कीर्ति सुन्द्रियाल
ऐसे समाज जो शारीरिक, सामुदायिक व जीवन जीने के आधार पर अन्य भिन्नताएं रखते हैं, उनके लिए समाज में आज भी जगह बहुत कम है. अपनी पिछड़ी मानसिकताओं के कारण हम आज भी उन्हें स्वीकार नहीं कर पाए हैं. विज्ञान और रीप्रोडेक्टिव टैक्नोलॉजी के इस युग में जबकि लिंग तक भी को बदलना संभव हो गया है भारतीय समाज में अभी भी दो लिंगों (स्त्री-पुरुष) की ही स्वीकार्यता एक हद तक संभव बनती है. जबकि समाज में सामुदायिक व शारीरिक आधार पर विविधताएं मौजूद हैं. उभयलिंगी समाज या किन्नरों के लिए हमारी सोच आज भी कई पूर्वाग्रहों से भरी हुई है. वे हमारे समाज का हिस्सा है पर उनके साथ व्यापक स्तर पर भेदभाव और घृणा है. किन्नरों के प्रति समाज की इसी असंवेदशील रवय्यै के कारण यह तबका ऐसे कई अधिकारों से वंचित हैं जो मानव समुदाय का होने के कारण
उन्हें मिलना चाहिए. उनको ध्यान में रखकर सरकार न कोई नीति बनाती है, न ही मुख्यधारा का समाज उन्हें अपनाता है. समाज में किन्नरों को गाली के तौर पर प्रयोग किया जाता है क्योंकि उन्हें कमतर और हीन नजरिये से देखा जाता है. इस देश के मिथकों में शिव को अर्धनारीश्वर के रूप में पूजने वाले लोग वास्तविक दुनिया के इंसान किन्नरों को महत्वहीन
समझते हैं और अपमानित करते हैं. यह
भारतीय समाज का चरित्र है जो वास्तविकता को नकारते हुए प्रतीकों को महत्व देता है.
ऐसे कई समाज हैं जो अपने वास्तविक स्वरूप में अपमानित हैं और प्रतीकों में पूजनीय. लिंग वर्चस्व के आधार पर बटी इस दुनिया
में किन्नरों के स्थान बहुत पीछे छूट जाते हैं. आमतौर पर महिलाओं को हाशिये की सबसे अन्तिम इकाई माना जाता है. अगर ऐसा है तो हमें किन्नरों को हाशिये के किस स्तर पर देखना चाहिए? जिस तरह वह समाज में जगह नहीं पाता उसी तरह हमारे सामाजिक सिद्धान्तों में भी जगह नहीं पाता. किन्नर आम समाज के लिए बस कौतूहल का विषय होते हैं. उनके साथ जितनी अनदेखी और दुर्व्यवहार पुरुष करते हैं उतनी ही महिलायें भी. लिंग के वर्चस्व आधारित समाज में इनके ऊपर इन दोनों
के उतपीड़न हैं. शादियों, त्यौहारों, और उत्सवों में वे मनोरंजन के साधन
भर होते हैं. उन्हें देखकर लोग अपने-अपने ढंग से मनोरंजन करते हैं. अपनी दबी-ढ़की तथाकथित नैतिकता को वह उनके आने से उतार फेंकते हैं. जबकि लोगों के जीवन में रंगीनियत भरने वाले इन लोगों के लिए समाज का बर्ताव बहुत क्रूर होता है. समाज के इस तरह के व्यवहार के कारण इन लोगों का व्यवहार भी कई बार बेहद आक्रामक होता है. समाज की यही अस्वीकार्यता इनके लिए सामान्य रोजगारों
को छीन लेती है और अंततः अपने सेक्सुअलिटी को ही इन्हें अपने रोजगार का जरिया बनाना
होता है. इनके लिए मुख्यधारा के रोजगार व नौकरियों में कोई जगह नहीं बच पाती. अपने गाने-बजाने, तालियां पीटने और अश्लील हरकतों और इशारों से वे समाज की कुंठाओं को पूरा करते हैं. उनके मनोरंजन
के तरीके समाज की उस कुंठा को भी उजागर करते हैं जो प्रायः पुरुषों में महिलाओं के
प्रति भरी होती है. ज्यादातर पुरुषों की कुंठा पूर्ति ही इनका रोजगार बनती है. अपने
पैदा होने के साथ ही इनके लिए समाज में प्रतिभाओं को उभारने की संभावनाएं खत्म हो जाती
हैं. एक दुख भरी अंधेरी गलियों में उनकी सारी प्रतिभाएं और आकांक्षाएं खो जाती है. भारत में किन्नरों की संख्या 10 लाख के करीब बतायी जाती है. जबकि यह बस अनुमान है हो सकता है संभव है कि इनकी संख्या और भी ज्यादा हो. क्योंकि सरकार ने जनगणना में इन्हें अलग से शामिल करने की कभी जरूरत ही नहीं महसूस की. परन्तु इन उपेक्षाओं के आधार इनकी संख्या नहीं है बल्कि
इसके कारण अन्यत्र हैं. वे कारण हमारी उत्पादन के प्रति मानसिकताओं से जुड़े हैं. हमारे
समाज में जो उत्पादक नहीं है वह महत्वहीन है और अपमानित भी. ऐसी महिलाएं जो शारीरिक
कारणों से बच्चे नहीं पैदा कर पाती उन्हें बांझ कहकर इसी तरह अपमानित किया जाता है.
इस मानसिकता के विकास की जड़ें इतिहास में गहराई से जुड़ी हैं.
मानव समाज के आरम्भिक दौर में जब मानव जाति के लिए प्रजनन बहुत महत्व रखता था. किन्नरों के प्रति हमारे समाज के भेदभाव के बीज उसी सभ्यता की देन लगते हैं. लेकिन मानव का जीवन लगातार सुरक्षित होता गया. समाज और विज्ञान की प्रगति के साथ-साथ प्रजनन की तकीनीकों का विकास बड़े पैमाने पर हुआ है. अब इंसानों के अस्तित्व के खतरे से मानव समाज बहुत आगे चला आया है. बावजूद इसके पुनरुत्पादन में किन्नरों की भूमिका न होने की वजह से उन्हें अब भी नकारा जाना समाज की जड़ता को दिखाता है. किन्नर समाज जहां अपने शारीरिक कारणों
से अनुत्पादक है वहीं उसमे नृत्य और गायन जैसी कलाओं के उत्पादन की भरपूर संभावनाएं
भी बनती हैं. जबकि सामाजिक उपेक्षाओं के कारण ये संभावनाएं खत्म हो जाती हैं. यह उनके
लिए एक मजबूरी भरे रोजगार का महज जरिया भर बन पाता है. सामाजिक-राजनीति व्यवस्था अन्य उत्पादन में भी उन्हें कोई भूमिका निभाने नहीं दे रही है. किसी भी तरह की उत्पादन प्रक्रिया से काटने के लिए ही उन्हें पैदा होते ही समाज से अलग कर दिया जाता है यहीं से उनके सामाजिकीकरण भिन्न हो जाते हैं. समाज द्वारा उनका कोई हंस्तक्षेप सहन किया जाता है. जबकि वे सामाजिक जिम्मेदारियों से भी बाहर कर दिए
जाते हैं तो उनके कौशल का निर्माण भी संभव नही बनता. समाज में मौजूद होते हुए भी वे जन सामान्य की व्यवहारिक भूमिका में नही होते. उनके बारे में ताली पीटने से ज्यादा
की भूमिका को नहीं जाना जाता. किन्नरों के बारे में यह भी आमराय बन गयी है कि उनके पास बहुत पैसा होता है. वह भी बिना मेहनत के बस तालियां पीटने पर ही उन्हें मिल जाता है. जबकि सच्चाई कुछ और है किन्नरों के बीच काम करने वाले कार्यकर्ताओं का कहना है कि यह बेहद गरीबी और अमानवीय परिस्थिति में जिन्दगी बसर करते हैं. जिस कारण यह बडे पैमाने पर वैश्यावृति का काम करते हैं. इनका न कोई परिवार होता है न ही सम्पत्ति में कोई अधिकार. ऐसे में यह एक भिन्न रिश्तों को प्रदर्शित
करता हुआ समाज है. निजी रिश्ते जो कि पीढ़ीगत आधार पर बनते हैं यहां उसकी संभावनाएं
बहुत कम होती हैं. ऐसे समाजों में समानताएं ज्यादा होती हैं. क्योंकि जन्म आधारित परिवार
की संरचना से मुक्त हो जाते हैं. जन्म के आधार पर बनाई जाने वाली नैतिकताएं यहां नहीं
बन पाती. इसलिए यह एक ऐसा समुदाय बनता है जहां इन सत्ताओं की गैर मौजूदगी में समानता
का और पारंपरिक रिश्तों के बंधनों से भिन्न अपने चुनाव से रिश्ते बनते हैं. इस प्रक्रिया
में सामुदायिकता बढ़ जाती है और निजी सम्पत्ति को सहेजने की जरूरतें कम ही रहती हैं.
क्योंकि वहां निजी सम्पत्ति के वारिस पीढ़ी गत नहीं है. उनके बीच यथार्थ ज्यादा करीब
होता है जीवन की जरूरत को पूरा करने के लिए ही सम्पत्ति की जरूरत है. इसलिए इनके बीच
कोई भी सम्पत्ति ज्यादातर पूरे समाज की सम्पत्ति ही होती है. परन्तु उत्पादन से कटे रहने की वजह से इनके मुद्दों और जीवन को कभी महत्व नहीं दिया जाता न ही इनके समाज से सीखने के प्रयास होते हैं. समाज के अन्य हाशिये के तबकों की तरह ही इनका भी अपने अधिकारों के लिए लड़ना जारी है. जबकि सरकारी दस्तावेजों में इनके लिंग का निर्धारण ‘अन्य’
के रूप में ही हो पाया है. यह ‘अन्य’ स्त्री-पुरुष के बीच असामान्यता बोध को ही प्रकट
करता है.
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