26 जनवरी 2013

'राष्ट्र के नाम' तीन कविताएं- अनिल पुष्कर

मैं राष्ट्रीय नागरिक हूँ

मैं राष्ट्रीय नागरिक हूँ
मगर मेरी हिफाजत कानून नहीं करता
मैंने मुहाफिजों, मुहाजिरों, विस्थापितों से पूछा
कानून उनकी हिफाजत करेगा? 
मैंने खेतों से पूछा, पहाड़ों से पूछा
नदियों से पूछा, किसानों से पूछा
कानून उनकी हिफाजत करेगा?
मैंने युवा तकलीफों से पूछा
कानून हिफाजत करेगा?
पेट की भूख से पूछा, मेहनती हाथों से पूछा
गँवई लड़कों से पूछा
जो देश सुरक्षा में मुस्तैद मिले
मैंने चरवाहों से पूछा
नटों से पूछा
जनजातियों से पूछा
कुम्हार की चाक से पूछा
लोहे से पूछा

मैंने लकड़हारे से पूछा
वे किन राष्ट्रीय योजनाओं में खपाए गए
मैंने गडरियों से पूछा
वो किन बूचडखानों में धकेले गए गए

और जवाब में पाया
जो कानून जुर्म की काली कोठरियों में उजाला भरता है
जो जमीन की रंगी फसलों को काला करता  है
जो राजघरानों की हिफाजत में तैनात रहे
प्रधानमंत्री आवास में मुस्तैद रहे
जो गुलगुले की पीक भर राष्ट्रगान,
और चार थन वाली चितकबरी संसद का गुलाम है
जो तीन रंगों वाले पहिये की सुरक्षा में सेना डाले है
जो बूटों और तोपों से निजाम के हक में हिफाजत को तैयार है

जिस किसी ने पूछा 
निजाम किसका है?
काली पट्टी बाँधे उन्हें अलग-अलग कोठरियों में डाला गया
वे राष्ट्रीय कूटनीतियों के जालसाज है
रोज नई-नई उदारवादी मंडियाँ तलाशते हैं
और राष्ट्रध्वज को सलामी देना नहीं भूलते

देख रहा हूँ
ये मुल्क एक बड़े औद्योगिक घराने में बदल रहा है
कारोबारी की हिफाजत में कानूनी कड़ाहा उबल रहा है.


उदारीकरण की पाठशाला में

यह महज बंदूक नहीं
एक ज़िंदा इतिहास है
घोड़ा दबाते ही पूरी पीढ़ी का गुबार बह निकलता है 
बारूद की धमनियों में बह रहा है मवाद
निशाने पर टूटी हुई सदी का अपराध तना है

यह महज इत्तेफाक नहीं
कि गोली चलेगी मुठभेड़ में मारे जायेंगे लोग
लावारिश और आतंकी कहकर दफन होने को मजबूर
ये लोकतंत्र का अगला पहिया है

यह महज विचार नहीं
कि खून बहाने का हुनर उन्हीं के पास है
जिन्हें मेहनतकशों ने अपना मुकद्दर सौंप दिया

यह महज एक दुर्योग नहीं
कि राष्ट्रीय सुरक्षा में जन-सभाएं रौंदकर
इल्जाम भरे जा रहे हैं

यह महज ख्वाब नहीं
कि वे एक अदद रजाई और रोजगार के एवज में
सांसों का बड़ा कारोबार रख आये हैं गिरवी
मकान की चाहत में जमीन से अपने भाइयों को
बेदखल करने की रंजिश का हुनर सीख चुके हैं

जन-प्रतिनिधि बंदूक की नली साफ़ कर रहे हैं

और वे जो उदारीकरण की पाठशाला में हाजिर हैं
नया अर्थशास्त्र ले आये हैं
नाजायज फायदा लेने की सियासत चली है
और ये रवायत कि
यहाँ दो-दो चार नहीं कई लाख-करो होते हैं
उपजाऊ दिमाग पर हावी है एक हवस
कि वे एक दिन दुनिया में अमन ले आयेंगे
मुनाफे में दोजख की जमीन जहीन मेहनती गुलामों में बांटकर 
शैतानी हुकूमतें कयामत का लिबास ओढ़े जन्नत की वारिस होंगी 
हम बंदूक के खाली बिलों में बारूद भर रहे हैं

और उदारीकरण की पाठशाला में
वे पका रहे हैं सपने – मीठे और रसदार
गूदेदार और रंगीन,
जिनके फूल ठीक उन मौसमों में खिले
जब तख़्त पर मस्जिद और मंदिर के दावेदार
याकि शान्ति की बात करने वाला बिचौलिया
संसद में शपथ ले रहा है

हम सही समय के इन्तजार में
निशाना साधने को कठपुतलियाँ बाँधे सावधान मुद्रा में खड़े हैं

वे अधीर लोगों पर फेंकते हैं कंटीले अपराधों के जाल
उत्पीड़कों ने तय किए कानून कि
किस समूह का कितना मांस रोज छांटा जाए
कितने मजलूम पेट काटे जाएँ
किसके हिस्से की जमीने लूटी जाएँ
किन अस्मतों पर दाग छोड़े जाएँ
किस कौम की रगों में बेईमानी भरी जाए
मुल्क के नक़्शे पर कितने तोले तरक्की आबाद हो
इंसानी जबानों पर कितनी कीलें ठोकी जायेंगी
किन पर खंजरों की किस्मत आजमाई जाये

हमने तम्बाकू की पत्तियाँ रगड़
चिंताओं को फूंक मारकर उड़ाया है 
हवा में आसमानी टुकड़ों के बीच
अफ़सोस! अपने ही सड़े हुए अंगों की गंध नहीं आती
हमें मालिकों का जुल्म नहीं डराता
हमें अपनी संतानों की गिनती में कमी नहीं खलती
आखिर कब तक हमारी तकदीर पर फुफकार मारेगा- ईश्वर!

क्या हमें अब भी बंदूक उठाने के वास्ते
लाइसेंस और इजाजत चाहिए
हमें बंदूक चलानी होगी
हमें इस दमन के विरुद्ध आवाज की बंदिश हटाकर
अंजाम तक जाना होगा
आखिर कब तक हमें गुर्बतों का कहर डराएगा
आखिर कब हमारी आँखों में सुबह का नूर आएगा.

संसद की मण्डी

यहाँ संसद की मण्डी बरस भर दो सत्रों में लगती है
जहाँ करोड़ों की फेरी लगाने वाले धंधेबाज बैठे हैं
वे नेहरू का कपड़ा निचोड़ते, गांधी की गंदगी धोते
चन्दन का लेप किए जनेऊ डाले 
लंगोट सी कसी बुनियादी जरूरतों पर
जम्हाई लिए बिताते हैं वक्त

सोचते हैं कहीं से थोड़ी सी धूप का स्वाद
और शीतल हवा की गंध का आनंद बरसे
कहीं से आंधियों का वेग उठे और अर्जियों की लुगदी पर आग बरसे
एक कबाड़ी माननीय अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठा
इस तरह आवाम की आवाजें तौलता है

उसे वे आवाजें हरगिज़ सुनाई नहीं देतीं
जिनमें जवान होती मुश्किलें और कर्ज की फांस चुभी है

उसे कथावाचक की मंत्रमुग्ध आवाज़ सुनाई दे रही है
उसे मीठे भाषण की लच्छेदार आवाज़ सुनाई दे रही है
उसे मठों की मंत्रमुग्ध आवाज में दिलचस्पी है
उसे बनियों की चमकदार आवाजें बेहद पसंद हैं
उसे दुनिया को बरगलाते अभिनेता का संवाद भाता है
उसे सुनहरी योजनाएँ रपटीले भविष्य की धुन लुभाती है
उसे इन्कलाब का शोर नापसंद है
उसे धार्मिक अखाड़ों और दंगों का नाद, भजन लगता है
उसे लाठीचार्ज में घायलों की चीख सुनाई नहीं देती
उसे जम्हूरियत का घुटनों के बल रेगने में मजा आता है
उसे परमाणु-सौदे का राग प्रिय है
उसे पड़ोसी से युद्ध का आगाज़ प्रिय है
उसे युद्ध में मारे गए सैनिकों की बेवा का रुदन अखरता है
उसे गृह-युद्ध में जन्वासियों की मौत का सुर पसंद है
उसे सेनाओं में जवान भर्ती की सलामी और पदचाप पसंद है
उसे भूख और गरीबी की तड़प से नफरत है
उसे आदेश-पालन करने वालों की तरक्की पसंद है
उसे जमीनों की लूट, जंगलों की आग और बिल्लियों को रिझाना पसंद है
उसे विद्रोह, बगावत का स्वाद और चुनौती की फांस का चुभना नापसंद है
उसे जुगनुओं की चमक दुर्ग के स्तंभों पर टिमटिमाना भाता है
उसे रोशनी रोटी और रोजगार की मांग का आक्रोश नापसंद है
प्रजापालक को प्रजा का शील और चुप्पी का सौंदर्य पसंद है

जनाब!!
बिलकुल ठीक समझे आप,
उसे जनता का आगबबूला होना अखरता है

एक मुल्क की जम्हूरियत को शहंशाह
हर रोज ऐसे ही चरता है

तब जाकर अंतर्राष्ट्रीय पखवाड़े में
किसी राष्ट्र का नक्शा विकसित देशों सा दमकता है. 

अनिल पुष्कर अरगला के प्रधान संपादक हैं. उनसे kaveendra@argalaa.org पर संपर्क किया जा सकता है.

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