28 जनवरी 2013

धुले: 'दंगा' नहीं, राज्य द्वारा मुसलमानों का एक और निर्मम कत्लेआम



महाराष्ट्र के धुले में पुलिस द्वारा 6 मुसलमानों की हत्या और मुस्लिम संपत्ति की लूटपाट-आगजनी को हमेशा की तरह दंगा बता दिया गया और प्रचारित किया गया कि पुलिस ने दखल देकर एक बड़ी सांप्रदायिक तबाही को होने से बचा लिया. लेकिन हकीकत कुछ और ही थी, जिसे डेमोक्रेटिक स्टूडेंट्स यूनियन (डीएसयू) की फैक्ट फाइंडिंग टीम की इस आरंभिक रिपोर्ट से जाना जा सकता है. इस टीम के सदस्य थे: अजरम, प्रतीक, रुबीना, श्रिया, उमर (सभी DSU, JNU) और कुंदन (DSU, DU).

धुले 7 और 8 जनवरी को सुर्खियों में आया, जिनमें कहा गया कि होटल के बिल के भुगतान को लेकर हिंदुओं और मुसलमानों के बीच झगड़े के बाद इस इलाके में सांप्रदायिक हिंसा भड़क उठा. झगड़े पर कार्रवाई करते हुए पुलिस को ‘कानून व्यवस्था दोबारा कायम करने के लिए फायरिंग का सहारा लेना पड़ा’ क्योंकि हालात ‘काबू से बाहर’ जा रहे थे. हालांकि बाद की रिपोर्टों से कुछ दूसरी ही तस्वीर सामने आई. मामले की और आगे पड़ताल करने और यह देखने के लिए कि पुलिस की फायरिंग के पहले और उसके बाद क्या हुआ था, DSU की एक 6 सदस्यीय टीम ने 19 और 20 जनवरी को धुले का दौरा किया. इसमें JNU और DU के छात्र शामिल थे. स्थानीय लोगों से बात करने के बाद यह साफ हो गया कि इस घटना को ‘सांप्रदायिक दंगा’ नहीं कहा जा सकता है. स्थानीय लोगों से हुई हमारी बातचीत से यह साफ जाहिर होता है कि यह भारतीय राज्य द्वारा मुसलमानों का एक और कत्लेआम था जो राजस्थान और उत्तर प्रदेश में हुए हाल मंध ऐसे ही कत्लेआमों से काफी मिलता-जुलता है. यह घटना दिखाती है कि राज्य मशीनरी पूरी तरह सांप्रदायिक है, जिसने साथ में मुस्लिम समुदाय के व्यवस्थित उत्पीड़न पर टिके एक परजीवी वर्ग को मजबूत किया है. धुले में स्थानीय लोगों ने हमें बताया कि कैसे पिछले कुछ बरसों में एक माफिया वर्ग उभरा है, जिसका केरोसिन जैसी जरूरी चीजों पर एकाधिकार है और यह शराब और नशीली चीजों की दुकानें चलाता है. उनका नजदीकी रिश्ता पुलिस और प्रशासन से है, जिसने मुस्लिमों पर हमले में अग्रणी भूमिका निभाई है. अधिकतर संसाधनों पर काबिज इन प्रभावशाली तबकों में, जिनसे मिल कर कथित सिविल सोसाइटी बनता है, यह भावना है कि पुलिस की कार्रवाई ‘प्रशंसनीय’ थी. 6 जनवरी को हुई घटना को एक तरतीब में रखने के साथ साथ हमने इस घटना को उस प्रक्रिया के संदर्भ में भी समझने की कोशिश की है, जो मुसलमानों को पूरी तरह हाशिए पर धकेल देने की वजह बनी है.

अंधाधुंध फायरिंग की गई या चुन चुन कर गोली मारी गई? पुलिस उस झगड़े के बहाने अपनी गोलीबारी को जायज ठहरा रही है, जो एक रेस्टोरेंट बिल के भुगतान की वजह से हुआ था. यही बात कॉरपोरेट मीडिया भी बता रहा है. लेकिन स्थानीय लोगों से बातचीत के क्रम में यह साफ हो गया कि पुलिस फायरिंग को झगड़े से किसी भी तरह नहीं जोड़ा जा सकता है. स्थानीय लोगों का कहना है कि झगड़ा इतना मामूली था कि इसे 10 मिनटों में काबू में किया जा सकता था. लेकिन पुलिस, जो गर्व से यह कहती है कि वो पहले हिंदू है, मानो पिछले कुछ वर्षों से मुसलमानों को निशाना बनाने के मौके की तलाश में थी. खास कर 2008 में इलाके में हुए दंगों के बाद से. स्थानीय लोगों ने इसका उल्लेख किया कि कैसे 2008 के दंगों के बाद महाराष्ट्र के गृहमंत्री आर.आर. पाटिल ने धुले में सरेआम यह एलान किया था कि मुसलमानों के पत्थर का जवाब हिंदुओं को गोली से देना चाहिए. तब से ही पुलिस सबक सिखाने की खुलेआम धमकियां दे रही थी. 6 जनवरी को, झगड़े के बहाने पुलिस ने 10 मिनटों के भीतर ही फायरिंग शुरू कर दी. पुलिस द्वारा 200 राउंड से ज्यादा गोलियां चलाई गईं. जिन स्थानीय लोगों से हमने बात की, उन सबने ही पुलिस फायरिंग के एकतरफापन के बारे में बताया. जहां तक मुसलमानों द्वारा पथराव करने की बात है, जिसके बारे में पुलिस और मीडिया का एक हिस्सा बोल रहा है, यह पथराव तभी शुरू हुआ जब हिंदू भीड़ ने पुलिस की मदद से और उसके उकसाने पर घरों को जलाना शुरू किया. बड़ी संख्या में एसिड बमों और दस्ती बमों का इस्तेमाल दिखाता है कि यकीनन इन हमलों के लिए पहले से तैयारी की गई थी.

ज्यादातर कमर से ऊपर गोलियां मारी गई थीं, इसलिए कि पुलिस ने हत्या करने के लिए गोलियां चलाईं. शहर का मुख्य बाजार होने के नाते मच्छी बाजार और माधवपुरा भीड़ भरे इलाके हैं. मारे गए सभी 6 मुसलमान या तो दिहाड़ी मजदूर थे या छोटे कारोबारी थे, जो सामान खरीदने या काम के सिलसिले में बाजार गए थे. रिजवान (22) को उनके अब्बा ने अपनी कपड़ों की दुकान के लिए कैरी बैग खरीदने के लिए बाजार भेजा था. उनकी पीठ और पैर में गोली लगी और जख्मों से 8 जनवरी को उनकी मौत हो गई. रिजवान ने 7 जनवरी को अपने परिवार से बात की और उन्हें बताया कि पुलिस ने उन्हें तब गोली मारी जब वे एक घर में छुपने की कोशिश कर रहे थे. इमरान अली(24) एक गैराज में काम करते थे और उन्हें सीने में तब गोली लगी जब वे सामान खरीदने बाजार गए हुए थे. आसिम(22) का परिवार अंडों का एक छोटा सा कारोबार चलाता था और वे अंडे ला रहे थे जब उन्हें दो गोलियां लगीं- सीने और पेट में. युनूस(22) को गले में गोली लगी और 9 जनवरी को उनकी मौत हो गई. आसिफ(30) भी अपनी छोटी सी दुकान के सिलसिले में वहां गए थे जब उनकी बगल में गोली लगी. मरने वालों में सबसे कम उम्र का सऊद था, जिसकी उम्र 17 साल थी और वो 12वीं कक्षा का छात्र था. उसके दिल के पास गोली लगी.

लूटने और जलाने की खुली छूट थी. पुलिस ने मुसलमानों की संपत्ति की लूट और आगजनी कराई. स्थानीय लोगों ने बताया कि कैसे हिंदू भीड़ का एक हिस्सा पुलिस जीप पर सवार होकर इलाके में दाखिल हुआ. जब अनेक मुसलमान अपने घरों से भाग गए, तो पुलिस उनके जाने की दिशा में फायरिंग करती रही, और इस बीच सांप्रदायिक फासीवादी गुंडे लूटपाट और आगजनी करते रहे. शेख आजाद ने हमें बताया कि जब पुलिस मुसलमानों पर गोलियां बरसा रही थी तो कैसे दंगाई भगवा झंडे लहराते हुए नाच रहे थे. उनके दो मंजिला मकान को, जिसके ग्राउंड फ्लोर पर चिकेन शॉप थी, लूटने के बाद पूरी तरह तहस-नहस कर दिया गया. एक स्थानीय मांस विक्रेता जमील को 10 लाख मूल्य का नुकसान हुआ. गुजरात की तर्ज पर घरों में गैस सिलेंडरों से धमाके किए गए जिससे पूरी छतें गिर गईं. इलाके के एक और निवासी युसुफ 2008 के दंगों से पहले चमड़े के छोटे-मोटे कारोबारी हुआ करते थे. 2008 दंगों के बाद वे तबाह होकर फेरीवाले बन गए थे और अब उन्हें फिर से 20 लाख मूल्य का नुकसान उठाना पड़ा. मशकूर खान को 4.50 लाख का नुकसान उठाना पड़ा. उनका घर और दुकान दोनों जला दिए गए. भीड़ और पुलिस ने मिल कर 14 मुस्लिम घरों को जलाया. पुलिस ने दमकल को भी पहुंचने की इजाजत नहीं दी. शहर के दमकल को पुलिस और सांप्रदायिक गुंडों ने मिल कर रोक दिया. देर रात में घरों की आग बुझाने की पहली कोशिश हुई जब मालेगांव (55 किमी), जलगांव (90 किमी) और शेरपुर (50 किमी) से दमकल धुले पहुंचे. एक स्थानीय निवासी मदीना बी ने, जिनको हुआ नुकसान भी लाखों में है, बताया कि कैसे अगले दिन तक अनेक घरों से निकलता धुआं देखा जा सकता था. सिर्फ यही नहीं, पुलिस ने यह भी सुनिश्चित किया कि स्थानीय लोग जलते हुए घरों में आग न बुझा सकें. अंसारी मुसद्दिक ने बताया कि कैसे जब उन्होंने बगल के जलते हुए घर पर पानी फेंकने की कोशिश की तो उनकी खिड़की से पत्थर और गोलियां मारी गईं. उन्होंने खिड़की के सामने की दीवार पर गोलियों के निशान हमें दिखाए.

जख्मी लोगों की बड़ी संख्या भी पुलिसिया जुल्म की कहानी कहती है. 90 फीसदी से अधिक जख्मी लोगों को गोलियां कमर से ऊपर लगी हैं. जख्मी लोगों ने बताया कि उनमें से अधिकतर अपनी जिंदगी बचाने के लिए भाग रहे थे, छुपने की कोशिश कर रहे थे या अपने बच्चों को बचाने के लिए निकले थे जब उन्हें गोली मारी गई. 16 साल के अब्दुल कासिम एक दिहाड़ी मजदूर हैं जिनकी दाहिनी बांह गोली से जख्मी हो गई है. वे काम से लौट कर साइकिल खड़ी कर रहे थे कि पुलिसकर्मियों का एक समूह एक घर से बाहर निकला, जिसे उन्होंने तहस-नहस कर दिया था, और कासिम को गोली मार दी. 23 साल के अरशद को तीन गोलियां लगी हैं- एक उनकी पसलियों में, दूसरी बगल में और तीसरी हाथ में. यह चमत्कार ही है कि वे बच गए हैं. उन्होंने बताया कि उन्हें पीछे से गोली मारी गई. सायरा बानो को तब गोली लगी जब अपने बच्चों को घर में लाने के लिए वो बाहर निकली थीं. पुलिस का आतंक इस कदर है कि भारी दर्द के बावजूद वे अस्पताल जाने के लिए अगले दिन तक निकल नहीं सकीं. बगल की एक कॉलोनी रमजानबाबा नगर में, जहां कर्फ्यू तक नहीं लगाया गया था, एक घरेलू नौकरानी सायराबी को गोली मारी गई. कर्फ्यू के दौरान अनेक औरतों को पुलिस ने पीटा. घटना के दूसरे दिन शम्सुन्निसा नाम की एक बुजुर्ग औरत, जो अपने घर से बाहर एक छोटी सी दुकान चलाती हैं, पुलिस को अपना दुकान तोड़ने से रोकने के लिए बाहर निकलीं तो उन्हें पीटा गया. उनका दाहिना हाथ टूट गया है और उनकी जांघ और कूल्हे पर चोट लगी है. एक दूसरी महिला तबरुन्निसा आग बुझाने के लिए बाहर निकलीं तो उन्हें पुलिस ने पीटा. दोनों घटनाएं 7 जनवरी को हुईं, जब इलाके में कर्फ्यू लागू था. कर्फ्यू का इस्तेमाल पुलिस ने पूरी तरह से लोगों पर आतंक कायम करने के लिए किया. वे घरों में घुसे, लोगों को पीटा, गाड़ियां तोड़ीं, खिड़कियों को तोड़ा, मुसलमानों की बकरियां, नकदी और जेवर चुराए. स्थानीय लोगों के पास पुलिस की इन करतूतों के काफी सबूत है, जिनमें वे वीडियो फुटेज भी शामिल हैं जो उन्होंने DSU की टीम को सौंपे. टीम ने उन दो आदमियों में से एक से भी बात की, जिनके पांव काटने पड़े. खालिद अंसारी(20) काम से लौट रहे थे जब वे पुलिस की फायरिंग सुनकर भागने लगे. उनके दाहिने पांव में एक गोली लगी जिसने उनके बाएं पांव को भी जख्मी कर दिया. उनका दाहिना पांव काटना पड़ा, जबकि दूसरा पांव बुरी तरह टूट गया है. सरकार द्वारा उनके लिए तीन लाख के मुआवजे की घोषणा एक क्रूर मजाक है. लेकिन तब भी, यह उन्हें मिलने नहीं जा रहा है क्योंकि पुलिस ने अनेक दूसरे लोगों के साथ, जो मर गए या जख्मी हैं, उनके खिलाफ भी मामला दर्ज कर लिया है. मुआवजा हासिल करने से पहले उन्हें अपनी बेगुनाही साबित करनी पड़ेगी.

राज्य मशीनरी और ‘सिविल’ सोसाइटी पुलिस का बचाव करने और घटना को छुपाने के लिए फौरन हरकत में आई. पुलिस ने चालाकी से उन लोगों के खिलाफ मामले दर्ज कर दिए जो खुद पुलिस के जुल्म का निशाना बने थे. नतीजे में जो लोग केस दर्ज कराने गए उनको यह कह कर लौटा दिया गया कि वे केस दर्ज नहीं करा सकते क्योंकि उनके खिलाफ पहले से ही मामला दर्ज है. कुछ लोगों को एक थाने से दूसरे थाने दौड़ाया जाता रहा और एफआईआर दर्ज न करने के हर तरह के बहाने बनाए गए. अनेक लोग तो इतने डरे हुए हैं कि वे शिकायत दर्ज कराने थाने तक जाने की हिम्मत नहीं कर पा रहे, कि कहीं पुलिस उन्हें न उठा ले. कुछ लोग तो व्यवस्था से उम्मीद खो बैठे हैं कि उन्हें शिकायत दर्ज करने की फिक्र तक नहीं है. मिसाल के लिए, सऊद के अब्बा ने कहा कि इस व्यवस्था से कुछ नहीं होने वाला. उन्होंने उस रवैए की मिसाल दी, जो उनके परिवार को तब भुगतनी पड़ी जब वे नगरपालिका से अपने बेटे का मृत्यु प्रमाणपत्र बनाने की कोशिश कर रहे थे. धुले नगरपरिषद ने उनके भाई को सिविल अस्पताल से इसकी रिपोर्ट लाने को कहा कि सऊद सचमुच में मर गए हैं. वे पुलिस फायरिंग की वजह से उनको मृतक बताने से कतरा रहे हैं, बावजूद इसके कि उनका पोस्टमार्टम सिविल अस्पताल में हुआ और कब्रिस्तान के रिकॉर्ड भी गोलियों के जख्मों से उनकी मौत को दिखाते हैं. पुलिस और स्थानीय प्रशासन लोगों के आर्थिक नुकसान को कम करके दिखाने की कोशिश कर रहे हैं. पंचनामा दाखिल करते हुए नुकसान हुए फ्रिज की कीमत 700 रु. और टीवी 100 रु. जैसी चीजें दर्ज की गईं हैं. कुछ मामलों में पंचनामा तैयार करने के बाद भी पुलिस ने उन लोगों के दस्तखत नहीं लिए जिनको नुकसान उठाना पड़ा. एक और मिसाल, जो राज्य मशीनरी के पूरी तरह सांप्रदायिकीकरण को सामने लाती है, वो सिविल अस्पताल में लोगों के साथ होने वाले रवैए के प्रति डर है. मुसलमान निजी अस्पतालों में जाने को तरजीह देते हैं, क्योंकि वे सिविल अस्पतालों के स्टाफ और शिवसेना गुंडों से आतंकित हैं. यह खौफ इतना गहरा है कि लोगों का कहना है कि वे सरकारी अस्पताल में जाने के बजाए मर जाना पसंद करेंगे. एक दूसरे आदमी ने कहा कि उसे डर है कि अगर वो सिविल अस्पताल गया तो शायद वो जिंदा न लौट सके.

धुले में मुसलमानों का निर्मम कत्लेआम मुसलमानों पर हो रहे जुल्म का एक और काला अध्याय है और यह भारतीय राज्य के हिंदू बहुसंख्यकवादी चरित्र को फिर से सामने लाता है. महाराष्ट्र में ‘धर्मनिरपेक्ष’ होने का दावा करनेवाले कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन की सरकार है, जबकि भाजपा-शिवसेना मुख्य विपक्षी हैं. लेकिन जैसा कि लोगों ने बताया कि चाहे कोई भी सत्ता में रहे, शिवसेना-आरएसएस-वीएचपी-बजरंग दल के गुंडों को भरपूर संरक्षण और सरपरस्ती हासिल होती है. ये हत्यारे गिरोह शासक वर्ग द्वारा पाले-पोसे गए हैं और सांप्रदायिक गुंडों की भूमिका अदा करते हैं. सभी पार्टियां सक्रिय रूप से विभिन्न माफियाओं का बचाव करती हैं जो संपत्तिशाली मारवाड़ी और गुजराती कारोबारियों के साथ मिल कर बेहद उत्पीड़क तबका बन गए हैं. यह मुसलमानों को व्यवस्थित रूप से हाशिए पर धकेल कर ही मुमकिन हुआ है. शहर की मुस्लिम और हिंदू आबादी वाले मुहल्लों के बीच फर्क इतना साफ है कि इसे कोई भी आसानी से देख सकता है. मुस्लिम घेट्टो जैसे घिरे हुए और भीड़ भरे इलाकों में रहते हैं जहां बिजली और पानी की कमी रहती है, तो शहर के दूसरे इलाके इसकी तुलना में समृद्ध हैं. इस कत्लेआम की जिम्मेदारी अब तक किसी अधिकारी ने नहीं ली है, यह अकेला तथ्य ही दिखाता है मिलीभगत और बेदाग बच निकलने की सुरक्षा पूरी राज्य मशीनरी की तरकीबें हैं, जिनके जरिए वो इस व्यवस्थित उत्पीड़न को कायम रखती है. रहस्यमय तरीके से कलक्टर, डिप्टी कलक्टर और एसपी 6 जनवरी को ‘अनुपस्थित’ थे, जबकि डीएसपी फायरिंग शुरू होने के आधे घंटे के बाद इलाके में पहुंचे और आधिकारिक रूप से इसका खंडन किया कि उन्होंने फायरिंग के आदेश दिए थे. लेकिन भारी गोलीबारी को देखते हुए यह जाहिर है कि बिना किसी वरिष्ठ अधिकारी के यह मुमकिन नहीं हो सकता है.

आखिरी दिन शाम को DSU की टीम ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित किया, जिसमें आए पत्रकारों का रवैया पूरी तरह दुश्मनी से भरा हुआ था. इसमें मुख्यत: स्थानीय मीडिया से जुड़े पत्रकार आए थे जिनका मजबूत झुकाव शिवसेना की तरफ था. प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद दैनिक भास्कर के एक पत्रकार ने एक गहरी टिप्पणी की. उनके मुताबिक, हमारे द्वारा इन तथ्यों को धुले से बाहर ले जाने से धुले की छवि दागदार होगी, जिससे शहर के विकास की संभावनाओं पर असर पड़ेगा. उस व्यवस्था के बारे में बताने के लिए इससे बेहतर कोई टिप्पणी नहीं होगी, जिसकी बुनियाद उत्पीड़ित जनता को हाशिए पर धकेले जाने पर टिकी हुई है- मुसलमान इस उत्पीड़ित जनता का बड़ा हिस्सा हैं - और जो इस उत्पीड़ित जनता को खामोश करते हुए ही खुद को बरकरार रखती है. खामोशी न सिर्फ हाशियाकरण की इस लंबी प्रक्रिया के बारे में बल्कि इसके बदनुमा चेहरों के बारे में भी. और इस प्रक्रिया को छुपाने के लिए राज्य के सभी हिस्से सामने आए, जैसा कि 6 जनवरी का कत्लेआम और उसके बाद की घटनाएं उजागर करती हैं. और इसीलिए इस सांप्रदायिक फासीवादी राज्य को ऊपर से नीचे तक बदल कर ही इस व्यवस्थिक उत्पीड़न को खत्म किया जा सकता है.

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