27 अक्टूबर 2012

चक्रव्यूह: एक चालाक फ़िल्म

-दिलीप खान
प्रकाश झा एक चालाक फ़िल्मकार है और चालाक आदमी भी। चक्रव्यूह पर बात करने से पहले दी इंडियन एक्सप्रेस की साप्ताहिक पत्रिका आई (सप्लिमेंट) और द हिंदू को दिए गए दो अलग-अलग साक्षात्कारों की दो बातें मुझे याद आ रही है। आई में प्रकाश झा ने कहा कि जिस दौर में वो अपहरण बना रहे थे उस दौर में वो बिहार का सच था, नीतीश जी के आने के बाद बिहार की तस्वीर बदल गई है। (पूरा साक्षात्कार पढ़ेंगे तो आप समझ जाएंगे कि नीतीश जी का ज़िक्र प्रकाश झा ने बेहद चालाकी से किया है और मॉल वगैरह खोलने देने का बदला चुकता कर रहे हैं।) द हिंदू में प्रकाश झा ने कहा कि ओम पुरी का किरदार कोबाड गांधी से प्रेरित है। यानी उन्होंने इशारा दिया कि न सिर्फ़ प्लॉट बल्कि फ़िल्म के पात्र भी देश के वास्तविक लोगों को ध्यान में रखकर बुने गए हैं। फ़िल्मांकन में यह दिखता भी है...गमछे से चेहरा ढंककर जब राजन (मनोज वाजपेयी) आज तक को साक्षात्कार देते हैं तो साफ़ लगता है कि वो माओवादी नेता किशन जी की भूमिका में हैं। इसके अलावा महंता का नाम देखते ही आपको वेदांता याद आ जाएगी और नंदीघाट का नाम देखकर नंदीग्राम। दूसरे हाफ में जब कबीर (अभय देओल) के भीतर माओवादी बीज पनपता है तो उसका भी नाम बदलकर कॉमरेड आज़ाद कर दिया जाता है। तो आप कहिए कि प्रकाश झा ने पात्र, घटना और स्थान के मामले में थोड़ी-बहुत भी ख़बर से ताल्लुक रखने वालों को ये मौका दिया है कि वो फ़िल्म देखते ही उन नामों को देश की हालिया घटनाओं से जोड़ ले। लेकिन वास्तविकता की डोर थामेंगे तो आप गच्चा खा जाएंगे। मसलन नंदीघाट जगह देखकर अगर आप ये समझे कि फ़िल्म में बंगाल का प्लॉट है तो अगले ही पल महंता विश्वविद्यालय की बात कहकर फ़िल्म आपको उड़ीसा ले जाएगी। फिर जंगलों में फ़िल्म रह जाती है और यदि बोली की थोड़ी सी भी पकड़ आपको है तो पता चल जाएगा कि छत्तीसगढ़ी ज़मीन पर फ़िल्म आगे बढ़ती है। जाहिर है प्रकाश झा ने स्थान को बहुत तवज्जो नहीं दी है, अलबत्ता ये ज़रूर है कि काल के मामले में यह फ़िल्म खुद को बीते पांच साल की घटनाओं तक ही सीमित करती है। तो, एक तरह से घटनाओं का कोलाज है फ़िल्म में।  
दो दोस्तों की कहानी में पार्श्व में माओवाद
ये ज़रूर है कि फ़िल्म देखकर निकलने के बाद नक्सलियों (या फिर माओवादियों- टीवी और प्रिंट मीडिया की तरह फ़िल्म ने भी इनको समानार्थी के तौर पर इस्तेमाल किया है।) को शुद्ध आतंकवादी मानने वाले लोग एक बार सोचेंगे कि ये बंदे सिर्फ़ हथियारबंद गिरोह भर नहीं है, बल्कि इनका कुछ राजनीतिक मकसद भी है। (हालांकि इतना तो लोग जानते ही हैं।) सोचने को ये भी सोच सकते हैं कि या तो ब्रेन वॉश से या फिर राज्य से एकाध घटनाओं में पीड़ित होने के बाद लोग माओवादी बन जाते हैं जैसे कि जूही (अंजलि पाटिल) बनी। लाल सलाम को ऑल इज़ वेल की तरह जुमला भी बना सकते हैं।
बहरहाल, अभय देओल को आज़ाद ख़याल पात्र के तौर पर शुरू से फ़िल्म में दिखाया गया है। पुलिस में रहता है, लेकिन कायदा नहीं मानता। सही लग रहा है तो ठीक है वरना बग़ावत कर देगा। भविष्य की बिना कोई ठोस योजना रखने वाला इनसान है कबीर। इमोशनल क़िस्म का। इसी इमोशन की वजह से माओवादियों के बीच पुलिस की मुखबिरी करने पहुंचा कबीर, थोड़े-बहुत कनफ़्यूजन के साथ माओवादी बन जाता है। बहुत बाद तक वो तय नहीं कर पाता कि असल में है वो किस ओर! मामले को इस रूप में दिखाया गया है कि देश के ज़्यादातर लोग चूंकि माओवादियों से बावस्ता नहीं है तो टच में जाने के बाद ही वो उनसे प्रभावित हो सकते हैं। यानी राजनीति को ऐसी सब्जेक्टिविटी का मामला बनाया गया है कि जहां समय गुजारो वहीं का होकर रह जाओ! कबीर की पूरी बनावट ही फ़िल्म में इसी तरह की है। रोमेंटिसिज़्म वाली।
फ़िल्म में जबरन महंगाई वाले गाने को डाला गया लगता है
अभय देओल ने अभिनय अच्छा किया है लेकिन अंजलि पाटिल ने कमाल का काम किया है। मनोज बाजपेयी भी जमे हैं और ओम पुरी भी। अर्जुन रामपाल (एसपी आदिल ख़ान) अभिनय नहीं सीख पाएंगे इस स्थापना को उन्होंने चक्रव्यूह में पुख़्ता किया है। रिया मेनन (ऐशा गुप्ता) नामक पात्र की ज़रूरत नहीं थी, ग्लैमर के लिए प्रकाश झा ने उसे रच लिया, ठीक उसी तरह जैसे कुंडा खोल आइटम सॉन्ग रचा। स्क्रिप्ट में कई जगह ऐसी व्यावसायिक मजबूरी झलकती है गोया बाद में बीच-बीच में कुछ जोड़ा-घटाया गया हो। गानों के मामले में ख़ास तौर से ये बात कही जा सकती है। अभय देओल पर महंगाई वाला गाना फ़िल्माना था तो उससे ठीक पहले वाले दृश्य में तिरपाल के नीचे रात में उसे राग भैरवी गाते दिखा दिया। कैलाश खेर की जगह किसी नई आवाज़ को जगह देते तो गाने में रंग आता। कैलाश खेर की आवाज़ में कहीं से उस मिट्टी की खुशबू नहीं आ रही है जहां पर इसे फ़िल्माया गया है। टाटा-बिड़ला, अंबानी-बाटा वाला यह गाना प्रचार के लिए बेहद ज़रूरी था, सो एक तरह से इसे फिट कर दिया गया। शहरी कबीर अचानक माओवादियों के बीच पहुंचने के अगले ही दिन लोकगीत की शैली में गाने लगता है। फ़िल्म यह बताती है कि कबीर के रखने से कम से कम गाने-बजाने वाला कोई मिल जाएगा। यानी कबीर मुख्य गायक की ज़िम्मेदारी निभाता है। उसके गले से ऑटोमैटिक फूटता लोकगीत गले नहीं उतरता।  
एक लाइन में कहें तो फ़िल्म सैंडविच थ्येरी का विस्तार है। माओवादियों और राज्य के बीच पिसती जनता पर मध्यांतर से पहले सबसे ज़्यादा ज़ोर है। लेकिन, कुछ तथ्यों को फ़िल्म में इस तरह इस्तेमाल किया गया है कि लोग गफ़लत में पड़ सकते हैं। मिसाल के लिए नाम की साम्यता बैठाने के लिए अभय देओल को कॉमरेड आज़ाद बना दिया गया है। यानी कबीर ने पुलिस की मुखबिरी से कॉमरेड आज़ाद तक का सफ़र तय किया। वास्तविक दुनिया में जिन लोगों ने आज़ाद का नाम सुन रखा है उनके मन में यह धारणा पुख़्ता होगी। शुरुआती दृश्य में ओम पुरी के वकील और मानवाधिकार कार्यकर्ता के तौर पर जिस व्यक्ति को दिखाया जाता है बाद में उसी से कॉमरेड राजन (मनोज वाजपेयी) को सलाह लेते दिखाया जाता है। यानी मानवाधिकार कार्यकर्ता और माओवाद जैसे मामले का केस लड़ने वाले लोग असल में फेस सेविंग प्रोफ़ेशन के तौर पर ऐसा काम करते हैं लेकिन होते हैं पार्टी कैडर ही!
कमज़ोरी और चालाकी के कई और उदाहरण हैं। मसलन, एसपी स्तर का पुलिस अधिकारी ईमानदार और सच्चाई व वर्दी की मांग को पूरा करने वाले होते हैं।(छत्तीसगढ़ के कल्लूरी और राष्ट्रपति पदक विजेता अंकित गर्ग को याद कीजिए)। माओवादी नेता के बदले व्यवसायी बच्चे की अदला-बदली महज पुल के इस पार-उस पार वाला मामला है! फ़िल्म में माओवाद पर कुछ बेसिक रिसर्च छूटता दिखता है। फ़िल्म बताती है कि स्थानीय पुलिस बंद दरवाज़ों के भीतर रहने वाली जीव है और माओवादियों के नाम पर मुठभेड़ में कभी-कभार निर्दोष लोग सिर्फ़ मारे जाते हैं वरना फ़र्जी गिरफ़्तारियां तो होती ही नहीं। सल्वा जुडूम कॉरपोरेट समर्थित संगठन है और राज्य का इससे कोई वास्ता नहीं है! फ़िल्म तो आपको यही बताती है कि सल्वा जुडूम को महंता ने पैदा किया और मुख्यमंत्री महोदय की इसमें कोई भूमिका नहीं है। (..लगे हाथों सल्वा जुडूम पर सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला याद कीजिए)। फ़िल्म के आख़िर में ओम पुरी (प्रकाश झा के मुताबिक़ कोबाड गांधी से प्रभावित पात्र) माओवादियों का सबसे बड़ा (मेंटर) नेता बन जाता है। आजतक और दैनिक भास्कर फ़िल्म में बार-बार आते हैं और शायद इसलिए फ़िल्म में कहीं भी उन इलाकों में मीडिया के कॉरपोरेट हितों को नहीं दिखाया गया है। मीडिया पार्टनर बनकर भास्कर ने अच्छा किया...पूरा मामला महंता तक ही सीमित रह गया और फ़िल्म में डीबी कॉर्प जैसे पावर प्लांट लगाने वाली कंपनियों का नामोनिशान तक नहीं दिखा। अंत तो बेहद नाटकीय है। रिया मेनन कबीर को गोली मारती है...आदिल ख़ान रोता है, फ़िल्म ख़त्म हो जाती है। फिर दो लाइन का वॉयस ओवर उभरता है कि देश में कितने लोग ग़रीब है और कितने लोग अमीर!
....लेकिन इन सबके बावजूद अगर पांच-दस ऐसी फ़िल्में बनती हैं, तो माओवाद को लेकर मध्यवर्ग की जमी-जमाई धारणा डिगेगी। सिनेमा हॉल में फ़िल्म ख़त्म होते ही कुछ लोग अपने विश्वास की डोर को मांझा देने के लिए आपस में गुफ़्तगू करने लगे, यू नो, कुछ भी हो बट कम्युनिज़्म इज़ ए फ़्लॉप शो। तो ये ज़रूर है कि दिल्ली वालों को छत्तीसगढ़ की एक (अधूरी, तोड़ी-मरोड़ी ही सही) झलक मिली, सिर्फ़ इस लिहाज़ से फ़िल्म को देखने की सलाह दूंगा। प्रकाश झा की यही चालाकी है। आप आलोचनात्मक भले ही हो जाइए लेकिन देखने की सलाह भी लगे हाथों ठोक जाइए। 

16 अक्टूबर 2012

‘लाइक’ भी एक धंधा है!


फेसबुक के जनक मार्क ज़करबर्ग की जीवनी (पांचवा और अंतिम भाग)
दिलीप खान

पहले पढ़ें- पहला, दूसरा, तीसरा और चौथा भाग।

दुनिया में कई कंपनियां ऐसी हैं जो सिर्फ़ फेसबुक विज्ञापन के लिए क्लाइंट मुहैया कराती है। तो बाज़ार में फेसबुक एक तरह से मकड़े की जाल की तरह फैली है और जिसके हर सिरे से लगकर कोई न कोई धंधा बुलंद हो रहा है। लंदन की टीबीजी कंपनी फेसबुक विज्ञापन मुहैया कराने वालों में एक चर्चित नाम है। इसी तरह स्टारबक्स और बड्डी मीडिया भी यही काम करती है। ये कंपनियां फेसबुक और विज्ञापकों के बीच बिचौलिए का काम करती हैं और करोड़ों कमाती है।इसके अलावा कंपनियां अपने-अपने पेज बनाती और बनवाती हैं। आप पेज को लाइक कीजिए कंपनी का मैसेज, स्टेटस आपके होम पेज पर दिखना शुरू हो जाएगा। कुछ कंपनियां ऐसी हैं जो दूसरी कंपनियों के लिए पेज बनाने का ठेका लेती है। इनका दावा होता है कि वो फेसबुक पेज के जरिए संबंधित कंपनी को लोकप्रिय बना देगी। ये लाइक करती है और करवाती है। जितना ज़्यादा लाइक मिलेगा उतना ही ऊपर आपका प्रोडक्ट आएगा। लोग देखेंगे कि कंपनी को हज़ार लोग पसंद कर रहे हैं तो कई बार दबाव में वो भी पसंद करना शुरू कर देंगे। फेसबुक में ऐसा होता है।आप अगर लाइक नहीं कर रहे हैं तो भी आपके होम पेज पर कंपनी का नाम चमक उठेगा, यदि आपका दोस्त उसे लाइक कर रहा हो। हालांकि कई कंपनियों का मानना है कि फेसबुक एक व्यावसायिक माध्यम न होकर एक सोशल माध्यम यानी सामाजिक मंच है इसलिए इसका इस्तेमाल बिक्री के लिए कम जनसंपर्क के लिए ज़्यादा होना चाहिए। चूंकि मार्क व्यवसाय के इस मॉडल के शुरुआती प्रयोगकर्ता हैं इसलिए नवाचार के मामले में वो बेहद द्रुत हैं।2010में मार्क ने फेसबुक के मंच पर एक नए एप्लिकेशन से यूजर्स का परिचय कराया। ज़करबर्ग ने इसे ओपन ग्राफ का नाम दिया। इसकी खासियत यह है कि आप जान पाएंगे कि आपके दोस्त ने सीएनएन.कॉम या फिर वॉशिंगटन पोस्ट डॉट कॉम पर कौन सा लेख पढ़ा। कंपनियों को भरोसा है कि दोस्तों की सिफ़ारिश पर लोग चीज़ों को ज़्यादा गंभीरता से लेते हैं चाहे वो लेख पढ़ने का मामला हो या फिर शॉपिंग का। इस मामले में फेसबुक गूगल सेसैंकड़ों मील आगे निकल गया है। 
नास्डॉक में उतारा कंपनी को
अक्टूबर 2008 में फेसबुक कंपनी ने यह घोषणा की कि वह आयरलैंड के डब्लिन शहर में फेसबुक का अंतरराष्ट्रीय मुख्यालय खोलने जा रही है। मार्क ने कहा कि अमेरिका से बाहर एक बड़े दफ़्तर का होना बहुत ज़रूरी है। फेसबुक के मामले में तक़रीबन हर बार मार्क ने समय से पहले ही हवा के रुख को भांप लिया। फेसबुक पर यूजर्स की आवाजाही पर ग़ौर करें तो 2009 से इसमें तेज वृद्धि हुई है। धीरे-धीरे आलम ये हो गया कि 2010 में फेसबुक ने आवाजाही के मामले में गूगल को भी पीछे छोड़ दिया। नवंबर 2010 में सेकेंडमार्केट ने अपने आकलन में बताया कि ई-बेज को पार करते हुए फेसुबक अमेरिका में गूगल और अमेज़ॉन के बाद तीसरी सबसे बड़ी वेब कंपनी बन गई है। डबलक्लिक नामक संस्था के मुताबिक जून 2011 में फेसबुक पर पेज देखने की संख्या 10 खरब को पार कर गई और इस तरह यह दुनिया में सबसे ज़्यादा देखे जाने वाली वेबसाइट बन गई। हालांकि डबलक्लिक के इस आकलन में एक ढिलाई यह थी कि इसमें गूगल सहित कुछ अन्य महत्वपूर्ण वेबसाइटों को शामिल ही नहीं किया गया था। लेकिन इससे फेसबुक की लोकप्रियता कम नहीं हो जाती। तक़रीबन सभी महत्वपूर्ण संस्थाओं ने इसे ऊंचा पायदान दे रखा है। प्रसिद्ध सर्वे कंपनी नील्सन मीडिया रिसर्च स्टडी के मुताबिक दिसंबर 2011 में फेसबुक अमेरिका में दूसरी सबसे ज़्यादा इस्तेमाल की गई साइट थी। मार्क के लिए यह संख्या सुकूनदेह तो है लेकिन सिर्फ़ संख्या बढ़ाना उनका उद्देश्य नहीं है। वह जानते हैं कि कंपनी के ब्रांड की सबसे बड़ी ख़ासियत उसकी विश्वसनीयता है और इसीलिए लगातार उन्नति कर रही कंपनी में भी वो सुरक्षा का पेंच लगाते रहते हैं। यह एक तरह की चौकसी है। मार्च 2011 में मार्क ने कहा कि फ़र्ज़ी खातों, कम उम्र और अलग-अलग तरह की अशालीन व स्पैम हरकतों की वजह से रोज़ाना लगभग 20 हज़ार खातों को फेसबुक से हटाया जा रहा है। इस साल की शुरुआत से ही मार्क की यह योजना थी कि वो शेयर बाज़ार में फेसबुक को सूचीबद्ध करेंगे। अंतत:17 मई 2012 को फेसबुक ने इनिशियल पब्लिक ऑफर यानी आईपीओ की शुरुआत की। पहले दिन शेयर की क़ीमत 38 डॉलर थी। हालांकि नॉस्डॉक पर मार्क कुछ ख़ास नहीं कर पाए और अमेरिकी मीडिया के सघन प्रचार के बावज़ूद शेयर की दर में लगातार गिरावट देखी गईलेकिन क़ीमत में गिरावट के बावज़ूद फेसबुक ने एक कीर्तिमान रचा। आईपीओ के पहले दिन राजस्व के हिसाब से दुनिया की सबसे बड़ी कंपनी होने का तमगा इसके हाथ आ गया।
आभासी माध्यम की हक़ीकी दुनिया
ऐसा नहीं है कि मार्क की आलोचना कम होती है। हर धड़े में उनके आलोचक हैं। कुछ लोगों का मानना है कि मार्क ने लोगों के गुस्से, खुशी और मिलने-जुलने को इंटरनेट तक महदूद कर दिया है। एक हद तक यह सच भी है। फेसबुक उसी दौर की उपज है जब दुनिया में एक ख़ास संस्कृति का वर्चस्व लगातार बढ़ा है, लेकिन अपनी राजनीति और अपने विचार को सामने लाने के वास्ते फेसबुक का आप कितना इस्तेमाल करते हैं, इस पर कोई बंदिश नहीं है। यह आप पर निर्भर करता है कि फेसबुक पर गुजारे गए समय को आप किस उद्देश्य के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। बतकही के लिए भी कर सकते हैं, हंसी-मज़ाक के लिए भी, गंभीर सामाजिक-साहित्यिक चर्चा के लिए भी और चाहे तो इसके माध्यम से बड़ी राजनीतिक आंदोलन भी शुरू कर सकते हैं। मिस्र में 2010 के आखिरी दिनों में जो कुछ हुआ उसमें फेसबुक की बड़ी भूमिका रही। तहरीर चौक पर जमावड़े की शुरुआत फेसबुक से हुई। यह पहला वाकया था जिसने फेसबुक की राजनीतिक शक्ति को इतने बड़े फलक पर खोलकर सामने रख दिया। किसी को उम्मीद नहीं थी कि जिस दुनिया को वर्चुअल यानी आभासी दुनिया के तौर पर अब तक लोग जानते रहे हैं, वो हक़ीकी दुनिया के साथ इतनी गहराई से जुड़ी है। यह एक नए तरह का प्रयोग था। जींस पैंट पहनने वाले फंकी युवाओं की संख्या लाखों थी, जो एक हाथ से नारे के हर्फ वाले तख्त हवा में उछालते और दूसरे हाथ से मोबाइल के जरिए फेसबुक अपडेट करते। आंदोलनों की राजनीति अपनी जगह है लेकिन फेसबुक ने ये तो साबित कर ही दिया कि इसको इस्तेमाल करने का पक्ष असल में न्यू मीडिया के विर्मश का महत्वपूर्ण हिस्सा होगा। यानी यह वो तीर है जिसका जो इस्तेमाल करेगा, वह उसके पक्ष में जाएगा। फेसबुक का खुला आमंत्रण है- आओ, मुझे अपनाओ, मैं तुम्हारी मदद करूंगा। युवाओं के बीच लोकप्रियता को मापने का एक तरीका ये है कि उनके रोजमर्रा के फैशन में आप कितना पैबस्त हो पाते हैं। स्लोगन टी-शर्ट के जमाने में फेसबुक लिखा टी-शर्ट पहनकर इतराते कॉलेज स्टूडेंट्स शहरों में आसानी से मिल जाते हैं। फेसबुक से संबंधित कई स्लोगन टी-शर्ट पर लोकप्रिय है। उसमें लिखा कुछ भी हो सकता है, लेकिन सबका अर्थ अंतत: यही है कि फेसबुक उनकी ज़िंदगी में शामिल है। टी-शर्ट पर लिखा हो सकता है, फेसबुक रियून्ड मी या फिरफेस द बुक डांट सिट ऑन फेसबुक या फिर सीधे-सीधे फेसबुक। और इन युवाओं से पूछे तो साफ़ पता चलेगा कि फेसबुक के पर्याय के तौर पर लोग मार्क ज़करबर्ग को ही जानते हैं। बाकी सह-संस्थापकों डस्टिन मोस्कोविच या फिर क्रिस ह्यूग्स के नाम लोगों को अजनबी सरीखा लग सकता है। 
तीन कदम आगे और एक कदम पीछे
मार्क ने यूजर्स को खुली जगह दी है। उन्होंने शिकवा-शिकायत को दबाया नहीं है। हालांकि यह एक तरह की उनकी व्यावसायिक कूटनीति है और वे जानते हैं कि इंटरनेट की दुनिया दब्बू दुनिया नहीं है और जिस दिन यूजर्स को परेशानी महसूस होने लगेगी उसी दिन से फेसबुक नामक संस्था का पतन शुरू हो जाएगा। इसलिए जब फेसबुक पर विज्ञापन से लोग आजिज आ गए, तो फेसबुक पर ही फेसबुक के विरोध में पेज बना दिया। इन पेजों की संख्या लगातार बढ़ती गई तो ज़करबर्ग ने सोचा कि सामाजिक मंच है, माफी मांग लेनी चाहिए। उन्होंने मांगी। फेसबुक बीकन एप के जरिए उन्होंने ऐसा किया। मार्क ने रुसी क्रांतिकारी लेनिन की तर्ज पर कहा कि हम तीन कदम आगे और एक कदम पीछे की रणनीति पर काम कर रहे हैं। लोगों ने अपना काम जारी रखा। फेसबुक स्टॉप इनवेडिंग माई प्राइवेसी जैसे पेज बने। मार्क ने इन दिक्क़तों का हल ढूंढा और बिना घाटा सहे जिस हद तक लोगों की आज़ादी और निजता को विस्तार दिया जा सकता था, उन्होंने दिया। असल में वो व्यावसायिक धंधे में भी कहीं ज़्यादा चौकस और संवेदनशील हैं। देश, समाज, राजनीति से लेकर अर्थनीति तक को वो समझते हैं और समझने की कोशिश करते हैं। यह वर्ष 2009 था और मार्क ने इस समूचे साल टाई पहनने का फैसला लिया था। 2009 के ही किसी दिन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा मंदी, अर्थव्यवस्था, कटौती, रक्षा बजट, पेंटागन और शिक्षा जैसे गंभीर मसले पर बोल रहे थे। यूं कहिए कि जवाब दे रहे थे और जो व्यक्ति सवाल कर रहा था उनका नाम था, मार्क ज़करबर्ग। दोनों एक ही रंग के जैकेट और टाई में थे। मंदी को लेकर ज़करबर्ग ने ओबामा से जो सवाल किए वो खांटी पत्रकारों वाले सवाल थे। अंत में ओबामा ने मज़ाकिया लहजे में मार्क से कहा कि आप और हम जैसे लोग अगर टैक्स जमा करें तो अर्थव्यवस्था पटरी पर आ जाएगी। इस पूरे कार्यक्रम को ओबामा ने अपनी सफ़ाई के मंच के तौर पर इस्तेमाल किया। आप समझ सकते हैं कि अमेरिका में फेसबुक और मार्क की लोकप्रियता कितनी है।
सबसे दरिद्र धनी
टाइम मैगज़ीन के कवर पर छपना मार्क की लोकप्रियता को मापने का आधार नहीं है और न ही दुनिया के सबसे शक्तिशाली व्यक्ति की सूची में बार-बार शुमार किया जाना उनकी ताक़त को मापने का पैमाना। फेसबुक को इस्तेमाल करने वाले दुनिया भर के करोड़ों लोगों ने इन पत्रिकाओं और रेटिंग एजेंसियों से पहले ही मार्क पर मुहर लगा रखी है। दुनिया भर में फेसबुक और मार्क से कई दिलचस्प वाकये जुड़े हुए हैं।अपने जन्मदिन के कार्यक्रम को फेसबुक पर सार्वजनिक करने के बाद एक युवती के घर जब 1600 लोग मेहमान बनकर आ धमके तो पता चला कि यहां की यारी-दोस्ती सिर्फ की-बोर्ड तक की सिमट के नहीं रह जाती। इसलिए मार्क को इसी वास्तविक दुनिया का उद्यमी कहा जाना चाहिए। लीक से हट कर चलने वाला उद्यमी। हालांकि सभी कॉलेज छोड़ने वाले लोग मार्क ज़करबर्ग नहीं बन जाते, लेकिन मार्क ने कम-से-कम ये तो दिखा ही दिया कि रचनात्मकता किसी कॉलेज की मोहताज नहीं है। द फेसबुक इफैक्ट के लेखक डेविड किर्कपैट्रिक ने मार्क को लेकर एक शानदार टिप्पणी की है। डेविड के मुताबिक, हर बाप की इच्छा होती है कि उसका बेटा बैचलर डिग्री पूरी कर ले, चाहे बेटा अरबपति ही क्यों न बन जाए। लेकिन पहले, दूसरे और तीसरे अरब के बाद बाप की इच्छा मर जाती होगी। मार्क ज़करबर्ग का नाम याद करते वक्त अब शायद किसी के दिमाग में यह तस्वीर नहीं उभरती होगी कि उन्होंने अपनी बैचलर डिग्री पूरी नहीं की है! सामंजस्य के मामले में मार्क एक मिसाल बन सकते हैं। जब वो प्रिसिला के साथ डेटिंग कर रहे थे तो एक साम्यता स्थापित करने की खातिर हर रविवार एशियाई डिश खाते थे। वो बहुत लटके-झटके वाले नहीं हैं। जब उन्होंने एक अपार्टमेंट में पहला फ्लैट ख़रीदा तो उसमें सिर्फ एक बेडरूम था, दोस्तों के तानों के बाद उन्होंने दूसरी जगह दो बेडरूम का एक फ़्लैट ख़रीद लिया। फिर तीसरी दफ़ा उन्होंने दोमंजिला मकान ख़रीदा है जिसमें चार बेडरूम है और मार्क के लिहाज से यह कुछ ज़्यादा ही बड़ा है। मार्क से ख़फ़ा रहने वाले टेलर विंकलवॉस कहते हैं, मैने अपनी ज़िंदगी में जितने धनी लोगों को देखा है मार्क उनमें सबसे दरिद्र है।
चलिए इस दरिद्रता के बावजूद इस समय वो17 अरबडॉलर के मालिक हैं। उनके बनाए गए फेसबुक को दुनिया के 200 से ज़्यादा देशों में 83 करोड़ लोग इस्तेमाल करते हैं। लोगों को वे रोज़गार मुहैया कराते हैं। शादी के बाद हनीमून मनाने गए पांचेक शहर में मीडिया वालों के कैमरे से वो खुद को छुपाने की कोशिश में लगातार नाकाम साबित होते हैं। शहर-शहर, मुल्क-मुल्क पृथ्वी पर उनके चेहरे को हर कोने में पहचाना जाता है। करोड़ों युवा उनके भीतर खुद का अक्स ढूंढते हैं। फेसबुक की वजह से उद्यमियों के लिए वे आदर्श हैं तो युवाओं के लिए थैंक्यू सुनने के हक़दार। वे सुंदर हैं। शाहिद कपूर की तरह चॉकलेटी भी। 50 से ज़्यादा देश घूम चुके हैं। हर मिनट उनकी कमाई 9 लाख 50 हज़ार रुपए है। वे चार्टर्ड हवाई ज़हाज़ में सफ़र करते हैं और अगले साल 29वां जन्मदिन मनाने के लिए उनके पास कई महीने अभी बाकी हैं। तीन दशक बाद जब उनके जीवन के क़िस्सों पर नज़र दौड़ाई जाएगी तो यह लेख महज एक कोने में सिमट जाएगा।
संदर्भ – मार्क ज़करबर्ग इनसाइड फेसबुक, डॉक्यूमेंट्री- बीबीसी
             वेब 2.0 सम्मेलन में मार्क का भाषण
             न्यूयॉर्कर पत्रिका से मार्क की बातचीत
             मार्क ज़करबर्ग्स फेसबुक स्टोरी, प्रोड्यूसर- शैचर बैरॉन
             द फेसबुक इफ़ैक्ट विद मार्क ज़करबर्ग- मार्क किर्कपैट्रिक
             द सोशल नेटवर्क (फिल्म)
             इसके अलावा टुकड़ों में अलग-अलग वेबसाइट्स, अख़बारों, पत्रिकाओं पर ज़करबर्ग और फेसबुक पर आई ख़बरों, निबंध और विविध पाठ्य सामग्रियों का सहारा

15 अक्टूबर 2012

अमीबा के डीएनए से बना है फेसबुक!



फेसबुक के जनक मार्क ज़करबर्ग की जीवनी (चौथा भाग)

दिलीप खान

इससे पहले पढ़ें- पहला, दूसरा और तीसरा भाग।

बाकी कंपनियों से मुकाबला करने की बजाय मार्क अब भी इस बात पर ज़्यादा ध्यान दे रहे हैं कि जिन देशों में फेसबुक बिल्कुल नया है या फिर जिस ज़मीन पर अब तक ये उतरा भी नहीं है, पहले वहां के लोगों से इसका परिचय कराया जाय। इस लिहाज से देखें तो संभावना ऐसी लग रही है कि ग्लोब पर फेसबुक यूजर्स देश को एक रंग से रंगने पर जो चकती उभरती है वो भविष्य में भी लगातार फैलती रहेगी, अमीबा की तरह। इस फैलाव के लिए पूरी सजगता से मेहनत हो रही है। मार्क ज़करबर्ग ने अपने फेसबुक खाते पर खुद के बारे में सिर्फ एक वाक्य लिखा है, मैं दुनिया को ज़्यादा खुलापन देने की कोशिश कर रहा हूं। फेसबुक बनाने के शुरुआती दिनों में मार्क अपने दोस्तों, खासकर डस्टिन मोस्कोविच और क्रिस ह्यूग, को यह बताते रहते कि चूंकि दुनिया में ज़्यादातर लोगों के पास ऐसा कोई मंच नहीं है जहां पर वो अपनी बात रख सके, इसलिए उनकी आवाज़ असरदार नहीं बन पाती। वे न सिर्फ कंप्यूटर वैज्ञानिक तरीके से चीज़ों को देखते-समझते हैं बल्कि मनोविज्ञान और समाजशास्त्र के नज़रिए से भी घटनाओं और समाज की व्याख्या करते हैं। इसी वजह से मार्क ने लोगों के अभिव्यक्त करने की दमित इच्छा को समझा। अपनी बात कहने की कुलबुलाहट हर व्यक्ति के भीतर है और यही वजह है कि आज भारत में लगभग पांच करोड़ और दुनिया में 83 करोड़ से ज़्यादा लोग फेसबुक पर हैं और बिना किसी विभेद के हैं। बात कहने-सुनने में यहां पर कोई रौब नहीं दिखा सकता। ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ भी फेसबुक पर हैं तो सहरसा या भभुआ जिले का कोई इंटरमीडिएट का विद्यार्थी भी। इस मंच पर कोई किसी के अधीनस्थ नहीं है। दूसरे तरीके से कहें तो अपने खाते के भीतर आपको जो आज़ादी हासिल है वो अब तक दुनिया के किसी भी शासन व्यवस्था में एक नागरिक को हासिल नहीं हुई है। फेसबुक खाते का जो आपने अखाड़ा बना रखा है, आज़ादी के मामले में आप उसके सबसे बड़े पहलवान हैं। आप मतलब हर कोई। पहलवानी के गुमां में किसी दूसरे के अखाड़े की मिट्टी आप बिना उससे पूछे नहीं काट सकते। सबकी अपनी-अपनी सल्तनत है। हर कोई नागरिक है और हर कोई शासक। इसलिए यहां फतवा कारगर नहीं है, कारगर है तो सिर्फ निवेदन, बराबरी की बहस, असहमति और प्रत्युत्तर। मार्क से जब एक बार फेसबुक को एक वाक्य में समझाने के लिए कहा गया तो उन्होंने कहा कि इसके भीतर समाजशास्त्र और कंप्यूटर का डीएनए मौजूद है।
द एक्सिडेंटल बिलिनॉयर और द सोशल नेटवर्क की कहानी
मार्क ज़करबर्ग एक ऐसी परिघटना में तब्दील हो गए जो लोगों के भीतर भव्यता, उत्साह, कौतूहल, ईर्ष्या, रोमांच और अनोखेपन का एहसास जगाने लगे। अपने समकालीनों में तक़रीबन हर क्षेत्र के लोगों पर इन्होंने अपनी छाप छोड़ी है। बीते पांचेक साल में फेसबुक इंटरनेट पर समय गुजारने की एक तरह से मुहर में तब्दील हो गई है। मार्क की शुरुआती सफ़लता के बाद ही अमेरिकी बेस्ट सेलर लेखकों में शुमार बेन मेज़रिच ने उनके ऊपर किताब लिखने की सोची। जल्द ही उनका प्रोजेक्ट शुरू हो गया। हालांकि उन्होंने मार्क पर किताब लिखने की प्रक्रिया में कई साक्षात्कार किए लेकिन उन्होंने एक बार भी मार्क से बातचीत नहीं की और उनके पक्ष से चीज़ों को बहुत कम ही देखा, इसकी बजाय वह कैमरॉन और टेलर विंकलवॉस जैसे प्रतिद्वंद्वियों के अनुभवों को समेटते हुए किताब लिखी।द एक्सिडेंटल बिलिनॉयर। इस बात को लेकर मार्क ज़करबर्ग अब तक ख़फ़ा रहते हैं, लेकिन पूछने पर वो टका-सा जवाब देते हैं,“मशहूर लोगों पर ही किताब लिखी जाती है, चाहे पक्ष कुछ भी हो। मेज़रिच ने ये तो साबित कर ही दिया कि मैं मशहूर हूं। मेज़रिच का दावा है कि यह किताब फेसबुक के हर पहलू पर भले ही प्रकाश न डालता हो लेकिन इसमें ज़करबर्ग की ज़िंदगी की ऐसी कहानियां दर्ज़ है जिन्हें मार्क ने दुनिया से साझा नहीं किया। मेज़रिच ने जिस समय इस किताब पर काम करना शुरू किया लगभग उसके हफ़्ते बाद ही फ़िल्म निर्माता स्कॉट रीड ने उनकी किताब की कॉपीराइट लेने पर बातचीत का दौर चालू कर दिया। मेज़रिच तैयार हो गए। किताब पूरी होने के बाद रीड ने मेज़रिच से कहा कि मार्क का पक्ष चूंकि किताब में कम है इसलिए उनसे अतिरिक्त बातचीत की जानी चाहिए। बाद में खुद स्कॉट रीड ने मार्क से संपर्क साधा, लेकिन शुरुआती कवायदों से नाराज मार्क ने रीड को मना कर दिया। रीड ने किताब को पटकथा में तब्दील करने का ज़िम्मा आरोन सोरकिन को सौंप दिया। जिस समय सोरकिन के हाथों में कहानी आई उस समय तक फेसबुक के बारे में सोरकिन को ज़्यादा जानकारी नहीं थी, वो बस ये जानते थे कि कोई मार्क ज़करबर्ग है जिसने फेसबुक नाम की कोई चीज़ बनाई है और जिसके पीछे पूरा अमेरिका पगलाया हुआ है। इसके अलावा उन्होंने कुछ पत्रिकाओं की कवर स्टोरी में भी उस नवयुवक को देखा था, जो अपनी स्नातक की पढ़ाई बीच में छोड़ने के महीने बाद ही अरबपति कहलाने लगा था। पटकथा को जीवंत करने का उनके ऊपर भारी दबाव बन गया। आरोन सोरकिन के मुताबिक, मैं सोशल नेटवर्किंग के बारे में बहुत कम जानता था। ऐसे में मेरी चुनौती कहीं बड़ी थी। फेसबुक का मैने नाम तो ज़रूर सुना था, लेकिन ठीक उतना ही जितना मैंने कार्बुरेटर का सुन रखा है। मैं जानता तो हूं कि मेरी कार में कार्बुरेटर है, लेकिन कार खोलकर कोई मुझे उस पर उंगली रखने बोले तो मैं चकरा जाऊंगा। बहरहाल 2010 में फिल्म रिलीज हो गई। किताबी नाम को बदल दिया गया। फ़िल्म का नाम रखा गया- द सोशल नेटवर्क। इसमें हॉर्वर्ड कनेक्शन वाले क़िस्से को लंबा खींचा गया है और आधे से ज़्यादा हिस्से में मार्क को आइडिया चोर के तौर पर पेश किया गया है। मार्क के मुताबिक़ फ़िल्म कई बार उनके बारे में ग़लतबयानी करती है। हालांकि सोरकिन को वो पसंद करते हैं और सोरकिन का द वेस्ट विंग मार्क के पसंदीदा टीवी शो में शुमार है। मार्क की नाराजगी और सोरकिन की सीमाओं के बावज़ूद फ़िल्म रिलीज हुई और लोगों ने उसे खूब सराहा भी। इसमें मार्क के रुप में परदे पर नज़र आए जेसी आइज़नबर्ग।
मैं मार्क ज़करबर्ग हूं, माइक दीजिए मुझे
द सोशल नेटवर्क फिल्म में मार्क ज़करबर्ग का किरदार निभाने वाले जेसी आइज़नबर्ग में इस फिल्म के बाद कई लोग ज़करबर्ग के अक्स देखने लगे। आइज़नबर्ग भी मस्ती-मज़ाक में कई बार खुद को ज़करबर्ग के तौर पर लोगों के बीच पेश कर देते हैं। उनकी इस शरारती कारस्तानी की वजह से फेसबुक के कार्यक्रम में एक दिलचस्प वाकया हुआ। हुआ यूं कि कार्यक्रम शुरू होना था और ज़करबर्ग मंच पर नहीं पहुंचे थे। तो, मौका ताड़कर आइज़नबर्ग ने माइक संभाला। गला खंगालते हुए ठीक मंच के बीचो-बीच आकर उन्होंने लोगों का इस्तकबाल किया। फिर फेसबुक की कामयाबी को लेकर अपने अनुभव इस तरह शेयर करने लगा गोया वो सचमुच के ज़करबर्ग हो! इस बीच ज़करबर्ग स्टेज के बगल में परदे के पीछे से आइज़नबर्ग को देख-देखकर मजे ले रहे थे। थोड़ी देर तक चुप-चाप देखने के बाद हॉवर्ड का शरारती अंदाज़ ज़करबर्ग पर भी तारी हो गया। बीच में ही मंच पर आकर वो बोले, ओह! ये नामुराद कौन हैं?” अपने भाषण में रमे आइज़नबर्ग ने बिल्कुल उसी लहजे में जवाब दिया जैसे यह जवाब भी उनके भाषण का ही अंश हो, मैं मार्क ज़करबर्ग हूं। इस जवाब को सुनकर पूरा हॉल हंसी के मारे दोहरा हो गया। ज़करबर्ग ने दर्शकों से मुखातिब होकर कहा, नहीं, मैं मार्क ज़करबर्ग हूं। माइक दीजिए मुझे।
प्रिसिला, क्या तुम फेसबुक के लिए काम करोगी?
ज़करबर्ग को याद करते ही फेसबुक, कंप्यूटर और सॉफ्टवेयर इस तरह दिमाग में एक साथ गुथ जाते हैं कि जीवन के अन्य पहलुओं पर ध्यान बहुत कम ही जा पाता है, लेकिन मार्क ने अब तक अपना जीवन बेहद संतुलित, सामान्य और उसमें रंग भरने वाले हर पहलुओं को समेटकर जिया है। हॉवर्ड के शुरुआती दिनों में एक शुक्रवार पार्टी में मार्क के साथ सबकुछ उसी तरह था, जैसे अमूमन पार्टी में होता है। लेकिन पार्टी के बाद दुनिया वैसी नहीं रही, जैसे पहले थी। मार्क ने दोस्तों से गप्प-शप्प की, ठहाके लगाए, खाया-पिया और बाथरूम की तलब लगने पर उधर का रुख किया। पुरुष और महिलाओं के लिए जहां से रास्ता फूटता था, वह एक साझा हॉल था। लाइन में जब मार्क लगे तो बाजू वाली कतार में प्रिसिला चैन भी थीं, जिनसे मार्क अब तक अपरिचित थे। दोनों की यह पहली मुलाकात थी। प्रिसिला चैन ने बाद में एक साक्षात्कार में बताया कि पहली मुलाकात के वास्ते बाथरूम का संयोग दुनिया में कितना कम होता होगा! बहरहाल, पता-परिचय के बाद नियमित मिलना-जुलना शुरू हुआ। और धीरे-धीरे यह मुलाकात प्रेम में तब्दील हो गई। प्रिसिला भी हॉर्वर्ड में ही थीं। इस तरह से साझेपन की बुनियाद में हॉर्वर्ड का बड़ा योगदान रहा। फेसबुक इस समय नवजात ही था। मार्क फेसबुक को लेकर उत्साहित होने के साथ-साथ बेहद महत्वाकांक्षी भी हो रहे थे और इसी चलते उन्होंने हॉर्वर्ड छोड़ने का फैसला लिया। मार्क का कैलिफॉर्निया जाना सपाट तरीके का जाना नहीं था, वह फेसबुक नामक मंच को साथ लेकर कैलिफॉर्निया गए थे जिसकी पैदाइश हॉर्वर्ड थी और मौजूदा पता कैलिफॉर्निया। इस तरह न सिर्फ मार्क और प्रिसिला के शहर का बंटवारा हुआ था, बल्कि फेसबुक भी बंट गया था और दोनों का एक-एक सिरा दो अलग-अलग शहरों में ये दोनों थामे थे। प्रेम चलता रहा बल्कि यूं कहिए कि लगातार गहराता गया। सिलिकॉन वैली में फेसबुक ने जब अच्छी धाक जमा ली तो नए कर्मचारियों की भर्ती के लिए मार्क ने सबसे सटीक जगह के तौर पर हॉर्वर्ड को चुना और प्लेसमेंट की खातिर वो कुछ दिनों के लिए हॉर्वर्ड आ गए। विश्वविद्यालय से निकलने वाले समाचारपत्र द क्रिमसॉन के मुताबिक भर्ती प्रक्रिया के दौरान मार्क ने प्रिसिला को ऑफर दिया का वो फेसबुक के लिए काम कर सकती है! यह बेहद मज़ाकिया तरीका था मार्क का। प्रिसिला की प्रतिभा से मार्क वाकिफ़ थे। जिस वक्त याहू ने फेसबुक को 1 अरब डॉलर में ख़रीदना चाहा था तो चैन ने मार्क से लंबी जिरह के बाद उसे ठुकराने को कहा था। आप कह सकते हैं कि वो फैसला ज़करबर्ग का कम प्रिसिला का ज़्यादा था।
ग्रैजुएशन नहीं, शादी की पार्टी है
हॉर्वर्ड से पढ़ाई खत्म करने के बाद प्रिसिला चैन सैन जोस, कैलिफॉर्निया चली गई जहां उन्होंने हार्कर स्कूल में चौथे और पांचवे दर्जे के विज्ञान शिक्षिका की नौकरी शुरू कर दी। इस अदद नौकरी के साथ-साथ वह डॉक्टरी की पढ़ाई भी कर रही थी। जो भी हो, प्रिसिला का कैलिफॉर्निया आना अच्छा रहा, मार्क के साथ उनकी दूरी कम हो गई। नियमित अंतराल पर दोनों एक-दूसरे से मिलने लगे। लेकिन फेसबुक को लगातार मिलने वाले विस्तार की वजह से मार्क के पास समय की किल्लत दिन-ब-दिन बढ़ने लगी। इस व्यस्तता के कारण दोनों की मुलाकातें बाधित होती और फिर दोनों इस चीज़ को लेकर झगड़ पड़ते। झगड़ों की संख्या जब बढ़ने लगी तो प्रिसिला ने इसका हल ढूंढा। उसने मार्क के सामने यह प्रस्ताव रखा कि हफ़्ते में एक दिन दोनों साथ-साथ गुजारेंगे और इसमें कम से कम 100 मिनट ऐसे होंगे जहां उन दोनों के अतिरिक्त और कोई न हो। और यह 100 मिनट मार्क के अपार्टमेंट और फेसबुक के दफ़्तर के कहीं दूर होना चाहिए। जाहिर है मार्क सहमत हो गए। इस बीच प्रिसिला चैन ने अपने मूल देश यानी चीन घूमने की इच्छा जताई तो ज़करबर्ग भी साथ हो लिए। वहां पहुंचने के बाद मार्क को लगा कि वह दुनिया की एक बेहद ज़रूरी भाषा का भी नहीं जानते। बचपन से ही भाषाओं के प्रति आसक्त रहने वाले मार्क ने मंडारिन सीखनी शुरू कर दी। यह एक तरह से मार्क की ज़रूरत भी थी क्योंकि प्रिसिला की दादी अंग्रेज़ी नहीं जानती और  उनके साथ स्वतंत्र संवाद स्थापित करने की लाख चेष्टा के बावज़ूद मार्क को लगा कि मंडारिन के बग़ैर यह संभव नहीं है। चीन में अच्छा समय गुजारने के बाद दोनों वियतनाम घूमने निकल गए। इस दौरे से पहले ही मीडिया में दोनों की प्रेम कहानी पर हज़ारों पन्ने रंग चुके थे, लेकिन विदेश में साथ गुजारने पर मीडिया सैर-सपाटे वाले अंदाज़ में लगातार दोनों को छापता रहा। मीडिया रिपोर्टों से ऐसा लगता है कि अमेरिका की ज़्यादातर लड़कियां प्रिसिला चैन से रस्क करने लगी। सितंबर 2010 में प्रिसिला ने अपना घर छोड़ दिया। उनके घर छोड़ने से कुछ दिन पहले मार्क ने अपनी फेसबुक वॉल पर लिखा,प्रिसिला घर छोड़ रही है। अगर किसी को कप, डिश, ग्लास जैसे घर-गृहस्थी से संबंधित कोई भी सामान लेना हो तो जल्दी संपर्क करें। कहीं ऐसा न हो कि आपके आने से पहले उनको ठिकाने लगा दिया जाए। लंबे समय बाद जब 19 मई 2012 को ज़करबर्ग ने अपने फेसबुक खाते में इंगेज्ड के बदलेमैरिड लिखा तो उस दिन की यह बड़ी ख़बर बन गई। तो अंतत: मार्क और प्रिसिला चैन ने अपने 9 साल पुराने प्रेम संबंध को शादी में तब्दील कर दिया। शादी की ख़बर ज़्यादातर लोगों को नहीं थी, यहां तक कि पार्टी में मौजूद कई लोगों को लगा कि यह प्रिसिला के ग्रैजुएट होने की खुशी में दी जाने वाली पार्टी है। शादी का पूरा आयोजन एक तरह से खुलासे की मानिंद हुआ। लोगों का मालूम हुआ कि अरे, यह तो ग्रेजुएटहोने की नहीं, बल्कि शादी की पार्टी है!

यह गुमशुदा तलाश केंद्र है

मार्क ने फेसबुक को लेकर लगातार प्रयोग किया है। निजी ज़िंदगी की तमाम सामंजस्य और व्यस्तता के बावज़ूद वो फेसबुक को लेकर नएपन के साथ बाज़ार में उतरते रहे। वह जानते हैं कि भूमंडलीकरण के दूसरे चरण का यह उत्पाद है। 21वीं सदी का। लोकप्रिय संस्कृति के मज़बूत हो चले जड़ों के बीच फेसबुक युवा पीढ़ी के सामने उस वक्त उभरा है जब सबके जीवन की घड़ी तेज चलने लगी है। समूचा जीवन फास्ट मोड पर है। संगीत, गाड़ियां, गप्प-शप्प, खाना-पीना, पढ़ना-लिखना। सबकुछ। अब दूसरे के ख़यालात जानने में कोई चार मिनट का समय नहीं दे सकता और कोई चार सौ शब्द लिखकर अपनी बातें नहीं कहता। सबकुछ संक्षिप्त, सबकुछ तेज। फेसबुक की दुनिया में वही लेखन सबसे आकर्षक और लोकप्रिय है जो छोटा है। जाहिर है इस ज़माने में हर यूजर के पास इतना समय नहीं है कि वो बैठकर डेस्कटॉप या फिर लैपटॉप पर फेसबुक लॉग-इन करे। मार्क ने यूजर्स को विकल्प दिया कि वो राह चलते, पार्टी से या फिर घटनास्थल से बिना लैपटॉप तक पहुंच बनाए फेसबुक से जुड़ सकते हैं।उन्होंने 2007 के अंत में मोबाइल पर फेसबुक की शुरुआत की।आप कह सकते हैं कि वह समय की नब्ज को जानते हैं। वह जानते है कि मोबाइल पर फेसबुक शुरू करने का अर्थ क्या है। आज नतीजा ये है कि दुनिया में फेसबुक इस्तेमाल करने वाले आधे लोग मोबाइल के जरिए भी इससे जुड़े हैं। मार्क के फेसबुक ने देश-दुनिया-समाज में कई बदलाव किए। अपने विस्तार के बाद से फेसबुक संभवत: दुनिया की ऐसी सबसे बड़ी डायरेक्ट्री है, जिसने लोगों की ई-मेल और मोबाइल नंबर तक पहुंच आसान कर दी है। चेहरा अगर आप पहचानते हैं तो फेसबुक में सर्च कीजिए और दुनिया में मनचाहे यूजर्स का फोन नंबर हासिल कर लीजिए। हालांकि कई लोग सुरक्षा या फिर निजी वजहों से फोन नंबर सार्वजनिक नहीं करते, लेकिन इसके बावजूद खोए हुए मित्र को ढूंढने या फिर खुद का मोबाइल गुम होने के बाद ग़ायब हुए फोन नंबरों को वापस हासिल करने में फेसबुक लोगों के बड़े सहारे के तौर पर उभरा है। गूगल से यही चीज़ फेसबुक को अलग करती है। सर्च करने पर गूगल सार्वजनिक जानकारी देता है, लेकिन फेसबुक निजी।
...तो ये है कमाई का जरिया
2007 में ज़करबर्ग ने यह घोषणा की कि फेसबुक अब प्लेटफॉर्म बनने जा रहा है। इसका मतलब ये है कि जो दूसरे डेवलपर्स हैं वे अब फेसबुक पर आकर नए एप्लिकेशंस शुरू कर सकते हैं। यानी बाहर के दूसरे खिलाड़ियों को मार्क ने खेलने के लिए अपना मैदान दे दिया और हमेशा की तरह यह तरकीब भी कारगर रही। एप (एप्लिकेशन) वाला मामला चल निकला। इसमें न सिर्फ़ फेसबुक का फायदा होना था बल्कि खुद सोशल गेमिंग कंपनियों ने फेसबुक के पास इसके लिए मनुहार किया था। जाहिर है इन कंपनियों को फेसबुक के माध्यम से लोगों तक पहुंचने में बड़ी कमाई दिख रही थी। जबसे सोशल गेमिंग को इसपर जगह मिली है तब से फार्मविले और माफिया वार्स जैसी सोशल गेमिंग कंपनियों ने इसके मार्फत सैंकड़ों मिलियन डॉलर्स सालाना कमाए हैं। कई यूजर्स के दिमाग में यह सवाल रहता है कि आख़िरकार फेसबुक की कमाई का जरिया क्या है?दो-तीन उदाहरणोंऔर तथ्यों के जरिए फेसबुक की कमाई का राज़ आप आसानी से जान लेंगे। लंदन दुनिया में सोशल गेमिंग का दूसरा सबसे बड़ा शहर है। फेसबुक पर गेमिंग का दरवाज़ा खुलते ही इस शहर की हलचल तेज हो गई।गेमिंग कंपनियां यूजर्स को गेम खेलने देने के बदले पैसा वसूलती है। पहले दो-एक खेल तो ये नमूने के तौर पर खेलने देती है लेकिन रुचि मज़बूत होते ही यूजर्स को पैसे देकर आगे खेलने का विकल्प पेश करती है। यूजर्स से जो पैसा गेमिंग कंपनियां इकट्ठा करती है सामान्य तौर पर फेसबुक उसका एक तिहाई रख लेता है। सामान्य रेट-चार्ट यही है। गेमिंग कंपनियों के लिए फेसबुक से सहूलियत ये होती है कि उन्हें बैठे-बैठे करोड़ो यूजर्स तक पहुंचने का रास्ता मिल जाता है। कुल मिलाकर कहें तो अरबों रुपए का ये सालाना धंधा है। प्लेफिश जैसी कंपनियां हर साल करोड़ों कमाती है। लेकिन फेसबुक और मार्क ज़करबर्ग की सबसे ज़्यादा कमाई विज्ञापनों से होती है। फेसबुक पर विज्ञापन का अंदाज़ निराला है। आपको पता भी नहीं चलेगा और ग़ौर करेंगे तो खूब पता चलेगा! असल में फेसबुक पर विज्ञापन देने से विज्ञापकों के पास अतिरिक्त उपभोक्ता तक पहुंचने की झंझट से मुक्ति मिलती है। जिनके लिए विज्ञापन है, वह पहुंच भी उन्हीं तक रहा है। यही फेसबुक की खूबी है। टीवी पर अगर महिलाओं के किसी सामान का विज्ञापन आ रहा है तो चैनल बदलने के अलावा और कोई उपाय नहीं है जिससे पुरुष दर्शक उसे नहीं देखे। ऐसे में विज्ञापक बड़ी तादाद में ऐसे दर्शकों को विज्ञापन दिखाता है, जो कभी भी उनका उपभोक्ता नहीं बनेंगे। फेसबुक कंपनी इसी असंतुलन को दुरुस्त करती है। वह विज्ञापकों को सूचना और संख्या बेचती है। मान लीजिए एक शहर में पांच लाख फेसबुक यूजर्स महिला हैं। उन पांच लाख में से ब्यूटी का शौक रखने वाली महिलाओं की संख्या दो लाख है और शादीशुदा महिलाओं की संख्या एक लाख 50 हज़ार है। तो विज्ञापकों को फेसबुक यह बताएगा कि अमुक शहर में ब्यूटी और फैशन की शौकीन शादीशुदा और अविवाहित महिलाओं की संख्या कितनी है। कितने लोगों को बाइक पसंद है कितने लोग चॉकलेट पसंद करते हैं। आदि, आदि। यही संख्या बेचकर फेसबुक पैसा वसूलता है। विज्ञापक आपका नाम नहीं जानता, लेकिन वह संख्या जानता है और आज के ज़माने में बाज़ार के लिए नाम से बड़ी चीज़ संख्या हो गई है।

पांचवां और आख़िरी भाग यहां पढ़ें।

14 अक्टूबर 2012

एक बच्चा जिसने 1 अरब डॉलर की डील ठुकरा दी!



फेसबुक के जनक मार्क ज़करबर्ग का जीवन (तीसरा भाग) 
पहले पढ़ें- पहला और दूसरा भाग।

मार्क को अब लगने लगा कि फेसबुक के वास्ते हॉर्वर्ड का वह कमरा छोटा पड़ रहा है। फेसबुक में उन्होंने एक सुनहरा भविष्य देख लिया था। अपने नजदीकी दोस्तों से वो बार-बार कहते कि फेसबुक का काम अब पार्ट टाइम से नहीं चलेगा। एक दिन सुबह जब वो जगे तो नए फैसले के साथ जगे। उन्होंने तय कर लिया कि अब हॉर्वर्ड को अलविदा कहने का समय आ गया है। सो, बीच में उन्होंने अपनी पढ़ाई छोड़ दी। वाशिंगटन के इस विख्यात विश्वविद्यालय से निकलकर उन्होंने सिलिकन वैली का रुख किया। इस समय तक मार्क के पास फेसबुक का विराट स्वप्न था, महीनों की मेहनत थी, लगन था, सिर्फ एक चीज़ नहीं थी और वो था- धन। जून 2004 में फेसबुक का बोरिया-बिस्तर समेटकर ज़करबर्ग पालो ऑल्टो, कैलिफॉर्निया चले गए। अब मार्क, मोस्कोविच, सैवेरिन और ह्यूग ने एकसूत्रीय एजेंडे पर काम करना शुरू किया। सवेरे-सवेरे ये लोग सिलिकन वैली में एक अदद निवेशक की तलाश में धूल फांकने निकल पड़ते। मार्क की जिद थी कि कोई विश्वसनीय और बाज़ार को समझने वाला निवेशक चाहिए। जून में ही पे-पल के सह-संस्थापक पीटर थील की तरफ से मार्क को पहला निवेशक मिला। लेकिन मार्क ने दूसरे निवेशक की तलाश जारी रखी। जल्द ही रॉन कॉनवे से मार्क की मुलाकात हुई। शुरुआत में कॉनवे ने मार्क को बावला लड़का समझा, जो पढ़ाई छोड़कर खामख्वाह व्यवसाय में हाथ आजमाने की कोशिश में सिलिकॉन वैली आ गया था, लेकिन मार्क की कुछ बातें उन्हें बेहद पसंद आई, ख़ासकर उनका आत्मविश्वास। रॉन कॉनवे को मार्क ने सपाट लहजे में कहा,आप निवेश कीजिए, मैं वादा करता हूं भविष्य में इसके 300 मिलियन यूजर्स होंगे। मैं दूंगा यूजर्स, आप दीजिए डॉलर्स। पांच लाख डॉलर के निवेश के साथ ज़करबर्ग ने एक चाइनीज रेस्त्रां के ऊपर अपना दफ़्तर खोल लिया। कुछ ही महीनों के भीतर फेसबुक ने एक मिलियन (यानी 10 लाख) यूजर्स हासिल कर लिया। फेसबुक शुरू होने के एक साल बाद यानी 2005 में फेसबुक यूजर्स की संख्या 50 लाख तक पहुंच गई। कॉनवे ने उस समय लगभग चीखते हुए कहा, यह है असली कंपनी। हज़ार फ़ीसदी की रफ़्तार से तरक्की करती हुई कंपनी।
चार चौरंगे


2004 के मध्य में जब फेसबुक नाम की कंपनी ने अपना कारोबार शुरू किया उसी समय से उद्यमी सीन पार्कर ने अपने व्यावसायिक तजुर्बे का इस्तेमाल करते हुए फेसबुक की काफ़ी मदद की।सिलिकॉन वैली में भी सीन पार्कर ने निवेशकों से लेकर व्यवसाय से संबंधित ज़्यातार मामलों में फेसबुक की अगुवाई की। सीन पर मार्क का पूरा भरोसा था। फेसबुक ने कारोबारी जगत में तेज बढ़त बनाना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे बड़ी कंपनियों की आंखों में फेसबुक टंग गया। उन्होंने फेसबुक की ओर तवज्जो देना चालू किया। ये कंपनियां न सिर्फ फेसबुक में निवेश करना चाहती थीं, बल्कि पूरी कंपनी को ही ख़रीदना चाहती थीं। 2006 में याहू ने मार्क को 1 बिलियन डॉलर (5000 करोड़ रुपए) का ऑफर दिया, जिसे मार्क ने अस्वीकार कर दिया। मार्क के भीतर फेसबुक को लेकर जो ख्वाब पल रहा था वो अरब आंकड़े वाले डॉलर का नहीं था, वह अरब यूजर्स का था। याहू का प्रस्ताव ठुकराने के बाद एक चर्चित अमेरिकी आईटी पत्रिका ने अपनी कवर स्टोरी की – एक बच्चा जिसने 1 अरब डॉलर की डील ठुकरा दी! उस समय याहू के सीईओ टेरी सेमेल ने कहा- किसी 23 साल के नवयुवक से अपनी ज़िंदगी में मेरी मुलाकात नहीं हुई जो एक अरब डॉलर को यूं चुटकी में ठुकरा दें।
अब तक फेसबुक सिर्फ अमेरिकी विश्वविद्यालयों तक महदूद था। मार्क ने फेसबुक को विश्वविद्यालय की चौहद्दी से बाहर ला खड़ा किया। इस नए चरण में एप्पल और माइक्रोसॉफ्ट सहित कई कंपनियों के कर्मचारियों के वास्ते फेसबुक का दरवाज़ा खोला गया और अंतत: 26 सितंबर 2006 यह फैसला लिया गया कि एक अदद ई-मेल आईडी रखने वाला 13 साल या उससे ज़्यादा उम्र का कोई भी व्यक्ति फेसबुक पर अपना खाता खोल सकता है। मार्क अपने इस फैसले को तार्किक कदम कहना ज़्यादा पसंद करते हैं। फेसबुक की इस घोषणा के बाद से हर रोज़ 50 हज़ार से ज़्यादा लोगों ने जुड़ना शुरू कर दिया। मार्क को फेसबुक की लोकप्रियता का अंदाज़ा तो था, लेकिन इतने जुनूनी तरीके से लोग इसे हाथों-हाथ लेंगे इसकी उम्मीद किसी को नहीं थी। जल्द ही फेसबुक यूजर्स की संख्या करोड़ तक पहुंच गई। माइक्रोसॉफ्ट ने अब फेसबुक को 15 बिलियन डॉलर (75000 करोड़ रुपए) का ऑफर दिया। मार्क की उम्र उस समय महज 23 साल की थी। बिल गेट्स की माइक्रोसॉफ्ट को उम्मीद थी कि ज़करबर्ग इतने में पिघल जाएंगे, लेकिन जिस तरह झटके में मार्क ने याहू के प्रस्ताव को ठुकराया था, उसी तरह माइक्रोसॉफ्ट को भी बैरंग वापस भेज दिया। यह अमेरिकी व्यावसायिक हलकों के बीच एक सनसनीखेज घटना थी।
फेसबुक के एटीएम से की-बोर्ड निकलता है
फेसबुक की बढ़ती क़ीमत को लेकर लोगों के बीच एक उफ की भावना घर करने लगी। एक साल पहले जिस कंपनी को एक अरब डॉलर का प्रस्ताव मिला, उसके ठीक अगले साल उसी कंपनी को 15 गुना ज़्यादा क़ीमत मिल रही थी, लेकिन कंपनी का जिद्दी संस्थापक उसे बेचने को रत्ती भर भी तैयार नहीं! कई बाज़ार विश्लेषक ने मार्क के कदम को उस समय बेवकूफाना करार देते हुए ये तक कह डाला कि मार्क बाज़ार का कच्चा खिलाड़ी है। यह अलग बात है कि उन विश्लेषकों से स्टॉक एक्सचेंज की दुनिया के बाहर कोई नहीं जानता। मार्क कच्चा हो, पक्का हो, बाज़ार को कम जानता हो, ज्यादा जानता हो ये ज़्यादा महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण है तो बस वह अदद जिद्द कि अपनी कंपनी बनानी है। इस जिद्द की वजह से ही उन्होंने किसी भी कॉरपोरेट घराने का कोई प्रस्ताव मंजूर नहीं किया। उन दिनों को याद करते हुए मार्क कहते हैं कि, सबसे आकर्षक ऑफर याहू का था क्योंकि उसी ने पहली बार अरब का आंकड़ा नज़रों के सामने पेश किया था।
तब से लेकर अब तक मार्क ने फेसबुक को लगातार विस्तार दिया है। 1601, कैलिफॉर्निया एव में स्थित फेसबुक के मुख्यालय में बाकी इंजीनियरों की तरह मार्क भी खुले हॉल में बैठते हैं, उनके लिए कोई अलग केबिन नहीं है। सबकी सीटों के बीच एक मार्क की भी सीट है। जाहिर है वह खुद को विशिष्ट नहीं बनने देना चाहते। हां, जिस टेबल पर मार्क बैठते हैं उस पर उन्होंने खुद का एक छोटा सा कट-आउट ज़रूर लगा रखा है। यही कट-आउट मार्क की निशानी है। यह हरकत बिल्कुल उस तरह की है जैसे कॉलेज के नौजवान पुस्तकालय या फिर कक्षा में अपनी सीट घेरने के लिए उस पर कुछ संकेत चस्पां कर दें और फिर सीट को लेकर अपनी दावेदारी जताए। बराबरी में यह ख़ास का भाव मस्ती भरे अंदाज़ में मार्क हासिल कर रहे हैं। मार्क अगर दफ़्तर में नहीं होते हैं तो किसी भी पूछताछ के लिए सारे कर्मचारी फेसबुक का इस्तेमाल करते हैं। दफ़्तर की सबसे बड़ी खूबी यही है कि यहां पर फेसबुक बैन नहीं है! हालांकि इस ऑफिस को ऐसा करने का पूरा हक़ है। मार्क की कोशिश रहती है कि इंजीनियर जितना भी समय ऑफिस में गुजारे उसमें अनुत्पादक गतिविधियों में कुछ भी खर्च न हो। इसके लिए उन्होंने कई दिलचस्प व्यवस्थाएं कर रखी है। एक मिसाल लीजिए- अगर काम करते-करते आपका की-बोर्ड टूट गया, तो बाकी ऑफिस की तरह आपको आईटी डिपार्टमेंट का इंतज़ार नहीं करना पड़ेगा। एक मशीन में अपना कार्ड लगाइए, नया की-बोर्ड ठीक उसी तरह निकलेगा, जिस तरह एटीएम से नोट निकलता है। साथ में मशीन पर लिखा आएगा--हैव ए नाइस डे! है न अद्भुत?
वक़्त की ज़रूरत थी कि उसके डैने को मोड़ा जाए
फेसबुक की बेहतरी के लिए उनके पास एक मेहनती टीम है जो आपस में बेहद अपनापन भरा माहौल बनाए रखती है। यही वजह है कि गूगल जैसी कंपनियां सोशल नेटवर्किंग की दुनिया में फेसबुक से पछाड़ खाए बैठी है। मार्क कहते हैं,हमारे पास लगभग 6000 इंजीनियर हैं। माइक्रोसॉफ्ट और गूगल के पास दसियो हज़ार इंजीनियर हैं। हमारे बीच एक बड़ा फर्क तो ज़रूर है, लेकिन हम मेहनती हैं। हमारा समूह छोटा है, लेकिन यूजर्स बड़ा है। हम बड़ी कंपनियों से कोई प्रतिस्पर्धा नहीं कर रहे हैं। ये तो सिर्फ हमारी शुरुआत है। कई ऐसे देश हैं जहां अब भी हमारा नाम तक नहीं सुना गया है। हम पहले वहां जाना चाहते हैं। असल में मार्क की यही शांत नहीं बैठने की आदत फेसबुक को लगातार फैला रही है और नियमित अंतराल पर साइट में ज़रूरी बदलाव भी कर रही है।
फेसबुक के जवाब में गूगल ने गूगल प्लस खोला। दुनिया में कई साइबर विशेषज्ञों ने यह भविष्यवाणी की कि गूगल जैसी पुरानी, बड़ी और विश्वसनीय कंपनी के मैदान में उतरने के बाद फेसबुक की खटिया खड़ी हो जाएगी, लेकिन आज महीनों बाद वे सारी भविष्यवाणियां झूठी लग रही है। फेसबुक है और लगातार मज़बूती कायम रखते हुए है। मार्क ने कभी भी सीधे-सीधे प्रतिस्पर्धा की बात नहीं कबूली। वह गूगल को एक बड़ी और विश्वसनीय कंपनी मानते हैं लेकिन उनका मानना है कि यूजर्स अभी भी फेसबुक पर शेयर करना ज्यादा पसंद कर रहे हैं। चूंकि यूजर्स को उन्होंने पहले मंच दिया, इसलिए एक स्वाभाविक लगाव फेसबुक के साथ वो महसूस करते हैं। मार्क का कहना है,मुझे ऐसा लगता है कि हमारा तरीका बेहतर है। अगर हम ज्यादा खुला मंच देते रहेंगे, हम भविष्य में और बेहतर कर पाएंगे। फेसबुक को वो अपनी उपलब्धि इस अर्थ में नहीं मान रहे कि उन्होंने नेटीजेन समाज को सोशल नेटवर्किंग का एक नया टूल थमाया, बल्कि वो इसे वक़्त की ज़रूरत मानते हैं। उनके मुताबिक, अगर उस समय इसे मैंने शुरू नहीं किया होता तो शर्तिया इसे किसी दूसरे ने हमारे सामने पेश किया होता। समाज के बीच यह आता ज़रूर, चाहे इसे पेश करने वाले शख्स का नाम मार्क हो या फिर कुछ और।
इतने पैसे हैं, फिर भी कपड़े नहीं ख़रीदते!
इन बातों का ये मतलब नहीं है कि मार्क सिर्फ दिन-रात फेसबुक के बारे में ही सोचते रहते हैं और प्रतिद्वंद्वी कंपनियों के भीतर काम-काज पर उनकी नज़र नहीं है। नज़र तो वह चारों तरफ़ रखते हैं, लेकिन सोच के केंद्र में फेसबुक ही रहता है। गूगल में ग्लोबल ऑनलाइन सेल्स एंड ऑपरेशंस की उपाध्यक्ष जैसे महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निभा रहीं शेरली सैंडबर्ग को फेसबुक से जोड़ने के लिए मार्क को काफी पापड़ बेलने पड़े। लंबी वार्ता और काफी मशक्कत के बाद शेरली ने फेसबुक के लिए हां कहा। शेरली का आना मार्क और फेसबुक कंपनी के लिए यह बेहद अहम उपलब्धि है। शेरली सैंडबर्ग को मार्क ने फेसबुक का सीओओ यानी चीफ ऑपरेटिंग ऑफिसर बनाया। फेसबुक ज्वाइन करने के बाद जब शेरली ने दफ़्तर आना शुरू किया तो शुरुआत में मार्क के पास जाने में वह अजीब-सी हिचकिचाहट दिखातीं। रोज़-रोज़ मार्क का एक ही जैकेट और जींस पहनकर आना उन्हें बेहद अटपटा लगता। वह सोचती काम के दबाव में शायद मार्क कपड़े तक नहीं बदलते। बदबू के डर से वह पूरे दो दिन कोई न कोई बहाना करके उनसे दूर रही। उस घटना को याद करते हुए शेरली कहती हैं,मैं पहले गच्चा खा गई कि मार्क एक ही जैकेट रोज पहनते हैं। मुझे लगा कैसा आदमी है, इतना पैसा है फिर भी कपड़े तक नहीं ठीक से खरीदता। तब दफ्तर के लोगों ने मुझे कहा, अरे तुम पास जाने से घबराओ नहीं मार्क के पास ठीक इसी तरह के कई जैकेट हैं।मार्क की यही ख़ासियत है। वह हल्की कत्थई और धूसर रंग की टीशर्ट खूब पहनते हैं। जिनको नहीं मालूम होगा वो आज भी यही समझेंगे कि हफ्तों वह एक ही टीशर्ट पर गुजारा करते हैं!
फैशन को लेकर वह बहुत ज़्यादा सजग नहीं रहते। वक्त और जगह देखकर कपड़े पहनने की उनकी आदत नहीं है। 19 अक्टूबर 2006 को उन्होंने अपने फेसबुक खाते पर एक फोटो शेयर की (इसे अभी भी देखा जा सकता है)। फोटो के साथ उन्होंने विवरण लिखा,यह मार्केटवॉच की बांबी फ्रैंसिस्को को दिए गए साक्षात्कार की तस्वीर है। मुझे अच्छी तरह याद है कि साक्षात्कार के समय बांबी यह देखकर नाराज हो गई थी कि मैं शॉर्ट्स पहने हुए टीवी स्क्रीन पर नज़र आउंगा। एक साल बाद बांबी ने फिर से मेरा साक्षात्कार किया और संयोग देखिए उस दिन भी मैंने यही शॉर्ट्स पहन रखे थे।लेकिन आप सिर्फ़ ये मत सोचिए कि मार्क की लापरवाही सिर्फ़ कपड़ों तक सीमित है। सच्चाई तो ये है कि वो रंगों को लेकर भी बहुत सचेत नहीं रहते।घर की दीवारों के रंग को लेकर कई दोस्तों ने प्रतिक्रिया जाहिर की कि उन्होंने बेहद बेतरतीब तरीके से मकान को रंग रखा है। किचन का रंग चटक पीला है, जो दोस्तों को सुहाता नहीं। असल में रंग के मामले में मार्क के साथ एक दिक़्क़त जुड़ी हुई है। वह लाल और हरे रंग में अंतर नहीं कर पाते। बहुत दिनों बाद उन्हें पता चला कि वो कलर ब्लाइंडनेस यानी वर्णांधता के शिकार हैं।

गूगल के भीतर गूगल के मालिक से ज़्यादा लोकप्रिय
उनका फेसबुक खाता खुला दरबार है। आप उसे सब्सक्राइब कर सकते हैं, इन्फो देख सकते हैं, फोटो एलबम देख सकते हैं और लाइक, कमेंट व शेयर भी कर सकते हैं। फेसबुक के दूसरे सह-संस्थापक डस्टिन मोस्कोविच ने इसके ठीक उलट अपने खाते को गोपनीय बना रखा है। फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजना तो दूर आप उन्हें सब्सक्राइब भी नहीं कर सकते, हां क्रिस ह्यूग्स के खाते पर आपको उतनी ही आज़ादी हासिल है जितनी मार्क के खाते पर। क्रिस के पास महज 2000 दोस्त हैं, लेकिन सब्सक्राइवर लाखों हैं। वहीं आपको पता चलेगा कि क्रिस द न्यू रिपब्लिक के प्रधान संपादक हैं और सीन एल्ड्रीज के साथ उनकी सगाई भी हो चुकी है। खास बात यह है कि सीन एल्ड्रीज और क्रिस ह्यूग्स दोनों पुरुष हैं। फेसबुक पर मार्क काफी सक्रिय रहते हैं, लेकिन कई यूजर्स की तरह वो इसके इस कदर एडिक्ट नहीं हैं कि दिन में 10 स्टेटस न लिखें तो चैन न आए! संकुचित दायरे में रहकर चीज़ों को वो न तो देखते हैं और न ही ऐसी आदतें उन्हें पसंद हैं। जिस समय गूगल ने गूगल+ की शुरुआत की और जिसके बाद विशेषज्ञों ने फेसबुक के लिए उसे बड़ी चुनौती के तौर पर पेश किया तो प्रतिद्वंद्वी कंपनी समझकर ज़करबर्ग ने उससे कन्नी नहीं काटी, बल्कि उन्होंने गूगल+ पर अपना खाता खोलकर उसका स्वागत किया। और, लोकप्रियता की मिसाल देखिए जुलाई 2011 में मार्क गूगल+ की दुनिया के ऐसे व्यक्ति बन गए जिनको फॉलो करने वाले यूजर्स की तादाद इस ग्रह पर सबसे ज़्यादा थी। गूगल के सह-संस्थापक लैरी पेज और सरजई ब्रिन से भी ज़्यादा! गूगल+ पर उन्होंने अपने बारे में सिर्फ एक छोटा-सा वाक्य लिखा है,आई मेक थिंग्स। ट्विटर पर भी ज़करबर्ग ने ज़क नाम से अपना खाता खोल रखा है। 2009 ई. में उन्होंने एक नया पर्दाफाश किया कि फिंक्ड नाम से भी वो ट्विटर पर सक्रिय हैं। तो, दूसरे सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर भी मार्क उतने ही सक्रिय रहते हैं जितने फेसबुक पर। असल में इसी सक्रियता की वजह से वो फेसबुक में कुछ नया कर पाते हैं। वो हमेशा नएपन की खोज में रहते हैं। सोशल नेटवर्किंग की दुनिया ऐसी है कि थोड़ा नयापन और थोड़ी खूबसूरती ही फर्क पैदा करने के लिए पर्याप्त साबित होती है। मार्क का मानना है कि साइट्स को जितना सरल रखा जाएगा वह उतनी ही यूजर्स फ्रेंडली होगी। इसके लिए वह बच्चों से भी सलाह लेने से नहीं कतराते। वह अपनी पत्नी प्रिसिला चैन की छोटी बहन से पूछते रहते हैं कि हाई स्कूल में पढ़ने वाली वो और उनकी सहेलियां इन साइट्स से क्या उम्मीदें रखती हैं। स्कूल-कॉलेज में पढ़ने वाले विद्यार्थियों की प्रतिक्रिया को वे सबसे ज़्यादा गंभीरता से लेते हैं। वे जानते हैं कि यूजर्स के नए खेप की उम्मीदों पर अगर वो खरे नहीं उतरेंगे तो भविष्य उनका नहीं होगा। आप कह सकते हैं कि चौकन्ने नज़र के साथ वो सामने वाले से बात करते हैं, लेकिन इस बात का आभास दिए बग़ैर।
जोए की ना का मतलब अरबों की भूल
वेब 2.0 सम्मेलन 2010 में ज़करबर्ग ने फेसबुक में मौजूद मैसेजिंग की सुविधा को बयां करते हुए कहा, “मैसेजिंग ई-मेल का स्थानापन्न तो नहीं है, लेकिन ई-मेल दैनंदिन की बातचीत के लिए अब ख़त्म हो जाएगा। दुनिया कहीं ज़्यादा तेज हो गई है। एसएमएस या मैसेज में ई-मेल की तरह कोई विषय नहीं लिखना पड़ता। इनमें हे मॉम या हे डैड लिखने की अतिरिक्त मेहनत नहीं करनी पड़ती और आखिर में रिगार्ड्स भी लिखने की ज़रूरत महसूस नहीं होती। इसके अलावा पैराग्राफ बदलने के झंझट से भी मुक्ति मिल जाती है। यही छोटी-छोटी आज़ादी और सुविधा है जो यूजर्स की पसंद तय करती हैं।
फेसबुक की शुरुआत से लेकर अब तक मार्क ने लगातार आर्थिक उन्नति को ही देखा है लेकिन इसके बावजूद वे ऐसी छोटी-छोटी चीज़ों को लेकर खुशियां मनाते हैं जो एक अरबपति के लिए कोई मायने नहीं रखतीं। हॉर्वर्ड से जब मार्क ने कैलिफॉर्निया आकर रहने लगे तो उनका वॉशिंगटन जाना-आना पहले के मुकाबले कम होता। ऐसे ही एक मौके पर ज़करबर्ग की मुलाकात अपने पुराने रुम-मेट जोए ग्रीन से हुई। उन्होंने जोए को मारे खुशी के दोहरे होते बताया कि उन्होंने अपने पैसे से एक घर ख़रीद लिया है। जोए की अरसे बाद मार्क से मुलाकात हुई थी। मार्क जब फेसबुक की शुरुआत करने को लेकर कंपनी बनाने की सोच रहे थे तो उन्होंने जोए से भी संपर्क साधकर अपने साथ आने का अनुरोध किया था। उस वक़्त जोए ने अपने पिताजी के दबाव में मार्क को ना कहा था। हॉर्वर्ड में फेसमैस का सबसे ज़्यादा मज़ा लेने वाले लोगों में से एक जोए ग्रीन को उनके प्रोफेसर पिता ने मार्क के साथ जाने से रोका था। असल में फेसमैस की शरारत में उस वक्त जोए ग्रीन को दो बार तलब किया गया था। जोए के पिता ने उन्हें मार्क की बजाए ठीक संगत में रहने की सलाह दे डाली। मार्क के भीतर उन दिनों हॉर्वर्ड के कई प्रोफेसरों को एक आवारागर्द बांका युवा दिखता था जो कॉलेज की मस्ती की बदौलत परिसर में तो मशहूर हो जाते हैं लेकिन भविष्य में इन मस्तियों को याद कर बहुत रोते हैं कि थोड़ा पढ़ लिए होते तो जीवन कुछ अलग होता! बहरहाल जब जोए ग्रीन से मार्क की मुलाकात हुई तो मार्क ने उनसे कहा,तुमने मुझे ना कहकर अरबों की भूल कर दी।
अलग-अलग प्रोफेसर, अलग-अलग राय
ऐसा नहीं था कि हॉर्वर्ड के सारे प्रोफेसरों के बीच मार्क की मान्यता एक-सी थी। वास्तव में जिन प्रोफेसरों के साथ कक्षा में मार्क मुखातिब होते, मार्क के प्रति उन सारे प्रोफेसरों की राय बाकी शिक्षकों की तुलना में अलग थी। ज़करबर्ग को हॉवर्ड में कंप्यूटर विज्ञान पढ़ाने वाले प्रो. हैरी लेविस को तो शुरू में यह आभास तक नहीं था कि सालों पहले जिस बिल गेट्स को उन्होंने कंप्यूटर विज्ञान पढ़ाया ठीक वैसा ही जुनून वाला कोई शख्स हॉर्वर्ड में फिर आ धमकेगा और जो सचमुच गेट्स की तरह ही कंप्यूटर जगत की बुलंदियों को छुएगा। कुछ ही हफ्तों में हैरी की नज़र मार्क पर टिक गई। असल में कक्षा में मार्क के पास पूछने को सवालों के अंबार होते थे। आलम ये हो जाता कि कक्षा के बाहर भी वो हैरी लेविस का पीछा करते रहते। हैरी को इस तरह के जिज्ञासु छात्र हमेशा से पसंद रहे हैं। हॉर्वर्ड के दिनों को लेविस अब याद करते कहते हैं, ज़करबर्ग में सीखने की ज़बर्दस्त भूख थी। कुछ पूछने से वह बिल्कुल भी नहीं शर्माता था। आम छात्रों में यह फैशन देखा जाता है कि आसान चीज़े पूछने में उन्हें लगता है कि उनकी इज्ज़त दांव पर लग गई हो। मार्क में ऐसा नहीं था। वह आसान से आसान और दिमाग चकराने वाले कठिन से कठिन सवाल पूछता रहता था। यही स्वभाव आपको विलक्षण बनाता है। सालों पहले मैंने यही चमक बिल गेट्स के भीतर देखी थी।
मार्क की मेहनत का नतीजा है कि 258 एकड़ में फैले एक नामचीन अमेरिकी विश्वविद्यालय के एक साधारण से कमरे से निकले फेसबुक ने दुनिया भर में अपना साम्राज्य फैला लिया है और इस पूरे सफ़र को तय करने में महज आठ साल लगे। आभासी धरती पर मार्क की कब्जेदारी लगातार फैलती जा रही है। गति के लिहाज़ से देखे तो दुनिया के किसी भी देश ने इतने विशाल भौगोलिक दायरे में इतने सीमित काल में कभी भी विस्तार हासिल नहीं किया। औपनिवेशिक युग की पराकाष्ठा के दौर में भी नहीं। आज दुनिया में चीन और भारत के बाद तीसरा सबसे ज़्यादा आबादी वाला मंच फ़ेसबुक है। अमेरिका और यूरोपीय संघ की सम्मिलित आबादी से ज़्यादा लोग फेसबुक पर अब तक लॉग इन कर चुके हैं और एक खाते के साथ फेसबुक को इस स्थिति तक पहुंचाने में मैंने भी मदद की है! क्या आपका खाता है फेसबुक पर?

इसके आगे पढ़ें चौथा और पांचवां भाग।