30 नवंबर 2013

ग़ैर-ज़िम्मेदारी के खोल में समाया ओपनियन पोल : पाबंदी क्यों न हो!

                                                   -दिलीप ख़ान
 
                                         (मूलत: समयांतर में प्रकाशित)

ओपिनियन पोल यानी जनमत सर्वेक्षण का मामला मीडिया और इसे जारी करने वाली संस्थाओं से ज़्यादा हाल के दिनों में राजनीतिक गलियारों में चर्चा के केंद्र में रहा। चुनाव आयोग ने जनमत सर्वेक्षण की वैधता पर सवाल उठाते हुए केंद्र सरकार को एक बार फिर यह प्रस्ताव भेजा कि चुनाव की अधिसूचना जारी होने के बाद से इस पर पाबंदी लगा दी जाए। आयोग का मानना है कि जनमत सर्वेक्षण के चलते निष्पक्ष चुनाव की संकल्पना प्रभावित हो रही है और कई बार ऐसे सर्वेक्षण किन्हीं ख़ास हितों को साधने का जरिया बन जा रहे हैं। सरकार की तरफ़ से क़ानून मंत्रालय ने प्रस्ताव को एटॉर्नी जनरल जी ई वाहनवती के पास सलाह-मशविरा की खातिर भेज दिया और वाहनवती ने जब इस पर सहमति जता दी तो केंद्र सरकार के लिए चुनाव की इस घड़ी में फ़ैसला लेना मुश्किल हो गया।
पांच राज्यों में मिज़ोरम हालांकि नहीं दिखता!!

सरकार में शामिल सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस ने बरास्ते केंद्र सरकार ऐसे किसी भी फ़ैसले को टालने के लिहाज से प्रस्ताव वापस चुनाव आयोग के पास भेज दिया कि जब तक पूरे मसले पर सर्वदलीय राय नहीं ली जाती तब तक सरकार किसी ठोस फ़ैसले तक पहुंचने की जल्दबाज़ी में नहीं पड़ना चाहती। चुनाव आयोग ने इसके बाद 21 अक्टूबर को देश की 60 से ज़्यादा मान्यता प्राप्त सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों से इस पर राय मांगने के लिए ख़त लिखा।  इसके बाद राजनीतिक पार्टियों में सुगबुगाहट तेज हो गई और वाहनवती की सहमति के बाद पार्टियों के भीतर जो गुफ़्तगू की शक्ल में बातचीत होती थी वो अब प्रेस कांफ्रेंस में तब्दील हो गईं। ज़्यादातर पार्टियों का ये सुर है कि जनमत सर्वेक्षण की वैधता को या तो साबित करने की ज़िम्मेदारी संबंधित एजेंसियां/टीवी चैनल लें या फिर एक ख़ास अंतराल के लिए इस पर सचमुच पाबंदी लगा दी जाए।

केंद्र सरकार जिस फ़ैसले में हिचकिचाहट दिखा रही थी, उसी बात को राय के तौर पर सत्तारूढ़ कांग्रेस ने खुलकर सार्वजनिक किया। कांग्रेस ने चुनाव आयोग के प्रस्ताव का समर्थन किया और पार्टी के कई नेताओं ने ओपिनियन पोल की वैधता पर सवाल उठाए। ख़ासकर दिग्विजय सिंह और कपिल सिब्बल ने ये कहा कि जनमत सर्वेक्षण की पद्धति वैज्ञानिक नहीं होती और कई दफ़ा पैसे के बल पर ऐसे सर्वेक्षण जारी कर दिए जाते हैं। कांग्रेस के इस बयान के बाद राजनीतिक पारा तेजी से ऊपर चढ़ा और भाजपा के कई नेताओं ने ये बयान देना शुरू कर दिया कि अगले साल होने वाले लोक सभा चुनाव और फ़िलहाल पांच राज्यों (छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, मिज़ोरम, राजस्थान और दिल्ली) में हो रहे विधान सभा चुनावों में चूंकि कांग्रेस को पिछड़ते हुए दिखाया गया है इसलिए कांग्रेस इससे नाराज है और जनमत सर्वेक्षण पर पाबंदी चाहती है। राज्य सभा में प्रतिपक्ष के नेता अरुण जेटली सहित कई नेताओं ने इसे संविधान की धारा 19(1) में प्रदत्त अभिव्यक्ति के अधिकार का उल्लंघन क़रार देते हुए कहा कि जनमत सर्वेक्षण लोकतंत्र की नब्ज टटोलने का जरिया है, लिहाजा किसी भी सूरत में इस पर पाबंदी उचित नहीं है।
 
बसपा और माकपा सहित जद(यू) ने जनमत सर्वेक्षण पर या तो ज़िम्मेदारी तय करने की बात कही या फिर सीमित समय के लिए पाबंदी लगाने के पक्ष में सहमति जाहिर की। भाजपा इकलौती प्रमुख पार्टी है जिसने खुलकर चुनाव आयोग के इस प्रस्ताव का विरोध किया। पूरे प्रसंग पर तीन-चार सवाल हैं। पहला, क्या भाजपा सचमुच अभिव्यक्ति की आज़ादी की पैरोकार है? दूसरा, क्या जनमत सर्वेक्षण आगामी चुनाव परिणाम की सटीक भविष्यवाणी कर पाने में अब तक सक्षम रहे हैं? तीसरा, क्या जनमत सर्वेक्षण पर पाबंदी लगा देने से चुनाव प्रक्रिया वाकई ज़्यादा निष्पक्ष बन जाएगी? और चौथा, क्या कांग्रेस सर्वेक्षण में पिछड़ने से उपजी हताशा के चलते चुनाव आयोग के साथ समान राय के मंच पर खड़ी हो गई?

ओपिनियन पोल और एक्ज़िट पोल पर मौजूदा व्यवस्था के तहत मतदान ख़त्म होने से 48 घंटे पहले से ओपिनियन पोल प्रसारित करने पर पाबंदी है। जनप्रतिनिधित्व क़ानून 1951 की धारा 126(1)(बी) के तहत इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, सिनेमैटोग्राफ़ या ऐसे ही किसी भी माध्यम द्वारा किसी उम्मीदवार की सार्वजनिक सभा और रैली इत्यादि दिखाया जाना प्रतिबंधित है। जीत-हार के बारे में बताने पर भी पाबंदी है, लेकिन प्रिंट मीडिया को इससे अब तक मुक्त रखा गया है। ये सारे नियम-क़ायदे टीवी चैनलों पर प्रसारित ओपिनियन पोल पर लगाम कसने के लिहाज से चुनाव आयोग ने बनाए। इसी तरह एक चरण में हो रहे चुनाव में एक्ज़िट पोल पर कोई पाबंदी नहीं है लेकिन अगर एक से अधिक चरण में किसी राज्य में चुनाव हो रहे हों या फिर एक साथ कई राज्यों में चुनाव हो रहे हों तो अंतिम मतदान होने तक एक्ज़िट पोल नहीं दिखाया जा सकता। चुनाव आयोग का मानना है कि इससे आगे के नतीजे प्रभावित होते हैं। मसलन, अगर एक राज्य में 1 तारीख़ को चुनाव हो रहे हों और दूसरे राज्य में 10 तारीख़ को, तो 10 तारीख़ को होने वाले मतदान के बाद ही कोई टीवी चैनल दोनों राज्यों का एक्ज़िट पोल दिखा सकता है।

लेकिन ओपिनियन पोल पर छिड़ी नई बहस में पहल के स्तर पर कुछ भी नया नहीं है। आयोग ने इस बारे में कोई पहली मर्तबा कदम नहीं उठाया है बल्कि निजी टीवी चैनलों के प्रभावशाली बनने के बाद से ही इस पर आयोग सतर्कता दिखाता रहा है। चुनाव आयोग ने 1998 में ओपनियन पोल पर दिशा-निर्देश जारी किया था, जिसको उच्चतम न्यायलय ने अनुचित करार दिया और कहा कि आयोग के पास ऐसी कोई शक्ति नहीं है कि वो इन नियमों को लागू करा सके। इसके बाद बड़े स्तर पर पहली बार साल 2004 में जनमत सर्वेक्षण के मसले पर सर्वदलीय बैठक हुई और उस बैठक में भाजपा सहित तकरीबन सारी पार्टियों ने इस पर सहमति जताई थी कि चुनाव की अधिसूचना जारी होने के बाद से ओपिनियन पोल पर पाबंदी लगा दी जानी चाहिए। 4 अप्रैल 2004 को तत्कालीन क़ानून मंत्री अरुण जेटली ने जनमत सर्वेक्षण को बंद करने की बात सार्वजनिक तौर पर कही थी। लेकिन 9 साल बाद 2013 में अरुण जेटली 'अभिव्यक्ति की आज़ादी' का हवाला देने के साथ-साथ ये भी कह रहे हैं कि यह संदेशवाहक पर चाबुक मारने जैसा कदम होगा! इस चाबुक मारने के तर्क को बेहद मामूली विस्तार देते हुए देखे तो साफ़ पता चलता है कि जनमत सर्वेक्षणों के झुकाव और उससे पड़ने वाले प्रभाव के आयतन के मुताबिक़ राजनीतिक पार्टियां अपनी राय बना-बिगाड़ या बदल रही हैं।

दस साल पहले भाजपा की अगुवाई वाला गठबंधन राजग सत्ता में था और देश के ज़्यादातर जनमत सर्वेक्षणों में ऐसी भविष्यवाणी की जा रही थी कि राजग वापस सत्ता संभालेगा। कांग्रेस के लिए स्थिति प्रतिकूल थी, लेकिन नतीजा उलट हुआ। कांग्रेस बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी और संप्रग सरकार बनी। उस वक़्त भाजपा के लिए जनमत सर्वेक्षण को रोकना, न रोकना बहुत मायने नहीं रखता था क्योंकि वह आश्वस्त थी कि सत्ता वापस मिलनी है, लिहाजा चुनाव आयोग के आग्रह और बाकी राजनीतिक पार्टियों के रुझान को देखते हुए भाजपा ने भी उस वक़्त पाबंदी के पक्ष में सहमति जाहिर कर दी थी। लेकिन, 9-10 साल में मंजर काफी बदर चुके हैं और फ़िलवक़्त भाजपा अपने प्रचार तंत्र को मज़बूत बनाने को लेकर बेहद संजीदा है। पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी द्वारा प्रचारित कई चीज़ें झूठी भी साबित हो चुकी है, लेकिन भाजपा न सिर्फ़ प्रचार बल्कि जनता के बीच अपनी छवि को बेहद आक्रामकता के साथ इस बार पेश करने की तैयारी में है। ऐसे में, अगर जनमत सर्वेक्षण उसके पक्ष में आ रहे हैं तो उसकी हवा रोकने के पक्ष में ख़ुद कैसे खड़ा हो सकती है?

कांग्रेस की स्थिति जनमत सर्वेक्षण के बाज़ार में उतरी कंपनियों के बीच बेहतर नहीं है। लिहाजा कांग्रेस अगर चुनाव आयोग के पक्ष में खड़ी होती है तो उसके लिए कतई घाटे का सौदा नहीं है। संक्षेप में अगर देश में ओपिनियन पोल के चलन पर नज़र दौड़ाए तो पहली बार संभवत: 1957 में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ पब्लिक ओपिनियन (आईआईपीओ) ने चुनाव के लिए जनमत सर्वेक्षण किया था और 1963 से सीएसडीएस ये काम कर रहा है। लेकिन, पिछले डेढ़ दशक में इस क्षेत्र में कई एजेंसियां दाख़िल हुई हैं जो टीवी चैनलों के साथ मिलकर काफ़ी बड़े जनमानस को प्रभावित करने में सक्षम हैं। इनमें से कुछ एजेंसियों से जुड़े लोगों का किसी ख़ास राजनीतिक पार्टियों के साथ बेहद क़रीबी संबंध हैं। सर्वे एजेंसी सी-वोटर के संस्थापक यशवंत देशमुख के लिए भाजपा घर की पार्टी है। वो चंडिकादास अमृतराव देशमुख उर्फ़ नानाजी देशमुख के बेटे हैं। नानाजी देशमुख राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भारतीय जनसंघ और भाजपा के तेजतर्रार नेता रहे हैं।
 
सी-वोटर अलग-अलग टीवी चैनलों के साथ गठजोड़ करके ओपिनियन और एक्ज़िट पोल प्रसारित करती है। अभी पांच राज्यों में हो रहे चुनाव में से चार के लिए सी-वोटर ने जो आंकड़े जाहिर किए हैं उनमें चारों राज्यों में बीजेपी (मध्यप्रदेश-130, छत्तीसगढ़-47, राजस्थान-97, दिल्ली-28) सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर हमारे सामने है। विपक्षी पार्टियां ये बात जानती हैं, लेकिन उनके पास कोई रास्ता नहीं है कि सी-वोटर को अपनी राय जाहिर करने से रोक ले। एक बार आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने यशवंत देशमुख को 'संघ का आदमी' बताया था।

सर्वे जाहिर करने वाली बड़ी कंपनी ए सी नील्सन पर छेड़छाड़ के कई आरोप लग चुके हैं। टेलीविज़न रेटिंग्स प्वाइंट यानी टीआरपी को ख़ास हित के लिए छेड़-छाड़ करने के आरोप के साथ एनडीटीवी ने न्यूयॉर्क की अदालत में इस कंपनी पर मुक़दमा दायर किया था। पूरे मामले को अभी लगभग साल भर हुए हैं। ऐसे में इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि नील्सन के भीतर टीआरपी वाले अंदाज में चुनाव सर्वेक्षण भी हमारे बीच पेश करे की कोशिश की जाती रही हो। ए सी नील्सन अमूमन स्टार न्यूज़ (अब एबीपी न्यूज़) के लिए सर्वेक्षण करती है और ऐसे कई चुनाव हैं जब नील्सन के आंकड़े सिरे से धराशाई हो गए। ताज़ा उदाहरण पिछले साल हुए विधान सभा चुनावों के हैं। उत्तराखंड से लेकर कई जगह इस कंपनी के नतीजे और वास्तविक नतीजे में साफ़ अंतर देखा गया।
 
उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव तो ख़ैर पिछले दो-तीन बार से सभी सर्वे कंपनियों के लिए पाठशाला का काम कर रहा है जिसमें पांच साल बाद होने वाली परीक्षा में ज़्यादातर एजेंसियां अनुतीर्ण हो जाया करती हैं। 2007 में मायावती की भारी जीत सर्वे एजेंसियों के मुंह पर तमाचा की माफ़िक थी। लेकिन, 2012 के चुनाव में जबकि समाजवादी पार्टी के पक्ष में एक माहौल रिपोर्टिंग में भी झलक रहा था फिर भी ज़मीन पर सर्वे करने के बावज़ूद एजेंसियों ने सीट के आकलन में बड़े अंतर से मात खाईं। मिसाल के लिए सर्वे के बाद न्यूज 24 ने समाजवादी पार्टी को 127 और स्टार (एबीपी) न्यूज़ ने 135 सीटें दी थीं जोकि वास्तविक 224 से बहुत कम थीं। अगर हम उदारहण में जाएं तो ऐसे बीसों मामले पिछले 4-5 साल में ही मिल जाएंगे।

कई लोगों ने ये सवाल उठाया है कि कंपनियां ज़मीन पर उतरकर सर्वे नहीं करती और कई दफ़ा सैंपल (नमूना) चुनने में भी वैज्ञानिक तरीके अख़्तियार नहीं करती। जाहिर है ऐसे में हासिल होने वाले नतीजे सच्चाई से दूर होंगे। सर्वे की वैधानिकता, हासिल की गई जानकारियों में वस्तुनिष्ठता को सुनिश्चित करने वाली कोई एजेंसी देश में नहीं है। ऐसे में सर्वे के नाम पर कोई भी व्यक्ति या एजेंसी कुछ भी दिखाने के लिए स्वतंत्र है क्योंकि संविधान ने धारा 19(1) के तहत उसे मौलिक अधिकार दे रखा है। चर्चित चुनाव विश्लेषक और सीएसडीएस से जुड़े योगेन्द्र यादव का आम आदमी पार्टी के साथ जुड़ जाना कोई पहला मामला नहीं है। इससे पहले जी वी एल नरसिम्हा राव भी चुनाव विश्लेषक (सेफोलॉजिस्ट) होते-होते भाजपा में शामिल हो गए। तटस्थ विश्लेषकों के नाम पर कांग्रेस का पास भी वक्ताओं, पत्रकारों और विश्लेषकों की पूरी फ़ौज हैं जो दरअसल पार्टी के पक्ष में किसी प्रवक्ता के माफ़िक ही उतर आते हैं।
योगेन्द्र यादव अब तक की विश्वसनीयता को चुनाव में इस्तेमाल कर रहे हैं। 
 
'आप' में शामिल होने के बाद दिल्ली के लिए जाहिर किए गए जनमत सर्वेक्षण में योगेन्द्र यादव ने जिस तरह पार्टी को स्पष्ट बहुमत का ऐलान किया उसकी सच्चाई तो 8 दिसंबर को परिणाम घोषित होने के साथ ही खुलेगी, लेकिन एफ़एम रेडियो से लेकर ऑटो रिक्शा के पीछे छपे बैनर तक में जिस तरह आम आदमी पार्टी ने उस सर्वे को आधार बनाते हुए चुनाव प्रचार किया वो साफ दर्शाता है कि ओपिनियन पोल को किस तरह राजनीतिक पार्टियां अपने पक्ष में हवा बनाने के लिए इस्तेमाल कर रही है। बाद के दिनों में तो योगेन्द्र यादव खुद ही अपने चुनाव सर्वेक्षण का हवाला देते हुए एफ़एम पर जनता से वोट मांगने लगे।

ओपिनियन पोल के ग़लत साबित होने के बाद सबसे आसान तर्क एजेंसियों और इनसे जुड़े लोगों के पास ये होता है कि दरअसल ये चुनाव से पहले उस ख़ास वक्त (एक महीना या दो महीने पहले) में लोगों के रुझान को दिखाता है, इसलिए चुनाव आते-आते इसमें बदलाव हो गया! जाहिर है बचने के नाम पर ऐसे हज़ार तर्क विकसित किए जा सकते हैं, लेकिन ये साफ़ है कि पिछले कुछ वर्षों में जनमत सर्वेक्षण सटीक होने के मुक़बाले ज़्यादातर मौकों पर ग़लत साबित हुए हैं, लिहाजा चुनाव आयोग द्वारा इस पर चिंता जाहिर करना स्वाभाविक है। आयोग के प्रस्ताव को एक तबके ने इस तरह प्रचारित किया गोया वो हमेशा के लिए जनमत सर्वेक्षण पर पाबंदी लगाने की बात कहता हो और अगर प्रस्ताव मान लिया गया तो टीवी चैनलों पर हार-जीत की भविष्यवाणियों का रोचक खेल ही बंद हो जाएगा! हालांकि सच्चाई ऐसी है नहीं। चुनाव आयोग के पास ये शक्ति न तो है और न ही होनी चाहिए कि वो टीवी चैनलों पर पूरे साल चलने वाली सामग्रियों पर चाबुक चलाए। आयोग सिर्फ़ ये चाहता है कि चुनाव की अधिसूचना जारी होने के बाद ओपनियन पोल पर पाबंदी लगे।
 
जाहिर है आदर्श आचार संहिता लागू होने के बाद राजनीतिक पार्टियों पर भी कई अंकुश लग जाते हैं। ऐसे में अगर टीवी चैनलों तक चुनाव आयोग की भूमिका पसर रही है तो इसके लिए राजनीतिक पार्टियां और मीडिया का बड़ा हिस्सा ख़ुद ज़िम्मेदार हैं क्योंकि पेड न्यूज़ के तौर पर मीडिया और पार्टियों के बीच जिस तरह का गठजोड़ विकसित हुआ है उसके बाद आयोग अगर कुछ न करें तो चुनाव प्रचार का आधा हिस्सा ज़मीन से उठकर मीडिया के रास्ते लोगों तक पहुंचेगा। फ़िलहाल, पांच राज्यों में हो रहे चुनाव के ख़त्म होने के बाद अगर आगामी लोकसभा चुनाव से पहले तक कोई सहमति ओपिनियन पोल को लेकर बन पाई तो आयोग के लिए यह बड़ी सफ़लता होगी।
 

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