16 जनवरी 2013

सामंती व्यवस्था का बिगड़ा संतुलन


 -अभिनव श्रीवास्तव 
राजधानी दिल्ली में तेईस वर्षीय छात्रा के सामूहिक बलात्कार के बाद कई किस्म की वैचारिक धाराओं के बीच महिला अधिकारों को लेकर गहन विचार विमर्श का दौर चलता रहा। इस दौरान प्रगतिशील धारायें अपनी-अपनी राजनीतिक स्थिति से महिला अधिकारों और उनके राष्ट्र स्तर पर जारी शोषण की बहस को आगे बढ़ाते रहीं। निश्चित तौर पर इन सबके बीच महिला अधिकारों को लेकर विचारों की कई धुरियां सक्रिय रहीं लेकिन कुछ बुनियादी बातों पर सभी की सहमति रही।

इन तमाम चर्चाओं पर बहस आगे बढ़ने के साथ कुछ बेहद सामंती और प्रतिक्रियावादी धाराओं ने भी सार्वजनिक मचों पर अपनी मौजूदगी दर्ज करवायी। आशाराम बापू और संघ संचालक मोहन भागवत के हालिया बयान और टिप्पणियां इसका सीधा उदाहरण हैं। चूंकि ये बयान एक पूरी राजनीतिक धारा और वर्ग की नुमाइंदगी करते हैं, इसलिये इन पर चर्चा करना जरूरी हो जाता है। अगर गौर से देखा जाये तो ऐतिहासिकता के विकास क्रम में दुनिया के जिन-जिन हिस्सों में महिला अधिकारों के लिए संघर्ष और आंदोलन तीखे और पैने हुये हैं, उन हिस्सों में फासीवादी ताकतों और प्रतिक्रियावादी धाराओं ने अपनी मौजूदगी दर्ज करायी है। 

इन सभी प्रतिक्रियावादी धाराओं और फासीवादी ताकतों ने हर दौर में एक ऐसी समाज व्यवस्था की वकालत की है जिसमें महिलाओं की यौनिकता, उनके श्रम और सार्वजनिक और निजी दायरों में उसकी भागीदरी पर पुरुषवादी नियंत्रण लगाने की कोशिशें की गयी हैं। ऐसा करने के लिए इन ताकतों ने अपने-अपने समाज के वर्चस्ववादी धर्मों के नैतिक और सांस्कृतिक मूल्यों को इस्तेमाल किया है और इन मूल्यों की पुर्नस्थापना का आग्रह ही इनकी मांगों में नजर आता है। भारतीय संदर्भ में भी यह बात कुछेक भिन्नताओं और अंतर्विरोधों के साथ ठीक जान पड़ती है। 

भारतीय सभ्यता अपनी विशिष्ट सामाजिक स्थितियों के चलते भयंकर विविधताओं और परम्पराओं में कैद रही है, इसलिए यहां महिला अधिकारों के लिये संघर्ष और प्रगतिशील आंदोलनों ने अपेक्षाकृत देर से दस्तक दी। संभवतः यही वजह है कि भारतीय समाज के एक बड़े हिस्से में महिलाओं के प्रति एक खास तरह के सामंती और नैतिकतावादी नजरिये का आधार और उसका समर्थन मौजूद है और जब-जब इस स्थापित संरचना को किसी भी रूप में चुनौती मिलती है, सामंती और प्रतिक्रियावादी ताकतों के बीच खदबदाहट होने लगती है। जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है कि आशाराम बापू और मोहन भागवत के बयानों में सामूहिक बलात्कार की पीड़िता के प्रति जैसी सोच दिखी उसकी अपनी एक खास राजनीति और पृष्ठभूमि भी है। 

दरअसल भारत में महिलाओं के प्रति सामंती और खास तरह के नैतिकतावादी मूल्यों का प्रतिनिधित्व विश्व हिन्दू परिषद, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ जैसे संगठनों ने नये-नये सांस्कृतिक और राजनीतिक केन्द्रों और संस्थानों की रचना करके किया है और इन्हीं केन्द्रों के जरिये इन मूल्यों का प्रचार-प्रसार भी हुआ है। ऐसे संस्थानों और केन्द्रों का अस्तित्व आजादी से पहले (राष्ट्रसेविका समिति, 1936) भी रहा है और आजादी के बाद भी। 

इस प्रक्रिया के बरक्स महिला अधिकारों की लड़ाई को आगे बढ़ाने वाले प्रगतिशील आंदोलनों की धार इतनी पैनी नहीं रह पायी। सत्तर के दशक के उत्तरार्ध में जब प्रगतिशील महिला आंदोलनों ने गति पकड़ी तो इन कोशिशों का जवाब हिंदू प्रतिक्रियावादी ताकतों ने ऐसे महिला संगठनों का निर्माण करके दिया जिन्होंने कालांतर में राष्ट्र स्तर पर हिन्दू सांस्कृतिक और सामंती मूल्यों के आरोपण की जिम्मेदारी निभायी। 1980 में भारतीय जनता पार्टी द्वारा बनाया गया महिला मोर्चा, 1985 में शिव सेना द्वारा बनाया गया महिला अगाधि और बाद में विश्व हिन्दू परिषद द्वारा बनाया गयी दुर्गा वाहिनी ऐसे ही संगठन थे। इन संगठनों ने नब्बे के दशक में अल्पसंख्यकों के निजी दायरे के धार्मिक नियमों को निशाना बनाने के मकसद से प्रगतिशीलता का ढोंग रचते हुये यूनिफार्म सिविल कोड  जैसे प्रावधानों की मांग की। 

ये ढोंग इसलिये था क्योंकि इन संगठनों और इनके पैतृक संगठनों के विमर्श में उस वक्त और साल 1950  में भी हिन्दू महिलाओं को संपत्ति में अधिकार दिलाने वाले हिन्दू कस्टमरी ला के संशोधन जैसी कोई मांग मौजूद नहीं थी। कहने का मतलब यह है कि सामंती और हिन्दू सांस्कृतिक मूल्यों के प्रचार प्रसार के केन्द्र नए-नए रूपों में बनते और स्थापित होते चले गए और उन्होंने बेहद आक्रामक रूप से इन मूल्यों की पुनर्स्थापना की कोशिशें भी की। हालांकि सामंती हिन्दू सांस्कृतिक मूल्यों के प्रचारक के रूप में आशाराम बापू जैसे धार्मिक गुरुओं का राष्ट्र स्तर पर उभार एक नए किस्म की घटना साबित हुई है और इसने वैश्वीकरण और खुले बाजार के दौर में इतनी तेजी से अपने पांव फैलाए कि आने वाले सालों में इन धार्मिक गुरुओं और टिप्पणीकारों से सार्वजनिक दायरे का एक बड़ा हिस्सा पटा हुआ दिखाई पड़ा। 

खुले बाजार और नवउदारवादी व्यवस्था द्वारा दिए गए साधनों और तकनीकों का इस्तेमाल करके इन इन धार्मिक गुरुओं ने अपने प्रभाव क्षेत्र को बेहद विस्तृत और आक्रामक बना लिया। मनोरंजन जगत का मीडिया इनके हाथ-पांव बन गया और टेलीविजन चैनल इन सामंती सांस्कृतिक मूल्यों के प्रचार-प्रसार के नए केंद्र बन गए। इन केन्द्रों से उन्होंने हिन्दू मान्यता के प्रतीकों को तेजी से फैलाते हुये राष्ट्र स्तर पर भगवाकरण की प्रक्रिया को मजबूत किया। यही वह दौर था जब सांस्कृतिक समरूपीकरण की प्रक्रिया अबाध गति से चली और मजबूत होती चली गयी। ठीक इसी वक्त वैश्वीकरण की प्रकिया समाजिक दायरों में भी नये तरह के बदलावों को जन्म दे रही थी। मझोले और बड़े शहरों में महिलायें श्रम बाजार का हिस्सा बनने के लिए आगे आयीं और उन्होंने अपने आप को नयी भूमिका में देखा। 

महिलाओं की इस बढ़ती भागीदारी के शुरुआत में बहुत उत्साह जनक नतीजे निकाले गए, लेकिन बाद में पता चला कि वैश्वीकरण और बाजार व्यवस्था ने भी आजादी के तमाम दावों के बावजूद महिलाओं के श्रम के शोषण और गैर बराबरी को ही प्रोत्साहित किया है। अब अगर इस सैद्धान्तिक पृष्ठभूमि को ध्यान में रखकर मोहन भागवत, आशाराम बापू के सामंती बयानों की वजहों को समझना शुरू करें तो यह कहा जा सकता है कि वैश्वीकरण और खुली बाजार व्यवस्था के द्वंदवाद और उसके अंतर्विरोधों ने ही महिलाओं और उनके एक खास वर्ग को ऐसे अवसर प्रदान कर दिए हैं जहां से वे स्थापित सामंती धाराओं को पहले से अधिक पैनेपन और मजबूती से चुनौती दे सकती हैं। 
महिलाओं की अपनी यौनिकता और अपने अधिकारों की इन नयी दावेदारियों से धार्मिक गुरुओं और हिंदूवादी राजनीतिक संगठनों द्वारा आगे बढ़ायी जा रही सांस्कृतिक आरोपण की प्रक्रिया का आतंरिक संतुलन बिगड़ गया है। इन धार्मिक टिप्पणीकारों का आधुनिकता और प्रगतिशीलता बोध पहले ही चरमराया हुआ था और महिलाओं की सार्वजनिक दायरे में मजबूती से की जाने वाले दावेदारियों ने इनके बीच खीझ और झुंझलाहट की स्थिति पैदा कर दी है। उनके बयान इसी खीझ और झुंझलाहट की अभिव्यक्ति हैं। निश्चित तौर पर महिला आंदोलनों की ऐतिहासिकता के विकास क्रम में रायसीना हिल पर चली मुहिम के महत्व को अभी ठीक से समझना थोड़ा मुश्किल साबित हो रहा है। इस मुहिम के प्रति दो तरह का प्रगतिशील नजरिया हावी है।

कुछ प्रगतिशील राजनीतिक और महिला संगठन इसे पूरी तरह खारिज कर रहे हैं और सामूहिक बलात्कार के बाद पैदा हुये रोष के चलते गोलबंद हुयी भीड़ को कास्ट, क्लास और साम्प्रदायिकता की लाइन्स के इर्द-गिर्द समझने की कोशिश कर रहे हैं और कुछ अपने राजनीतिक विस्तार की संभावना तलाशने की हड़बड़ी में इस मुहिम को महज सामाजिक विमर्श का मुद्दा बनाये रखने के पक्ष में है। ये दोनों ही नजरिये गलत हैं। 

अगर इस मुहिम के प्रति आलोचना की किसी गुंजाइश को खत्म किया गया तो इससे महिलाओं के राष्ट्र स्तर पर जारी शोषण की बहस को व्यापक रंग नहीं दिया जा सकेगा और न ही राज्य व्यवस्था की महिला शोषण के कुछ मामलों में संलिप्तता पर बुनियादी सवाल खड़े किए जा सकेंगे। आखिर राष्ट्र स्तर पर महिलाओं की यौनिकता के साथ-साथ उनके श्रम का शोषण भी जारी है। जो संगठन और वर्ग इस मुहिम को पूरी तरह खारिज कर रहे हैं, वे ये देख नहीं पा रहे कि इस मुहिम के केंद्र में महिला और महिला अधिकारों ही की बहस थी जो सही और संतुलित नेतृत्व के अभाव में कहीं-कहीं पर प्रतिक्रियावादी होती हुयी दिख रही थी। 

तमाम आलोचनाओं की गुंजाइश छोड़ते हुये भी इस मुहिम के महत्व को इस रूप में स्वीकार करना ही होगा कि इसने स्थापित सामंती व्यवस्था और मूल्यों को हिला देने वाली दावेदारियां पेश की हैं। 

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