आज क्रांतिकारी जादुई यथार्थवाद के बेमिसाल किस्सागो गाब्रिएल गार्सिया मार्केस का निधन हो गया. उनको याद करते हुए प्रभात रंजन का यह लेख. इसे वाणी प्रकाशन से प्रकाशित मार्केज़: जादुई यथार्थ का जादूगर से लिया गया है.
जब 21 साल की उम्र में मार्केज़ ने यह तय किया कि अब पूर्णतः मसिजीवी बनकर जीना है तो एक कठिन संघर्ष का दौर शुरु हुआ। जिस दौर में मार्केज़ ने लेखक पूर्णतः मसिजीवी बनने का फैसला किया कोलंबिया में उस दौर में लेखक होना आजीविका के लिहाज से उसी तरह अच्छा नहीं समझा जाता था. जिस तरह से आज हिन्दी में लेखक की स्थिति है। मार्केज़ ने स्वयं लिखा है कि ‘एल स्पेक्तादोर’ में प्रकाशित उनकी कहानियों के एवज में किसी प्रकार का पारिश्रमिक नहीं मिला, लेकिन उस समय किसी को लिखने के एवज में पैसे देने का चलन भी नहीं था। पत्रकारिता शुरु की तो उसमें भी कुछ खास पैसे नहीं मिलते थे। इतने भी नहीं कि महीने भर का खर्च चल सके। जबकि घर पर यह कह दिया था कि वे अपनी पढ़ाई का खर्च उठाने में सक्षम हो चुके हैं।
लेखक बनना तो एक सपना था। पत्रकारिता आजीविका की मजबूरी। हालांकि बाद में मार्केज़ ने पत्रकारिता को साहित्य के समान धरातल पर ही रखा। लेकिन उस दौर के युवाओं में आदर्शवाद इतना होता था कि किसी भी तरह के व्यावसायिक लेखन को मूल उद्देश्य से विचलन माना जाता था। कोलंबिया के छोटे से कस्बे कार्ताजेना में आरंभ में उनकी साहित्यिक खुराक पूरी नहीं हो पा रही थीं। ऐसे में उनकी पहचान गुस्तावो मेर्लानो नामक युवक से हुई जो अपनी पढ़ाई पूरी करके हाल में ही लौटा था। उससे उनकी अच्छी छनने लगी। उसके घर में इतनी अच्छी लाइब्रेरी थी जितनी बड़ी मार्केज़ ने उस समय तक एक साथ इतनी अच्छी पुस्तकें कम ही देखी थी। उसके पास ग्रीक, लैटिन और स्पेनिश क्लासिक के मूल संस्करण थे। वह केवल संग्राहक नहीं था उसने खुद बहुत कुछ पढ़ रखा था।
उसने एक तरह से मार्केज़ को कोलंबिया के बौद्धिक परिदृश्य से परिचित करवाया। अगर लेखक बनना है तो किन-किन लोगों के संपर्क में रहना चाहिए। उसी ने मार्केज़ को एक तरह से इस बात की आरंभिक दीक्षा दी कि लेखक बनने की आकांक्षा रखनेवाले को क्या-क्या पढ़ना चाहिए। उसने उनसे कहा कि तुम अच्छे लेखक तो बन सकते हो लेकिन अगर ग्रीक क्लासिक का अच्छी तरह ज्ञान न हो तो बहुत अच्छे लेखक नहीं बन सकते। मार्केज़ ने लिखा है कि गुस्तावो की तमाम कोशिशों के बावजूद ग्रीक क्लासिक में वे अभिरुचि विकसित नहीं कर सके। सिवाय ओडेसी के जिसको वे बार-बार पढ़ा करते थे। उसने उनको सोफोक्लीज का संपूर्ण साहित्य पढ़ने के लिए दिया। जिसने मार्केस को बेहद प्रभावित किया। यह 1947 की बात है।
1948 में मार्केज़ ने बारांकीला की यात्रा की। यह यात्रा साहित्यिक दृष्टि से यादगार थी। इस यात्रा में उनकी कुछ ऐसे लोगों से मुलाकात हुई जो उनकी साहित्य यात्रा के सहयात्री बने। एल नेशनल के ऑफिस में वे बारांकीला ग्रुप के लेखकों से मिले- जरमन वर्गास, अल्वारो केपेदा, अल्फांसो फूयनमेयर। फूयेनमेयर ‘एल हेराल्दो’ में काम करते थे। इन सबका साहित्यिक समूह था। इन लेखकों के समूह के बारे में बाद में मार्केस ने लिखा कि ये सब जेम्स ज्वायस और आर्थर कॉनन डॉयल को एकसमान रुचि से पढ़ने वाले लोग थे। वे लोकप्रिय संगीत और क्लासिकल कविता का आनंद एक साथ उठा सकते थे। उन्होंने आधुनिक साहित्य के प्रतिमानों से मार्केज़ का परिचय करवाया। वर्जीनिया वुल्फ का उपन्यास मिसेज डैलोवे, ओरलैंडो, विलियम फॉकनर, नैथेलियल हॉथोर्न का उपन्यास द हाउस ऑफ सेवेन गैबल्स, मेलेविल का मोबी डिक, विलियम सारोयां की कहानियां। समकालीन साहित्य से इतने बड़े स्तर पर उनका पहला परिचय था। साहित्य के इतने दीवानों से एक साथ मिलने का भी उनका पहला ही अवसर था।
उन्हीं दिनों वे बीमार पड़े और उनको अपने माता-पिता, भाई-बहनों के साथ करीब छह महीने रहने का मौका मिला। इस दौरान उन्होंने पहली बार उपन्यास लिखने के बारे में सोचा- द हाउस के नाम से। जिसकी कहानी उनके नाना कर्नल निकोलस मार्केज़ के युद्ध में जाने से शुरु होती और उसमें पूरे परिवार की कहानी होती, पारिवारिक महाकाव्य की तरह। बीमारी के उस दौर में उनके नए साहित्यिक मित्रों ने उनके लिए अनेक उपन्यास भिजवाए। उन उपन्यासों में फॉकनर का साउंड एंड द फ्यूरी, आल्डस हक्सले का प्वाइंट काउंटर प्वाइंट, हेमिंग्वे की कहानियों की किताब, बोर्खेज़ की कहानियां, उरुग्वे के लेखक फेलिस्बर्तो हेरनांदेज की कहानियां आदि, जो उस बीमारी के दौरान उन्होंने पढ़ीं। उन्होंने लिखा है कि उन दिनों फॉकनर को पढ़ने से उनके दिमाग में उपन्यास लिखने का विचार आया।
बीमारी के बाद जब वे कार्ताजेना लौटे तो उन्होंने अपने संपादक और बाकी साथियों के सामने घोषणा कर दी कि वे एक उपन्यास लिख रहे हैं द हाउस। अपनी आत्मकथा में उन्होंने लिखा है जबकि सचाई यह थी कि उन्होंने उसका पहला अध्याय ही लिखना शुरु किया था। इस बीच उन्होंने दो और कहानियां लिखीं जो एल स्पेक्तादोर में प्रकाशित हुईं। पत्रकारिता से उनका ध्यान थोड़ा हटने लगा था। एक तरफ वे लॉ की परीक्षाओं में फेल हो रहे थे दूसरी ओर पत्रकारिता से उनको कोई खास आमदनी नहीं हो पा रही थी। घरवालों को वे यह समझा पाने में असफल रहे थे कि अपने जीने का कोई ठाक-ठाक जरिया जुटा पाएंगे। ऐसे में बेहतर संभावनाओं की तलाश में उन्होंने बारांकीला जाने का निश्चय किया। वह शहर जहां उनके नए बने साहित्यिक मित्र रहते थे। माँ ने घर से आते समय अपने बचाए गए पैसों में से कुछ दे दिए थे। उसी से टिकट कटवाया और 1949 के आखिरी महीने में बारांकीला की यात्रा पर निकल पड़े। आंखों में उम्मीदें थीं और नए लिखे जा रहे उपन्यास का खाका।
लेखक जरमन वर्गास ने उनके आने की खुशी में पार्टी आयोजित की। शहर के लेखकों, कवियों, पेंटरों, संगीतज्ञों, पत्रकारों का एक छोटा सा समूह जुटा और रात भर बातें होती रहीं। जब सवेरे वे नाश्ता करने निकले तो उन्होंने एल हेराल्दो खरीदा जिसमें नए लेखक मार्केज़ के शहर में आने की सूचना छपी थी जिसे बिना बाइलाइन के अल्फांसो फुएनमेयर ने लिखा था। बारांकीला में लेखकों, कलाकारों का अपेक्षाकृत अधिक बड़ा समूह था, वहां का अपना एक कल्चर था। जिसमें लेखकों, कलाकारों को भी पहचाना जाता था। इसीलिए वह शहर उनको अच्छा लगा क्योंकि उसने बिना उनकी सामाजिक हैसियत देखे एक लेखक के रूप में सम्मान दिया। वहीं अखबार में सेप्टाइमस नाम से वे एल हेराल्दो में ला जिर्राफ नामक कॉलम लिखने लगे।
लेखकों के उस समूह से यह मित्रता प्रोफेशनल स्तर पर भी थी। एक दूसरे के लिखे कॉलम को वे पढ़ते थे, उसके बारे में बिना किसी लाग-लपेट के चर्चा करते थे और एक दूसरे को सुझाव भी देते थे। मार्केज़ के शुरुआती कॉलम को जरमन वर्गास ने पढ़ा उसे मोड़कर आग जलाई और उससे सिगरेट सुलगाकर पीने लगा। इसके अलावा उसने एक शब्द नहीं कहा। इस तरह से बारांकीला समूह के लेखक एक दूसरे की आलोचना किया करते थे लेकिन मन में कोई मैल नहीं रखते थे। उन दिनों मार्केज़ एक सस्ते होटल में रहते थे। उनके पास पहनने को दो जोड़ी कपड़े थे एक ब्रीफकेस जिसे बोगोटा की लूटमार में उन्होंने वहां की सबसे महंगी दूकान से लूटा था। उसमें वे अपने लिखे जा रहे उपन्यास की पांडुलिपि रखते थे और ब्रीफकेस को हमेशा अपने पास रखते थे। उससे बेशकीमती उनके पास उन दिनों और कोई चीज नहीं थी। जब होटल का किराया देने के लिए उनके पास पैसे नहीं थे तो उन्होंने उसे होटल वाले के पास गिरवी भी रख दिया था।
उन दिनों जरमन वर्गास से उनकी ऐसी मित्रता हुई कि उस संबंध में उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है, मुझे कब किस चीज की जरूरत है इसे वह पहले ही समझ लेता था। अगर मार्केज़ के पास होटल में सोने के लिए पैसे नहीं होते थे तो वे उनकी जेब में डेढ़ पेसो सरका दिया करते थे जिससे कि सस्ते होटल में रात बिताने का इंतजाम हो जाए। उन दिनों एक टैक्सी ड्राइवर से उनकी मित्रता हो गई थी जो खाली समय में उनको टैक्सी में बिठाकर शहर के रेड लाइट वाले इलाके में ले जाता था। संघर्ष के दिनों में वेश्याओं को देखना ही उनका सबसे बड़ा मनोरंजन हुआ करता था क्योंकि बाकी मनोरंजन के लिए पैसे खर्च करने पड़ते थे।
साहित्यकारों की संगत में आने के बाद से उनकी समकालीन साहित्य में गति बढ़ रही थी लेकिन उनके लिखे जा रहे उपन्यास की दिशा में कोई खास प्रगति नहीं हो रही थी। मार्केज़ ने लिखा है कि उसे शुरु करते समय जो उत्साह था वह लिखते समय बाकी नहीं रह गया था। शायद इसका एक कारण यह रहा हो कि जिस समय उन्होंने उपन्यास लिखने की योजना बनाई थी उस समय वे घर-परिवार के साथ बहुत दिनों बाद रहने गए थे। उस समय घर से जुड़ी स्मृतियां घनीभूत हो गई थीं। लेकिन घर से दूर होते ही उपन्यास का आइडिया भी दूर होता चला गया। उन्होंने स्वयं लिखा है कि उस उपन्यास को लेकर उन्होंने बातें अधिक की उसको लिखा कम। वैसे जब उनको लिखने के लिए कोई विषय नहीं सूझता था तो वे अपने इस लिखे जा रहे उपन्यास के अंश प्रकाशित कर दिया करते थे।
उन दिनों हालांकि उनका लिखना नियमित रूप से चल रहा था। अखबार के ऑफिस में एक कोने में बैठकर वे चुपचाप लिखते रहते। उस दौरान वे किसी से बात नहीं करते थे। लगातार सिगरेट पीते रहने के कारण उनके आसपास धुएं का घेरा सा छाया रहता था। उसके बीच वे अक्सर सुबह तक न्यूजप्रिंट के पन्नों पर लिख करते थे और उसी को दिन भर अपने लेदर ब्रीफकेस में लेकर घूमा करते थे। एक दिन वे उस ब्रीफकेस को एक टैक्सी में छोड़कर उतर गए। ब्रीफकेस के खो जाने से वे इतने निराश हुए कि उसे ढूंढने का अपनी ओर से उन्होंने कोई प्रयास भी नहीं किया। अल्फांसो फुएनमेयर को जब पता चला तो उन्होंने मार्केज़ के कॉलम जिर्राफ के नीचे एक नोट लगा दिया। उस नोट में लिखा कि एक ब्रीफकेस पिछले सप्ताह किसी टैक्सी में छूट गया। संयोग से उस ब्रीफकेस के मालिक और इस कॉलम के लेखक एक ही व्यक्ति हैं। हम उनके बहुत आभारी होंगे अगर वे दोनों में से किसी एक को इस संबंध में सूचित करेंगे। ब्रीफकेस में कोई मूल्यवान वस्तु नहीं है, बस जिर्राफ के अनछपे पन्ने हैं। दो दिनों बाद कोई वे पन्ने एल हेराल्दो के ऑफिस के गेट पर छोड़ गया। ब्रीफकेस उसने नहीं लौटाया। अलबत्ता पांडुलिपि में तीन स्थानों पर उसने हरे पेन से वर्तनी की अशुद्धियां बहुत अच्छी लिखावट में ठीक कर दी थीं।
जब कमरे का किराया देने के पैसे नहीं होते थे तो वे रात भर खुले रहने वाले कैफे में जाकर बैठते थे और सुबह तक पढ़ते रह जाते। सुबह ऑफिस में आकर सो जाते। उस दौरान जो किताब भी मिल जाती उसी को पढ़ते-पढ़ते रात काट लेते। उन्होंने लिखा है कि उन दिनों उनको लगने लगा था कि लड़की, पैसे आदि के मामले में वे भाग्यहीन ही रह जाने वाले हैं। लेकिन इन सब चीजों की वे परवाह नहीं करते थे क्योंकि एक बात अच्छी तरह समझते थे कि अच्छा लिखने के लिए अच्छे भाग्य की कोई आवश्यकता नहीं होती है। वे पैसे, शोहरत, बुढ़ापे आदि की चिंता भी नहीं करते थे क्योंकि उन दिनों रातों को अकेले अनजान शहर के कैफे में बैठ-बैठकर उनको लगने लगा था कि उनकी मौत भरी जवानी में ही हो जाएगी, वह भी इसी तरह किसी सड़क पर। एकदम तन्हा। सबसे दूर।
उपन्यास लिखना हो तो रहा था लेकिन कहानी की कोई दिशा नहीं बन पा रही थी न ही उसका कोई उद्देश्य बनता दिखाई दे रहा था। इसी दौरान माँ के साथ अराकाटक जाना पड़ा। घर में पैसे की तंगी हो गई थी और माँ ने सोचा विरासत में मिला अपने पिता का घर बेचकर कुछ तो तंगी दूर करुं। उनको इस बहाने उस घर को दुबारा देखने का मौका मिला जिसमें उनके बचपन की यादें थीं। जब इतने साल बाद उस घर को उन्होंने फिर देखा तो उनको सिनेमा के दृश्यों की तरह अपना बचपन याद आने लगा। वह शहर जो इस समय उजाड़ दिखाई दे रहा था उसकी रौनकें याद आने लगीं। अपना जीवन फ्लैशबैक में दिखाई देने लगा। उनके अंदर एक नई रचना आकार लेने लगी। विषय फिर उसी घर को केंद्र में रखकर था।
लेकिन इस बार उपन्यास की कथा के बारे में उन्होंने किसी को नहीं बताया सिवाय अल्फांसो फुएनमेयर के। मन में एक डर यह भी था कि लोगों का पता चल जाएगा कि वे द हाउस उपन्यास नहीं कोई और उपन्यास लिख रहे हैं। जिसके बारे में वे अपने दोस्तों से कहा करते थे कि लिखी जाने के बाद वह एक बहुत बड़ी रचना साबित होगी। जानने पर लोग उनका मजाक उड़ाएंगे। मन में उसकी कहानी स्पष्ट दिखाई देने लगी थी। कहानी एक ऐसे बच्चे की स्मृतियों को आधार बनाकर होगी जिसने 1928 में केले-बागानों के क्षेत्र में हुए नरसंहार को देखा था और बच गया। लेकिन फिर इस तरह कहानी लिखना उनको क्योंकि इस तरह से कथा एक चरित्र के माध्यम से कही गई होकर रह जाती।
उन्होंने लिखा है कि इस दौरान उन्होंने कई उपन्यास पढ़े। फॉकनर और जेम्स ज्वायस को फिर पढ़ा। फिर यह सूझा कि कहानी के तीन वाचक हों, नाना, माँ और बच्चा। इससे कहानी के तीन दृष्टिकोण हो जाएंगे। कहानी के नाना मार्केज़ के अपने नाना की तरह एक आंख वाले नहीं थे बल्कि वे लंगड़े होनेवाले थे। इस कहानी की पृष्ठभूमि भी वही थी जो द हाउस की थी। मार्केज़ ने लिखा है कि वह पूरा शहर जो उपन्यास में उतरने वाला था उनको अपनी कल्पना में जीवंत दिखाई देने लगा था। उस शहर का नाम उन्होंने रखा मकोन्दो। स्पेनिश भाषा में मकोन्दो का मतलब होता है केला और उनके नाना के कस्बे अराकाटक के बगल में एक केला-बागान का नाम मकोन्दो था। जो बाद में वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ सॉलीट्यूड के माध्यम से उपन्यास साहित्य का सबसे लोकप्रिय कस्बा या शहर बन गया। पहली बार इसी उपन्यास में उस कस्बे ने अवतार लिया। हालांकि लीफ स्टॉर्म का मकोन्दो वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ सॉलीट्यूड के मकोन्दो से काफी अलग है। लीफ स्टॉर्म का मकोंदो एक ढहता हुआ उजाड़ कस्बा है, जहां आदमी कम भूत अधिक रहते हैं, आदमी की चहल-पहल नहीं पत्तों की खड़खड़ाहट सुनाई देती है। यह वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ सॉलीट्यूड के मकोन्दो से काफी अलग है।
उपन्यास का शीर्षक उनको बदल देना पड़ा जो उनके मित्रों के लिए इतना चिर-परिचित बन चुका था कि वे सब उस अनलिखे उपन्यास की कहानी जानते थे जिसका लिखा जाना अभी बाकी थी। उन्होंने अपने नए उपन्यास का नाम सोचना शुरु किया। उन्होंने लिखा है कि जैसे-जैसे नाम ध्यान में आते गए उन्होंने उसे स्कूल की कॉपी में लिखना शुरु कर दिया। जब नाम सोचना और लिखना उन्होंने छोड़ा तो कुल अस्सी नाम उस उपन्यास के वे सोच चुके थे। लेकिन कोई नाम ऐसा नहीं लगा जो उपन्यास की कथा के लिए मुफीद लगता हो। जब उपन्यास के काफी पन्ने वे लिख चुके तो अचानक उनको नाम सूझ गया- लीफ स्टॉर्म। युनाइटेड फ्रूट कंपनी के छोड़ने के बाद उजाड़ हो चुके शहर में बस पत्तों की आंधी का ही शोर रह गया था। यही वह उपन्यास था जिसे उन्होंने सबसे पहले पूरा किया। द हाउस में कहानी का केंद्र था तो लीफ स्टॉर्म में अराकाटक की तबाही की त्रासद कथा।
लीफ स्टॉर्म उपन्यास के केन्द्र में एक प्रसंग है। मकोन्दो शहर के प्रतिष्ठित व्यक्ति कर्नल यह शपथ लेता है कि वह अपने बेल्जियन डॉक्टर दोस्त का अंतिम संस्कार करेगा जबकि उसकी पत्नी, उसकी बेटी ऐसा नहीं चाहती है, शहर के लोग भी उसको बददुआएं देते थे क्योंकि एक राजनीतिक संघर्ष के बाद उसने शहर के घायलों का इलाज करने से मना कर दिया था। मरते-मरते तो उसने और बड़ा अपराध किया था। कैथोलिक इसाइयों के अनुसार भगवान के कानून के विरुद्ध। आत्महत्या का अपराध। लेकिन कर्नल फिर भी उसका अंतिम संस्कार करना चाहता है। यह कहानी अपने आपमें सम्मान, कर्तव्य और शर्म को लेकर कस्बे में प्रचलित अनेक तरह की मान्यताओं को सामने रखता है, लोक विश्वासों की बात करता है।
मार्केज़ के जीवनीकार ने कहा है कि तथ्य के स्तर पर यह मार्केज़ का अकेला ऐसा उपन्यास है जिसे आत्मकथात्मक कहा जा सकता है। यही बात मार्केज़ ने फ्रेगरेंस ऑफ ग्वावा में अपने दोस्त से बातचीत करते हुए कही है। उसके प्रमुख पात्र मार्केज़ के अपने घर के ही हैं। यही नहीं जिस बेल्जियन डॉक्टर की आत्महत्या की यह कहानी है उसको भी बचपन में मार्केज़ जानते थे और उसी ने उनको सिनेमा देखने की आदत डाली थी। इस कहानी में उनके पिता, नाना, नानी समेत उस समय परिवार में मौजूद सभी पात्र किसी न किसी रूप में मौजूद हैं। कहानी में परिवार के साथ-साथ कस्बे के मानस का भी चित्रण किया गया है। लेखक के इस पहले पूर्ण उपन्यास की कथा शैली पर फॉकनर, वर्जीनिया वुल्फ की कथा-प्रविधि का प्रभाव स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है।
लिखने के बाद उन्होंने उसे अपने उन तीन दोस्तों को पढ़ने के लिए दिया बारांकीला में जिनकी संगत में आकर उनका उपन्यास लेखन शुरु हुआ था। तीनों को उपन्यास पसंद आया लेकिन उन्होंने कुछ सुझाव भी दिए। मार्केज़ ने उन सुझावों के अनुरूप उपन्यास में फिर-फिर संशोधन किए। फिर उनको एक मित्र ने सुझाव दिया कि इसको छपने के लिए अर्जेंटीना की राजधानी ब्यूनस आयर्स के सबसे प्रतिष्ठित स्पेनिश प्रकाशक को भेजना चाहिए। उनके एक मित्र अल्वारो मुतिस, जो स्वयं कोलंबिया के प्रसिद्ध लेखक बने, ने वह पांडुलिपि लेकर छपने के लिए उस मशहूर लोसादा प्रकाशन को भेज दिया। उसके बाद मार्केज़ करीब दो महीने तक जैसे खुमारी की हालत में प्रकाशक के जवाब का इंतजार करते रहे।
दो महीने बाद एक दिन जब वे एल हेराल्दो के अपने ऑफिस गए तो उनके हाथ में गेटकीपर ने एक चिट्ठी दी। चिट्ठी के ऊपर ब्यूनस आयर्स के उसी लोसादा प्रकाशन के संपादकीय विभाग की मुहर लगी थी। उनका दिल धक-धक करने लगा। उनको सबके सामने चिट्ठी खोलने में शर्म आ रही थी इसलिए वे अपने केबिन में गए। कांपते हाथों से उन्होंने चिट्ठी खोली। उसमें लिखा हुआ था कि उपन्यास उनको छापने लायक नहीं लगा। संपादकीय विभाग के अध्यक्ष गुलेर्मो द तेरो की चिट्ठी भी साथ थी। उनको स्पेन के सबसे बड़े साहित्यिक आलोचकों में शुमार किया जाता था और अर्जेंटीना में निर्वासन का जीवन बिता रहे थे। उनका एक और परिचय यह था कि वे अर्जेंटीना के मशहूर लेखक होर्खे लुई बोर्खेस के बहनोई थे जिनकी कविताओं, किस्सों को मार्केज़ बेहद पसंद भी करते थे।
आलोचक गुलेर्मो ने चिट्ठी में उस नए लेखक यानी मार्केज़ की काव्यात्मक प्रतिभा की तारीफ की थी लेकिन साथ ही अपना निर्णय भी सुनाया था कि इस लेखक में उपन्यासकार की प्रतिभा नहीं है और यह कभी भी उपन्यासकार तो नहीं बन सकता। बेहतर होगा कि यह लेखक किसी और काम में अपना मन लगाए। आप समझ सकते हैं उनको कैसा सदमा पहुंचा होगा। उनका पहला सपना ही टूट गया था। उनको अपने भाग्यहीन होने पर यकीन कुछ और बढ़ गया होगा। ऐसे में उनको अपने दोस्तों से बड़ा सहारा मिला। अलवारो केपेदा ने उनको सान्त्वना देते हुए कहा कि इसमें परेशान होने की कोई बात नहीं है। हर कोई जानता है कि स्पेन के लोग अहमक होते हैं। सबने एक-एक करके उस मशहूर संपादक के बारे में बुरा-भला कहा।
लेकिन लेखक के रूप में इस तरह से नकार दिए जाने के कारण उनको गहरा धक्का लगा होगा क्योंकि जबसे वे बड़े हुए थे उन्होंने लेखक के अलावा किसी और रूप में अपने कैरियर की कल्पना ही नहीं की थी। लेकिन पहले ही उपन्यास पर इस तरह की टिप्पणी। अंदर ही अंदर वे टूटने लगे थे। उनको पहली बार यह महसूस हुआ होगा कि इतने साल के लेखन ने उनको कहां पहुंचाया। वे एक बार फिर अपने आपको वहीं पा रहे थे जहां से उन्होंने बतौर लेखक अपनी यात्रा आरंभ की थी। इस घटना के कुछ दिनों बाद तक भी वे एल हेराल्दो अखबार में नियमित रूप से अपना कॉलम जिर्राफ लिखते रहे। लेकिन निश्चित रूप से उनको अपने लेखन पर संशय हुआ होगा। उस लेखन पर जिसके लिए उन्होंने अपने कैरियर का दांव खेला था। उन्हीं दिनों उन्होंने बिना कारण बताए एल हेराल्दो की नौकरी छोड़ दी। अपना कॉलम लिखना बंद कर दिया। वे अपने लेखन के भविष्य को लेकर चिंतन करना चाहते थे।
पठनीय प्रस्तुति...और एक बेहतरीन लेखक के बारे में इतनी जानकारी देने के लिये आभार..साथ ही इस महान् हस्ती को श्रद्धांजलि।।
जवाब देंहटाएंaap in links par aur jyada parh sakte hain...
जवाब देंहटाएंhttp://hashiya.blogspot.in/2014/04/blog-post_5661.html
http://hashiya.blogspot.in/2014/04/blog-post_2699.html
http://hashiya.blogspot.in/2014/04/blog-post_9621.html
http://hashiya.blogspot.in/2014/04/blog-post_9119.html
http://hashiya.blogspot.in/2014/04/blog-post_6077.html