01 नवंबर 2013

लोकतांत्रिक देश, सेना और बलात्कार

कीर्ति सुन्द्रियाल
सरकार ने निर्भया केश में भारी जन दबाव के कारण जस्टिस वर्मा कमेटी का गठन किया था. जिसने छः सौ पचास पृष्ठों की एक विस्तृत रिपोर्ट सरकार के समक्ष प्रस्तुत की और कई महत्वपूर्ण सुझाव दिए. जिसकी कुछ सिफारिशों को सरकार ने मान भी लिया है. उसे नये कानूनों में जगह भी दी गई. कई ऐसे सुझाओं को छोड़ दिया गया जो बहुत जरूरी थे. जिन सुझाओं को छोड़ दिया जाता है उन्हें छोड़ने के पीछे गहरे निहितार्थ छिपे होते हैं. इनमें से एक था सेना द्वारा किये जाने वाले बलात्कार को दर्ज किए जाने और उन्हें सजा के प्रावधान का सुझाव. सेना को इस दायरे से बाहर रखना संघर्ष के कई क्षेत्रों में महिलाओं पर हो रही हिंसा को और बढ़ावा देना है. जबकि इसके तर्क यह दिए जाते रहे हैं कि इसे लागू किए जाने से सेना का मनोबल गिरेगा. इसका दूसरा आयाम यही बनता है कि सेना के मनोबल को बढ़ाने के लिए सरकार उन्हें महिलाओं पर हिंसा की खुली छूट प्रदान कर रही है. 1991 में सीआरपीसी के अनुच्छेद 197 में संसोधन करके सैन्य बलों को कानून की पहुंच से बाहर कर दिया गया. जिसमें कहा गया है कि ‘कोई भी अदालत गणतंत्र के सैन्य बलों के सरकारी कार्य करने के दौरान किए गए अपराध की सुनवाई बिना केंद्र सरकार की अनुमति के नहीं कर सकती. ऐसे में यह स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है कि केंद्र सरकार से अनुमति लेना किन वर्गों के दायरे में संभव है. यहां तक कि उसी की धारा 45 के अनुसार भारतीय क्षेत्र में कार्य कर रहे किसी भी सैन्य बल के सदस्य को गिरफ्तार नहीं किया जाएगा. यानि सरकार ने अपनी दमनकारी संस्थाओं को भारी छूट प्रदान कर रखी है. प्रश्न उठता है कि सरकार बलात्कार के साथ दोहरे मापदंड क्यों बनाये रखना चाहती है. आम नागरिक और सेना के अधिकारों में फर्क बनाए रखने की जरूरत एक लोकतांत्रिक कहे जाने वाले राष्ट्र को क्यों है. क्या सेना में होने से मानवाधिकारों के खुले उल्लंखन की खुली छूट मिल जानी चाहिए. भारत में कई इलाकों में उग्रवाद, अतिवाद और आतंकवाद के नाम पर लोगों के हकों के, जल, जंगल, जमीन के संघर्षों को कुचलने के लिए ‘आर्मड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट’ ((आफ्सपा) ‘अनलॉफुल एक्टिविटीज प्रिवेशन एक्ट’ (यूएपीए) जैसे अमानवीय व दमनकारी कानून जिसमें सेना को असीमित अलोकतांत्रिक अधिकार मिले हुए हैं. मानवाधिकार संगठनों की रिपोर्टों से पता चलता है कि इन्हीं छूट के कारणों से सेना बडे पैमाने पर मानवाधिकारों का उल्लंघन करती रही है.
सेना इस तरह के कानूनों का सहारा लेकर महिलाओं के साथ बलात्कार व अन्य तरह के यौन उत्पीडन करती रही है. मणिपुर में मनोरमा, छत्तीसगढ़ में सोनी सोरी, कश्मीर में सोफिया इसके उदाहरण हैं. ये ऐसे मामले हैं जो दर्ज हुए और सामने आये जिन पर आन्दोलन हुए, बहस चली. आमतौर पर ऐसी जगहों पर जिन्हें युद्ध क्षेत्रों में तब्दील कर दिया गया है वहां बलात्कार की घटनायें बहुत ज्यादा है लेकिन वह बाहर नहीं आ पाती. यह एक ऐतिहासिक सच है कि बलात्कार को जातीय व धार्मिक नरसंहारों में, युद्ध में विरोधी पक्ष को दबाने के लिए एक मजबूत हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जाता रहा है. ऐसे में सरकार की यह जिम्मेदारी बनती है कि सैनिकों द्वारा किये जाने वाले बलात्कारों को कानूनी दायरे में लाये. जबकि सरकार ठीक इसकी उल्टी प्रक्रिया अपना रही है. एक तरह से यह व्यवस्था से राजनैतिक असहमति रखने वाली महिलाओं को सरकार जानबूझकर यौन हिंसा के लिए सुरक्षा नहीं देना चाहती. बल्कि अपनी मंशा में वह सैन्य बलों को मनोबल बढ़ाने के लिए सैन्य द्वारा किये जाने वाले बलात्कार व उत्पीड़न को सह देती है. यह उनके बलात्कारों को एक छुपा समर्थन देने जैसा है जिसे कानूनी वैधता भी प्रदान कर दी गई है.    
सेना द्वारा किये जाने वाले बलात्कार को कानून के दायरे में न लाना दर्शाता है कि सरकार तथाकथित ‘न्याय व्यवस्था’ को कायम रखने के लिए महिलाओं की देह पर हिंसा का इस्तेमाल कर रही है. वह उन्हीं सामंती पितृसत्तात्मक मूल्यों का सहारा ले रही है जहां स्त्री की देह इज्जत का रूप होती है. सरकार द्वारा संघर्ष के इलाकों में राजनीतिक व आम महिलाओं को यौनिक आधारों पर ज्यादा पीड़ित किया जाता रहा है.  

ऐसे क्षेत्रों में बलात्कार को दो स्तरों पर औजार बनाकर संघर्षों को दबाने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है. पहला आम महिलाओं के साथ बलात्कार दूसरा राजनीतिक कार्यकर्ताओं का बलात्कार. ये सच है कि सरकार जिन माओवादियों को आन्तरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा मानती है, उनमें महिलायें भी बड़ी संख्या में शामिल हैं. इसके अलावा राष्ट्रीयता के आन्दोलनों व अन्य आन्दोलनों में भी महिलाओं की व्यापक भागीदारी देखी जा सकती है. जिस तरह सरकार व्यवस्था विरोधी संघर्ष में शामिल पुरूषों के मानवाधिकारों का हनन करती है महिलाओं के साथ यह और भी ज्यादा बढ़ जाता है. महिलाओं पर होने वाली यौनिक हिंसा उनके दमन के दायरे को और ज्यादा बढ़ा देती है. राजकीय दमन में बलात्कार को सरकार संघर्ष को कमजोर करने के हथियार के तौर पर इस्तेमाल करती है. लेकिन मणिपुर में मनोरमा की हत्या और बलात्कार के बाद मणिपुरी महिलाओं द्वारा आसाम राइफल्स के मुख्यालय के प्रदर्शन ने यह साबित किया कि लडने वाली महिलायें भी इसे समझती हैं कि राज्य बलात्कार को युद्ध के हथियार के तौर पर इस्तेमाल करता है. इसलिए वह इसे इज्जत के रूप में विश्लेषित नहीं करती हैं. यह महिलाओं की राजनीतिक चेतना का विस्तार है कि वह रेप को ताकत का एक सबसे घिनौना रूप मानती हैं जोकि वह है भी. मनोरमा के बलात्कार और हत्या के बाद उपजे आक्रोश में मणिपुर में महिलाओं का नग्न होकर प्रदर्शन करना और यह कहना कि ‘भारतीय सेना आओ हमारा बलात्कार करो’ इस धारणा को नकारना भी है जिसके तहत महिलाओं की प्रखर मुखरता, संघर्ष करने की क्षमता को ‘इज्जत’ और यौनि की पवित्रता के भार तले दबाने की कोशिश की जाती है. महिलाओं के द्वारा ऐसे संघर्ष सरकार के लिए एक खुली चुनौती देते हैं कि वह बलात्कार को हथियार के रूप में इस्तेमाल करना बंद करे. वे यह संदेश भी देती हैं कि इससे आन्दोलन खत्म नहीं होंगे बल्कि लड़ने के लिए और वजहें भी शामिल हो जायेंगी. सेना द्वारा लगातार बलात्कार किये जाने के बावजूद महिलाओं ने संघर्ष का रास्ता नहीं छोडा है. ऐसे क्षेत्रों में महिलायें लगातार यह मांग करती रही हैं कि सेना द्वारा बलात्कार बंद होना चाहिए. इसके बावजूद सरकार का बलात्कारों को सह देना यह दर्शाता है कि राज्य का चरित्र ही पितृसत्तात्मक है. जो सैनिकों के पुरुष होने के अहम को संन्तुष्ट करता है. दूसरा इससे समाज के ताकतवर पुरुष को भी यह संदेश जाता है कि बलात्कार कर सजा न होने की छूट इस बात पर निर्भर करेगी कि आपके पास कितनी आर्थिक, सामाजिक और राजनीति ताकत है. 

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