बात के लिए काफी है कि लोकतंत्र वास्तव में जनवादी मूल्यों, समानता और आजादी की गारंटी नहीं दे सकता.

हत्यारे गिरोह खडा करने और उन्हें समर्थन देने के संदर्भ में हम देख चुके हैं कि चुनाव लडनेवाली प्रायः सभी पार्टियां अपनी-अपनी स्थितियों में ऐसे गिरोहों को संरक्षण-समर्थन देती रही हैं. इनमें कोई अंतर नहीं होता, सिवाय इसके लिए वे एक दूसरे के खिलाफ वोट मांगती हैं. उनकी आर्थिक और विदेशी नीतियां तथा आंतरिक नीतियां भी लगभग समान हैं. असल में चुनाव में हमारे पास चुनने को इसके सिवा कुछ भी नहीं रह जाता कि कौन-सी पार्टी इस बार वित्तीय पूंजी की सेवा करेगी व इसके लिए जनता के अधिकारों को र करेगी. इस तरह हम यह भी देखते हैं कि चुनाव अंततः सांप्रदायिकता आदि का समाधान नहीं हो सकते.

और विकास के नाम पर जो आंकडे दिखाये जा रहे हैैं, उनसे बहुत प्रभावित होने की जरूरत नहीं है. यह वित्त पूंजी का दबाव है, जो नरेंद्र मोदी को राज्य में बुनियादी संरचना में सुधार करने पर विवश कर रहा है.

राज्य में भारी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश ने प्रकटतः बडे उद्योगों की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है. मगर जो लोग प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की प्रकृति के बारे में जानते हैं, यह उनके लिए बहुत उत्साहजनक तथ्य नहीं है. उल्टे यह चिंताजनक स्थिति ही है, क्योंकि एफडीआइ किसी भी तरह देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत नहीं करता. प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में निवेशक को सारा मुनाफा अपने देश ले जाने का अधिकार होता है. एफडीआइ देश के संसाधनों और इसकी संरचना का उपयोग अपने मुनाफे के लिए करता है और बदले में वह देश के लिए उसकी सदियों की जहालत छोड देता है. चूंकि सारा मुनाफा देश के बाहर चला जाता है, देश में आगे के औद्योगिक विकास के लिए उससे कोई पूंजी नहीं बचती. अधिक से अधिक उद्योगों की स्थापना के पीछे जो रोजगार निर्मित करने का तर्क दिया जाता है, वह भी मुनाफे की व्यवस्था के तहत तकनीकआधारित उद्योगों के दौर में बेमानी हो गये हैं. उनसे बहुत रोजगार उत्पन्न होने की आशा नहीं रखनी चाहिए. इसके अलावा एफडीआइ कभी टिकाऊ औद्योगिक विकास का माध्यम नहीं हो सकता. यह दरअसल अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों और पूंजीवाद के संकट से उत्पन्न आवारा पूंजी का हिस्सा है. यह हर समय और अधिक मुनाफे की तलाश में अपनी जगह बदलती रहती है. यह आज यहां है, कल कहीं और होगी. और फिर हम अंदाजा लगा सकते हैं कि तब हमारी अर्थव्यवस्था का क्या होगा जो इस आवारा पूंजी पर अधिकाधिक निर्भर है.

गुजरात में जो बुनियादी सुविधाएं मुहैया करायी गयी हैं, वे प्रायः उन वर्गों की सुविधा के लिए हैं जो पहले से ही संपन्न हैं. उपभोक्ता बाजार के लिए गांवों तक पहुंच सुलभ बनाने और उसके लिए गांवों के दरवाजे खोलने के लिए जरूरी हो गया था कि वहां तक सडकें जायें और बिजली रहे.

मगर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के आंकडे राज्य में लोगों की बेहतरी को मापने के लिए एक बदतरीन उदाहरण हैं. राज्य अपने शासकों के चकाचौंध कर देनेवाले दावों के बावजूद , भूख, बदहाली और बीमारी से मुक्त नहीं है. गुजरात मानव विकास रिपोर्ट, 2004 बताती है कि गुजरात में निर्माण और कृषि क्षेत्रों, विकसित और अविकसित क्षेत्रों, ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों तथा आर्थिक विकास और लोगों की बेहतर जीवनशैली के बीच का अंतर तीखा हुआ है. 2005 में गुजरात में शिशु मृत्यु दर प्रति एक हजार बच्चों में 54 थी, जो कि राष्ट्रीय औसत से 1.07 गुणा ज्यादा है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे के मुताबिक 2005-06 के दौरान गुजरात में पांच वर्ष तक के आधे से कुछ कम (47 प्रतिशत) बच्चे कुपोषण और कम वजन के शिकार हैं. गुजरात में सामाजिक सेक्टर में खर्च नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में घटा है. वहां की 74.3 प्रतिशत महिलाएं और 46.3 प्रतिशत बच्चे एनीमिक हैं.

और अब हमारे सामने एक ऐसा राज्य है जो एफडीआइ की आयातित रोशनी में चमचमाता हुआ मंच पर खडा है और नेपथ्य में आत्महत्या किये 500 किसानों की लाशें सड रही हैं. जहां दलितों और अल्पसंख्यकों के साथ तीव्र भेदभाव है और जहां तीन वर्षों में 100 से अधिक दलितों की हत्या कर दी गयी.

क्या अब भी यह बताने की जरूरत है कि यह विकास कैसे हुआ और इसकी कीमत अंततः कौन चुका रहा है? क्या इस अबाध विकास के पीछे हत्याओं, नरसंहारों, घेटोकरण और संसदीय ढांचे के भीतर, उसी से उपजी तानाशाही की भूमिका को नजरअंदाज किया जा सकता है? और इसकी कीमत कौन चुका रहा है? उन पांच करोड गुजरातियों में से वे लोग जो कामगार हैं, वंचित हैं और गरीब हैं, अल्पसंख्यक हैं. जिनसे न सिर्फ उनके संसाधन और लोकतांत्रिक अधिकार ही छीन लिये गये हैं बल्कि इसका प्रतिरोध करने की उनकी संभावनाएं भी. जो कुछ राज्य ने उनके लिए छोडा है, वह है वापी में दुनिया का सबसे खतरनाक केमिकल हब, कपडा रंगाई उद्योग, जहाज तोडने और हीरे की पॉलिशिंग के रोजगार, जो उन्हें उनके जीवन के 30 वें साल में ही अंधा बना देंगे.

तो क्या वास्तव में हम अपने लिए ऐसे ही विकास को पसंद करेंगे?

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