प्रियंका शर्मा
भारत जैसे पितृसत्तात्मक देश में एक महिला के
तौर पर पली-बढ़ी होने के नाते,यहाँ की महिलाएं हमेशा ही यौनिक हिंसा के डर और असुरक्षा में
जीती हैं. यह डर घर के बाहर की दुनिया में सहभागिता और साझेदारी बनाने में महिलाओं
को हमेशा पीछे खींचता रहा है, फिर बाहरी दुनिया में यह भागीदारी चाहे किसी भी क्षेत्र और
किसी भी स्तर पर हो.इस डर का असर यहाँ तक भी होता है कि कि महिलाओं का घर से
निकलना भी मुश्किल हो जाता है. महिलाओं पर यौनिक हिंसा और उससे होने वाले
व्यक्तिगत, संस्थानिक और
सांस्कृतिक नुकसान को देखते हुए भारत सरकार ने इसे कानूनी रूप से दंडनीय अपराध
माना.इसीलिए आज हर सरकारी संस्थान में सेक्सुअल हिंसा की रोकथाम करने वाली कमेटी का
होना जरूरी कर दिया गया है.
भारतीय महिलाओं के जीवन में सेक्सुअल हिंसा ऐसा भाग
है जिसे आमतौर पर लगभगरोज ही झेलना होता है और कई बार तो बार-बार और इतने बड़े स्तर
पर होता है कि वे इसे अनदेखा करने लगती हैं,फिर वे अपना रास्ता और यहांतक कि लक्ष्य भी बदल
लेती हैं. मुझे आज भी याद पड़ता है कि जब कॉलेज के दिनों में जब छेड़छाड़ की किसी
घटना की रिपोर्ट घर पे करती तो घरवाले कॉलेज का रास्ता बदल लेनेको कहते और कुछ
गंभीर-से लगने वाले ममलों में दो-चार दिनोंतक कॉलेज न जाने को कहते.
शिक्षा के क्षेत्र में भी यौनिक हिंसा एक बहुत बड़ा
मुद्दा रहा है. स्कूल, कॉलेज से लेकर यूनिवर्सिटीज़
तक में लड़कियों और महिलाओं को यौनिक हिंसा के कई-कई रूपों का सामना करना पड़ता है. हालांकि
इस यौनिक हिंसा को रोकने के लिहाज़ से हर यूनिवर्सिटी में ‘एंटी सेक्सुअल हरैस्मेंट
सेल/कमेटी’ बनाई जाती हैं, जिनका काम यौन हिंसा के
मामलों पर तत्काल कार्यवाहीकर पीड़ित को मानसिक-सामजिक न्याय और राहत दिलाना होता
है.लेकिन अक्सर इन ‘एंटी सेक्सुअल हरैस्मेंट सेल’ और कमेटियों के सदस्यों की पितृसत्तात्मक मानसिकता और
जेंडर मामलों के प्रति असंवेदनशीलता,पीड़ित को न्याय देने के बजाए उसे बार-बार उत्पीड़ित
ही करते हैं.सदस्यों की इसी मानसिकता के चलते विश्वविद्यालयों में भी महिलाएं अपने
साथ होने वाली छेड़छाड़ की घटनाओं की शिकायत कम करा पाती हैं या फिर नहीं ही करा
पाती हैं. ये सदस्यजाने-अनजाने यौनिक हिंसा को सरेआम बढ़ावा देते रहते हैं.
अपने चार-साढ़े चार साल के यूनिवर्सिटी प्रवासों
के दौरान मुझे दो-चार बार ही ऐसे पीड़ितों से मिलने का मौका मिल पाया जिन्होंने अपने
खिलाफ हुईयौनिक हिंसा के मामलों के बारे में न्याय की आशा लिए शिकायत दर्ज़ करवाई
हो. जबकिविश्वविद्यालय की लड़कियों/महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न के कई-कई मामलेआमतौर
पर सुनने और देखने को मिल जाते हैं. हिंदी यूनिवर्सिटी,वर्धा के समाजकार्य विभाग
के2011-13 की एक छात्रा को यौन उत्पीड़न के लगभग तीन-चार महीने तक चलते रहे विचारार्थ
मामले में, विश्वविद्यालय एंटी
रैगिंग सेल के सद्स्यों के रवैये से उपजी मानसिक परेशानी ने उसे इतनानिराश किया
गया कि उसने अपने आगे की पढ़ाई किसी और जगह करने का निश्चय किया.मामले पर बातचीत के
दौरान उसनेकई बार कहा था किभविष्य में इस तरह की किसी मामले में न्याय पाने के लिए
उसे सोचना पड़ सकता है और हो सकता है कि वो ऐसे मामलों को चुपचाप सह जाए. उसकी निराशा
और बातों ने कुछ देर के लिए मुझे भी ऐसी सेल्स/ कमेटियों के प्रति निराश कर दिया
था.
मेरी उस निराशा को 22 सितम्बर (2013) रात लगभग
10:00-11:45 बजे तक चलेलगभग दो सौ छात्र-छात्राओं के जुलुस को संबोधित करती दो
लड़कियों नेउम्मीद और उर्जा में बदल दिया था. ये लड़कियां पॉन्डिचेरी यूनीवर्सिटी के
एम.ए. प्रोग्राम की नई आगंतुक थीं और इस जुलुस की वजह कैम्पस में एंटी सेक्सुअल
हरैस्मेंट और जेन्डर समानता की अपील थी.विश्वविद्यालय में सेस्क्सुअल हरैस्मेंट की
शिकार ये दोनों भी हो गईं थीं.फिज़िकल एजुकेशन विभाग के के.एस. श्रीजित जीतूने
इन लड़कियों की रैगिंग ली, अपशब्द कहे और अपने खिलाफ कोई भी शिकायत करने पर रेप करने की धमकी दी. लेकिन लड़कियां
साहसी निकलीं और उन्होंनेअपने दोस्तों के साथ मिलकर यूनिवर्सिटी प्राशसन में रैगिंग
की शिकायत दर्ज कराई.इससे बौखलाए जीतू ने अपने दोस्तों के साथ पीडित लड़कियों के
समर्थक मित्रों के साथ पारपीट की जिसमें मासकॉम डिपार्टमेंट का एक छात्र गंभीर
घायल हुआ. प्रशासन की ढ़ीली कार्यवाही और रवैया देखकर लड़कियों ने पारपीट की प्राथमिकी
पास के थाने में दर्ज कराई और अपने साथ हुए इस घटनाक्रम की खबर मीडिया को भी दी. जिसे‘द हिंदू’ और ‘टाईम्स ऑफ इंडिया’ ने छापा (देखें 24 सितं.
का ‘द हिंदू’).
मामले पर तत्काल कोई कार्यवाही न होने,प्रशासन के ढुलमुल रवैये,इस तरह के मामलों के दोहराब
से बचने और अपराधी कीसज़ा सुनिश्चित करने के नज़रिए से लड़कियों और उसके मित्रों ने रात
को कैम्पस रैली का आह्वान किया. रैली में लड़कियों के उत्पीड़न का मामला मुख्य था पर
रैली में शामिल लड़कियों ने प्रशासन की ओर से हो रहे जेंडर्ड व्यवहार को भी उठाया.
ये वो लड़कियां थीं जो खुद भी इसतरह के घटनाक्रम झेल रही थीं,विश्वविद्यालय के जेंडर्ड
रवैये से असंतुष्ट थीं,और बोलने का साहस कर रहीं थीं. जुलुस में ‘डाउन
विथ द सेक्सुअल हरैस्मेंट’,‘डाउन विथ द गुंडा राज’,‘मॉरल पुलिसिंग डाउन-डाउन’ और ‘वी वांट जस्टिस’ के नारे लगे.यौनिक हिंसा
के खिलाफ रैली में शामिल इन स्टुडेंट्स के प्रतिरोध को विश्वविद्यालय के बाहर की
दुनिया में भी दर्ज करने के लिए मीडिया भी बुलाई गई. इस रैली की उर्जा देखकर दोनों
पीड़ित लड़कियां बेहद खुश दिख रही थीं, उन्हें लग रहा था कि उनके साथ-साथ और दूसरी
तमाम लड़कियों के साथ होने वाले उत्पीड़न में कमी आएगी. उस रात हो सकता है वो और जुलुस
में शामिल हुए सब लोग शायद रोज़ से ज्यादा जागेहों न्याय की उम्मीदमें इतने लोगों
के शामिल होने की खुशी में.
लेकिन एक महिने बाद जब इस मामले को देख रही
कमेटी का 1 नवम्बर को फैसला आया तो उसने,उस रात जुलुस में शामिल लोगों की न्याय में
उम्मीदऔर विश्वास को ध्वस्त कर डाला. फैसले में यौनिक हिंसा के अपराधी सहित 7
लोगों को एक सेमेस्टर के लिए ससपेंड किया गया है. बाकी के 6लोगों में दोनों
उत्पीड़ित लड़कियां और उनके समर्थकशामिल हैं. फैसले में कहा गया है कि, “यह घटनाक्रम छात्रों के दो
ग्रुप्स के बीच की लड़ाई थी जिसमें दोनों ग्रुपने एक-दूसरे पर गाली-गलौज किया.
शिकायत करने वाली लड़कियों और उसके मित्रों ने विश्वविद्यालय की अनुमति के बिना, बाहरी चैनल्स और एजेंसीज़
के जरिए न्यायिक भरपाई करने की कोशिश करने से पहले,विश्वविद्यालय में उपलब्ध उपचार/न्यायिक
व्यवस्था का पूरी तरह उपयोग नहीं किया”.
पॉन्डिचेरी यूनिवर्सिटी प्रशासन ने पीड़ित
लड़कियों और उनके मित्रों के ससपेंड करने के कारण,पिछले30 सितंबर को गठित की गई ‘डिसिप्लिनैरी कमेटी’की रिपोर्ट को बनाया है.ये
एक नए किस्मका प्रशासनिक तर्क है;मुखर और किसी भी उपीड़न के खिलाफ आवाज उठाने वाले
विद्यार्थियोंके साहस और उर्जा को खत्म करने का.कायदे से इस मामले पर कार्यवाही ‘सेक्सुअल हरैस्मेंट कमेटी’ में होनी चाहिए थी, जैसा कि अपराधी जीतू ने
लड़कियों को बलात्कार की धमकी भी थी,पर यूनिवर्सिटी
प्रशासन में इसको सिर्फ रैगिंग का मुद्दा बनाकर देखा और विचार किया गया.और इसी का
परिणाम यह फैसला है.
इस
फैसले पर असंतुष्टि और विरोध दर्ज कराते हुए ‘ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक वीमेंस असोसिएशन’की तरफ से
सेक्रेट्ररी सुधा सुंदररमन ने भी यह कहा है और दोनो पीड़ित लड़कियों सहित दूसरे पांच
छात्रों का सपेंशन तुरंत रद्द करने की मांग की है. उन्होंनेयहभी कहा कि,“ऐसे फैसले कानूनके खिलाफ होते हैं जहाँ यौनिक हिंसा की शिकायत करने वाले
को ही पीड़ित किया जाता हो”. ‘ऑल इंडिया
डेमोक्रेटिक वीमेंस असोसिएशन’ के साथ ही ‘स्टूडेंट्सफेडरेशन ऑफ इंडिया’,‘डेमोक्रेटिक्स यूथ
फेडरेशनऑफ इंडिया’,‘ऑल इंडिया लॉयर्स यूनियन’ ने यूनिवर्सिटी के इस फैसले के खिलाफ अपना अपना विरोध दर्जकराया है.
यह
मामला सीधे तौर पर यौनिक हिंसा का है लेकिन अगर यह रैगिंग मान भी लिया जाए तो भी
लिया गया फैसला छात्रों के हक़ में नहीं आता. एस.एफ.आई. पॉन्डिचेरी के सेक्रेट्ररी ने भी इस फैसले
से होने वाले आगामी परिणामों के बारे में चिंता जताई कि,“यह
जानना बहुत दु:खद है कि रैगिंग की शिकायत के बाद फ्रैशर्स के लिए सुरक्षा का
वातावरण बनाने की बजाय यूनिवर्सिटी ने दो रैगिंग के पीड़ितों और उनके समर्थकों को
ही ससपेंड कर दिया. यह निर्णय आगे भविष्य में छात्र-छात्राओं को रैगिंग के खिलाफ
शिकायत करने से रोकेगा”.
आमतौर पर यौनिक उत्पीड़न करनेवाले अपराधी को
विश्वविद्यालय से निष्कासित कर देनेसे लेकर आजीवन किसी भी शैक्षणिक संस्थान में एडमिशन
न देने का प्रावधान होता है.लेकिन पॉन्डिचेरी यूनिवर्सिटी के इस फैसले में घोर
पितृसत्तत्मक और तानाशाही विचार झलकते हैं; जहाँ यौनिक हिंसा पीड़ित पक्षको ही दोषी और अन्याय
के खिलाफ अवाज बुलंद करने वालों को अपराधी माना जाता है.पीड़ित पक्ष के समर्थकों को
यूनिवर्सिटी प्रशासन की अनुमति लिए बगैर मिडिया और पुलिस को इंवॉल्व करने की बिनाह
पर सस्पेंड करना एक तरह का न्याय पाने की संवैधानिक आज़ादी को ताक पर देना है,क्योंकि न ही संविधान और न
ही यू.जी.सी. का ऐसा कोई
नियमनहीं हैं कि किसी यूनिवर्सिटी में प्रवेश लेने के बाद किसी भी मामले में न्याय
पाने के लिए छात्र-छात्राएं पुलिस,कोर्ट
या दूसरेवैकल्पिक संस्थाओं की ओर रुख नहीं कर सकते हैं.
यूनिवर्सिटी
फैसलेमें यह बात भी कही गई है कि बाकी पांच छात्रों के ससपेंशन का कारण कैम्पस में
बिना अनुमति ‘एंटी रैगिंग प्रोटेस्ट
मार्च’ऑर्गैनाईज़ किया जाना भी है.हालांकि यह मार्च एक पीसफुल
और विरोध दर्ज कराने के लिए किया गया मार्च था, जिसकी आजादी
भारतीय संविधान अपने नागरिकों को देता है.मार्च के कारण यूनिवर्सिटी में किसी तरह
का कोई नुकसान नहीं हुआ फिर भी इसको फैसले का आधार बनाया गया. ये आधार बनाया जाना दरअसलएक उदाहरण बनाता है कि
आगे कोई भी यूनिवर्सिटी प्रशासन से असंतुष्ट होकर उससे इतर दूसरे संस्थाओं में न्याय
पाने जाता है तो उसके साथ भी यह हो सकता है, औरउसे नहीं जाना चाहिए.
इस फैसले के कारण आजकल यूनिवर्सिटी में अजीब सी
दबीबातचीत होती रहती है इस मामले पर, फैसले के तर्कों और असंतुष्टी पर, लेकिन कैम्पस के अंदर कोई स्पष्ट
कुछ नहीं कहता.शायद यही इस फैसले का अंतर्निहित उद्देशय था कि आगे से हर कोई अपने
विचारों, असहमतियों और
असंतुष्टियों को मन में ही कहीं दबा कर रख ले.
एक साथ 6-7 लोगोंको
ससपेंड कर देने वालेऐसे फैसले एक दूरगामी परिणाम को ध्यान में रखकरलिए जाते हैं ताकि
विश्वविद्यालयप्रशासन और छात्र-छात्राओं की मुखर असहमतियों को डर भरी चुप्पियों में
बदल दिया जाए, ताकि दोनों के
द्वंद और संघर्ष को धीरे-धीरे शांत कर दिया जाए.
लेकिन जैसा होता आया है कि इंसाफ पसंद लोगों ने साहस
और उम्मीद का दामन अभी भी पकड़े रखा है. सेक्सुअल उत्पीड़न करनेवाले अपराधीछात्र के
अलावा शेष छात्रों के ससपेंशन को तत्काल रद्द करने की मांग को लेकर छात्र-छात्राएं
यूनिवर्सिटी गेट के सामने 5 सितम्बर से अनिश्चित भूख अनशन पर बैठे है और उनका साथ
देने देश के विभिन्न छात्र संगठन, वीमेंस असोशिएशन, लॉयर्स असोशिएशन से जुड़े लोग आ रहे हैं.अनशन पर
बैठे छात्रों के संघर्ष के जज़्बे परास्त न होने और मांगे पूरी होने की कामनामें कई
सुर और जुड़ रहे हैं.
very true illustration
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जवाब देंहटाएंvery true illustration
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जवाब देंहटाएंइस ओछी घटना और संघर्ष की जानकारी देश की ज़्यादा से ज़्यादा (लगभग हर) विश्वविद्यालय और शिक्षण संस्थानों तक पहुंचनी चाहिए......
जवाब देंहटाएंकम-से-कम इतना तो किया ही जा सकता है ......
मैं प्रयासरत हूं..