24 जनवरी 2013

वैकल्पिक राजनीति की टूटती उम्मीदें


-अभिनव श्रीवास्तव
अगर कुछ हद तक सरलीकरण का जोखिम उठाकर यह मान लिया जाये कि प्रत्येक आंदोलन राज्य व्यवस्था के प्रति कायम किसी असंतोष की उपज होता है और इसी की अभिव्यक्ति होता है, तो बीते एक साल में राष्ट्र स्तर पर उभरे आन्दोलनों और जनअसंतोष की उपलब्धियों और उसके देश की राजनीति पर इसके चलते पड़े प्रभावों पर एक सार्थक बहस करने की गुंजाइश बराबर बनी हुई दिखायी पड़ती है। इन आन्दोलनों और विमर्शों के साथ जुड़ी हुयी सबसे खास बात यह थी कि देश की जनतांत्रिक और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के प्रति उदासीन रहने वाले शहरी मध्य वर्ग का एक बड़ा हिस्सा इनके इर्द-गिर्द गोलबंद हुआ और सार्वजनिक दायरों की बहसों में प्रतिभाग करता नजर आया। वाम धारा के राजनीतिक दलों और प्रगतिशील जमात के लिए इन आन्दोलनों का उभार उलझन और किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति पैदा करने वाला रहा। 

आम तौर पर जल, जंगल जमीन की लड़ाइयों और वंचित तबकों की आवाजों को राष्ट्रीय राजनीति में प्रतिनिधित्व प्रदान करने का दावा करने वाले वाम दलों के बीच आरंभ में इन मुहिमों को राजनीतिक समर्थन देने के लिए हिचकिचाहट का भाव रहा, लेकिन इन आन्दोलनों की तीव्रता और धमक बढ़ने के साथ ही सभी दल इन आन्दोलनों के साथ खड़े नजर आये। मुख्य धारा में और इससे इतर कई छोटे-बड़े औपचारिक वाम संगठनों ने इन मौकों अपनी स्थिति को सुरक्षित रखने को विकल्प के तौर पर चुना और लगातार इन आन्दोलनों से जुड़े अंतर्विरोधों की ओर ध्यान दिलाया और उनके प्रति आलोचनात्मक रुख अख्तियार किया। चूंकि मुख्य धारा के वामपंथी दलों ने मध्य वर्ग की भीतर अपनी राजनीति तलाशने की कोशिश की इसलिये इन दलों के भीतर खुद एक तरह की बेचैनी और उथल-पुथल का माहौल दिखा, लेकिन इन दलों का नेतृत्व अपनी दृष्टि और समझ के आधार पर आंदोलनों के साथ खड़े रहने के फैसले पर कायम रहा. 

इस दौरान इन मुहिमों के अंतर्विरोधों और इनके प्रति आलोचनात्मक रवैये को इन आन्दोलनों को कमजोर करने वाली कोशिशों के रूप में देखा गया। ऐसा आग्रह उन सभी वामपंथी दलों की राजनीति पर हावी दिखता है जो इन मुहिमों के साथ खड़ी थीं। लेकिन क्या किसी आंदोलन की दिशा और उसकी राजनीति पर किसी भी किस्म के आलोचना की गुंजाइश को खत्म कर देना ठीक है? ये स्थिति खतरनाक है  और इस तरह के आग्रह पर बातचीत करना इस वक्त की एक बड़ी जरुरत है। रायसीना हिल पर जुटा आंदोलन कई वजहों से सार्थक था क्योंकि इसने कई मायनों में राज्य द्वारा किये जा रहे दमन के प्रति चुपचाप और अवसरवादी नजरिये के बरक्स एक प्रतिसंस्कृति और प्रतिरोध का माहौल पैदा किया। कई विश्लेषकों ने इस बात को रेखांकित किया कि इस आन्दोलनों में गोलबंद होने वाले युवा वर्ग ने किसी नेतृत्व को नहीं तलाशा। इस आंदोलन में वास्तव में कई ऐसी संभावनाये तलाशी जा सकती थीं और उन संभावनाओं को सही दिशा देकर न सिर्फ सरकार को उसकी जवाबदेही की भूमिका के दायरे में अधिक जिम्मेदार बनाया जा सकता था बल्कि उसकी वैधता पर कई तरह के बुनियादी सवाल भी लगाए जा सकते थे। 

उदाहरण के तौर पर सामूहिक बलात्कार के इस घटना के बाद उपजे विमर्श में महिलाओं के यौनिकता के शोषण की चर्चा बहुत हुयी और यह होनी भी चाहिये, लेकिन इसके साथ-साथ श्रम के स्तर पर जारी महिलाओं के शोषण की बहस को भी आगे बढ़ाया जा सकता था। इस बात को उठाने का मकसद यहां किसी भी तरह से यौनिकता के जारी शोषण की बहस को धुंधला बनाना नहीं है लेकिन जब तक इस बहस में महिलाओं के श्रम के स्तर पर जारी शोषण को नहीं जोड़ा जायेगा, तब तक महिला शोषण के खिलाफ राष्ट्र स्तर पर बने विमर्श के उस माहौल को व्यापक रंग प्रदान नहीं किया जा सकेगा और न ही ऐसे मामलों का सन्दर्भ लेने की कोई गुंजाइश बचेगी जिसमें स्वयं राज्य व्यवस्था दोषी पायी गयी हो। ठीक इसी तरह जब गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने दिल्ली में हुई घटना के बाद निजी बस चालकों पर निगरानी रखने और उनके संबंध में जानकारी रखने जैसी घोषणा की तो बसों के बढ़ते निजीकरण पर सवाल उठाकर सरकार द्वारा अबाध गति से आगे बढ़ायी जा रही निजीकरण की नीति पर भी सवाल उठाये जाने चाहिये थे। इस तरह की कई संभावनायें इस मुहिम में तलाशी जा सकती थीं। लेकिन इस स्तर पर इस आंदोलन से हासिल हुयीं उपलब्धियों का मूल्यांकन करें तो यह लगता है कि इस मौके पर भी इन आंदोलनों में अपने राजनीतिक विस्तार की संभावनाएं तलाश रहे वामपंथी दल अपनी भूमिका का सही तरह से निर्वाह करने से चूक गये हैं। 

इस भूमिका का सही तरह से निर्वाह नहीं कर पाने के चलते सरकार जहां एक तरफ अपने आपको आंतरिक वैधता के संकट से बचा पाने में सफल हो गयी है वहीं दूसरी तरफ कई किस्म की प्रतिक्रियावादी धाराओं और ताकतों को भी खुद को मजबूती से स्थापित और संगठित हो जाने का मौका मिल गया है। यहां यह रेखांकित करना जरूरी हो जाता है कि शुरुआत से ही इन प्रतिक्रियावादी मांगों के पक्ष में बनते चले गये माहौल और कानूनी दायरों में पूरे विमर्श को धकेल देने की कोशिशों ने सरकार को कई तरह के कानूनों में मन-मुताबिक़ फेरबदल करने का मौका उपलब्ध करा दिया है। पिछले दिनों बाल विकास मंत्री कृष्ण तीरथ ने सामूहिक बलात्कार में शामिल सत्रह वर्षीय किशोर को सामान्य अपराधी की तरह सजा दिलवाने के लिये किशोर न्याय बाल सुरक्षा अधिनियम 2000 में संशोधन करने की जो बात कही, वह ऐसी ही कोशिशों का नतीजा है। अगर सरकार इस अधिनियम में संशोधन करने में सफल हो जाती है तो यह देश में बाल अधिकारों के लिये लंबे संघर्ष के बाद हासिल की गयी उपलब्धि को नुकसान पहुंचाने वाला होगा। 

यह आश्चर्य की बात है कि इन आंदोलनों से जुड़े वामपंथी दल अपनी राजनीतिक स्थिति और अपनी राजनीति की दिशा का संतुलित मूल्यांकन नहीं कर पाने के चलते यह नहीं देख पा रहे हैं कि इन कोशिशों में उनकी राजनीतिक स्थिति का फर्क धुंधला होता जा रहा है और कई मौकों पर वह कई किस्म की प्रतिक्रियावादी धाराओं के साथ गुथा हुआ नजर आता है। ऐसे में न तो वे मौजूदा जनतांत्रिक राजनीति के विकास क्रम को आगे ले जाने में सहयोगी नजर आते हैं और न ही वर्तमान व्यवस्था के बुनियादी संकटों पर कोई निर्णायक सवाल खड़े करते नजर आते हैं। सच तो यह है कि न सिर्फ इन आंदोलनों में और बल्कि मुख्य धारा से अलग चल रहे जल, जंगल जमीन के आंदोलनों और संघर्षों में भी वामपंथी राजनीतिक दलों ने जैसे अवस्थिति अपनायी है, वह उनकी ऐतिहासिक छवि से एकदम मेल नहीं खाती है। 

ऐसे में यह सवाल बहुत अहम हो जाता है कि मुख्य धारा से कटे हुए वर्गों और समूहों के संघर्षों को प्रतिनिधित्व देने का दावा करने वाले इन राजनीतिक दलों की जवाबदेही कैसे तय की जाये? दरअसल बीते वर्षों में मुख्य धारा के वामपंथी दलों की राजनीति पर देश की सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों पर कोई प्रभावी हस्तक्षेप कर अवसर पैदा करने से ज्यादा अवसरों को पकड़ने और उनके फौरी परिणामों को ध्यान में रखकर अपनी स्थिति तय करने का नजरिया हावी होता चला गया है। यह बदलाव अपने आप में वैकल्पिक राजनीति की उम्मीदों को तोड़ने वाला साबित हो रहा है।
(अभिनव से abhinavas30@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं।) 

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