31 मार्च 2011

साग-भात का खाना और तालाब का पानी


चन्द्रिका
(अहा-जिंदगी के अप्रैल अंक में प्रकाशित यात्रा)
कुछ तालाबों की तस्वीर आँखों में अभी बची हुई हैं जिसमे बच्चे, बूढ़े, महिलायें पानी भर रहे हैं, कुछ नहा रहे हैं और शोर मचा रहे हैं, आस-पास कई छोटे-छोटे गाँव है और इन तक पहुंचने के कई छोटे-छोटे रास्ते. राष्ट्रीय राजमार्गों से कटती सड़कें और उनसे निकलती पतली राहें फिर पगडन्डियाँ जिन पर घास उगी हुई है. घास साइकिलों और पैरों के दबाव से भूरी हो चुकी है. इनके सहारे पिथौरा से बसना होते हुए छत्तीसगढ़ को पार कर उड़ीसा के बरगड़ जिले के एक छोटे से गाँव घुटाथुडा में जाना अमीरी से गरीबी की तरफ जाने जैसा है. कुछ घंटो के रास्ते में बहुमंजिली इमारते छूटती और छोटी होती जाती हैं और आखिर में किसी झोपड़ियों और छप्परों वाले गाँवों के पास आपकी यात्रा खत्म हो जाती है. चौड़ी सड़कें अक्सर मुझे डरावनी लगती हैं और कुचले जाने का एहसास हर वक्त बना रहता है. यह दृष्टि का फेर हो सकता है पर पगडण्डियों में एक निरीहता का बोध होता है. इनके चौराहे आतंकित नहीं करते, यहाँ खड़ा हर आदमी लगता है आप ही का इंतजार कर रहा है. आप किसी गुमटी पर पता पूछते हैं और गुमटी वाला जब अपनी याददास्त की सूची में उतर रहा होता है तो बगल की दूकान पर चाय पी रहा आदमी आपको ठहरने के लिये कहता है और आपके साथ बतियाते हुए चल देता है. रास्ते में पड़ने वाले घरों के लोग आपको निहार रहे होते हैं और मुमकिन है कि कोई बच्चा आपको मामा कहकर बुला दे.
मुझे उन गाँवों में जाना था जो कालाहांडी से कुछ किलोमीटर दूरी पर बसे हुए हैं पर जिंदगी जीने के तजुर्बे कालाहांडी जैसे ही हैं. बसना में दो या चार घंटे या दिन भर के इंतजार के बाद एक गाड़ी मिल सकती है जो किसी नजदीकी सड़क पर छोड़ दे. इसके बाद की यात्रायें पैदल होती हैं या किसी सायकिल सवार की रहम पर आपकी यात्रा थोड़ी सुगम हो सकती है. पहाड़ियों की उबड़-खाबड़ जमीने और जाने क्या-क्या जो आखों में नहीं सिमट पाया और यादास्तों से फिसल कर महीनों पहले कहीं गिर गया उस सबका मलाल है. किसी यात्रा की पूरी तस्वीर आप कहाँ समेट पाते हैं, कुछ न कुछ छूट ही जाता है. मेरे ज़ेहेन में एक लिफाफा पड़ा हुआ है जिसमे इन यात्राओं की कुछ तस्वीरें सुरक्षित बची हुई हैं. ये ठहरे हुए चित्र हैं, पर इनमे बीती हुई यात्रायें चलती रहती हैं. जिनमें मैं लौटता हूँ और उनसे मिल आता हूँ जिन्हें वर्षों पहले मिल कर लौट आया था. उनसे बतियाता हूँ कि वे इस बार किस राज्य के भट्ठे पर मजदूरी के लिये जा रहे हैं. उनसे पूछता हूँ कि बिश्नु तांडी की भौजाइ भट्ठे से लौटी की नहीं और विश्नु उदास हो जाते हैं. न लौटने का कारण न तो वह बताना चाहते हैं और न ही मैं पूछता हूँ.
तारीखें ठीक-ठीक याद नहीं पर ये जून की गर्मियों के दिन थे. लम्बे दिनों और छोटी रातों वाले दिन, जब उदासी के लिये आपको कोई वजह नहीं ढूंढ़नी होती. मैं रायपुर से होते हुए पिथौरा पहुंच चुका था. यह एक छोटी सी बाज़ार है जहाँ घरों में दुकानें हैं और दुकानों में घर. किसी सामान की खरीदारी के लिये इन पर घंटो खड़ा रहना पड़ सकता है, जब तक कि दुकान मालिक खाना खत्म न कर ले, जब तक कि चूल्हे पर रखी हुई सब्जी में नमक और मसाले न पड़ जायें, जब तक कि भैंस का दूध दुहा जाता रहे या ऐसा कोई भी काम खत्म होने का इंतजार. ऐसे वक्त उन घरों के बच्चों के साथ बातचीत करिये और उनके स्कूल के बारे में पूंछिये, उनके पापा का नाम पूछिये जो झुकी नजरों और हिलते छोटे होंठों के साथ कई बार में समझ में आयेगा. वे बता भी सकते हैं या आपको अकेला छोड़ घर के अंदर जा सकते हैं. यदि यह सब आपकी आदतों में सुमार हो तो. झल्लाहटों से कोई फायदा नहीं होता और न ही दूसरे दुकानों के विकल्प की मौजूदगी.
यहाँ मुझे एक अपरिचित व्यक्ति से मिलकर परिचित होना था और उसके साथ आसपास के गाँव घूमने थे. उन गाँवों में जहाँ लोग अपने घरों को छोड़ कश्मीर जैसे दूर और खूबसूरत प्रदेश तक ईंट भट्ठों पर काम के लिये जाते हैं और सात-आठ माह बाद चेहरों पर झुर्रियां टांग वापस चले आते हैं. इनके लिये कश्मीर की किसी पहाड़ी पर कोई देवी नहीं रहती और डल झील, ईट भट्ठा की मिट्टियों में सने इनके कपड़े धोने के काम आ सकती है बशर्ते वह इनके नजदीक हो. कश्मीर की वादियां इनके लिये ईंट पाथने की जगह है और किसी भट्ठे का मालिक इनका अकेला परिचित.
जिनके साथ मुझे इन गाँवों में घूमना था उनका नाम सतीश था और उनकी बाइक का नाम टीपू. शायद यह सतीश का घर में बुलाया जाने वाला नाम था जिसे बाइक पर उन्होंने लिख रखा था. हम दोनों ने गाँव का चक्कर लगाना शुरु किया. छोटे गाँव, बड़े गाँव और गाँवों के अंदर एक गाँव जो दिन में पूरी तरह खाली हो जाते हैं जैसे एक गाँव हो और आदमी की जगह पर रिक्त स्थान. कुछ सोते हुए बच्चे और कुछ बूढ़ी औरतें जो लगातार बुदबुदाती रहती हैं. अपनी बढ़ी हुई उम्र के कारण गाँव में लोगों के मौजूदगी का जरूरत पूरा करती हुई. किसी के आने और चले जाने के देर बाद तक और दूर तक निहारती हुई. जाने क्या-क्या सोचती हुई. जबकि पूरा गाँव आसपास के इलाकों और छोटी बाजारों में बिखरा हुआ होता है. निर्माणाधीन घरों की दीवारों पर जो आदमी ईंटें जोड़ रहा है, जो उसे मिट्टियाँ पहुंचा रहा है, जो औरतें ईंटों के सफाई और ढुलाई का काम कर रही हैं गाँवों में पड़े उस रिक्त स्थान को शाम ढले यही भरते हैं. शाम के बाद भी जिन घरों में ताले लगे होते हैं उनसे मिलने के लिये मुझे कुछ दिन, हप्ते भर या महीनों का इंतजार करना पड़ सकता है. ये छत्तीसगढ़ की सीमा लांघ चुके वे लोग होते हैं जो अपने गाँवों में धान की बुवाई और कटाई के लिये ही वापस आते हैं. शायद इनके लिये घर का एक मतलब बेघर भी होता है या दोनों बराबर-बराबर होते हैं. यहाँ घूमते हुए मुझे धान के कटोरे में भूख की खुदबुदाहट का एहसास हुआ और उस गुस्से का भी जो तमाम रूपों में यहाँ के लोग जाहिर कर रहे हैं. हम गाँव के लोगों से मिलते और उनसे बातचीत करते वे हमे अजनबी निगाहों से देखते पर बीड़ी और तम्बाकू की लेन-देन हमारे रिश्तों में एक निश्‍चिन्तता ला देती.
वह सवाल जिसकी खोज में मैं घूम रहा था, यानि उनकी हालत जानने की कोशिश, हर बार छूट जाता. जब हम उनके सामने खड़े होते तो उनकी मूक बयानी ही सबकुछ बयां कर देती. तिस पर कोई सवाल पूछना मुझे अश्लीलता के हद तक जाने जैसा लगने लगता. जब हम गाँवों के बाहर और बेहद नजदीक होते तो यह पेड़ों के किसी झुरमुट जैसा दिखता. मिट्टि से बने घरों के आकार इतने छोटे होते कि पेड़ों से सबकुछ ढंक जाता. गाँवों में घुसते हुए या किसी बाग से गुजरते हुए हमे गिरे हुए कच्चे या पक्के आम मिलते और हम उन्हें सहेज कर अपने झोले में डाल लेते. हमारे पास जाने के लिये न तो कोई निश्‍चित गाँव होता न ही कोई घर. हम जिस गाँव में होते उससे नजदीकी गाँव का चुनाव करते. रास्तों के भटकाव ने एकबार हमे उसी गाँव में ला पटका जिससे हम कुछ देर पहले निकल चुके थे पर इस बार हम पीछे के रास्ते से आये थे.
कई घंटे घूमने के बाद हम एक पेड़ के नीचे बैठ बीड़ी फूंक रहे थे. यह तेंदू का पेड़ था और हम इन्हीं की पत्तियों में लिपटी तम्बाकू की बीड़िया पी रहे थे. ये पेड़ यहाँ के आसपास बसने वाले बड़े आदिवासी समुदाय की आजीविका के साधन हैं. वे इनकी पत्तियों को तोड़ते हैं और सुखा कर सौ-सौ की गड्डियाँ बनाने के बाद किसी ठेकेदार के हाथ बेंच देते हैं. कम-अज-कम इन गाँवों से निकले पत्तों की सुलगती महक आपके नथुनों में एक बार जरूर पहुंची होगी. शायद आपको याद न हो किसी पैसेंजर ट्रेन की यात्रा में देर और दूर तक फैली महक. बीड़ी का कश लेते हुए इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है कि इन पत्तों को तोड़ने वाला आदिवासी समुदाय पेड़ों की कितनी ऊंचाईयों तक चढ़ता है और कितनी बार जख्मी होता है. हमने तेंदू के फल तोड़ कर खाये जो खजूर की मिठास लिये हुए थे पर खजूर से कहीं ज्यादा स्वादिस्ट. मुह में बनी बीड़ी की कड़ुवाहट इन फलों के मिठास में घुल मिल गयी. पूरे तीन दिन हम इन इलाकों में घूमते रहे. रात जहाँ भी गुजरी साग-भात खाया. हरे और पानी से भरे पोरों वाले साग, जो आसपास के तालाबों के किनारों से लाये जाते थे. मैंने इन गाँवों को अलविदा कहा जैसे कोई तारीख किसी साल को अलविदा कहती है और दुबारा लौट कर वापस नहीं आती है.
मैं एक छोटे से चौराहे पर खड़ा था जब दौलत तांडी मुझे लेने आये. उस चौराहे पर मैं अकेला था जिसे वे नहीं पहचानते थे, इसलिये वे सीधे मेरे पास चले आये. उनके पास एक चमकती हुई साइकिल थी, जिस पर हम दोनों सवार होकर उनके गाँव घुटाथुडा की तरफ चल दिये. दो घंटे के बाद हम उनके गाँव पहुंच चुके थे. घरों के छप्परों पर लौकियां लटक रही थी, मुर्गियां और बकरियां मुझे घूर रही थी. शायद अपरिचित चेहरे का गाँव में आना उन्हें रास नहीं आ रहा था या वे पहचानने की कोशिश कर रही थी. एक बड़ा सा तालाब जिस पर छोटा बांध बना हुआ था, इसी के इर्द गिर्द हर कोई अपने-अपने काम में व्यस्त था. कपड़े धोता हुआ, जानवरों को नहलाता हुआ और खुद भी नहाता हुआ. इस गाँव के जीवन में तालाब अपनी पूरी गरिमा के साथ मौजूद.
उस सुबह हम पहला गाँव घूमने के बाद दूसरे गाँव में थे. जंगलों और पहाड़ियों से घिरे हुए ये गांव जिनमे सड़कों का मतलब पैरों से बनती चली गयी लकीरें थी. ये लकीरें हमें एक गाँव से दूसरे गाँव में छोड़ रही थी. रास्ते में मैं लोगों से नजदीकी गाँवों के बारे में पूछता तो वे पता बताते और साथ में अपने किसी रिश्तेदार का घर भी. यह थोड़ा सा बड़ा घर था जहाँ मैं अभी खड़ा था. गाँव में अकेला घर था जिसकी दीवालें सीमेंट से बनी हुई थी और मेरे सामने जो महिला थी उनका नाम कुनतुला था. मेरे लिये यह सोचना मुश्किल था कि छः मुट्ठी धान की बदौलत पिछले कई सालों से एक शरीर जिंदा रह सकता है और काम भी कर सकता है. इस घर में ये बधुआ मजदूर के रूप में काम करती थी जिसके एवज में इन्हें छः मुट्ठी धान मिलता था. एक बच्चा जो इनके कन्धे पर झूल रहा था उसने अपनी दो वर्ष की उम्र पूरी कर ली थी. बची हुई उम्र में शायद उसने चलना सीख लिया हो या शायद उम्र ने चलने से मना कर दिया हो. इन यात्राओं के दौरान ऐसी कितनी मुलाकाते हैं जिन्हें कागजों पर उतारना मुश्किल है. कोई उन आँखों को कागज पर उतारे जिनमे न सवाल थे, न जवाब और न ही कोई याचना. वे देर तक मेरी आँखों में गड़ी रहती और किसी किरकिरी की तरह तब तक चुभती जब तक मैं अगली मुलाकात पर न निकल जाता. इतनी सारी मुलाकातों के चेहरे, जो उदास परछाइ की तरह मेरी यादों में आते रहे उन सबको मैं बटोरने में अक्षम रहा.
मेरी यात्रा का ये आखिरी दिन था जब शाम के चार बजे मैं एक छोटी सी पहाड़ी पर था. यहाँ हाट लगी हुई थी अपने किस्म की यह अनोखी और मेरे द्वारा देखी जाने वाली पहली ऐसी हाट थी जहाँ बगैर पैसे के भी आप कुछ खरीद सकते थे. यहाँ सामानों की अदला-बदली थी. लोग हल्दियां देकर मछलियां खरीद रहे थे, आम देकर तम्बाकू खरीद रहे थे. मैने कुछ नहीं खरीदा मेरे लिये यह खरीदने बेचने से ज्यादा देखने की बाज़ार थी. थोड़ी देर बैठकर मैं यहाँ बज रहे एक गीत को सुनता रहा जो छत्तीसगढ़ी में बज रहा था- भाजी तोड़न के आवेली हमरे गाँव के संगवारी...... जिन चीजों को मैं समेटते हुए गया था उन्हें छोड़ते हुए वापस आना था, पगडण्डियाँ, पतली सड़कें, छोटी पहाड़ियों के उबड़-खाबड़ रास्ते और राजमार्गों से होते हुए मैं रायपुर के उस चौराहे पर था. जहाँ सड़कों के किनारे अपने जीवन के क्रिया-कलापों में लिप्त आदिवासियों की मूर्तियां बनाई जा रही थी और सड़कों के किनारे इन्हें सजाया जा रहा था. एक आदिवासी महिला अपने बच्चे को पीठ पर उठाये हुए, शिकारी के अंदाज में एक आदिवासी तीर धनुष लिये हुए, लकड़ियों के गट्ठर अपने सिर पर धरे एक. यह वास्तविक जीवन दृष्य से लेकर मूर्तियों में परिवर्धित होने की एक यात्रा थी. सम्पर्क-chandrika.media@gmail.com, 09890987458

29 मार्च 2011

क्या हैं इस ’क्रिकेट कूटनीति’ के मायने

अनिल मिश्र
सोशल वेबसाइट फ़ेसबुक पर शुक्रवार, यानी बीते कल, की सुबह कल एक दोस्त ने भारत-पाकिस्तान के बीच होने वाले विश्वकप क्रिकेट के सेमीफ़ाइनल मुक़ाबले के बारे में एक तल्ख़ टिप्पणी लिखी. वह दिल्ली के एक विश्वविद्यालय में शोध कर रही हैं. उसका कहना था कि ’वह बुधवार के दिन फ़ेसबुक, टेलीविज़न, रेडियो और जे एन यू के हॉस्टल से उस वक़्त दूर रहेंगी जब बीमारी की हद तक उन्मादी, सांप्रदायिक और सनकी दो देश एक दूसरे के ख़िलाफ़ खेल रहे होंगे. ये दृश्य उसे आक्रांत करते हैं.’ उसने आगे स्पष्ट लहजे में लिखा, “मैं चाहती हूं कि दोनों ही हार जाएं.” इस टिप्पणी से मुझे थोड़ी हैरानी हुई. एकबारगी तो मैंने इसे कोई चुटकुलानुमा वाक्य समझना चाहा. आखिर भारत-पाकिस्तान के बीच क्रिकेट विश्वकप का मुक़ाबला एक लंबे अरसे बाद होने जा रहा है, जिसमें एक बेहतरीन क्रिकेट के साथ साथ दोनों देशों के बीच आपसी भाईचारे को मज़बूत करने की संभावनाएं भी हैं. लेकिन शुक्रवार की शाम होते होते यह स्पष्ट हो गया कि यह ’खेल’ राजनीतिक और कूटनीतिक हलकों के लिए कई गहरे अर्थ रखता है. और इस ’खेल’ के पीछे छिपे मंतव्य के प्रति जागरुक लोगों की चिंता वाजिब है.
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पाकिस्तान के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को मोहाली में क्रिकेट देखने का न्योता दिया है. ज़ाहिर है, इस ’क्रिकेट कूटनीति’ के ज़रिये दोनों देशों के बीच राजनीतिक और कूटनीतिक नूरा-कश्ती के अतिरिक्त कई अन्य निशाने एक साथ साधे जा सकते हैं. बीबीसी ने पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता के हवाले से ख़बर दी है कि मनमोहन सिंह ने अपने ख़त में लिखा है कि ’३० मार्च को होने वाले इस मुक़ाबले को साथ देखना दोनों देश की जनता के लिए ठीक है.’ यहां तक आते आते निश्चित ही क्रिकेट का यह खेल महज एक खेल बनकर नहीं रह जाता. भारत-पाकिस्तान का संदर्भ आते ही इस खेल में कई और आयाम जुड़ जाते हैं. जिसे भुनाकर दोनों देशों का राजनीतिक नेतृत्व असली सवालों से अपने आवाम का ध्यान दूसरी ओर मोड़ने में, कुछ देर के लिए ही सही, सफल हो जाता है.
कुछ उदाहरणों पर ग़ौर करें. १९९९ में कारगिल युद्ध के बाद मुशर्रफ़ पाकिस्तान के नए और ताक़तवर हुक्मरान बनकर उभरे थे. कारगिल के बाद तीन-चार साल साल तक भारत पाकिस्तान के आपसी रिश्ते कटुतापूर्ण रहे. फिर दोनों ओर से वार्ता की शुरूआत के सिलसिले में क्रिकेट को एक बड़ा ज़रिया बनाया गया था. तब मुशर्रफ़ तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी के साथ दिल्ली के फ़िरोजशाह कोटला मैदान में एक मैच देखने आए थे. इसके पहले, १९८७ में जनरल ज़िया उल हक़ और राजीव गांधी ने जयपुर के सवाई मानसिंह स्टेडियम में एक साथ क्रिकेट मैच देखकर इस खेल को एक कूटनीतिक रंग दिया था. तब से लेकर आज तक, भारत पाकिस्तान के बीच क्रिकेट मैच की राजनीतिक हैसियत बढ़ती चली गई.
पिछले दो दशकों में, ’ग्लोबल दुनिया’ हो जाने के तमाम दावों के विपरीत, दोनों देशों के बीच के परंपरागत तनावपूर्ण रिश्ते असामान्य तौर पर कटु होते चले गए. इस बीच क्रिकेट की लोकप्रियता में भी असाधारण बढ़ोत्तरी हुई है. इसके प्रभाव का अनुमान ग्लैमर, बाज़ार, विज्ञापन और अकूत धन आदि के लिहाज़ से सहजता से लगाया जा सकता है. दक्षिण एशिया में क्रिकेट के प्रति जुनून इस क़दर बढ़ता गया कि क्रिकेट को ’धर्म’ और खिलाड़ियों को ’भगवान’ तक के दर्ज़े दिए जाने लगे. यह बात अलग है कि वैश्वीकरण के इस ख़तरनाक, मुनाफ़ाखोर दौर में धर्म और भगवान के नाम पर अवैध कारोबार भी ज़ोरदार ढंग से फले फूले और कई बाबाओं के कर्म-कुकर्मों की कलई खुलती गई
भारत और पाकिस्तान दोनों ने जब इस बेहिसाब धन और अपार लोकप्रियता के खेल में ’राष्ट्रवाद’ का छौंक लगाया तो एक ग़ज़ब का उन्मत्त वर्ग पनप आया. अब क्रिकेट महज़ एक अ-राजनीतिक खेल नहीं रह गया. अब यह राष्ट्रवाद के उन्माद की आज़माइश का मैदान बन गया. याद करें, शिवसेना जैसे दलों ने अपनी प्रासंगिकता साबित करने की सनकी होड़ में पिछले दशक में क्रिकेट की पिचें खोदनी शुरू कर दी थीं. इसी दौर में सुनने में आया कि पाकिस्तान की किसी हार के बाद एक प्रशंसक ने टेलीविज़न स्क्रीन तोड़ दी और ख़ुद को गोली से उड़ा लिया.
भारत में भी राष्ट्रवाद के नशेड़ियों को उनके अपने देश के पड़ोसी मुसलमानों की ’देशभक्ति’ को जांचने-परखने का एक नया पैमाना मिल गया. पिछले पंद्रह-बीस सालों में हिंदुत्ववादियों ने जिन गलीज धारणाओं से मुस्लिम जमात पर शक-शुबहे करने और उनके ख़िलाफ़ दुष्प्रचार करने के जो तरीक़े ईजाद किए हैं उनमें से यह बहुप्रचारित है कि ’अगर भारत-पाकिस्तान के बीच क्रिकेट मैच हो रहा है तो भारत के मुसलमान की सहानुभूति पाकिस्तान के साथ जुड़ती है. वे (मुसलमान) ज़रूर पाकिस्तान के जीतने की मिन्नतें करेंगे.’ मानो क्रिकेट के बुख़ार में भारत पाकिस्तान के मैच ’देशभक्ति’ मापने के थर्मामीटर हो गये हों. दोनों देशों के राजनीतिक नेतृत्व के लिए क्रिकेट के साथ बनैले क़िस्म के, अंध-राष्ट्रवाद का ज़हर फैलाना बेहद आसान हो गया.
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को जो न्योता दिया है, उसके कई मायने हैं. देश के भीतर कई मोर्चों पर यूपीए सरकार के लगातार विफल रहने के एक के बाद एक कारनामे जग-ज़ाहिर हो रहे हैं. विकीलीक्स ने अमेरिकी राजनयिकों के हवाले से भारत की अंदरूनी राजनीति के बारे में जो पर्दे उठाए हैं, वह ख़रीद-फ़रोख़्त, व्यवस्था की तह में निहित और काफ़ी हद तक वैध भ्रष्टाचार, क़ानून-विहीनता और अमेरिकी हथकंडों की बिल्कुल ताज़ा मिसाल हैं. इसके पहले, सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों के बीच भ्रष्टाचार के जो मामले सामने आए हैं उससे इस धारणा को बल मिलता है कि संसदीय दलों की आपसी संरचना, कार्यपद्धति और नीतियों में कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं है. इनकी अंदरूनी तौर पर आपसी मिलीभगत होती है. अब तो इनमें कोई महत्वपूर्ण तत्व बचे हैं जो भारत की अस्सी फ़ीसदी आबादी की ज़िंदगियों को निर्धारित-संचालित करने वाले मुद्दों को संजीदगी से संबोधित करते हों.
दूसरी ओर, पाकिस्तान की राजनीतिक हालात भी ख़स्ता है. देश के अंदरूनी शासन-सत्ता में अमेरिकी हस्तक्षेप दिनों-दिन ऐसे हावी होता जा रहा है कि पाकिस्तान सरकार मूक और बेबस नज़र आती है. इसके लिए एक उदाहरण काफ़ी होगा. पिछले महीने जब अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसी के लिए गुप्त ढंग से काम करने वाले एक शख़्श, रेमंड डेविस, ने पाकिस्तान के दो नागरिकों को दिन दहाड़े गोलियों से भून दिया था तो पाकिस्तान की एक अदालत ने उसे इस्लामी क़ानूनों के तहत ’दियत’ राशि के आधार पर रिहा कर दिया. ’दियत’ वह प्रावधान है जिसके अनुसार हत्यारा मृतक के परिवार को जान की क़ीमत अदा कर बरी हो सकता है. कई विद्वानों मानते हैं कि अमेरिकी धौंस के चलते इस क़ानून को ईजाद किया गया.
मनमोहन सिंह के ताज़ा न्यौते के निम्न निहितार्थ होते हैं. इसमें इसके खुले-छिपे परिणाम भी निहित हैं.
पहला, यह यूपीए सरकार के लिए अपनी विफलताओं और लगातार हो रही आलोचनाओं से देश का ध्यान बंटाने का एक सुनहरा मौक़ा है. यह एक मोहलत तो है, साथ में यूपीए सरकार का उपमहाद्वीपीय ’पब्लिक रिलेशन’ अभियान भी है.
दूसरा, हालांकि अभी पाकिस्तान का जवाब आना बाक़ी है. निमंत्रण स्वीकार करने या न करने के लाभ-हानि के सभी पहलुओं पर विचार कर ही पाकिस्तान कोई निर्णय लेगा. इसमें आपसी संबंध बहाल करने के कूटनीतिक प्रयासों के प्रति रवैये की एक झलक मिल सकेगी. शांति प्रक्रिया और आपसी वार्ता के खटाई में पड़ने पर दोनों देश एक दूसरे पर घिसे पिटे आरोपों-प्रत्यारोपों के आधार पर ख़ुद को जवाबमुक्त रख सकेंगे.
तीसरा, दोनों देशों की हुकूमतें प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तरीक़े से एक ऐसा जनमानस बनाने की पूरी कोशिश करेंगी जिससे संकीर्ण राष्ट्रवाद के तुच्छ आधारों को क़ायम रखा जा सके, जैसा कि परमाणु हथियार के मामलों मे किया गया था, और ज़रूरत पड़ने पर पैना किया जा सके. वार्ता विफल होने की स्थिति में, बड़बोलेपन और आक्रामकता के ज़रिये तनातनी के माहौल को इस क़दर फैलाया जाएगा कि दोनों देशों के ’युद्ध-पिपासु’ एजेंट्स आपस में भिड़ने के लिए तैयार दिखें. छद्म युद्ध का माहौल रचने में यह मदद करेगा.
चौथा, मीडिया में, ख़ासतौर से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में, मौजूद कमज़र्फ़ और ज़ाहिल तत्व मैच के ज़रिये इस छद्म युद्ध को पर्दे पर अंजाम देंगे. इनकी सारी कोशिशें का हलक यह होगा कि मैदान पर मैच नहीं, मानो सीमा पर कोई युद्ध हो रहा है.
स्पष्ट है, इससे दक्षिणपंथी और उन्मादी राजनीति करने वाली ताक़तों को मुफ़्त में एक उन्मत्त माहौल मिलेगा. अहमदाबाद में हुए मैच में नरेंद्र मोदी की मौजूदगी इस आशंका को पुष्ट करती है. ऐसे में अगर कुछ लोग न्यू मीडिया के ज़रिये इस तरह के माहौल का प्रतिवाद कर रहे हैं तो यह अकारण नहीं है. अगर कुछ लोग यह कह रहे हैं कि यह क्रिकेट ब्राह्मणवादी, फ़ासीवादी राष्ट्रवाद का सशक्त औज़ार बन रहा है तो यह तर्कसंगत मालूम जान पड़ता है.
(लेखक, स्वतंत्र पत्रकार हैं और भारत पाकिस्तान की मीडिया पर शोध कर रहे हैं.) संपर्क: anamil.anu@gmail.com

25 मार्च 2011

मोहब्बत की राहों में आकर तो देखो!

- देवाशीष प्रसून


कुछ बातें
किताबों को पढ़कर
नहीं समझी जा सकती।
पनियाई आँखों में दुःख हरदम नहीं है
अपने प्रियतम से विछोह की वेदना।
फिर भी, हृदय में उठती हर हूक से
न जाने, संवेदनाओं के कितने
थर्मामीटर चटक जायें।
और यह टीस
किसी का मंज़िल से
बस कदम-दो कदम की दूरी पर
बिछड़ जाने भर का
अफ़सोस भी नहीं है।
प्रेम है एक एहसास -
माथे पर पड़ते बल और पसीने की धार के बीच
अपने साथी के साथ
एक खुशनुमा ज़िंदगी जीने का।

प्रेम की बात चली है तो सबसे पहले उन एहसासों की बात की जाए जो अपनी जीवनसंगिनी फगुनी के मन को पढ़ते हुए दशरथ माँझी के दिल को छू गए थे। गांव की दूसरी औरतों के ही तरह फगुनी भी पहाड़ी लांघ कर पानी लाने जाया करती थी। रास्ता आने-जाने के लिए बिल्कुल भी सही नहीं था। लेकिन, गांव वालों के पास हर छोटी-बड़ी चीज़ों को लाने के लिए पहाड़ी के पार जाने के अलावा कोई उपाय नहीं था। पानी लाने गई फगुनी लौटते हुए एक बार इस दुरूह रास्ते का शिकार हो कर ज़ख्मी हो गई। ज़ख्मी फगुनी की तक़लीफ़ सिर्फ़ फगुनी की ही नहीं थी, दशरथ भी इस दर्द से तड़प रहा था। मोहब्बत का जन्म संवेदनाओं से होता है, लेकिन संवेदनाओं के स्तर पर केवल ऐक्य स्थापित करना ही दशरथ के लिए आशिक़ी नहीं थी। उसके लिए प्रेम के जो मायने थे, उसे पूरा करने के लिए उसने इतिहास के पन्ने पर मोहब्बत की वह किताब लिखी, जिसमें प्रेम समाज में प्रचलित मोहब्बत के तमाम बिंबों को पीछे छोड़ देता है। बिहार के गया जिले के सुदूर गाँव गहलौर में सन १९३४ में जन्में समाज के अतिवंचित तबके से आने वाले महादलित मुसहर जाति के इस अशिक्षित श्रमजीवी को इतना ज्ञान तो था ही कि असल मोहब्बत तन्हाईयों में आहे भरने और एक-दूसरे को रिझाने के लिए की जाने वाली लफ़्फ़ाजियों से इतर जीवन का एक महान लक्ष्य होता है। ऐसा लक्ष्य जिसे महसूस करते ही दशरथ ने यह प्रण लिया कि अब कुछ भी हो जाए, जिस पहाड़ के कारण उसकी प्राणप्रिया तकलीफ़ में है, उस पहाड़ को खोद कर वह उसमें एक रास्ता बना देगा। और फिर क्या था? सन १९६० में शुरू कर १९८२ तक बाइस साल के अपने अथक मेहनत के बदौलत दशरथ ने सिर्फ़ हथौड़ी और छेनी की मदद से गहलौर घाटी के पहाड़ी के ओर-छोड़ तीन सौ साठ फीट लंबा, पच्चीस फीट ऊँचा और तीस फीट चौड़ा रास्ता खोद डाला। पटना से लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर दूर पर बसे हुए गया जिला के अतरी और वज़ीरगंज़ ब्लॉक के बीच की दूरी दशरथ के इस प्रेम के कारण पचहत्तर किलोमीटर से कम होकर जब एक किलोमीटर हो गई तो दुनिया भर की निग़ाहें इस असल जीवन के नायक पर पड़ीं, जिसने हक़ीक़त में अपने महबूब की तक़लीफ़ों के मद्देनज़र पहाड़ को हिला कर रख दिया था। असल में मोहब्बत का उफ़ान यही है और हक़ीकत भी। राधा-कृष्ण की कहानी में प्रेम कम, कभी उत्सव है तो कभी विलगाव। हीर-रांझा की कहानी का केंद्रीय भाव भी विछोह की वेदना से अधिक कुछ नहीं है। मोहब्बत के इन दोनों महान कहानियों में व्यक्तिगत प्रेम का उत्थान समाज के हित में कभी नहीं उभरता है। आमतौर पर लोग आशिक़ी में मर्दानगी साबित करने के लिए, भले करने की कूवत किसी के पास न हो, पर चांद-तारे तोड़ लाने की कसमें खाते हैं और औरतें अपना सर्वस्व निछावर करने का वादा करती हैं। लेकिन, दशरथ का यों पहाड़ खिसका देना मोहब्बत में वो मायने भरता है, जो निजी संवेदनाओं से जन्म लेकर मेहनत के रास्ते से होकर महान मानवीय संवेदनाओं की ओर बढ़ता है और समाज और सभ्यता के लिए वरदान बन जाता है।

आम धारणा के विपरीत मोहब्बत का मसला निजी तो बिल्कुल नहीं होता है। जो लोग इश्क़ को व्यक्तिगत मसला कहते है, यकीन मानिए वो अब तक इश्क़ के हक़ीकत से अंजान हैं। असलियत में यह पूरे समाज और सभ्यता का मसला है और साथ में सियासी भी। जो कि अलग-अलग मनोवैज्ञानिक और आर्थिक माहौल में अलग अलग तरीकों से निकल कर अपना एक खास चेहरा अख़्तियार करता है। एक ज़माना था जब मोहब्बत की तुलना इबादत से की जाती थी। सूफी संतों ने मोहब्बत को भली भांति समझा और दुनिया भर में इसका पैग़ाम दिया। कुछ सूफ़ी संतों ने खुदा को मोहब्बत माना तो कुछ ने मोहब्बत को ही खुदा समझा। अमीर खुसरो ने सीधे-सीधे कहा कि किस तरह से प्रेम में धर्म और रीति-रीवाज़ पीछे छूट जाता है। इस बात की सच्चाई इस बदौलत आँकी जा सकती है कि कई सदियों बाद आज भी हम उनकी पंक्तियाँ गाते और गुनगुनाते है। छाप तिलक सब छीनी मोसे नैना मिलाइके...प्रेम भटी का मदवा पिलाइके...मतवारी कर लीन्ही मोसे नैना मिलाइके...। फिर एक दौर वह भी था जब आशिक़ी में मर्द अपनी ताक़त, कठोरता और हासिल करने के हुनर को साबित करते फिरता था। औरतों के लिए हुस्न, नखरे और समर्पण को ही इश्क़ के मतलब के रूप में गिनाया जाता था। आज की दुनिया कुछ और है। आज के इश्क़ में तर्क, विवेक और परस्पर सम्मान के साथ इंसानी स्वतंत्रता का भाव सर्वोपरि होता है। यह इश्क़ के उन बिंबों को नहीं मानती है, जिनमें परवीन शाकिर कहती हैं कि क़ैद में गुज़रेगी जो उम्र बड़े काम की थी पर मैं क्या करती कि ज़ंजीर तिरे नाम की थी। इश्क़ में कोई क्या-क्या करता है, यह इंसान-इंसान या उसके इश्क़-इश्क़ पर निर्भर है। याने किसी इंसान का मोहब्बत के लिए क्या नज़रिया हो, यह उसके जीवन के पूरे फलसफे पर निर्भर होता है। जैसी ज़िंदगी के प्रति समझदारी, वैसी ही उसकी मोहब्बत।

हर एक इंसान इस दुनिया में अकेला ही आता है। वह मरता भी अकेले ही है। हालांकि वह अपने चारों ओर एक सामाजिक घेरा ज़रूर बुना हुआ पाता है, जिससे उसे सामूहिकता का बोध होता है और जिससे उसे यह भी लगते रहता है कि उसका अकेलापन दूर हो रहा है। अकेलापन दूर करने की ज़हद में जीवन में तमाम तरह के प्रेम से इंसान का साबका पड़ता है। सबसे पहले माँ, फिर पिता, फिर परिवार और फिर मित्र और समाज। मगर इन सब के बाद भी, हर इंसान को दुनिया में बाकी लोगों से अकेले छूट जाने का भय हमेशा सताता रहता है। वह अपने मन में एक खालीपन को हमेशा महसूस करते रहता है। यह शून्यता उसके अकेलेपन को असह्य बना देती है। ऐसी स्थिति में उसे लगता है कि कोई एक तो हो जो उसका हर समय, हर हाल में साथ दे। जीवन भर साथ देने की उम्मीद केवल आप अपने जीवनसाथी से ही कर सकते हैं और किसी दूसरे के साथ ऐसी कोई व्यवहार्य स्थिति बन नहीं पाती है। एक खास बात यह कि यही वह व्यक्ति होता है जो आपके समजैविक ज़रूरतों को भी साझा कर सकता है। उसकी तलाश में मन में इस तरह के भाव उभरते रहते हैं कि

उदासियों में तुम्हारा कंधा
सिर रखकर रोने के लिए;
और छातियों के बीच
दुबका हुआ चेहरा -
जो छुपाना चाहेगा
इस एकाकी जीवन में
अलग छूट जाने के अपने डर को।
गोद में सोना निश्चिंत
पाकर तुम्हारा प्रेम
और यह एहसास कि
अकेले मुझे, दुनिया में
नहीं रहने दोगी तुम।

अकेलेपन से मुक्त होने की प्रक्रिया में यह आवेग इश्क़ का बहुत ही शुरूआती दौर का आवेग है। इसके तहत जीवन को किसी और इंसान के साथ साझा करने की प्रबल कामना हिलकोरे मारती रहती है। संभोग जीवन के पुनरुत्पादन की प्रक्रिया के अलावा दो इंसानों के जीवन साझा करने की इस कामना को तृप्त करने की चरम अनुभूति का अहसास भी कराता है। मनोवैज्ञानिक अध्ययनों के मुताबिक़ यह सब मनोवृत्तियाँ इंसानी फ़ितरतों का लाज़िमी हिस्सा हैं। ये सारी प्रवृत्तियाँ ज़िंदगी में मोहब्बत की ज़रूरतें ही पैदा नहीं करते बल्कि उनके लिए ज़मीन भी तैयार करती हैं, लेकिन इसी को मुकम्मल आशिक़ी मान लेना ज़ल्दबाज़ी होगी।

अकेलापन दूर करने के लिए किसी भी इंसान को अपनी मौज़ूदगी का औरों के बीच दिलचस्प और उपयोगी बनाना ज़रूरी है, ताकि उस व्यक्ति के पास लोगों से घिरे रहने का कारण हो। जैसे कि मोटे तौर पर देखे तो इसके लिए एक इंसान अपने सक्रिय प्रयासों के बदौलत अपने आसपास के लोगों और माहौल को बेहतर और खुशनुमा बनाने के लिए सतत सृजनशील रहता है। सृजन करते रहने के लिए किसी दबाव के बिना काम करना ज़रूरी है। अपनी सृजनशीलता की अभिव्यक्ति के लिए किसी इंसान को मानवीय स्वभावों के अनुरूप ही काम करना होगा, जो है- अपने विवेक, अपनी अभिरूचि और अपनी चेतना का इस्तेमाल करते हुए कुछ नया सृजन करते रहना। कुल मिलाकर इन गतिविधियों से वह अपने अस्तित्व के औचित्य को सिद्ध करने की जुगत में लगा रहता है। ये सारी गतिविधियाँ ही सही मायने में इंसानी प्रेम का खाका खींचती हैं। जाने-माने मनोवैज्ञानिक एरिक फ्रॉम ने भी आशिक़ी को कुछ नया रचने और सँवारने की अपनी क़ाबिलियत को जाहिर करने का ही तरीका बतलाया है। इसे ही संक्षेप में रचनात्मकता या सृजनशीलता की अभिव्यक्ति कहा गया।

ध्यान देने वाली बात है कि समग्रता में सही प्रेम को समझने के लिए उन भावनाओं को भी समझने की ज़रूरत है, जिनको हम अक्सर प्रेम मान बैठते हैं, पर असलियत में वे एहसासात प्रेम नहीं, बल्कि प्रेम का भ्रम मात्र होते है। तन्हाई या जीवन में अलग-थलग छूट जाने के शाश्वत डर से उबरने के जो उपाय परंपरावादी तरीके से तैयार किए गए है, मसलन ईश्वर की भक्ति या कला का आस्वादन या नशाखोरी आदि, वे सब बाद में घूम-फिर कर इस डर को और गहरा ही कर देते हैं। जब किसी व्यक्ति को प्रेम का भ्रम होता है तो उसे लगता है कि वह फ़लाँ व्यक्ति, जिससे प्रेम होने का दावा वह करता है, के बिना उसकी ज़िंदगी का कोई मतलब नहीं बचा है। ऐसे में वह अपने तथाकथित माशूक़ के बारे में दिन-रात, हर वक्त सोचता ही रहता है, हक़ीकत में करता कुछ नहीं है। जबकि सच्चाई यह है कि प्रेम सक्रियता की माँग करता है। इसमें अपने प्रेम का इज़हार सिर्फ़ शब्दों से नहीं, बल्कि अपनी मेहनत और समझदारी से, सामने वाले की ज़िंदगी में अपना औचित्य साबित करके करना ज़रूरी है। ग़ालिब ने कहा है कि ये इश्क़ नहीं आसान...बस इतना समझ लिजे...एक आग का दरियाँ है और डूब कर जाना है। यह आग का दरियाँ सही मायने में जीवन के तमाम संघर्ष हैं, जिनसे जूझते हुए ही हर आशिक़ को आशिक़ी से गुज़रना होता है। रुमानियत से लबरेज़, ख्वाबों-ख़यालों में हुई मोहब्बत, असलियत में प्रेम का भ्रम होती हैं और इससे अधिक कुछ भी नहीं। कुछ नहीं करना, गो कि किसी काम में मन नहीं लगना, खाने-पीने का मन न करना, नींद उड़ जाना, किसी और से बात करने का मन न होना आदि फ़ितरत किसी के भी शख्सियत को उबाऊ बना सकती हैं। और ऐसा करके कोई इंसान किसी तरह से अपने इरादों और हौसलों को भी मज़बूत नहीं कर पाता है और आख़िरकार, ये सब अकर्मण्यताएँ दुःख, विरह और विछोह का सबब बन कर रह जाती हैं।

अपनी क़ाबिलियत दूसरों के सामने साबित करने से ज़्यादा ज़रूरी यह होता है कि आप खुद को अपनी सृजनशीलता से संतुष्ठ करें। गौरतलब यह है कि कोई आप से प्रेम करता है कि नहीं इससे पहले का सवाल यह है कि क्या आप को अपने आप से प्रेम है? कहते भी हैं खुदी को कर बुलंद इतना कि तेरी तक़दीर से पहले खुदा तुझसे खुद पूछे कि तेरी रज़ा क्या है। याने जिसे खुद पर भरोसा होता है, वह जो चाहता है हासिल कर लेता है। इसी तरह आशिक़ी की शुरूआत पहले खुद से होती है और फिर इसका फलक दुनिया भर में फैलता है। अंत में जिस इंसान से साथ हम अपनी ज़िंदगी साझा करते हैं, वह हमारे दुनिया भर के प्रति प्रेम का चेहरा होता है। और हाँ, अगर कोई अपने माशूक़ के अस्तित्व में ही अपनी तमाम उत्पादक शक्तियाँ तलाशने लगे और उसे ही अपनी पूरी आत्मबल का प्रतिनिधि मानने लगे तो वह अंततः अपने आप से विलगा ही रहेगा। ऐसे ही प्रेम की कल्पना बुल्ले शाह ने कुछ इस तरह की है:

'रांझा-रांझा' करदी हुण मैं आपे रांझा होई

सद्दो मैनूं धीदो रांझा हीर न आखो कोई

देखने वाली बात है कि यह मोहब्बत नहीं है, बल्कि उसका एक सुनहरा धोखा है बस। नाम रटन करते हुए माशूक़ से मिलने की आस में ख्यालों में बुनी हुई आशिक़ी दरअसल मोहब्बत का एक ख़तरनाक भ्रम है, जिसमें कोई वास्तविकता नहीं है। व्यावहारिक रिश्ते के बिना इसमें तन्हाई के हालात बने रहते हैं। ख्यालों में की गई मोहब्बत में या किसी से मन ही मन प्रेम करना और किसी तरह की गतिशीलता के बिना किया गया प्रेम, यक़ीन मानिए असलियत प्रेम नहीं, बल्कि प्रेम का धोखा है।

जैसा कि पहले ज़िक्र हुआ कि जिस इंसान के इश्क़ में आप होते हैं, वह व्यक्ति आपके अंदर पूरी क़ायनात के लिए जो आपका प्रेम पल रहा होता है, उसकी नुमाइंदगी भर कर रहा होता है। लेकिन मुश्क़िल यह है कि किसी व्यक्ति-विशेष के व्यापक प्रेम की नुमाइंदगी हर कोई नहीं कर सकता है। इसके लिए दोनों के जीवन का फ़लसफ़ा एक होना ज़रूरी है। मोहब्बत में ज़िम्मेवारी कर्तव्य और अधिकार के युग्म के जरिए नहीं पनपता है, बल्कि इस रिश्ते में ज़िम्मेवारी एक उत्सव-निर्झरी है, जिसमें लोग तमाम उम्र भींगते रहना चाहते है। दोनों की उपस्थिति एक-दूसरे को कभी भी और कैसी भी स्थिति में ऊबाती नहीं, बजाय इसके, यह तो हमेशा एक-दूसरे को उत्साह और ऊर्जा से लबरेज़ रखती है। मुक्तिबोध ने अपनी कविता “आत्मा के मित्र मेरे” ने इस स्थिति का विवरण यूँ किया है:

मित्र मेरे,
आत्मा के एक !
एकाकीपन के अन्यतम प्रतिरूप
जिससे अधिक एकाकी हॄदय।
कमज़ोरियों के एकमेव दुलार
भिन्नता में विकस ले, वह तुम अभिन्न विचार
बुद्धि की मेरी श्लाका के अरूणतम नग्न जलते तेज़
कर्म के चिर-वेग में उर-वेग का उन्मेष
हालाँकि यह भी संभव है कि जिस इंसान के लिए आप अपना प्यार जाहिर करना चाहते हो, उसकी दिलचस्पी आप में न हो। इन हालातों में एक इंसान दूसरे के प्रेम का प्रतिनिधित्व करने की क़ाबिलियत तो रखता है, पर दूसरा उसे इस क़ाबिल नहीं समझता। ऐसी स्थिति लंबे समय तक व्यवहार्य नहीं है, इसलिए नये व्यक्ति की तलाश कर लेनी चाहिए। शमशेर बहादुर सिंह ने अपनी कविता “टूटी हुई, बिखरी हुई” में कहा है:

हाँ, तुम मुझसे प्रेम करो जैसे मछलियाँ लहरों से करती हैं
...जिनमें वह फँसने नहीं आतीं,
जैसे हवाएँ मेरे सीने से करती हैं
जिनको वह गहराई तक दबा नहीं पातीं,
तुम मुझसे प्रेम करो जैसे मैं तुमसे करता हूँ।

दूसरे व्यक्ति की तलाश की प्रासंगिकता यह भी है कि प्रेम कोई सामाजिक संस्थानिकताओं द्वारा निर्धारित बंधन नहीं है। यह एक पारस्परिक और बराबरी के ज़मीन पर खड़ा हुआ रिश्ता है और इसमें साथी चुनने की प्रकिया में दोनों के दिमाग में भावनाओं के स्तर पर समता का समावेश होना बहुत ज़रूरी है। आपकी ज़िंदगी का फलसफा किसी और से मिलता-जुलता हो, यह एक मुश्किल संयोग है। इसके लिए एरिक फ्रॉम ने यह उपाय सुझाया है कि किसी व्यक्ति की आशिक़ी में इतना आकर्षण होना चाहिए कि वो दूसरों को उसी तरह से मोहब्बत करने के लिए प्रोत्साहित करे। फ्रॉम के मुताबिक यह आकर्षण दूसरों को समझने-बूझने से, उनका देखभाल करने से और उन्हें बतौर स्वतंत्र व्यक्ति सम्मान देने से पैदा किया जा सकता है। याने कुल मिलाकर अपने को सही अर्थ में उपयोगी सिद्ध करके कोई व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को भी प्रेम के लिए प्रेरित कर सकता है। हालाँकि फ्रॉम के इस सुझाव को स्वयं इस्तेमाल करके ही जाँचा जा सकता है। लेकिन अफ़सोस यह है कि हमारे समाज में फ़िल्मों और अधकचरे सहित्य के बदौलत एक बहुत भ्रामक प्रचार यह भी रहा है कि प्रेम जीवन बस एक बार होता है, जो कि यकीन मानिए सरासर झूठ है। ऐसा वे लोग सोचते है, जिन्हें लगता है कि प्रेम किसी खास शख्सियत से ही किया जाता है और इस मामले में दुनिया से वे कोई मतलब रखते। लेकिन सही आशिक़ यह सोचते है कि जीवन में किए जाने वाला आपके हिस्से का प्यार दरअसल पूरी क़ायनात से की गई आपकी मोहब्बत है न कि किसी एक खास इंसान से। कोई एक व्यक्ति अगर आपके जीवन में है भी तो बस आपके दुनिया भर के लिए प्यार का समग्र प्रेम का नुमाइंदा भर है। जो लोग सही में प्रेम करते हैं या प्रेम को जीना जानते हैं, वह किसी “एक व्यक्ति विशेष” के इंकार से या उनकी जुदाई से खु़द को कुंठित नहीं करते है। हालाँकि किसी मनोरोगी में यह लक्षण देखने को मिलना प्रायः मुमकिन है।

सबसे अहम सवाल यह है कि आपके साथी चुनने के पीछे कौन-कौन से मनोवैज्ञनिक व सामाजिक कारक काम करते हैं? या इस सवाल को इस तरह से भी पूछा जा सकता है कि अगर किसी ने आपकी मोहब्बत को ठुकड़ा दिया हो तो इसके आधार मे कौन-कौन सी बातें हैं? जबाव मुश्क़िल है, पर असंभव नहीं। सोचने वाली बात है कि वे कौन से गुण हैं, जो किसी इंसान को आकर्षक बनाते हैं। इतना आकर्षक कि उसके प्रेम निवेदन को इंकार किया जाना आसान न हो। एक बात तो तय है कि जब कोई आदमी किसी खास व्यक्ति के साथ अपनी जोड़ी तैयार करना चाहता है तो यह देखता ज़रूर है कि उसका संभावित साथी जो है, उसके लिए प्यार के क्या मायने हैं? उसके लिए कौन-कौन सी बातें खूबसूरत हैं? उनके पसंद-नापसंद क्या हैं? परखने वाली बात यह है कि ये सारी बातें किन तत्वों के आधार पर विकसित हुई हैं। अमूमन इन हालातों में चार तत्व काम करते हैं जो किसी खास व्यक्ति को पसंदीदा व्यक्ति बनाते हैं। पहली नज़र में जो आकर्षण का कारण बनता है, वह है रूप और देह का गठन। रूप और देह वह तत्व हैं जो अक्सर आसक्ति का कारण बनते हैं। कभी-कभार इस आसक्ति का आवेग बहुत तेज़ होता है और लोग इसे ही प्रेम समझ बैठते हैं। लेकिन इस आकर्षक का आधार अधिक मज़बूत नहीं है, क्योंकि सबको पता है कि रूप और देह हमेशा एक से नहीं रहते। यही कारण है कि यह आकर्षण अधिक दिनों तक नहीं टिकता है। दूसरा आकर्षण होता है उस व्यक्ति का बर्ताव। बर्ताव मनोरम होने के दो कारण सकते है, एक कि उसका बर्ताव उसके मानसिक बनावट को सही-सही प्रतिबिंबित कर रहा हो और दूसरा यह कि वह संभावित साथी को रिझाने के लिए एक बनावटी बर्ताव में मशगूल हो। इसलिए बर्ताव अगर बनावटी रहा तो संभव है एक बार इज़हार-ए-मोहब्बत तो दोनों ओर से हो, लेकिन चेहरे से नक़ाब उठते ही, वह लगाव खत्म हो जाता है और सारी आशिक़ी काफ़ूर हो जाती है। आकर्षण के तीसरे कारण पर ग़ौर से सोचे तो आप पाइयेगा कि हर इंसान अपने संभावित साथी का चयन अपने पृष्ठभूमि के आधार पर बहुत पहले तैयार एक साँचे के अनुरूप करता है। वह हमेशा एक साँचा बनाए रखता और जो व्यक्ति जब कभी भी उस साँचे में फिट बैठता दिखता है, वह उसे चाहना शुरू कर देता है। यह साँचा कई तरह की इच्छाओं या असुरक्षा की भावनाओं से तैयार किया जाता है। मसलन अभाव में जीने वाली एक लडकी को लड़के का अमीर होना आकर्षित कर सकता है या किसी लड़के का दिल किसी लड़की की कमनीयता पर ही घायल हो सकता है। इसी साँचे को तैयार करते वक्त ही रूप और देह के प्रति अपनी विशेष सौंदर्यानुभूति विकसित की जाती है, जो गौर करें तो समाज के प्रचलित मान्यताओं और रूढ़ियों पर आधारित होती हैं। यह अक्सर देखने को मिलता है कि कोई व्यक्ति आपका बहुत अच्छा मित्र हो और विपरीत लिंग के होने के बाद भी आप दोनों में प्रगाढ़ मित्रता से अधिक आशिक़ी जैसा कुछ भी नहीं हो। यानी गज़ब की समझदारी और पसंदगी के बाद भी आपदोनों में वो प्रेम नहीं हो, जिसके तहत दोनों साथ जीवन गुज़ार सकें। इसका एकमात्र कारण दिमाग में पहले से रेडिमेड साँचे में उस व्यक्ति फिट नहीं बैठना है। लेकिन इस तरह के साँचों के बनने में इच्छाओं और असुरक्षा बोध के जड़ में आकर्षण के तीनों कारणों से प्रबल और सबसे टिकाऊ व महत्वपूर्ण इसका चौथा कारण है। वह है ज़िंदगी, रिश्तों, देश और समाज के प्रति एक साझा जीवन दर्शन और समझदारी का मौज़ूद होना। ध्यान से समझने वाली बात यह है कि चौथा कारण जो है, वह बाकी तीन कारकों को नियंत्रित करता है।

प्रेम में अक्सर साथी चुनते वक्त एक गफलत हो जाती है और वह है अपने माशूक़ से जो आपका जुड़ाव है, उसके आधार में कौन सी भावनाएँ प्रबल हैं। अधिकतर मामलों में रति भाव या सेक्स संबंध बनाने की कामना ही तमाम भावनाओं पर हावी पडती हैं और यही कारण है कि अमूमन औरत और मर्द के बीच इस सम्मोहन को ही प्रेम मान लिया जाता है। पर जरा सोचिए, क्या सिर्फ़ इस तलब को मोहब्बत कहा जा सकता है? इसका जवाब हाँ और ना में देना मुश्क़िल है क्योंकि जबाव अलग-अलग हालात पर अलग-अलग हो सकते हैं। एक तरफ़, प्रेम अपने स्वरूप में अपने साथी के समक्ष अपनी सृजनशीलता प्रकट करके उसके आत्मीय जुड़ाव के गर्माहट को महसूस करने की प्रक्रिया है। और दूसरी तरफ़, सेक्स की स्वस्थ चाहत भी अपने साथी के सामने अपने इश्क़ को जाहिर करने की तरीका ही है। देखने वाली बात है कि इन दोनों व्यवहारों में एक साम्य बनता तो दीखता हैं, लेकिन इसमें सजग रहने की ज़रूरत है कि मोहब्बत में अपनी-अपनी रचनाशीलता जाहिर करने के अलावा आपसी रिश्ते में सम्मान और बराबरी का मौज़ूद होना भी बहुत ज़रूरी है। तभी तो कोई व्यक्ति बिना किसी दवाब में आए अपने आशिक़ के खुशी और विकास के लिए लगातार कोशिशें और मेहनत करते रहता है। इस चश्में से देखिए तो आसानी समझा जा सकता है कि जब सेक्स संबंध आशिक़ी का ज़मीन तैयार करती हैं तो उसमें यौनिकता के साथ-साथ दोनों साथियों के बीच समता और सम्मान की भावना का प्रवाह बना रहना ज़रूरी होता है। और अगर ऐसा नहीं है तो ऐसे यौन संबंध प्रेम की अभिव्यक्ति के बजाय कोई मनोविकृति या मनोरोग का प्रकार बन कर सामने आते हैं।

मोहब्बत से जुड़ी इन सारी बातों के साथ-साथ यह भी समझना ज़रूरी है कि हमारे समाज में मोहब्बत करना कोई दिल्लगी नहीं है। पूरी सभ्यता और पूरा समाज आपके ख़िलाफ़ लामबंद हो सकता है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि इश्क़ में आशिक़ पुराने रुढ़ियों के किलों को ढहा कर एक बराबरी की ज़मीन और इंसानियत की नींव पर एक नई इमारत खड़ी करने की कोशिश करते हैं। परंपरावादियों को जाति, धर्म, वर्ग और लिंग आधारित विभेदों में बँटे हुए समाज में मौज़ूद विषम सत्ता-संबंध का टूटना पचता नहीं है, इसलिए हाय-तौबा मचती है। इस बात को समझने का एक और नज़रिया यह है कि जर्जर हो चुकी परंपराओं के झंडाबरदारों को प्रेम संबंधों से दिक्कत इसलिए है क्योंकि इसके जरिए कोई स्त्री अपने जीवन और अपनी मेहनत के इस्तेमाल पर अपना खुद के नियंत्रण का दावा पेश करती है। वह कहती है कि हम आज़ाद हैं, यह तय करने को कि हम अपना जीवनसाथी किसे चुने। प्रेम पर आधारित रिश्ते इशारा करते हैं कि तमाम तरह की उत्पादन-प्रक्रियाओं में औरतें अपनी मेहनत का फैसला अब वह खुद लेंगी। यह आवाज़ है उन बेड़ियों के टूटने की, जिसने स्त्रियों के पुनरूत्पादक शक्तियों पर पुरूषों का एकाधिकार सदियों से बनाये रखा है। यह विद्रोह है पितृसत्ता से विरुद्ध। ऐसे में प्रेम पितृसत्ता के खंभों को हिलाने वाला एक ऐसा भूचाल लाता है कि समाज के रूढ़िवादी हलकों में बौखला कर प्रेमी-युगलों के खून के प्यासे हो जाते हैं। लेकिन, चलते-चलते प्रेम में आने वाली इन चुनौतियों से बड़ी बात यह चाहूँगा कि जीवन के केंद्र में प्रेम है और इससे महत्वपूर्ण काम इस ज़िंदगी में और कुछ नहीं।

याद रहे कि तुम्हें दिल्लगी भूल जानी पड़ेगी, मोहब्बत की राहों में आकर तो देखो!

(यह आलेख अहा ज़िंदगी के प्रेम विशेषांक (फरवरी, 2011) में आया था। जिनसे इसे पढ़ना वहां छूट गया हो और जो इसे पढ़ने की इच्छुक हो , उनके लिए यह लिंक है। प्रस्तुत आलेख प्रकाशित आलेख का असंपादित रूप है।)

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दूरभाष: +91-8955026515 & 9555053370 

24 मार्च 2011

नक्सली के नाम पर ग्रामीणों की हत्या


बीती १४ तारीख को छत्तीसगढ़ के दान्तेवाड़ा में कोबरा बटालियन के जवानों ने तकरीबन ३०० घर जलाये और ५ महिलाओं के साथ बलात्कार किया कई ग्रामीणों को पीटा और कईयों को मार डाला. यह सब माओवादी होने के नाम पर किया गया आज जब वहाँ के जिला प्रसाशन द्वारा ग्रामीणों को ट्रक से राहत सामाग्री भेजी जा रही थी तो उसे वहाँ के एस.एस.पी. कल्लूरी के आदेश पर ले जाने से रोक दिया गया. यह सब हमारे देश के एक हिस्से में घटित हो रहा है जब हम लीबिया और मिश्र की चर्चायें कर रहे हैं और भारत को लकतांत्रिक कहे जाने का दंभ भर रहे हैं अनिल मिश्र ने एक अन्य मसले को उठाया है जिसे हम आपके साथ साझा कर रहे हैं.
अनिल मिश्र
पश्चिम बंगाल के लालगढ़ इलाके के नेताई गांव में पिछले महीने सत्ताधारी राजनीतिक दल के सशस्त्र कैडरों ने बारह ग्रामीणों की गोली मार कर हत्या कर दी थी. उच्चतम न्यायालय की एक खंडपीठ ने इस मामले की याचिका पर इस बुधवार सुनवाई करते हुये जो टिप्पणी की है वह बहुत महत्त्वपूर्ण है. प. बंगाल सरकार के पब्लिक प्रॉस्क्यूटर ने कहा कि मारे गए सभीनक्सलीथे. उच्चतम न्यायालय ने इस पर प.बंगाल सरकार को कड़ी फटकार लगाते हुए कहा कि हम इस तथ्य से वाक़िफ़ हैं कि सुविधा संपन्न लोग सुविधाविहीन लोगों की मांगों को अवैधानिक ठहराने के लिएनक्सलीब्रांड का इस्तेमाल करते हैं.सुको ने आगे कहा कि देश के आधे से अधिक हिस्सों में क़ानून विहीनता (लॉ लेसनेस) है. नक्सलीशब्द का ऐसे ढील-ढाल इस्तेमाल कर ऐसी हत्याओं को उचित नहीं ठहराया जा सकता.
उच्चतम न्यायालय की यह टिप्पणी ऐसे वक़्त में और भी अहमियत रखती है क्योंकि सरकारें लगातार कॉर्पोरेट तंत्र के दबाव में झुकती चली जा रही हैं, और एक से बढ़कर एक जनविरोधी क़दम उठा रही हैं. मौलिक अधिकारों की जो गारंटी संविधान में प्रदान की गई है उसकी रक्षा कर पाने में सरकारे पूरी तरह विफल साबित हो रही हैं. उदारीकरण के वर्तमान, तीसरे, चरण में विकासके नाम पर सत्ताधारी वर्ग की असहुष्णता अब एक सनक का शक्ल अख़्तियार कर चुकी है. इसके पहले, उच्चतम न्यायालय ने विकासके बारे में जो टिप्पणी की थी उसका भी आशय कुछ इस तरह का था कि ग़रीबों की आजीविका, मकान और पर्यावरण को तहस नहस करने वाला कोई विकास अपेक्षित नहीं है. निश्चित ही,विदेशी पूंजी के खेल के आगे नतमस्तक हमारे राजनीतिक नेतृत्व के लिए यह टिप्पणी किरकिरी जैसी लगी होगी.
हाल ही में, ओडिशा के मानवाधिकार आयोग ने अपनी एक स्वतंत्र जांच रिपोर्ट में कहा गया है कि २००८ में कोरापुट जिले में पुलिस ने जिन दो लोगों को नक्सलीकहकर मारा था वे ग्रामीण थे जो अपने पशुओं को घर से बाहर बाड़े में बांधने निकले थे. मानवाधिकार आयोग ने मृतकों के परिजनों को मुआवज़ा देने की भी सिफ़ारिश की है. मानवाधिकार आयोग की जांच के मुताबिक़ जिला पुलिस के नेतृत्व में सीआरपीएफ़ के गश्ती दल ने इस फ़ायरिंग की जो कहानी गढ़ी थी वह परस्पर अंतर्विरोधी और बेबुनियाद दिखती है. पुलिस दल के प्रभारी थानाध्यक्ष के मुताबिक़ उन्हेंविश्वस्तसूचना मिली थी कि इलाक़े में कुछ माओवादी नक्सलीतत्व आए हैं. गश्त के दौरान रात के अंधेरे में जब उन्होंने नाइट विज़नयंत्र से देखा कि कुछ लोगों का समूह उनकी ओर बढ़ा चला आ रहा है और गोलियां चला रहा है तो पुलिस ने जवाबी कारवाई में दो नक्सलियोंको मार गिराया. मानवाधिकार आयोग की जांच कहती है कि गांव के ये दो नौजवान ग्रामीण अपने पशुओं को खोजने घर से बाहर निकले थे क्योंकि उनके बैल रस्सी तुड़ाकर भाग गए थे. पुलिस दल ने उन पर अंधाधुंध फ़ायरिंग की जिसमें दो युवकों की मौत हो गई और कई बैलों ने घटनास्थल पर ही दम तोड़ दिया. एक ग्रामीण इस हमले मे बुरी तरह घायल हुआ था जिसने किसी तरह परिवार वालों को घटना की ख़बर दी.
पश्चिम बंगाल सरकार के बारे में उच्चतम न्यायालय की इस टिप्पणी कैसे बिल्कुल खरी है कि कि देश के आधे से भी अधिक हिस्सों में क़ानून विहीनता है.आगे का सच यह है कि देश के अधिकांश हिस्सों में या तो कोई क़ायदे-क़ानून नहीं हैं या फिर ऐसे नियम क़ानून हैं जिनके आधार पर सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी को भी अगर कभी देशद्रोहीक़रार दिया जाए तो कोई ख़ास हैरानी नहीं होनी चाहिए. छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा अधिनियमएक ऐसा ही अंधा क़ानून है जिसमें (नक्सली जैसे) शब्दों के झोलदार इस्तेमाल द्वारा किसी भी तरह के अपराध करने की आधिकारिक छूट हासिल की गई है

हिरोशिमा से फ़ुकुशिमा तक

अनिल मिश्र
पिछले सप्ताह जापान में सुनामी के साथ आए भूकंप ने समूची दुनिया को दहला कर रख दिया है. इस विभीषिका से होने वाले नुक़सानों का वास्तविक आकलन, एड़ी चोटी के प्रयासों के बावजूद, अभी तक नहीं हो पाया है. सब कुछ धरती के नीचे दफ़्न हो जाने की सैकड़ों ख़बरें अभी तक आ रही हैं. रही सही कसर परमाणु संयंत्रों में विस्फ़ोट के बाद विकिरण के ख़तरे ने पूरी कर दी है जिसके असर कई कई सालों और पीढ़ियों तक मारक होते हैं.
People evacuated from a nursing home
Fukushima - evacuated people
जापान के प्रधानमंत्री नाओतो कान के बयान कि ’दूसरे विश्वयुद्ध के बाद यह उनके देश में सबसे भयानक तबाही है, और कुछ मायनों में उससे भी ज़्यादा विनाशकारी’, के कई पहलू हैं. इसे प्राकृतिक आपदा में नष्ट हो चुके एक देश द्वारा महज वैश्विक मानवीय सहायता और सहानुभूति की अपील की तरह देखना पर्याप्त नहीं होगा. प्रधानमंत्री का बयान परमाणु ऊर्जा के ख़तरनाक पहलुओं की भी एक स्वीकारोक्ति है. मानवतावादी संकटों से निपटना निश्चित ही एक अहम और तात्कालिक चुनौती है. लेकिन परमाणु संयंत्रों में विस्फ़ोट और विकिरण के जो खतरे पैदा हो रहे हैं उनसे निपटना आने वाले दिनों में बेहद कठिन होगा. साथ ही, ऊर्जा के लिए परमाणु ईंधन को प्रोत्साहन देने वाले अन्य देशों की योजनाओं के लिए इससे कई महत्वपूर्ण सबक़ मिले हैं.

हिरोशिमा पर बमबारी से दूसरे विश्वयुद्ध का ख़ात्मा हुआ. तब यह सिर्फ़ युद्ध की समाप्ति की घोषणा नहीं थी बल्कि एक देश को पूरी तरह नेस्तनाबूद कर दिया गया था. हिरोशिमा और नागासाकी पर जो परमाणु बम गिराए गए थे उनके प्रभाव कुछ लोगों और कुछ दिनों तक ही नहीं सीमित रहे. जापान अब तक, इस विभीषिका के पहले तक, हिरोशिमा के नासूर प्रभावों से पूरी तरह छुटकारा नहीं पा सका था. विकिरण प्रभावों के कारण अपंगता, कैंसर, कु-समय जचगी, दृष्टीहीनता समेत कई नई तरह की बीमारियां जापान की कई पीढ़ियों की जैसे नियति हो गई हों. दुनिया भर में इस बमबारी के बाद परमाणु बमों की ज़रूरत पर तीखी बहसें हुईं. कई वैज्ञानिकों ने एक मत से इसकी मुख़ालफ़त की थी. आइंस्टीन जैसे वैज्ञानिक ने तो परमाणु बम बनाने की अपनी कोशिशों के लिए अफ़सोस तक ज़ाहिर किया था. दूसरे विश्वयुद्ध की यह तबाही मानव इतिहास में अब तक की सर्वाधिक बर्बर कारवाइयों में से एक थी जिसने भारी पैमाने पर न सिर्फ़ जान-माल को क्षति पहुंचाई थी, बल्कि आने वाली पीढ़ियों, उनके भविष्य को निगलने में भी कोई कसर नही छोड़ी थी.

सुनामी और भूकंप से जापान के एक अन्य शहर फ़ुकुशिमा में देश के छः में से कम से कम चार परमाणु संयंत्रों में ज़बर्दस्त विस्फ़ोट हुआ है. छन छन कर आ रही ख़बरों के मुताबिक़ परमाणु संयंत्रों के ऊपर विकिरण फैल गया है और जल्द ही संयुक्त राज्य अमेरिका तक इसके असर फैल चुके है. परमाणु संयंत्रों में लगी आग को बुझाने के लिए हवाई जहाज़ के ज़रिये पानी उड़ेला जा रहा है लेकिन वह धरती की सतह पर पहुंचने से पहले ही, ताप और तूफ़ान के कारण भाप बन कर में उड़ जा रहा है. परमाणु ईंधन छड़ों के पिघलने के कारण विकिरण लगातार फैल रहा है.
किसी भी परमाणु रियेक्टर की सुरक्षा के तीन चक्र होते हैं. पहला, बाहरी प्रतिरोधक इमारत, दूसरा ईंधन को रखने के भारी क्षमता वाले वृहद बर्तन और तीसरा ईंधन छड़ों के चारों ओर लपेटे गए मोटे धातु लेप. फ़ुकुशिमा संयंत्रों में विस्फ़ोट से ये तीनों चक्र क्षतिग्रस्त हो गए हैं. जो परमाणु ईंधन छड़ें २५ डिग्री सेल्सियस तापमान पर धातु लेप के भीतर सुरक्षित रखी जाती थीं, अब वे ८५ डिग्री सेल्सियस के तापमान पर खुली पड़ी हैं. इनसे रेडियोएक्टिव भाप वातावरण में फैल रही है. अब इन छड़ों के संपूर्ण पिघलाव की भी आशंका जताई जा रही है. विकिरण ख़तरों के मद्देनज़र परमाणु संयंत्र के बीस किलोमीटर के दायरे में लोगों के रहने पर पाबंदी लगा दी गई है, और तीस किलोमीटर के दायरे में रहने वाले लोगों को घरों के दरवाज़े बंद रखने की सलाह दी गई है.
उपरोक्त तथ्यों के आलोक में परमाणु विकिरण की भयावहता का अनुमान लगाया जा सकता है जबकि इस दिशा में और कई महत्वपूर्ण जानकारियों का सामने आना
अभी भी बाक़ी है. फ़ुकुशिमा परमाणु संयंत्र विस्फ़ोट ने परमाणु ऊर्जा पर निर्भरता की बहस को नए सिरे से पुनर्जीवित कर दिया है. कई वैज्ञानिकों का मानना है कि फ़ुकुशिमा के परमाणु संयंत्रों का विकिरण रिसाव समूचे उत्तरी गोलार्ध में फैलेगा. इससे न सिर्फ़ जापान बल्कि आसपास के देश भी बुरी तरह प्रभावित होंगे. रूस इन विकरण प्रभावों के प्रति पहले ही सशंकित है. चीन के एक परमाणु वैज्ञानिक का कहना है कि फेफड़ों और चमड़ी पर विकिरण के असर दिखने शुरू हो गए हैं. ग्रीन पीस के एक वैज्ञानिक का कहना है कि ’अगर परमाणु ईंधन छड़ें एक बार पिघलना शुरू हो जाती हैं तो इसे रोका नहीं जा सकता. उन्हें अगर पानी उड़ेल कर ठंडा किया गया तो इसके ऊपर लगा धातुओं का लेप भाप बनकर उड़ जाएगा और वातावरण में जाकर आग और ताप को और बढ़ाएगा. इससे विकिरण के और फैलने का ख़तरा टाला नहीं जा सकेगा.’
जापान के लिए ही नहीं, बल्कि दुनिया के स्तर पर हिरोशिमा पर बमबारी के कई अहम सबक़ थे. अब फ़ुकुशिमा से परमाणु ऊर्जा के लिए कई महत्वपूर्ण चेतावनियां और सीख हासिल हुई है. हिरोशिमा ने, आने वाली पीढ़ियों के हक़ में, परमाणु बमों की खोज से पैदा हुए युद्धीय उन्माद से आगाह किया था. तहस-नहस जापान को हिरोशिमा से उबरने में कई दशक लगे थे. अब फ़ुकोशिमा परमाणु संयंत्र के विस्फ़ोट और विकिरण से परमाणु ईंधन पर निर्भरता की बेतुकी होड़ को ठहर कर सोचने की चेतावनी मिली है कि मानवता के हित में ऐसे ख़तरनाक़ तरीक़ों की आज़माइश क्यों न बंद कर दी जाए जिनमें वक़्त बे-वक़्त की आपदाओं से युगीन विनाश की संभावनाएं निहित रहती हैं?
भारत में प. बंगाल के समुद्र तटवर्ती इलाक़े के हरिपुर नामक गांव में भी एक परमाणु संयंत्र स्थापित करने की कवायद जारी है. जापान की तकनीकी दक्षता का दुनिया लोहा मानती है. बावजूद इसके परमाणु ऊर्जा के दुष्प्रभावों को कम नहीं किया जा सका है. यह तो जापान की ’राष्ट्रीय दृढ़ता’ का नतीजा था कि वह हिरोशिमा के हमले के दीर्घकालीन प्रभावों को शिकस्त देने में लगातार जुटा रहा. दुनिया के अन्य देशों को हिरोशिमा और फ़ुकोशिमा से बहुत कुछ सीखने को मिला है. चेर्नोबिल और भोपाल की चर्चा यहां शामिल नहीं की जा रही है. यह चिंता का अलग विषय है कि शेष विश्व का राजनीतिक-कूटनीतिक नेतृत्व और परमाणु लॉबी इस विभीषिका से समय रहते कुछ सीखना पसंद करेगा या सच्चाई से मुंह चुरा कर टाल-मटोल करता रहेगा.
सम्पर्क- Mobile: 9579938779, E-mail : anamil.anu@gmail.com

23 मार्च 2011

भगत सिंह और उनके साथियों का फांसी के पूर्व एक ख़त

भगतसिंह ,राजगुरु ,सुखदेव का फांसी के पूर्व, पंजाब के गवर्नर के नाम लिखा ख़त




महोदय,
उचित सम्मान के साथ हम नीचे लिखी बाते .आपकी सेवा में रख रहे हैं -
भारत की ब्रीटिश सरकार के सर्वोच्च अधिकारी वाइसराय ने एक विशेष अध्यादेश जारी करके लाहौर षड़यंत्र अभियोग की सुनवाई के लिए एक विशेष न्यायधिकर्ण (ट्रिबुनल ) स्थापित किया था ,जिसने 7 अक्टुबर ,1930 को हमें फांसी का दंड सुनाया | ह
मारे विरुद्ध सबसे बड़ा आरोप यह लगाया गया हैं कि हमने सम्राट जार्ज पंचम के विरुद्ध युद्ध किया हैं |
न्यायालय के इस निर्णय से दो बाते स्पष्ट हो ज़ाती हैं -पहली यह कि अंग्रेजी जाति और भारतीय जनता के मध्य एक युद्ध चल रहा हैं |दूसरी यह हैं कि हमने निशचित रूप में इस युद्ध में भाग लिया है |अत: हम युद्ध बंदी हैं | यद्यपि इनकी व्याख्या में बहुत सीमा तक अतिशयोक्ति से काम लिया गया हैं , तथापि हम यह कहे बिना नहीं रह सकते कि ऐसा करके हमें सम्मानित किया गया हैं |पहली बात के सम्बन्ध में हमें तनिक विस्तार से प्रकाश डालना चाहते हैं |
हम नही समझते कि प्रत्यक्ष रूप से ऐसी कोई लड़ाई छिड़ी हुई हैं | हम नहीं जानते कि युद्ध छिड़ने से न्यायालय का आशय क्या हैं ? परन्तु हम इस व्याख्या को स्वीकार करते हैं और साथ ही इसे इसके ठीक सन्दर्भ को समझाना चाहते हैं | ………………….
युद्ध कि स्थिति
हम यह कहना चाहते हैं कि युद्ध छिड़ाहुआ हैं और यह लड़ाई तब तक चलती रहेगी जब तक कि शक्तिशाली व्यक्तियों ने भारतीय जनता और श्रमिको की आय के साधनों पर अपना एकाधिकार कर रखा हैं -चाहे ऐसे व्यक्ति अंग्रेज या सर्वथा भारतीय ही हों ,उन्होंने आपस में मिलकर एक लूट जारी कर रखी हैं |चाहे शुद्ध भारतीय पूंजीपतियों के द्वारा ही निर्धनों का खून चूसा जा रहा हो तो भी इस स्थिति में कोई अंतर नही पड़ता |यदि आपकी सरकार कुछ नेताओ या भारतीय समाज के मुखियों पर प्रभाव जमाने में सफल हो जाये ,कुछ सुविधाय मिल जाये ,अथवा समझौते हो जाये ,इससे भी स्थिति नही बदल सकती ,तथा जनता पर इसका प्रभाव बहुत कम पड़ता हैं | हमे इस बात की भी चिन्ता नही कि युवको को एक बार फिर धोखा दिया गया हैं और इस बात का भी भय नहीं हैं कि हमारे राजनीतिक नेता पथ – भर्स्ट हो गये हैं और वे समझौते की बातचीत में इन निरपराध ,बेघर और निराश्रित बलिदानियों को भूल गये हैं ,जिन्हें दुर्भाग्य से क्रन्तिकारी पार्टी का सदस्य समझा जाता हैं |हमारे राजनीतिक नेता उन्हें अपना शत्रु समझते है ,क्योकि उनके विचार में वे हिंसा में विश्वास रखते हैं |हमारी वीरागनाओ ने अपना सब कुछ बलिदान कर दिया हैं |उन्होंने अपने पतियों को बलिबेदी पर भेट किया ,भाई भेट किये ,और जो कुछ भी उनके पास था -सब न्यौछावर कर दिया |उन्होंने अपने आप को भी न्यौछावर कर दिया परन्तु आपकी सरकार उन्हें विद्रोही समझती हैं |आपके एजेन्ट भले ही झूठी कहानिया बनाकर उन्हें बदनाम कर दें और पार्टी की प्रसिद्धी को हानि पहुचाने का प्रयास करें ,परन्तु यह युद्ध चलता रहेगा |
युद्ध के विभिन्न स्वरूप
हो सकता हैं कि यह लड़ाई भिन्न -भिन्न दशाओ में भिन्न -भीं स्वरूप ग्रहण करे |किसी समय यह लड़ाई प्रकट रूप ले ले ,कभी गुप्त दशा में चलती रहे ,कभी भयानक रूप धारण के ले ,कभी किसान के स्तर पर युद्ध जारी रहे और कभी यह घटना इतनी भयानक हो जाये कि जीवन और मृत्यु की बाज़ी लग जाये |चाहे कोई भी परिस्थिति हो ,इसका प्रभाव आप पर पड़ेगा |यह आप की इच्छा हैं की आप जिस परिस्थिति को चाहे चुन लें ,परन्तु यह लड़ाई जारी रहेगी |इसमें छोटी -छोटी बातो पर ध्यान नही दिया जायेगा |बहुत सम्भव हैं कि यह युद्ध भयंकर स्वरूप ग्रहण कर ले |पर निश्चय ही यह उस समय तक समाप्त नही होगा जब तक कि समाज का वर्तमान ढाचा समाप्त नही हो जाता ,प्रत्येक वस्तु में परिवर्तन या क्रांति समाप्त नही हो जाती और मानवी सृष्टी में एक नवीन युग का सूत्रपात नही हो जाता |
अन्तिम युद्ध ……
निकट भविष्य में अन्तिम युद्ध लड़ा जायेगा और यह युद्ध निर्णायक होगा |साम्राज्यवाद व पूजीवाद कुछ दिनों के मेहमान हैं |यही वह लड़ाई हैं जिसमे हमने प्रत्यक्ष रूप में भाग लिया हैं और हम अपने पर गर्व करते है कि इस युद्ध को न तो हमने प्रारम्भ ही किया हैं और न यह हमारे जीवन के साथ समाप्त ही होगा हमारी सेवाए इतिहास के उस अध्याय में लिखी जाएगी जिसको यतीन्द्रनाथ दास और भगवतीचरण के बलिदानों ने विशेष रूप में प्रकाशमान कर दिया हैं | इनके बलिदान महान हैं |जहाँ तक हमारे भाग्य का सम्बन्ध हैं हम जोरदार शब्दों में आपसे यह कहना चाहते हैं कि आपने हमें फांसी पर लटकाने का निर्णय कर लिया हैं |आप ऐसा करेंगे ही |आपके हाथो में शक्ति हैं और आपको अधिकार भी प्राप्त हैं |परन्तु इस प्रकार आप जिसकी लाठी उसकी भैंसवाला सिद्धांत ही अपना रहे हैं और आप उस पर कटिबद्ध हैं |हमारे अभियोग की सुनवाई इस बात को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं कि हमने कभी कोई प्रार्थना नही की और अब भी हम आप से किसी प्रकार की दया की प्रार्थना नही करते |हम आप से केवल यह प्रार्थना करना चाहते हैं कि आपकी सरकार के ही एक न्यायालय के निर्णय के अनुसार हमारे विरुद्ध युद्ध जारी रखने का अभियोग हैं | इस स्थिति में हम युद्धबंदी हैं ,अत:इस आधार परहम आपसे मांग करते हैं कि हमारे प्रति युद्धबन्दियो -जैसा ही व्यवहार किया जाये और हमें फांसी देने के बदले गोली से उड़ादिया जाये |अब यह सिद्ध करना आप का काम हैं कि आपको उस निर्णय में विश्वास हैं जो आपकी सरकार के न्यायालय ने किया हैं |आप अपने कार्य द्वारा इस बात का प्रमाण दीजिये |हम विनयपूर्वक आप से प्रार्थनाकरते हैं कि आप अपने सेना -विभाग को आदेश दे दें कि हमें गोली से उड़ाने के लिए एक सैनिक टोली भेज दी जाये |
………भवदीय
भगतसिंह ,राजगुरु ,सुखदेव

प्रस्तुति-सुनील दत्ता, मीडियाचार्जसीट से साभार

22 मार्च 2011

विकास का राजनीतिक पहलू

- दिलीप खान
विकास परियोजनाओं से होने वाले विस्थापनों पर जब सवाल उठता है तो उसकी राजनीतिक दिशा को लेकर संसदीय राजनीतिक दल एक विचित्र पसोपेश में होते हैं. कुछ राज्यों के चुनावी प्रतिस्पर्धा में जब जातिगत समीकरण को विकास के चेहरे तले ढंक दिया गया तो यह स्थापना भी जाहिर हुई कि चुनावी रणनीति में विकास एक मजबूत हथियार है. इसलिए विकास के नाम पर अब राजनीतिक होड़ पहले से अधिक तेज होने की उम्मीद है. जातिगत गुणा-गणित पृष्ठभूमि में फलेंगे-फूलेंगे लेकिन मुख्य चेहरा के तौर पर विकास को प्रस्तुत किया जाएगा. लेकिन, समस्या यह है कि विकास के जिन तरीकों को देश में अपनाया जा रहा है और जिसे विकास बताया जा रहा है, उसके विरोध में आबादी का एक बड़ा तबका खड़ा है. उनका प्रश्न रोजगार, ज़मीन अधिग्रहण और विस्थापन जैसे मुद्दों के साथ जुड़ा है. इसलिए, संसदीय पार्टियां विकास परियोजनाओं के नाम पर विस्थापित होने वाले समूहों को मतदान पेटी के भीतर लाने के लिए विकास के लोकप्रिय प्रतिमानों का सहारा भी नहीं ले सकतीं. परियोजनाओं के लिए ज़मीन अधिग्रहण से अधिकांश जगहों पर स्थानीय जनता में रोष व्याप्त है और उन्होंने इसे खारिज किया है. हाल-फ़िलहाल ऐसे क्षेत्रों में भी प्रदर्शन हुए हैं जो अब तक जनप्रतिरोधों को लेकर नक्शे में नहीं पहचाने जाते थे. ऐसे प्रदर्शन अब बंगाल और नर्मदा घाटी से निकलकर देश के शेष भागों में फैल रहे हैं तो सवाल वापस विकास मॉडल पर आकर टिक जाता है.
मौजूदा मॉडल के जरिए विकास हासिल करने की प्रक्रिया में बड़ी आबादी को दरकिनार किया जाना इसके चरित्र का हिस्सा है. इसलिए बड़ी कंपनियों द्वारा लगाए गए कारखानों और सेज़ों के विरोध में देश के कुछ हिस्सों में लंबे समय तक संगठित आंदोलन चले. बंगाल से टाटा को जाना पड़ा तो नियामगिरी में वेदांता ने काम पर स्थगन का आदेश पाया. यह उदार जनोन्मुखी सरकारी फ़ैसला नहीं था बल्कि यह लोगों का दबाव था. बंगाल, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ और झारखंड की स्थानीय जनता ऐसी परियोजनाओं के ख़िलाफ़ सालों से आंदोलन कर रहे हैं. लेकिन ऐसे उदाहरणों से यदि सरकार यह उम्मीद पाले कि विरोध को एक ख़ास जोन की परिघटना बनाकर उससे निपट लिया जाएगा तो विरोध की चेतना का उनका यह मापन अंततः दोषपूर्ण साबित होगा. असल में, राज्य अपनी नीतियों के जरिए ही विरोध की राजनीतिक ज़मीन तैयार कर रहा है. ’कल्याणकारी राज्य’ की संकल्पना के साथ तो राज्य जनता के बीच उपस्थित है लेकिन अधिकांश मौकों पर वह जन-आकांक्षाओं के विरुद्ध चला जाता है. जनता की इच्छाओं और राज्य की इच्छाओं के बीच जो फ़र्क़ है उसी को मिटाने के लिए जनता सड़क पर उतरती है अथवा राज्य जनता को समझाईश देता है. यह फ़ांक जितनी बड़ी होगी विरोध उतना अधिक होगा. और राज्य के कल्याणकारी होने की स्थापना भी उतनी ही अधिक दरकेगी. हाल-फ़िलहाल देश में चल रहे विरोध-प्रदर्शनों के आईने से इसे देखने पर ऐसा मालूम पड़ता है कि जनता और सरकारी नीतियों के बीच का धागा बेहद तन गया है.
अब तक ऐसा बताया जाता था कि देश के कुछ अन्य हिस्सों के साथ-साथ पूर्वी महाराष्ट्र में भी विरोध का पूरा अभियान वामपंथी अतिवादियों द्वारा संचालित है और वे अपनी राजनीतिक लाभ के लिए स्थानीय मुद्दों को इसमें जोड़ रहे हैं. इसके साथ इससे भी प्रमुखता से यह बताया जाता था कि राज्य के दूसरे हिस्सों में विकास के प्रति लोगों का रुख राज्य की नीतियों से मेल खाता है और वही लोग विरोध में खड़े हैं जो माओवादियों के भड़काने से भटक गए हैं. लेकिन अब यह स्पष्ट हो रहा है कि ज़मीन की लड़ाई का मोटा राजनीतिक विभाजन ग़लत है. पश्चिमी महाराष्ट्र के कई हिस्सों में ऐसी विकास परियोजनाओं को लेकर स्थानीय लोग सड़क पर उतरे हैं, जिनमें उनकी ज़मीने छीनने की कवायदें चालू है. ये ऐसे क्षेत्र हैं जहां माओवादियों की भूमिका होने से सरकार भी इन्कार कर रही है. जैतापुर से लेकर लवासा तक में बड़े प्रदर्शन हुए. जैतापुर के संबंध में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ने कहा कि वे अधिकतम भुगतान करने को तैयार हैं लेकिन लोग मान ही नहीं रहे. लोगों के इस मनोभाव को किन संदर्भों में देखा जाना चाहिए?
सवाल सिर्फ़ औद्योगिक विकास और औद्योगिक पिछड़ापन तक ही सीमित नहीं है बल्कि स्थानीय लोगों के लिए यह सांस्कृतिक ज़मीन को बचाने की जद्दोजेहद है. शहरी रिहाईशों के मुकाबले दूर-दराज में रहने वाली इन ग्रामीण आबादियों ने लंबे समय में अपनी एक सामाजिकता तैयार की है. सवाल इसी सामाजिकता को बचाने का है और इसलिए देश में अब विस्थापन का सवाल अधिकतम हर्जाने के पार जा रहा है. सामाजिक-सांस्कृतिक पूंजी और आर्थिक पूंजी में से राज्य द्वारा अर्थ को प्राथमिकता देने का जो आग्रह जाहिर हो रहा है, वह उन तमाम ग़रीब जनताओं के लिए जुगुप्सा पैदा करने वाला है जो सिर्फ़ सामाजिक-सांस्कृतिक पूंजी के बदौलत जीवन जी रहे हैं. राज्य द्वारा दोहरे स्तर पर ऐसे प्रयास हो रहे हैं. पहले कि ऐसी व्यवस्था को राज्य ने अपनाया जिसमें पूंजी की वैश्विक तरलता को विकास के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है. दूसरे कि इसी व्यवस्था को वास्तविक संस्कृति बताई जा रही है. इसलिए सांस्कृतिक-सामाजिक विकास के अन्य प्रश्नों को दबाया जा रहा है. विकास के नाम पर जब ज़मीन का अधिग्रहण होता है तो इसी मनोभाव के तहत लोगों से राज्य यह कहता है कि वह उसका हर्जाना देंने को तैयार है तो विस्थापित होने में लोगों को दिक्कत नहीं महसूस करनी चाहिए. इस प्रयास में समूची ऐतिहासिक बसावट के सवाल को विकास के नारों तले दबा दिया जाता है. अधिक कचोटने वाली बात यह है कि नीतिगत तौर पर कमोबेश सभी संसदीय दलों ने इस व्यवस्था को मान्यता दे रखा है.
आर्थिक विकास की नीतियों के संदर्भ में पारंपरिक तौर पर दो विरोधी राजनीतिक दलों के बीच जिस हद तक समानता है, उसे उन दलों की राजनीतिक विचारधारा से बाहर निकलकर देखने की जरूरत है. विकास अपने-आप में एक राजनीति है. इसलिए विकास योजनाओं को लेकर इन राजनीतिक दलों के बीच की फांक मिटी हुई है. इस राजनीतिक मसले को समझने के लिए नागपुर के बहुचर्चित मिहान परियोजना का उदाहरण लें. कांग्रेस सरकार द्वारा शुरू की गई इस योजना की बारीकियां समझाने के लिए महाराष्ट्र के तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी ने नागपुर के मैदान में घंटों यह बताया कि कैसे विदर्भ की उस पूरी पट्टी का मिहान के जरिए कायाकल्प हो जाएगा! इसमें विस्थापित पचास हज़ार लोग विपक्षी राजनीतिक दल के लिए सरकार को घेरने का मुद्दा नहीं बन पाया? राजनीतिक दांव-पेंच में जबकि हरेक मुद्दे पर एक-दूसरे को नीचा करने की कोशिशों में ये दल लगे रहते हैं, ऐसे में सत्तासीन दल की योजना का विपक्षी दल द्वारा गुणगान करना विकास की राजनीति की नई परतें खोलता है.
संसदीय राजनीतिक संरचना में ज़मीन-अधिग्रहण और विस्थापन को प्रमुख राजनीतिक दलों द्वारा घेराव का मुद्दा नहीं बनाया जा सकता. देश में सरकार बनाने और सरकारी नीतियों को संचालित करने से ऊपर की जो राजनीति है और जो अमूमन सतह पर नहीं दिखती, वह अधिक महत्त्वपूर्ण और शक्तिशाली है. अर्थव्यवस्था को किन उत्पादन प्रणाली के जरिए विकसित मुकाम दिया जाए, यह दीर्घकालीन राजनीतिक कार्यक्रम है. और इसे पांच-साला सरकार परिवर्तन की राजनीतिक संघर्ष को नियंत्रित करने वाली राजनीति के तौर पर देखा जाना चाहिए. उत्पादन प्रणालियों को हर पांच साल में नहीं बदला जा सकता, इसलिए उसी संरचना में अधिकतम विकास हासिल करने की होड़ राजनीतिक एजेंडा बनता है, जो प्रचलित है. विकासशील से विकसित बनने की नीति पर चलते देश ने एक ख़ास समय सीमा निर्धारित कर रखा है जहां तक पहुंचते-पहुंचते इसे विकसित हो जाना है. इस बात को भारतीय जनमानस के भीतर पैबस्त कराने के लिए भरसक प्रयत्न हुए हैं. अब कोई भी राजनीतिक दल यदि इस समय-सीमा को आगे बढ़ाने की घोषणा करेगा अथवा विकास की जो तस्वीर उसमें पेश की गई है उसके मुतल्लिक यह कहेगा कि वहां पहुंचने का दूसरा रास्ता अधिक महफ़ूज है तो वोट की गोलबंदी में वह पीछे रह जाएगा. ऐसा इसलिए होगा क्योंकि विकास की लोकप्रिय परिभाषा के तौर पर मध्यमवर्ग के सामने पिछले कुछ दशकों में जो खांका तैयार किया गया है वह गणितीय तौर पर समस्याओं का समाधान करता दिखता है. इसलिए सत्ता में आते ही प्रत्येक दल की यह कोशिश होती है कि वह विपक्षी दलों की घोषणाओं से अधिक तेज अपने को दर्शा दे. इस प्रतिस्पर्धा में विकास का मौजूदा प्रतिमान और अधिक ठोस हो जाता है.
विकास की इस एकांगी परिभाषा के उलट भी कभी-कभार तस्वीरें दिखतीं हैं. विस्थापन को राजनीतिक दलों द्वारा मुद्दा भी बनाया जाता है. लेकिन यह तब होता है जब एक बड़ा जनसमूह उस विषय पर एकमत होकर डट जाते हैं. ऐसे में कोई भी राजनीतिक दल उस क्षेत्र विशेष में जनता की आवाज़ बनने की कोशिश कर सकता है लेकिन वह इसे स्थाई एजेंडा नहीं बना सकता, क्योंकि विकास की प्रचलित परिभाषा पर उसका सैद्धांतिक तौर पर समर्थन है. यह एक मजबूरी के तहत उठाया गया कदम भर होता है.
इस विषय पर विभिन्न दलों के बीच ठोस समानता साफ़-साफ़ जाहिर है. देश में ऐसे मुद्दों के संदर्भ में की गई राजनीतिक बयानबाजी आड़ी-तिरछी लकीरें खींचती मालूम पड़ती हैं. लवासा को लेकर जिस समय पर्यावरण मंत्रालय ने काम स्थगित करने की बात कही थी तो कुछ राजनेताओं का कहना था कि यह मेधा पाटेकर के दबाव में आकर लिया गया फ़ैसला है. जैतापुर के संबंध में नारायण राणे ने यह कहा कि यहां बाहरी लोगों द्वारा प्रदर्शन हो रहे हैं, स्थानीय लोग तो चुप बैठे हैं. शुरुआती दौर में जब नियामगिरी में स्थानीय लोग आंदोलन कर रहे थे तो उसे नज़रअंदाज किया जा रहा था. सिंगूर और लालगढ़ में जब बड़े आंदोलन हुए तो यह कहा गया कि यह अतिवादी शक्तियों के बड़े राजनीतिक कार्यक्रम को साधने का जरिया है. ऐसे में सही और आदर्श मानदंडों पर आधारित विरोध कैसे हों यह जनता को बताया जाना चाहिए! राजनेता इसका भरोसा दे कि वे अमुक रास्ते पर होने वाले विरोध को संजीदगी से लेंगे.
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15 मार्च 2011

जानिब: हास्य के प्रतिमान गढ़ता चार्ली चैप्लिन

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11 मार्च 2011

क्रिकेट का भीतरी खेल


-दिलीप खान
क्रिकेट विश्वकप जैसे-जैसे अगले चरण की ओर बढ़ रहा है नतीजों को लेकर तस्वीरें साफ होती जा रही हैं. कुछेक अप्रत्यासित जीतों के बावजूद कमजोर मानी जाने वाली टीमें नीचे की ओर खिसकती जा रही है. इस स्थिति को सामने रखते हुए विश्वकप के तकरीबन शुरुआत में ही आईसीसी ने यह मंशा जाहिर की कि छोटी टीमों के लिए मौजूदा क्रिकेट विश्वकप आख़िरी साबित हो सकता है. यदि आईसीसी अपने फ़ैसले पर कायम रहा तो चौथे साल जब विश्वकप आयोजित किया जाएगा तो उसमें ग़ैर-टैस्ट टीमों की भागीदारी नहीं होगी. असल सवाल यहीं पैदा होता है. विश्वकप में रुचि का औंचक खयाल इस समय आईसीसी के मन में क्यों आया? क्रिकेट में जिस तरह के ढ़ांचागत परिवर्तन हुए हैं और खेल की संरचना को जिस तरह व्यावसायिक हितों ने हाल में प्रतिस्थापित किया है उनके मद्देनज़र यह सवाल भी उठता है कि इस फ़ैसले का स्रोत क्या है और खेलों के लिए यह कैसी ज़मीन तैयार कर रहा है? जब दुनिया के अधिकांश देशों में क्रिकेट को प्रसारित करने के उद्देश्य से आईसीसी ने अपने कुछ बड़े टूर्नामेंटों में अमेरिका और बरमूडा जैसे देशों को हिस्सेदारी दी तो उसका तर्क था कि जल्द ही ये देश बेहतर क्रिकेट खेलना सीख जाएंगे और क्रिकेट के विकास के लिए दुनिया में नए क्षेत्र विकसित होंगे. ऐसा कुछ नहीं हुआ या यों कहें कि आईसीसी ने ऐसा कुछ नहीं किया.
पिछले दस सालों में क्रिकेट की संरचना में जो बदलाव आए हैं उनकी प्रकृति पर गौर किया जाना चाहिए. इस दौरान इसमें बेहिसाब पैसा आया है, इसकी गति तेज हुई है, आईसीसी के भीतर भारत की स्थिति और मजबूत हुई है, 20-20 ओवरों वाले मैच होने लगे हैं और काउंटी क्रिकेट को आईपीएल ने प्रतिस्थापित किया है. लेकिन जो सबसे महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं वे ये कि एकदिवसीय विश्वकप के रोमांच को आईपीएल तथा 20-20 विश्वकप ने लील लिया. मनोरंजन प्रमुख हो गया और मैदान में चीयर लीडर्स आ गईं. इस जमीन से उठने वाले फैसले को इसी रूप में तब्दील होना था. मास मीडिया के युग में मनोरंजन के तरीके का चुनाव करना दर्शकों की व्यक्तिगत रुचि का मसला नहीं है बल्कि इसे तीव्र प्रचार के जरिए दर्शकों के मन में स्थापित किया जाता है. टीवी पह जब यह कहा जाता है कि आईपीएल के दौरान भारत बंद रहेगा तो दर्शकों के बीच उत्सुकता और घृणा का मिला-जुला असर होता है. इस तीव्र प्रचार और आक्रामकता ने एकदिवसीय विश्वकप को परदे के पीछे का विषय बना दिया. दर्शकों के लिए वास्तविक टूर्नामेंट यह रह ही नहीं गया. जब आईसीसी यह तर्क देती है कि तटस्थ मैदान पर कीनिया और जिंबाबवे के मैच के लिए दर्शक नहीं जुट रहे तो उन्हें होने वाले ढ़ांचागत परिवर्तनों की ओर भी ध्यान दिलाना चाहिए कि क्यों दक्षिण अफ्रीका के मैदानों पर राजस्थान और दिल्ली के मैचों के लिए स्टेडियम भर जाता था. इसलिए, इस दलील में जितना बताया जा रहा है उससे कहीं अधिक छुपाया जा रहा है.
80 के दशक में जब कैरी पैकर ने वर्ल्ड सीरीज की शुरुआत की और वहीं से फिर रात-दिन के मुकाबले की शुरुआत हुई तो आईसीसी ने शुरुआती हिचकिचाहट के बाद इस परिवर्तित स्वरूप से अधिकाधिक देशों को जोड़ने की योजना बनाई. इस ढांचे को अपनाने के पीछे भी प्रमुख कारण यही था कि उस दौर में वह संरचना अधिक पैसा पीटने का जरिया साबित हुई. एक टूर्नामेंट के खात्मे के बाद जब यह बताया जाता है कि इसमें इतने करोड़ रुपए का मुनाफा हुआ या फिर किसी टीम ने इतने करोड़ रुपए महंगी ट्रॉफी जीती तो इन आयोजनों का अर्थशास्त्र खुल कर सामने आ जाता है. कोई कंपनी क्यों अरबों रुपए फंसाकर खरीदे गए मैच के प्रसारण अधिकार में कीनिया और नीदरलैंड्स के मैच दिखाना पसंद करेगी? सवाल स्टेडियम में दर्शक जुटने से अधिक महत्त्वपूर्ण टीवी पर दर्शक जुटाने का है. जब कोई कंपनी 20-20 दिखाकर कम समय में विश्वकप से अधिक कमा सकती है तो उसकी स्वाभाविक इच्छा ऐसे टूर्नामेंटों को ही प्रोत्साहित करने में होगी. आईसीसी के भीतर भारत के बढ़ते प्रभाव के बारे में जब बात की जाती है तो क्या यह खेल के स्तर में आए सुधारों के मुतल्लिक की जाती है अथवा बीसीसीआई के धनकुबेर होने की वजह से? दुनिया भर में तमाम बड़ी खेल संस्थों का व्यवहार व्यापारिक कंपनी की तरह होता जा रहा है. पूंजीवाद अपने भीतर ऐसी संरचनाओं को समेटता है जो बहस के प्रचलित दायरे से बाहर होती है. इन खेल संस्थाओं के भीतर से राष्ट्र-राज्य तक को चुनौती देने के वाकये देखे गए हैं. बीसीसीआई के एक वरिष्ठ अधिकारी ने जब यह कहा था कि यहां के क्रिकेटर भारत के लिए नहीं बल्कि बीसीसीआई के लिए खेलते हैं तो इसे दुःसाहस का पराकाष्ठा बताया गया था जबकि यह दुःसाहस से अधिक इन संस्थाओं की राजनीति और अर्थशास्त्र को रेखांकित करता है. मौजूदा विश्वकप में जब न्यूजीलैंड के हाथों कीनिया को दस विकेट की हार मिली तो उसके कप्तान जिमी कमांडे ने कहा कि उन्हें टैस्ट टीमों से भिड़ने का मौका दो साल में एक बार मिलता है. अगर उन्हें इन देशों से लगातार खेलने का मौका मिले तो टीम में ज़्यादा सुधार होगा. आईसीसी को कीनिया के सुझाव को मानने का क्या गरज है!
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