समीक्षक |
ऐसा है कि बेजोड़ 'कौन्फ़िडेंस' में तो हम सब रहते हैं. सबको लगता है कि हमारे सीन में आने से गर्मी बढ़ जाएगी, अब ये उतना ही भाजपा को लगता है, उतना ही कांग्रेस को, उतना ही 'आप' को और उतना ही 'बुलेट राजा' को भी. और गर्मी और तापमान है कि बढ़ता जा रहा है. अब ये तापमान बढने-बढ़ाने की ज़िम्मेदारी न अमेरिका स्वीकार रहा है न उसके जिगरी दोस्त. तो शुक्र है कि ऐसे ही भयानक जलवायविक परिवर्तनों के दौर में 'बुलेट राजा' आए हैं, जिन्होंने खुलेआम इसका ठिकरा कुबूल किया है कि हम आएंगे तो गर्मी बढ़ जाएगी. अब शायद आगे आने वाले जलवायु संबन्धित अंतराष्ट्रीय सेमिनारों में यह बहस थम जायेगी.
तो 'बुलेट राजा' की कहानी है, एक ब्राह्मण घर में पैदा हुए एक लंठ लड़के की, जिसे इस कुल में पैदा होने के सारे मतलब अच्छे से मालूम हैं, जो खुद को ब्राह्मण कुल का होने की वजह से पैदाइशी समझदार मानता है, जो अब तक 155 लड़कियों के भीतर जानवर जगा चुका है, (और महिलाओं की इज्जत करता है), जो चलाता तो तमंचा झन्नाटेदार है, पर आर्ट की महता को भी समझता है और अंत में एक जरूरी बात ये कि वह कहानी के शुरू में बेरोजगार है, पर तमंचा संभालने के बाद नहीं.
तो जाहिर है, ऐसे दिमाग के आदमी को अगर राजनीतिक 'सपोर्ट' मिल जाये और कहानी में उसी के तेवर के आसपास का अगर उसका एक जिगरी दोस्त हो तो वो आग तो मूतेगा ही, और फिर गर्मी भी बढ़ेगी. पहले गलती से अपराध, फिर मजबूरी में, फिर राजनीतिक जरूरतों के लिए और अंत में व्यक्तिगत बदले के लिए. अपराध जगत पर बनी फिल्मों में इस किस्म की कहानियों की एक लंबी फेहरिस्त है. 'हीरोइन जो हीरो को देखते ही उस पर मर मिटती है और जिसका काम कहानी में केवल इठलाना और गाना गाने के लिए प्रस्तुत होना होता है' उसका या उसके परिवार का इस कहानी में अपहरण तो नहीं होता, पर हीरो का जिगरी दोस्त बीच में जरूर हीरोइन को बचाते हुये मर जाता है, फिर इसके बाद श्मशान में अर्जुन टाइप शपथ खाना भी बनता है और 21वीं सदी है तो हालत के मद्देनजर शपथ को थोड़ा 'एडजस्ट' करना भी. बाद में राजनीतिक समीकरणों का बनना-बिगड़ना स्वाभाविक तरीके से चलता है और अंत में 'गौडफादर' का हाथ खींच लेने के बाद उसके साज़िशों का अंत कर हाथ और कपड़े झाड़ते हुए सकुशल निकल जाना भी. अब जब सब निपट गया तो बाहर मुस्कुराती, बाँहें फैलाये हीरोइन खड़ी ही है, तब तक, जब तक पर्दे पर टेक्स्ट लिखाने-पढ़ाने न शुरू हो जाएँ.
अब अगर कोई लापरवाह सिनेमा प्रेमी, जो तिग्मांशु धूलिया के फिल्म व्याकरण को अच्छे से जानता हो, पर इस फिल्म के बारे में जानने से रह गया हो (मान लीजिये न, कुछ दिनों के लिए भूमिगत हो गया था), 'बुलेट राजा' देखता है और पूछता है, किसकी फिल्म थी, आप उसे 'सहर' वाले कबीर कौशिक का नाम बता देते हैं या 'अपहरण' वाले प्रकाश झा का या विशाल भारद्वाज या अपने गली के किसी लौंडे का ही, तो तय जानिए वो लंबी गर्दन वाले किसी मुर्गे की माफिक हौले से सिर हिला के 'अच्छा' कह कर हामी दे देगा और सवाल नहीं करेगा. ( हाँ, पर ध्यान रहे अनुराग कश्यप का नाम मत ले लीजिएगा, उनके यहाँ 'डिटेलिंग' बहुत होती है. वहाँ बाप के मरने की खबर सुनकर बेटा बदहवास भागता तो है, पर चट्टी पहिनने वापस आता है).
2012 में अनुराग कश्यप की देखरेख में समीर शर्मा की एक फिल्म आयी थी 'लव शव ते चिकन खुराना', उसमें प्रसिद्ध चिकन खुराना की रेसिपी जानने के लिए प्रतिद्वंदी ढाबे का मालिक लाला जब कई तिकड़मों के बाद इसके एवज में एक करोड़ रुपए तक की पेशकश भी खुशी से करता है तो नायक लाला को रेसिपी की जगह एक मुफ्त का नुस्खा देते हुए कहता है, '' जिस बंदे का चिकन खाके पूरी दुनिया उँगलियाँ चाट जाती थीं, उसे चस्का था आप की दाल मखनी का. लेकिन पैसा आते ही आपकी सब्जी में से स्वाद गायब हो गया, प्यार गायब हो गया.''
बस यही बात कहनी थी, अपनी जो विशेषता है, जिसमें महारत है, जिस बात के लिए दुनिया आपके हाथों का बोसा लेती है, उस पर यकीन बनाए रखिए बस, बाकी रविश जी वाला, बात जो है सो तो हइए है.
(अब जाते-जाते एक मजेदार प्रसंग, लड़का यूपी का ब्राह्मण है, लड़की बंगालन. शादी के लिए बाप राजी नहीं है, लड़की उम्मीद से भरकर अपने चाचा को कहती है,''आप तो कम्यूनिस्ट हैं, आप कुछ बोलिए.'' चाचा का त्वरित जवाब,'' कम्यूनिस्ट कम्यूनिस्ट होता है, परिवार परिवार.'' )
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