कीर्ति सुन्द्रियाल
संवैधानिक आज़ादी सांस्कृतिक आयामों को बदल नहीं पा रही, बल्कि संस्कृति की पुरानी गुलामी समाज की नब्ज में बहती ही रहती है। महिला मुक्ति के इतने प्रयासों के बावजूद सामूहिक जगहों पर अभी भी पुरूषों का ही कब्जा है, यह कब्जेदारी किसी जगह भर की नही है, बल्कि मानसिक विकास के रास्तों पर एक बैरियर सा लगा दिया गया है। महिलायें आज भी बिना काम के सड़कों पर टहलती हुई नजर नहीं आती, उनके घूमने-टहलने और आने-जाने के लिए अभी भी विशेष जगहें और सुनियोजित आयोजन हैं। चौराहों से लेकर शहर की तमाम बैठकों तक पुरुषों का ही बैठना है, उन्हीं के राजनीतिक चर्चे हैं। देश, समाज और आपदा-विपदा उन्हीं की बहसों से शुरू होकर खत्म होती है, वह खत्म भी नही होती बल्कि उनकी समझदारी को विकसित करती है। महिलाएं इस पूरी प्रक्रिया से वंचित ही रहती हैं। राजनीति, देश, समाज और आपदा-विपदा के सबसे ज्यादा संकट महिलाओं को ही झेलने पड़ते हैं, पर यह उनके बहस का हिस्सा नहीं बन पाता, जैसे देश, राजनीति और विपदा उनकी हो ही न।
पार्कों से लेकर बैठकों तक नए स्थानों को विकसित किया जा रहा है, पर वहाँ एक सांस्कृतिक रुकावट है, सामाजिक भय है, जो इन स्थानों को महिलाओं का नहीं होने देता। वे संडे या किसी छुट्टी पर रिश्तेदारों और परिचितों के आने पर ही शहर का मुंह देख पाती हैं, उनके घूमने की भी एक सीमा निर्धारित होती है जो दिन के उजालों और सीमित घंटो व खास तरह की ‘सुरक्षित’ जगहों के दायरे में बनी होती हैं। रात का शहर उनके लिए भय का शहर है। दिन में भी ऐसा कम ही होता है कि कोई महिला बगैर किसी काम के घूमने निकलती हो। उन्हें स्कूल से बच्चों को लाते, ले जाते, दूध, सब्जी, घर के सामान लाते ही देखा जा सकता है। वे घर के भीतर और बाहर भी गृहणी होती हैं, उन्हें घूमने के लिए ऐसे तरीके खोजने होते हैं जिस काम में बाहर ज्यादा समय लग जाए और वे बाहर के दृश्य को देखते हुए लौट आएं, बाहर के समाज में शामिल होने की उनकी इच्छाएं इसी तरह पूरी होती हैं। शहर में उनका जाना सिनेमा देखने जैसा ही है क्योंकि शहर के भीतर सहजता से उनके खड़े होने की जगह ही नहीं है, वहां उन्हें घूरती हुई मर्दों की नजरें हैं जो खड़े होने का कारण पूछती हैं। जैसे उनकी सम्पत्ति के दायरे में कोई और दखल दे रहा हो। बेफिक्री से अकेले किसी महिला को थोड़ी देर के लिए सारी चीजों से मुक्त करके बाजार चौराहों पर तफरी करते देखना मुश्किल होता है, दोनों तरफ भय जैसा है, मुक्त होने के प्रयासों में एक महिला को लगातार हिंसा का भय बना रहता है। शादीशुदा महिलाएं सामूहिक जगहों के साझीदारी में इतनी बेचारी दिखती हैं कि उन्हें मंदिर और सत्संग वाले बाबा के कीर्तन भजन की मंडलियों में ही देखा जा सकता है, वे एक साथ बड़ी संख्या में जब कभी सड़क पर चलते हुए दिखेंगी तो वह कोई धार्मिक झांकी या कलश यात्रा जैसे आयोजन होंगे। धार्मिक आयोजनों में बाहर जाने के लिए उनका परिवार रोकने के बजाय उन्हें प्रोत्साहित ही करता है, क्योंकि धर्म उन्हें पुरुषवादी मर्यादाओं और नैतिकताओं से लैस करता है। इसके साथ ही घुटन भरे जीवन में वहां उन्हें आज़ादी, सामूहिकता का क्षण भर एहसास भी हो जाता है, उनकी दबाई गई इच्छाएं और सामूहिकता में जीना इन्हीं जगहों से थोड़े भर दिए जाते हैं, भीतर की दबी हुई अभिव्यक्तियां घर में फटें इसके पहले का यह इलाज है।
धार्मिक आयोजनों में महिलाओं की श्रोता के रूप में व्यापक भागीदारी इसी तरह से होती है, वहां वह समूह में बैठने की अपनी इच्छा और अपने आपको घर परिवार के कामों के अलावा अन्य कामों में लीन हो जाने की जरूरत को पूरा करती हैं, महिलायें इन आयोजनों में भगवान की भक्ति के नाम पर सामूहिक तौर पर गाने गाती हैं, नाचती हैं। यह उनके अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के मौके होते हैं, समाज इसे उनकी भक्ति मानता है, लेकिन इसका मानसिक आधार उनके बंद और ऊब्न से भरे जीवन का होना है। उनके पास अपने को अभिव्यक्त करने का कोई और विकल्प नहीं है, सामान्यतः महिलायें ऐसे ही बिना धार्मिक आयोजन के सामूहिक तौर पर नाच नहीं सकती है, ऐसा करने पर उनके लिए लांछनों से भरे फतवे है जो लगा दिए जाएंगे। यह एक अघोषित सी छूट और प्रतिबंध है जो अधिकांश महिलाओं के जीवन को संचालित करता है।
स्कूल कॉलेज जाने वाली युवतियों की स्थिति महिलाओं की अपेक्षा इस मायने में थोड़ी बेहतर कही जा सकती हैं कि उन्हें बाहर जाने के लिए उत्सवों, धार्मिक आयोजनों और खरीददारी के बहानों की जरूरत नहीं पडती, क्योंकि घर से बाहर जाना उनकी दिनचर्या का हिस्सा होता है। घर से स्कूल या कॉलेज जाने के बीच के समय में वह बसों, चौराहों, गलियों, कॉलेज कैंन्टीनों और क्लास रूम से गुजरती हैं, जो उन्हें सामूहिक जगहों से जोड़ता है, जहां वह घर से बाहर की दुनियां को महसूस कर पाती हैं। कई स्थानों पर पुरुष कब्जेदारी वहां भी हैं, डर वहां भी है, पर खासकर जब युवतियां कॉलेज में आती हैं तो वह पुरूषों की बनायी सामूहिक दुनियां में अपना हिस्सा भी तय करना चाहती हैं। वहां स्कूल से ज्यादा खुलापन और आजादी होती है, यह उन्हें सामूहिक जगहों में समय बिताने का मौका देती है, धीरे-धीरे वह इसके महत्व और इसकी चुनौतियों को भी समझने में समर्थ होती हैं। वहां से उनके लिए ऐसा दोराहा भी बना होता है, जहां से जिंदगी अलग-अलग अन्जाम पर पहुंच सकती है। एक रास्ता परम्परागत जिन्दगी का रास्ता है और दूसरा अपने अस्तित्व को ढूंढने का रास्ता, खतरे और रोमांच से भरा रास्ता, जहां सब कुछ उनको ही तय करना होता है, पुरूषों के कब्जेदारी की दुनियां पर अपना दावा पेश करने का साहस पैदा करना होता है। इस दूसरे रास्ते की चाबी ढूंढना अब भी कठिन है, क्योंकि हर युवती का रास्ता एक ही चाबी से नहीं खुलता इसलिए हर बार ताला खोलने का तरीका और चाबी का नम्बर अलग-अलग होता है।
पब्लिक स्पेस कई तालों की चाबी है। इस बात को इस तरह से समझा जा सकता है कि पब्लिक स्पेस का मतलब सिर्फ नुक्कड़ व दुकानों पर खाना-पीना ही नहीं होता है, यह तो बहाने होते हैं जिनसे कारण सधते हैं, यहां लोगों से मिलना-जुलना और संवाद होता है, जो आपको नये अनुभवों से समृद्ध करता है। करियर, दुनियादारी और परिवार के नियमों से बंधी जिन्दगी के बीच, यही वह जगह होती है जहां आप अपना क्वालिटी टाइम बिता रहे होते हैं। यह सकारात्मक ऊर्जा का निर्माण करता है और जीवन को तरोताजा बनाये रखता है। ऐसी जगहों पर देश, दुनियां, राजनीति पर सहमति और असहमति का मौका मिलता है, यही जगहें हैं जहां सभ्यता और दुनियां जहान के मौखिक इतिहास का पाठ चल रहा होता है जिस इतिहास और संस्मरण से जीवन का बखान भी लोग करते है। कथाओं और कल्पनाओं की दुनिया भी यहीं बनती है, यह ऐसी क्लास होती है जहां सभी जानकार होते हैं और जीवन के अन्य जगहों से ज्यादा स्पेस मुहैया हो पाता है। सिलेबस बस और कक्षाओं के अलावा यह समाज का वास्तविक अध्ययन होता है, लेकिन इसके दरवाजे युवतियों के लिए पूरी तरह से खुले नहीं हैं। नुक्कड़ पर, सड़क किनारे के ठेलों पर, उनका जाना और बैठना अभी ठीक से शुरू ही नहीं हुआ है। फिर ऊपर से घूरती नजरें उनका स्वागत करती हैं, यह उन्हें हर बार पब्लिक स्पेस में जाने से रोक देता है। शहर में ऐसी जगहें भी कम होती हैं जहां युवा-युवतियां इत्मिनान से बैठ सकें। रेस्टोरेंट, पार्क, सड़कें, कॉलेज सबमें विभाजन हैं, जहां महिलाओं के लिए स्थान सीमित होता जाता है।
देश के हर शहर में इस तरह का बंटवारा पाया जाता है। धर्म, जाति और वर्ग की ही तरह शहरों को लैंगिक आधार पर भी बांटा गया है। शहर के भूगोल का विभाजन प्राकृतिक होता है, लेकिन हमारी मानसिकता का भूगोल शहर के स्पेस को तय करता है। छोटा ही सही एक ऐसा समूह हर शहर में मौजूद होता है जो शहर की जगहों के बंटवारे को तोड़ता है, वह वर्जित जगहों पर जाना पसंद करता है, शहर को अपने विस्तार के तौर पर देखता है। समाज द्वारा किये गये बाकी बंटवारों की तरह वह लैंगिक बंटवारे की परवाह भी नहीं करता। एक वैकल्पिक राजनीति की तरह ही शहर में ऐसे समूह का दखल ही, शहरों में वैकल्पिक स्पेस का निर्माण करता है जो आने वाले समय के लिए एक उम्मीद की जगह बनाता है।
संपर्क: kirtisundriyal.ht@gmail.com
संवैधानिक आज़ादी सांस्कृतिक आयामों को बदल नहीं पा रही, बल्कि संस्कृति की पुरानी गुलामी समाज की नब्ज में बहती ही रहती है। महिला मुक्ति के इतने प्रयासों के बावजूद सामूहिक जगहों पर अभी भी पुरूषों का ही कब्जा है, यह कब्जेदारी किसी जगह भर की नही है, बल्कि मानसिक विकास के रास्तों पर एक बैरियर सा लगा दिया गया है। महिलायें आज भी बिना काम के सड़कों पर टहलती हुई नजर नहीं आती, उनके घूमने-टहलने और आने-जाने के लिए अभी भी विशेष जगहें और सुनियोजित आयोजन हैं। चौराहों से लेकर शहर की तमाम बैठकों तक पुरुषों का ही बैठना है, उन्हीं के राजनीतिक चर्चे हैं। देश, समाज और आपदा-विपदा उन्हीं की बहसों से शुरू होकर खत्म होती है, वह खत्म भी नही होती बल्कि उनकी समझदारी को विकसित करती है। महिलाएं इस पूरी प्रक्रिया से वंचित ही रहती हैं। राजनीति, देश, समाज और आपदा-विपदा के सबसे ज्यादा संकट महिलाओं को ही झेलने पड़ते हैं, पर यह उनके बहस का हिस्सा नहीं बन पाता, जैसे देश, राजनीति और विपदा उनकी हो ही न।
पार्कों से लेकर बैठकों तक नए स्थानों को विकसित किया जा रहा है, पर वहाँ एक सांस्कृतिक रुकावट है, सामाजिक भय है, जो इन स्थानों को महिलाओं का नहीं होने देता। वे संडे या किसी छुट्टी पर रिश्तेदारों और परिचितों के आने पर ही शहर का मुंह देख पाती हैं, उनके घूमने की भी एक सीमा निर्धारित होती है जो दिन के उजालों और सीमित घंटो व खास तरह की ‘सुरक्षित’ जगहों के दायरे में बनी होती हैं। रात का शहर उनके लिए भय का शहर है। दिन में भी ऐसा कम ही होता है कि कोई महिला बगैर किसी काम के घूमने निकलती हो। उन्हें स्कूल से बच्चों को लाते, ले जाते, दूध, सब्जी, घर के सामान लाते ही देखा जा सकता है। वे घर के भीतर और बाहर भी गृहणी होती हैं, उन्हें घूमने के लिए ऐसे तरीके खोजने होते हैं जिस काम में बाहर ज्यादा समय लग जाए और वे बाहर के दृश्य को देखते हुए लौट आएं, बाहर के समाज में शामिल होने की उनकी इच्छाएं इसी तरह पूरी होती हैं। शहर में उनका जाना सिनेमा देखने जैसा ही है क्योंकि शहर के भीतर सहजता से उनके खड़े होने की जगह ही नहीं है, वहां उन्हें घूरती हुई मर्दों की नजरें हैं जो खड़े होने का कारण पूछती हैं। जैसे उनकी सम्पत्ति के दायरे में कोई और दखल दे रहा हो। बेफिक्री से अकेले किसी महिला को थोड़ी देर के लिए सारी चीजों से मुक्त करके बाजार चौराहों पर तफरी करते देखना मुश्किल होता है, दोनों तरफ भय जैसा है, मुक्त होने के प्रयासों में एक महिला को लगातार हिंसा का भय बना रहता है। शादीशुदा महिलाएं सामूहिक जगहों के साझीदारी में इतनी बेचारी दिखती हैं कि उन्हें मंदिर और सत्संग वाले बाबा के कीर्तन भजन की मंडलियों में ही देखा जा सकता है, वे एक साथ बड़ी संख्या में जब कभी सड़क पर चलते हुए दिखेंगी तो वह कोई धार्मिक झांकी या कलश यात्रा जैसे आयोजन होंगे। धार्मिक आयोजनों में बाहर जाने के लिए उनका परिवार रोकने के बजाय उन्हें प्रोत्साहित ही करता है, क्योंकि धर्म उन्हें पुरुषवादी मर्यादाओं और नैतिकताओं से लैस करता है। इसके साथ ही घुटन भरे जीवन में वहां उन्हें आज़ादी, सामूहिकता का क्षण भर एहसास भी हो जाता है, उनकी दबाई गई इच्छाएं और सामूहिकता में जीना इन्हीं जगहों से थोड़े भर दिए जाते हैं, भीतर की दबी हुई अभिव्यक्तियां घर में फटें इसके पहले का यह इलाज है।
धार्मिक आयोजनों में महिलाओं की श्रोता के रूप में व्यापक भागीदारी इसी तरह से होती है, वहां वह समूह में बैठने की अपनी इच्छा और अपने आपको घर परिवार के कामों के अलावा अन्य कामों में लीन हो जाने की जरूरत को पूरा करती हैं, महिलायें इन आयोजनों में भगवान की भक्ति के नाम पर सामूहिक तौर पर गाने गाती हैं, नाचती हैं। यह उनके अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के मौके होते हैं, समाज इसे उनकी भक्ति मानता है, लेकिन इसका मानसिक आधार उनके बंद और ऊब्न से भरे जीवन का होना है। उनके पास अपने को अभिव्यक्त करने का कोई और विकल्प नहीं है, सामान्यतः महिलायें ऐसे ही बिना धार्मिक आयोजन के सामूहिक तौर पर नाच नहीं सकती है, ऐसा करने पर उनके लिए लांछनों से भरे फतवे है जो लगा दिए जाएंगे। यह एक अघोषित सी छूट और प्रतिबंध है जो अधिकांश महिलाओं के जीवन को संचालित करता है।
स्कूल कॉलेज जाने वाली युवतियों की स्थिति महिलाओं की अपेक्षा इस मायने में थोड़ी बेहतर कही जा सकती हैं कि उन्हें बाहर जाने के लिए उत्सवों, धार्मिक आयोजनों और खरीददारी के बहानों की जरूरत नहीं पडती, क्योंकि घर से बाहर जाना उनकी दिनचर्या का हिस्सा होता है। घर से स्कूल या कॉलेज जाने के बीच के समय में वह बसों, चौराहों, गलियों, कॉलेज कैंन्टीनों और क्लास रूम से गुजरती हैं, जो उन्हें सामूहिक जगहों से जोड़ता है, जहां वह घर से बाहर की दुनियां को महसूस कर पाती हैं। कई स्थानों पर पुरुष कब्जेदारी वहां भी हैं, डर वहां भी है, पर खासकर जब युवतियां कॉलेज में आती हैं तो वह पुरूषों की बनायी सामूहिक दुनियां में अपना हिस्सा भी तय करना चाहती हैं। वहां स्कूल से ज्यादा खुलापन और आजादी होती है, यह उन्हें सामूहिक जगहों में समय बिताने का मौका देती है, धीरे-धीरे वह इसके महत्व और इसकी चुनौतियों को भी समझने में समर्थ होती हैं। वहां से उनके लिए ऐसा दोराहा भी बना होता है, जहां से जिंदगी अलग-अलग अन्जाम पर पहुंच सकती है। एक रास्ता परम्परागत जिन्दगी का रास्ता है और दूसरा अपने अस्तित्व को ढूंढने का रास्ता, खतरे और रोमांच से भरा रास्ता, जहां सब कुछ उनको ही तय करना होता है, पुरूषों के कब्जेदारी की दुनियां पर अपना दावा पेश करने का साहस पैदा करना होता है। इस दूसरे रास्ते की चाबी ढूंढना अब भी कठिन है, क्योंकि हर युवती का रास्ता एक ही चाबी से नहीं खुलता इसलिए हर बार ताला खोलने का तरीका और चाबी का नम्बर अलग-अलग होता है।
पब्लिक स्पेस कई तालों की चाबी है। इस बात को इस तरह से समझा जा सकता है कि पब्लिक स्पेस का मतलब सिर्फ नुक्कड़ व दुकानों पर खाना-पीना ही नहीं होता है, यह तो बहाने होते हैं जिनसे कारण सधते हैं, यहां लोगों से मिलना-जुलना और संवाद होता है, जो आपको नये अनुभवों से समृद्ध करता है। करियर, दुनियादारी और परिवार के नियमों से बंधी जिन्दगी के बीच, यही वह जगह होती है जहां आप अपना क्वालिटी टाइम बिता रहे होते हैं। यह सकारात्मक ऊर्जा का निर्माण करता है और जीवन को तरोताजा बनाये रखता है। ऐसी जगहों पर देश, दुनियां, राजनीति पर सहमति और असहमति का मौका मिलता है, यही जगहें हैं जहां सभ्यता और दुनियां जहान के मौखिक इतिहास का पाठ चल रहा होता है जिस इतिहास और संस्मरण से जीवन का बखान भी लोग करते है। कथाओं और कल्पनाओं की दुनिया भी यहीं बनती है, यह ऐसी क्लास होती है जहां सभी जानकार होते हैं और जीवन के अन्य जगहों से ज्यादा स्पेस मुहैया हो पाता है। सिलेबस बस और कक्षाओं के अलावा यह समाज का वास्तविक अध्ययन होता है, लेकिन इसके दरवाजे युवतियों के लिए पूरी तरह से खुले नहीं हैं। नुक्कड़ पर, सड़क किनारे के ठेलों पर, उनका जाना और बैठना अभी ठीक से शुरू ही नहीं हुआ है। फिर ऊपर से घूरती नजरें उनका स्वागत करती हैं, यह उन्हें हर बार पब्लिक स्पेस में जाने से रोक देता है। शहर में ऐसी जगहें भी कम होती हैं जहां युवा-युवतियां इत्मिनान से बैठ सकें। रेस्टोरेंट, पार्क, सड़कें, कॉलेज सबमें विभाजन हैं, जहां महिलाओं के लिए स्थान सीमित होता जाता है।
देश के हर शहर में इस तरह का बंटवारा पाया जाता है। धर्म, जाति और वर्ग की ही तरह शहरों को लैंगिक आधार पर भी बांटा गया है। शहर के भूगोल का विभाजन प्राकृतिक होता है, लेकिन हमारी मानसिकता का भूगोल शहर के स्पेस को तय करता है। छोटा ही सही एक ऐसा समूह हर शहर में मौजूद होता है जो शहर की जगहों के बंटवारे को तोड़ता है, वह वर्जित जगहों पर जाना पसंद करता है, शहर को अपने विस्तार के तौर पर देखता है। समाज द्वारा किये गये बाकी बंटवारों की तरह वह लैंगिक बंटवारे की परवाह भी नहीं करता। एक वैकल्पिक राजनीति की तरह ही शहर में ऐसे समूह का दखल ही, शहरों में वैकल्पिक स्पेस का निर्माण करता है जो आने वाले समय के लिए एक उम्मीद की जगह बनाता है।
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