25 जनवरी 2013

कश्मीर पर तो राष्ट्रवादियों को भी सोचना चाहिए


-अरुंधति राय
(पीयूडीआर ने जम्मू-कश्मीर में सैनिकों द्वारा उत्पीड़न पर ‘इम्प्यूटिनी फॉर एलिजिड परपेट्रेटर्स एंड क्वेस्ट फॉर जस्टिस इन जम्मू एंड कश्मीर’ नाम से एक रिपोर्ट जारी की है, जिसमें 214 घटनाओं के हवाले से स्थिति की भयावहता स्पष्ट की गई है। रिपोर्ट के आख़िरी पन्नों में परिशिष्ट के रूप में कुछ दस्तावेजों को भी स्कैन कर लगाया गया है। कश्मीर की राजनीतिक स्थितियों पर अरुंधति लिखती रही हैं, पीयूडीआर की इस रिपोर्ट के मौके पर उन्होंने गांधी शांति प्रतिष्ठान में जो भाषण दिया, पेश है उसका हिंदी तर्जुमा)

मैं ये कहना चाह रही हूं कि कश्मीर में सैनिकों द्वारा जो उत्पीड़न हो रहे हैं वो किसी सैनिक का निजी विचलन नहीं है बल्कि ये सांस्थानिक योजना है। .....अल्जीरिया जब फ्रांस का उपनिवेश था तो उस समय एक फ्रांसीसी सैनिक ने कहा कि ये मेरा काम है कि मैं अल्जीरिया में मानवाधिकार को तोड़ूं, यहां के लोगों को धमकाकर रखूं, लोगों को यातनाएं दूं। मुझे ऐसी ही पाठ पढ़ाई गई है! इसलिए मानवाधिकार हनन का मसला किसी का निजी मामला भर नहीं है, ये सांस्थानिक है और ऐसी स्थिति में इस तथ्य पर नज़र दौड़ाइए कि कैसे भारतीय सेना ये कहती है कि कश्मीर में वे सेना द्वारा हुए मानवाधिकार हनन की जांच खुद अपनी संस्था के मार्फ़त करवाएगी! इसे किस रूप में लिया जाना चाहिए?
.....कश्मीर की हालत बेहद ख़स्ता है और इस लिहाज से पीयूडीआर ने जो काम किया है उसकी हमें ज़रूरत है। कश्मीर के बारे में लोगों के पास अब सूचनाएं आने लगी हैं। इसलिए कई दफ़ा सुधिजन ये कहने लग जाते हैं, अरे यार, क्या होगा इन आंकड़ों और बातों का, क्या फ़ायदा होने जा रहा? लेकिन ऐसे मुश्किल हालात में काम करने वालों को लगातार काम करते रहना चाहिए क्योंकि इन कामों के पुलिंदों में असर छुपा होता है। 

मुझे नर्मदा घाटी की एक बात याद आ रही है: एक गांव में आदिवासी लोग अपने खेत में रोपनी कर रहे थे। वो गांव डूब क्षेत्र में आने वाला था, तो मैंने पूछा कि जब फ़सल डूबनी ही है तो वो क्यों रोपनी कर रहे हैं? गांव वालों ने जवाब दिया कि वो जानते हैं कि फ़सल डूब जाएगी, लेकिन वे और कर क्या सकते हैं। फ़सल रोपना उनका काम है और वो ऐसा करेंगे। इसलिए डुबोने वालों को अपना काम करने दीजिए, आप अपना काम करते रहिए। 
बहरहाल, ये रिपोर्ट महज इन आंकड़ों की सूची और घटनाओं का संग्रहण नहीं है कि कितने लोग कश्मीर में मारे गए और कितनों को यातनाएं मिलीं, बल्कि ये हमारे सामने कहीं ज़्यादा गंभीर सवाल उछालती है। ये हमें बताती है कि वास्तव में सैन्य कब्जेदारी का नतीजा किस रूप में सामने आ रहा है। सैन्य अत्याचार की इन घटनाओं को अलग-अलग करके नहीं देखा जा सकता। ऐसा नहीं है कि एक सेना का जवान आया और यातना बरसा गया, एक सेना का जवान आया और ख़ून बहा गया, वास्तव में ये सांस्थानिक मसला है। ये घटनाएं भटकाव या अपवाद को रेखांकित नहीं करतीं। उनको उन्हीं खातिर तैयार किया गया है और वे जो वहां कर रहे हैं वही उनका कर्तव्य है!
मैं कई बार कश्मीर गई हूं और मैंने देखा है वहां के लोगों की आंखों में क्या है? आफ़्सपा जैसे क़ानून के साए में जी रहे कश्मीर में अत्याचार के कैसे-कैसे वारदात अंजाम दिए जाते हैं ये इधर के लोगों की कल्पना से परे हैं। कश्मीर के (तकरीबन) किसी भी घर में चले जाइए वहां दस्तावेज़ों से भरा प्लास्टिक का थैला आपको मिल जाएगा। लोग आपको बताएंगे,- मैंने यहां एफआईआर किया, वहां अर्जी डाली, फिर ऊपर गया, अदालतों के चक्कर काटे, लेकिन कुछ नहीं हुआ। ऐसी निराशा हर घर में पसरी मिलेगी। दस्तावेज़ों के पुलिंदों के बावज़ूद कुछ नहीं हो रहा! पूरी अवाम के साथ ये किस तरह का बरताव है?

...सवाल ये है कि हम इस रिपोर्ट का क्या करें, हमें कश्मीर के बारे में क्या करना चाहिए? चलिए एक सामान्य उदार भारतीय के लिए इसके मायने ढूंढते हैं। आप देखिए न, अन्ना हज़ारे के साथ और दिल्ली बलात्कार कांड के विरोध में हुए आंदोलन में डूबते-उतराते लोग कहां खड़े हैं? कौन बोल रहा है कश्मीर पर? उनके पोजिशन और मुद्दे साफ़ हैं। कश्मीर से उनको क्या लेना-देना? लेकिन एक उदार राजनीति के व्यक्ति को भी इस मुद्दे पर साथ होना चाहिए। मैं तो कहूंगी कि राष्ट्रवादियों को भी सोचना चाहिए कि कश्मीर के मुद्दे उनके लिए क्यों महत्वपूर्ण है! मैं कारण बताती हूं। आज़ादी के 60 साल बाद तक पुलिस, भारतीय सेना, सीआरपीएफ़ और बीएसफ़ ने नागालैंड, मणिपुर और कश्मीर में कब्जेदारी की बदौलत जिस तरह से अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराई है और इस दौरान उन्होंने जो भूमिका निभाई है, उसने सांस्थानिक रूप ले लिया। राष्ट्रवादियों को बस मैं ये बताना चाहती हूं कि रक्षा बलों ने जो कसरत उन इलाकों में की है वे अब भारत की “मुख्यभूमि’ में उनका इस्तेमाल करने लग गई हैं। छत्तीसगढ़ में यही कार्रवाई हो रही है और धीरे-धीरे इसकी परास बढ़ती जा रही है.....

....रक्षा बलों द्वारा दी जाने वाली यातनाओं पर तो सवाल भी नहीं उठते। बड़ी आबादी यातना देने वालों की पांत के साथ खुद को नत्थी पाती है, इस महसूसियत में एक तरह का वर्चस्व का पुट शामिल होता है, इसलिए ये मज़ा देता है। मुझे संसद भवन पर हुए हमले के तुरंत बाद हुए एक टीवी शो की याद आ रही है जो शायद सीएनएन-आईबीएन पर प्रसारित हुआ था, उसमें एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी कह रहे थे,  “हां, ये सच है कि अफ़जल गुरू को मैंने यातनाएं दी है, मैंने उसकी गुदा में पेट्रोल डाला है, मैंने उसको बेतरह पीटा है, लेकिन अफसोस उसने कुछ नहीं कबूला।” उस चर्चा में कई राजनीतिक विश्लेषक, टिप्पणीकार और पत्रकार भी थे, शायद राजदीप सरदेसाई शो को एंकर कर रहे थे, लेकिन किसी ने पुलिस अधिकारी की आपकबूली पर एक वाक्य नहीं बोला। पुलिस अधिकारी ने दावा ठोका कि उसने राष्ट्रहित में ऐसा किया है।....इसलिए मेरा ये मानना है कि ये रिपोर्ट ऐसे कॉरपोरेट मीडिया के लिए नहीं है और न ही उन लोगों के लिए है जिन्हें ऐसी यातनाओं को देखने-सुनते में मज़ा हासिल होता है। 

ये उन लोगों के लिए है जो वाकई इन यातनाओं को संदर्भ सहित जानने-समझने की चाह रखते हैं, जो ये समझना चाहते हैं कि बीते छह दशकों में कश्मीर में वाकई हुआ क्या है? बड़ी आबादी की राजनीति को खारिज करने से उपजे सवाल को लेकर कई लोग असहज और परेशान हो जाते हैं। लेकिन ये ढोंग नहीं है, राजनीति है। मैं एक बात और कहना चाहती हूं कि आज यदि एक कश्मीरी पंडित 200 लोगों का संदर्भ देकर एक किताब लिखता है तो लोग उसको हाथों-हाथ लेते हैं, कश्मीर का एक भयावह चेहरा लोगों के सामने नमूदार होने लगता है। लेकिन आज ही अगर आप हज़ारों पेज के दस्तावेज़ के साथ उसी कश्मीर पर सैंकड़ों पेज का किताब लिखेंगे तो लोग तवज्जो तक नहीं देंगे। यही राजनीति है। राजनीति यही है कि बहुसंख्य आबादी को क्या रास आ रहा है और लोग किस मुद्दे के साथ तादात्मय बना पा रहे हैं। लेकिन ऐसे काम लगातार होते रहना चाहिए, कश्मीर पर ये बढ़िया रिपोर्ट है, जिसे ज़रूर पढ़ा जाना चाहिए।
(अंग्रेज़ी भाषण को सुनते समय हिंदी अनुवाद: दिलीप खान)

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