14 अक्टूबर 2010

बर्मा में आम चुनावः कसौटी पर लोकतंत्र

अवनीश

आगामी 7 नवंबर को बर्मा में आम चुनाव होने हैं। बर्मा में शंाति की स्थापना और विकास को गति देने के लिए सैन्य परिषद -स्टेट पीस एण्ड डेवलपमेंट काउंसिल द्वारा घोषित सात चरणों के रोडमैप का यह पांचवा चरण है। यदि यह चुनाव सैन्य परिषद की अपेक्षाओं के अनुरूप संपन्न हो जाते हैं तो रोड मैप के छठेें और सातवें चरणों के तहत क्रमशः चुने गए जनप्रतिनिधियों की सभा बुलाई जाएगी और आधुनिक व लोकतांत्रिक राष्ट्र के निर्माण की रूपरेखा तैयार की जाएगी। पीपुल्स असेंबली के दोनों सदनंों- हाउस आफ नेशनलटीज और हाउस आफ रिप्रेजेंटेटिव्स के लिए हो रहे आम चुनाव नए संविधान के अनुसार हो रहे हैं। इस संविधान का अनुमोदन बर्मा की जनता ने 2008 में कराए गए एक जनमत संग्रह मंे किया था। 
बर्मा में बहुदलीय आम चुनाव दो दशकों बाद हो रहे हैं। गौरतलब है कि दो दशक पूर्व बर्मा में जनरल ने विन की बर्मा सोशलिस्ट प्रोग्राम पार्टी का सत्ता पर कब्जा था। यह पार्टी बर्मा में बर्मीज शैली के समाजवादी राज्य की स्थापना का इरादा रखती थी। यह समाजवाद दरअसल कम्यूनिज्म और बौद्ध धर्म के मिश्रण का स्थानीय विचार था। इस लक्ष्य को पाने के लिए ने विन ने देश के भीतर एक दलीय शासन प्रणाली लागू कर रखी थी। लेकिन 1988 में एकदलीय शासन प्रणाली के विरोध में हुए जबर्दस्त छात्र आंदोलन (8888 विद्रोह) के कारण बीएसपीपी का पतन हो गया। इसके तुरंत बाद सेना ने यह कहते हुए सत्ता हथिया ली कि वे बर्मा में बहुदलीय आम चुनाव कराएंगे। सैन्य परिषद- स्टेट लॉ एण्ड ऑर्डर रिस्टोरेशन काउंसिल ने मई 1989 में बर्मा की पीपुल्स असेंबली के आम चुनावों के लिए आदेश भी दिया। इन चुनावों के लिए 27 मई 1990 की तारीख तय की गई।
बर्मा दशकों से राजनीतिक अशांति और सैन्य तानाशाही का शिकार रहा है। 1989 में हुई चुनावों की घोषणा के पूर्व तक बर्मा में केवल तीन बार 1951-52, 1956, और 1960 में बहुदलीय चुनाव हुए थे। 8888 विद्रोह के बाद हुए 1990 के चुनावों में बर्मा सोशलिस्ट प्रोग्राम पार्टी की नई अवतार नेशनल यूनिटि पार्टी और चंद दिनांे पहले गठित हुई नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी समेत 16 दलों ने भाग लिया। अंतर्राष्ट्रीय पर्यवेक्षकों के अनुसार चुनाव बिना किसी धांधली के साफ सुथरे ढंग से निपट गए थे। चुनाव मंें आधुनिक बर्मीज आर्मी के निर्माता आंग सान की बेटी आंग सान सू की की पार्टी नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी को जबर्दस्त सफलता मिली। एनएलडी 59 प्रतिशत मतों के साथ पीपुल्स असेंबली की 492 सीटों मंे से 392 सीटें जीतने में सफल रही। एसएलओआरसी की चहेती नेशनल यूनिटि पार्टी को इन चुनावों में मा़त्र 10 सीटें मिली थी। नेशनल यूनिटि पार्टी की विफलता से चकित और आहत बर्मा की सैन्य परिषद ने इस चुनाव परिणाम को मानने से इनकार कर दिया। नतीजतन पीपुल्स असेंबली का गठन नहीं किया जा सका। हार की प्रतिक्रिया में सैन्य परिषद ने एनएलडी समेत सभी पार्टिर्यों को प्रतिबंधित कर दिया और आंग सान सू की को उनके घर में ही नजरबंद कर दिया गया।
दो महीने पूर्व जब आम चुनावों की घोषणा हुई तो अंतराष्ट्रीय स्तर पर इसे संशय और संभावना, दोनो ही रूपों में देखा गया। हालांकि चीन और आसियान के कुछ मुल्कों ने चुनावों को लोकतांत्रिक सुधारों की प्रक्रिया में सैन्य परिषद द्वारा उठाया गया एक सकारात्मक कदम माना। चीन ने अंतराष्ट्रीय समुदाय से सैन्य परिषद के रचनात्मक सहयोग की अपील भी की। लेकिन अमरीका और यूरोपीय यूनियन ने इन चुनावों के विश्वसनीय होने का भारोसा नहीं रही है। उन्हे यह अशंका भी रही है कि सेना चुनावों में विरोधी पार्टियों के शामिल होने से रोक सकती है। अमरीकी विदेशी मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने कहा था कि बर्मा की सैन्य परिषद स्वतंत्र और खुली चुनावी प्रक्रिया में बाधा पहुंचा रही है। सैन्य परिषद का यही रवैया रहा तो बर्मा के आम चुनाव वैधानिक नहीं होंगे और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के लिए महत्वहीन होंगे। लोकतांत्रिक चुनावों के मसले पर भारत ने तटस्थता भरा कूटनीतिक रवैया अपनाया। सैन्य परिषद प्रमुख जनरल थान श्वे की यात्रा के दौरान भारत ने बर्मा में लोकतंत्र की बहाली के मुद्दे पर चुप्पी ओढ़ रखी थी। हालांकि राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि यह चुनाव सैन्य परिषद के लिए लिटमस टेस्ट की तरह होंगे। संभवतः आम चुनाव के बाद सैन्य परिषद के समक्ष ताकतवर विपक्ष खड़ा हो सके।
आगामी आम चुनावों की नामांकन प्रक्रिया गत् 30 अगस्त को समाप्त हो गई। नामांकन पूरा होने के बाद उभर रहे परिदृश्य से ऐसा लगने लगा है कि अमरीका और यूरोप द्वारा जहिर की गई चिंता गलत नहीं थी! लोकतांत्रिक सुधारों के नाम पर कराए जा रहे ये चुनाव सैन्य परिषद का स्वांग लग रहे हैं। कठोर नियमों के जरिए राजनीतिक दलों की भागीदारी को बाधित किया गया और नए संविधान के जरिए पीपुल्स असेंबली का ढंाचा सैन्य परिषद के अनुकूल बना दिया गया। देखने मंे यह भी आया है कि सेना के ही अधिकारी वर्दी उतार कर चुनावांें में भाग ले रहे हैं। नामांकन के पहले सेना में उच्च स्तर पर दो बार फेरबदल हो चुके हैं। प्रधान मंत्री थीन सीन और सेना में तीसरे नंबर के जनरल थुरा श्वे मान समेत कई आला अफसर सेना छोड़कर सैन्य परिषद समर्थित राजनीतिक दलों में शामिल हो चुके हैं। नए संविधान के अनुसार पीपुल्स असेंबली ऊपरी सदन हाउस आफ नेशनलटीज के 224 सदस्यों में से 56 सदस्यों को सैन्य प्रमुख को नामित करना है। इसी प्रकार निचले सदन हाउस आफ रिप्रेजेंटेटिव्स 440 सदस्यों में से 110 सदस्यों का मनोनयन भी सैन्य प्रमुख को ही करना है। इन चुनावों में सेना ने अपने कई प्रॉक्सी पार्टिर्यो कों भी खड़ा कर रखा है, जिनमें यूनियन सॉलिडैरिटी एण्ड डेवलपमंेट पार्टी और नेशनल यूनिटि पार्टी प्रमुख हैं। चुनाव के बाद वाह््य और आंतरिक सुरक्षा तथा न्याय से जुड़े मंत्रालयों को भी सैन्य परिषद अपने ही पास रखने वाली है। एक तिहाई सीटों के आरक्षण, सैन्य अधिकारियांे की चुनावों में भागीदारी और प्रॉक्सी पार्टियों की उपस्थिति के बाद इन चुनावों के जरिए बर्मा में लोकतंत्र स्थापना की बात बेमानी ही लगती है। लोकतंत्र में प्राप्त होने वाले जिस न्यूनतम स्थान के महत्तम उपयोग की बात अक्सर की जाती है, उसकी उम्मीद भी यहां नहीं है। दरअसल इन चुनावों के जरिए एक ऐसे संसद के गठन की तैयारी हो रही है, जिसमें बहुमत सेना का होगा।
बर्मा में हो रहे आम चुनाव में लागू कानूनों को अमरीका और फिलिपिन्स ने मजाक करार दिया था। इन नियमों की थोड़ी चर्चा करते हैं। मुल्क के नए संविधान के अनुच्छेद 59एफ के अनुसार ऐसे व्यक्ति आम चुनावों में हिस्सा नहीं ले सकते, जिनका विवाह किसी विदेशी नागरिक से हुआ हो। मौजूदा संविधान राजनीतिक कैदियों को चुनाव लड़ने व वोट देने की इजाजत भी नहीें देता। चूंकि आंग सान सू की ने अमरीकी नागरिक डा माइकल ऐरिस से विवाह किया था और दो दशकों के सैन्य शासन के दौरान अधितर समय वह नजरबंद ही रही थी। लिहाजा माना जा रहा था कि ये नियम आंग सान सू की को चुनावों में भाग लेने से रोकने के लिए बनाए गए हैं। लेकिन इन नियमों के कारण बर्मा के जेलो में बंद 2000 राजनीतिक कार्यकर्ताओं चुनाव में भाग लेने से वंचित कर दिया गया। आम चुनावों में भाग लेने के लिए पंजीकरण के नियमों को भी बहुत सख्त कर दिया गया। चुनाव आयोग ने केवल ऐसे ही दलों को चुनाव लड़ने की अनुमति दी, जिनकी सदस्य संख्या कम से कम 1000 रही हो। उम्मीदवारों के नामांकन की राशि भी 500 डॉलर तय की गई थी । बर्मा में यह राशि साधारण आदमी के कई महीने की आमदनी के बराबर है। इसलिए चुनाव में शामिल कई पार्टियां बड़ी संख्या में अपने उम्मीदवारों को खड़ा नही कर पाईं। सैन्य परिषद समर्थित यूएसडीपी और एनयूपी ने जहां क्रमशः 1000 और 900 उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है, वहीं एनएलडी से अलग हुई नेशनल डेमोक्रेटिक फोर्स 500 उम्मीदवारों को ही मैदान में उतार सकी है। लेकिन एक ऐसा नियम जो वाकई में इन चुनाव को मजाक करार देता है वह केन्द्रीय चुनाव आयोग के गठन से संबधित है। दअसल 6 महीने पहले चुनाव आयोग से जुड़े नियमों की घोषणा हुई थी। इन नियमों के मुताबिक 17 सदस्यीय चुनाव आयोग के सभी सदस्यों की नियुक्ति सैन्य परिषद द्वारा की जानी है। इन सदस्यों का सैन्य परिषद के प्रति वफादार होना बहुत जरूरी है। और तो और चुनावो के बाद आने वाले परिणामों पर अंतिम निर्णय आयोग नहीं बल्कि सैन्य परिषद ही देगी। इन तथ्यों का लब्बोलुआब यह कि सैन्य परिषद ने चुनावों की देख-रेख के लिए एक कठपुतली चुनाव आयोग का गठन किया है, जिसका काम सैन्य परिषद के निर्णयों को अमली जामा पहनाने भर का है। आगमी चुनावों के लिए नामांकन कर चुके उम्मीदवारों की वैधता का फैसला चुनाव आयोग को ही करना है। कई पर्यवेक्षकों के अनुसार चुनाव लड़ने की अनुमति ऐसे उम्मीदवारों को ही दी जानी है, जो सैन्य परिषद के लिए किसी भी प्रकार से खतरनाक नहीं हो। चुनाव आयोग का जैसा ढांचा है, उसके बाद यह आशंका गलत भी नहीं लगती। इन चुनावों को पारदर्शी और समावेशी बनाने के लिए बेहतर होता की चुनाव आयोग मंें विपक्षी पार्टियों और जनजातीय अल्पसंख्यकों द्वारा नामित अथवा चयनित सदस्यों को भी शामिल किया गया होता, लेकिन एक हठी सैन्यतं़त्र के आगे अंतर्राष्ट्रीय लोकतांत्रिक शक्तियां भी यह मांग नहीं रख सकीं।
अंाग सान सू की दो दशकों से बर्मा में लोकतां़ित्रक सुधारों की मांग कर रहे आंदोलनकारियों, मानवाधिकार संगठनों और वैश्विक शक्तियों की धुरी रही हैं। लेकिन चंद दिनो बाद होने वाले आम चुनावों में न आंग सान सू की हांेगी और ना उनकी पार्टी नेशनल लीग फॅार डेमोक्रेसी। बर्मा की सैन्य परिषद ने चुनावों का बायकाट कर रही आंग सान सू की पार्टी नेशनल लीग फॅार डेमोक्रेसी को भंग कर दिया है। नवंबर में होने वाले चुनावों के लिए पंजीयन ने करा पाने के कारण एनएलडी के साथ ही 9 अन्य पार्टियांे को भी भंग कर दिया गया है। ऐसा माना जा रहा है कि एनएलडी और आंग सान सू की के चुनावों में न होने से इन चुनावों की वैधता को गहरा आघात लगेगा। यह आशंका लाजिमि भी है। दरअसल बर्मा के वर्तमान संविधान और चुनावों में भाग लेने के लिए बनाए गए कानून के बाद यह तो तय है कि सेना पीपुल्स असंेबली में मजबूत विपक्ष अथवा विरोधी पार्टियों की सरकार नहीं बनने देना चाहती है। यदि इन चुनावो को बाद विरोधाी पार्टियों की सरकार बनती भी है तो भी वास्तविक सत्ता सेना के ही हाथ में रहने वाली है। ऐसी किसी भी सरकार को आपतकाल का हवाला देकर बर्खास्त करने का अधिकार भी सैन्य परिषद के पास होगा। आशय यह कि सैन्य परिषद बर्मा में एक नियंत्रित और आनुशासित लोकतंत्र स्थापित करना चाहती है, जिसे संभालने की जिम्मेदारी एक ऋढ़विहीन सरकार के कंधों पर होगी। इन चुनावों में आंग सान सू की का विरोध भी इसी मुद्दे पर रहा है। सू की और उनकी पार्टी की शुरू से ही मांग करती रही है नवंबर में होने वाले आम चुनावोें को अंतराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों की उपस्थिति में कराया जाय; चुनावों में भाग लेने के लिए जेलों मंे बंद राजनीतिक कार्यकर्ताओं को रिहा किया जाय और संविधान में परिवर्तन कर सैना के अधिकारों को कम किया जाय। एनएलडी राजनीतिक दलों के पंजीयन के कठोर नियमों का विरोध भी करती रही। लेकिन सेना प्रमुख ने राजनीतिक कैदियों के रिहाई का आश्वासन देने के आलावा आंग सान सू की किसी भी मांग को तवज्जो नहीं दी। राजनीतिक कार्यकर्ताओं के रिहाई के मामले में भी सैन्य प्रमुख ने केवल आश्वासन ही दिया है, इनकी रिहाई की कोई समयसीमा नहीं तय की गई है। यही वजह रही कि नेशनल लीग फार डेमोक्रेसी ने इन चुनावो के बहिष्कार का निर्णय लिया था। एनएलडी द्वारा चुनावों का बहिष्कार किए जाने के कारण इनके विश्वसनीय न होने की आशंकाएं पुख्ता हुई है। हांलाकि कई पर्यवेक्षकों का मानना है कि एनएलडी के इस कदम से बर्मा में लोकतंत्र की स्थापना के प्रयासों को धक्का लगा है। चुनावों का बहिष्कार करके दरअसल एनएलडी ने सैन्य परिषद के काम को और हल्का कर दिया हैः अब वह नई असेंबली को मनचाहे ढंग से संचालित कर सकेगी। इस आशंका का खमियाजा एनएलडी को भी भुगतना पड़ा। चुनावों के बहिष्कार को सैन्य परिषद के हित में मानते हुए एनएलडी के एक धड़े ने अलग होकर नई पार्टी ‘नेशनल डेमोक्रेटिक फोर्स’ बना ली। एनडीएफ बनाने वालों में एनएलडी के पुराने नेता टिन ओ भी शामिल है, जिन्हे सैन्य परिषद ने अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की राजनीतिक कार्यकर्ताओं को रिहा किए जाने की अपील के एवज में रिहा किया था। एनडीएफ का मानना है कि एनएलडी चुनावों का बहिष्कार कर सैन्य परिषद का सहयोग कर रही है। सैन्य परिषद समर्थित दलों के हारने और विपक्षी पार्टियों के असेंबली में ताकतवर उपस्थिति की स्थिति में यह विचार सही भी हो सकता है। लेकिन पिछले दो दशकों में बर्मा केे जैसे अनुभव रहे हैं और वर्तमान चुनावों के कानून व संविधान जिस प्रकार सेना के पक्ष में झुके हुए हैं, उन्हे देखते हुए एनडीएफ की आशंका निराधार लगती है। दरअसल इन चुनावों को मौजूदा कानूनों और संविधान के तहत सहमति दे देना सैन्य तंत्र के शासन को शाश्वत सहमति देने जैसे होगा।
2008 में हुए बौद्ध भिक्षुओं के विद्रोह के बर्बर दमन के बाद सैन्य परिषद पर बर्मा में लोकतांत्रिक सुधारों का भारी दबाव रहा है। दशकों की अस्थिरता और विलगाव ने बर्मा की आर्थिक हालत जर्जर कर दी है। पिछले वर्ष आए तुफान नरगिस ने इन मुश्किलों को और बढ़ा दिया। यही कारण रहे हैं कि सैन्य परिषद को बर्मा में लोकतांत्रिक सुधारों के लिए चुनावों की घोषणा करनी पड़ी है। लेकिन सैन्य परिषद इस मौके का इस्तेमाल कपट के रूप में कर रहा है। दरअसल यह एक ऐसा सैन्य तंत्र है, जो अंतराष्ट्रीय शक्तियों के अंतर्विरोधों का बखूबी इस्तेमाल करने में सक्षम है। इसके समक्ष संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की मून भी अपनी बेबसी जाहिर कर चुके है। पिछले वर्ष यांगून में बान की मून को आंग सान सू की से मिलेने से रोक दिए जाने की यादें अभी भी हमारे जहन में ताजा है। अमरीका, यूरोपीय यूनियन और आसियान के कुछ मुल्क बर्मा में लोकतंत्र की स्थापना के लिए प्रयासरत हैं, जब तक चीन को बर्मा से गैस और तेल मिल रहा है, इनकी कवायदें सफल नहीं रहने वाली है। चीन बर्मा पर लोकतांत्रिक सुधारों के लिए दबाव बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है, लेकिन उसकी मित्रता वहां की आंदेालनकारी शक्तियों के साथ कम और सैन्य शासकों के साथ अधिक है। बर्मा पर दबाव बनाने के लिए भारत की भूमिका भी महत्वपूर्ण मानी जाती रही है, लेकिन चीन के बर्मा में व्यापारिक विस्तार के बाद भारत भी मोल-भाव वाली स्थिति में आ गया है। ऐसे हालात में बर्मा एक ऐसे मुल्क के रूप में दिखता है जो पड़ोसी मुल्कों के स्वार्थ और अंातराष्ट्रीय शक्तियों के अंतर्विरोध के बीच फंस गया है। इसलिए फिलहाल बर्मा में लोकतंत्र के लिए लड रही एनएलडी जैसी ताकतें ही बचती हैं, जिनसे परिवर्तन की उम्मीद की जा सकती है। इसलिए अवश्यकता है कि उनका समर्थन किया जाय।

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